हिंदी के महत्वपूर्ण कवि अरुण कमल की एक कविता है - 'इच्छा' । पूर्वप्रकाशित है। उन पर केन्द्रित पूर्वग्रह के आवरण पर, कविता खंड में तथा एक आलेख में यानी एक ही अंक में तीन बार इसे जगह दी गयी है। पूरी कविता है
मै जब उठूं तो भादो हो
पूरा चंद्रमा उगा हो ताड़ के फल सा
गंगा भरी हो धरती के बराबर
खेत धान से धधाए
और हवा में तीज त्यौहार की गमक
इतना भरा हो संसार
कि जब मैं उठूं तो चींटी भर जगह भी
खाली न हो
छोटी-सी, सहज संप्रेषित होने वाली इस कविता में कवि की छह इच्छाएं हैं।
पहली, जब वह सोकर उठे तो भादो का महीना हो , दूसरी आसमान में पूरा चांद खिला हो यानी पूर्णिमा की रात हो और आसमान में बादल नहीं हो। यह दोनों इच्छाएं तभी पूरी हो सकती हैं जब कवि सावन की पूर्णिमा को सोए और भादो के पहले दिन सूर्योदय से पहले या कहें ब्रह्ममुहूर्त में जग जाए। न बारिश हो रही हो, न बादल उमड़-घुमड़ रहे हों।
ऐसी स्थिति में कवि की तीसरी इच्छा - खेत धान से धधाए - कैसे पूरी होगी और खेती से जुड़ा किसान तो बेमौत मर जाएगा । नदियां भी तभी भरेंगी जब बारिश हो और कवि को बरसात के मौसम में निरभ्र आसमान चाहिए। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि कवि चांद को ताड़ के फल जैसा देखना चाहता है। भादो में पकने वाले ताड़ के फल से चांद की तुलना उस जीवन से जोड़ती है जो अलक्षित है। ताड़ का फल चांद की तरह गोलाकार होता है पूरी तरह गोल नहीं, सतह पर खुरदुरापन और रंग मटमैला। अंदर से पहले रंग का एक मीठा द्रव निकलता है जिसका सेवन बहुत कम किया जाता है। यह प्रायः पेड़ के नीचे बिखरा रहता है। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि चांद की तरह ताड़ का भी एक कृष्ण पक्ष है। लोग इस मौसम में ताड़ से एक दूरी बनाए रहते हैं क्योंकि ऊंचाई से गिरता हुआ यह फल अपनी गतिज उर्जा से गंभीर चोट पहुंचा देता है। पांच-छह किलो के इस फल की चोट किसी गोले से कम नहीं होती। पूर्णिमा के चांद का सौंदर्य निहारने की इच्छा नैसर्गिक है लेकिन अमावस्या का स्याह अंधेरा भी एक ऐसा सच है जिसे विस्तृत नहीं किया जा सकता।
कवि की चौथी इच्छा है - गंगा भरी हो धरती के बराबर। प्रश्न उठता है क्या गंगा धरती पर नहीं है? भरे तो केवल गंगा क्यों? यमुना, कावेरी, गोदावरी, नर्मदा आदि अन्य छोटी-बड़ी नदियां क्यों नही? धरती केवल गंगा के प्रवाह क्षेत्र तक सीमित नहीं है और अन्य नदियों में भी जल जरूरी है। उसके प्रवाह क्षेत्र में भी जीवन है। संभव है, इस पंक्ति में कवि का अपना परिवेश अनायास आ गया है क्योंकि कवि गंगा क्षेत्र का वासी है और उसके अवचेतन में यह नदी रची-बसी हो। कविता में कवि का समय, समाज, और संस्कार चाहेअपचाहै प्रतिबिंबित होता ही हैं। लेकिन इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि नदियों का जल कभी भी भूमि (कवि के शब्दों में धरती) के बराबर नहीं होता क्योंकि इससे जल-प्रलय का खतरा हमेशा बना रहेगा। नदियां हमेशा थोड़ा नीचे बहा करती हैं। फिर वह भूमि (धरती) कहां की हो गंगा का प्रवाह देवप्रयाग से लेकर गंगासागर तक है और इस पूरे रास्ते में भूमि (धरती) की ऊंचाई हर जगह अलग-अलग है तो कवि गंगा किस ऊंचाई पर प्रवाहित होते देखना चाहता है?
कवि की पांचवीं इच्छा है - हवा में हो तीज-त्यौहार की गमक। भादो में केवल दो त्यौहार मनाये जाते हैं एक कृष्ण जन्माष्टमी और दूसरा तीज। तीज की चर्चा इस पंक्ति में है। तीज संभवतः केवल बिहार में मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं अपने पति के आयुष्य के लिए चौबीस घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं, अन्न-जल ग्रहण नहीं करती, सोती भी नहीं, पूरा समय भगवान शिव की आराधना में व्यतीत करती हैं और अपने पति को दीर्घायु करने के लिए प्रार्थना करती हैं। इसके कुछ दिनों के बाद बिहार की महिलाएं एक और व्रत करती हैं जिउतिया। यह व्रत वे अपने पुत्र के दीर्घ जीवन के लिए करती हैं। इस दिन भी वो निर्जला रहती हैं। केवल एक फर्क होता है जिउतिया की रात वे सो सकती हैं। दोनों त्योहारों में महिलाएं खुद उपवास करने के बावजूद परिवार के पुरुषों के लिए तरह-तरह के पकवान बनाती हैं। पूरे पारिवारिक परिवेश में उसकी गमक बनी रहती है। लेकिन मेरी जानकारी में बिहार में ऐसा एक भी त्यौहार नहीं जिसमें पति अपने पत्नी या पुत्र अपनी मां के सुदीर्घ जीवन के लिए कोई पूजा या उपवास करता हो। ऐसे में कवि का संकेत किस ओर है? नि:संदेह अरूण कमल इस व्यवस्था को बनाए रखने का पक्षधर नहीं होंगे।
अंतिम पंक्तियों में कवि की छठी इच्छा है- इतना भरा हो संसार/कि जब मैं उठूं तो चींटी भर जगह भी/खाली न हो। पूरी धरती पर सभी जगह हवा की मौजूदगी पहले से है। जाहिर है कवि का इशारा इसकी ओर नहीं है। जीवित प्राणी या वनस्पति से भरी पृथ्वी की इच्छा है। लेकिन इतनी भरी कि चींटी भर भी जगह खाली न हो तो सोकर उठा हुआ व्यक्ति पैर कहां रखेगा, किसी प्राणी के शरीर या किसी पौधे के ऊपर? इससे तो पैरों तले कोई-न-कोई कुचला जाएगा। और, अरुण कमल इस मानसिकता के भी पैरोकार नहीं हैं। तो फिर इन इच्छाओं का मतलब क्या है?
अपने प्रिय कवि अरूण कमल को उनके भक्तों की नजर न लग जाए इसलिए मैंने यह डिठौना लगाया है।
मानवीय गुणों से परिपूर्ण जीवन के कवि अरूण कमल पर केन्द्रित पूर्वग्रह के इस अंक को पढ़ते हुए मुझे कई बार बड़ी शिद्दत से यह अहसास हुआ कि उन्हें हम कितना कम जानते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अरूण कमल की कविताओं में हमारा समय और समाज धड़कता है। वे बहुपठित हैं, मृदुभाषी और व्यवहारकुशल हैं। अपने चालीस वर्षों के संबंधों के आधार पर बिना किसी झिझक के कह सकता हूं कि उनसे किसी भी विषय पर बात की जा सकती है। संपादकीय में लिखे प्रेमशंकर शुक्त की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि वे मीठे पानी के पृथ्वी के वासी हैं तभी तो उनकी आत्मा का जल कभी खारा नहीं होता है।
इस अंक में आलेखों के अतिरिक्त अरूण कमल का एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार भी प्रकाशित है।
इसी अंक में प्रकाशित परचून में एडिनबरा की एक शाम को जिक्र करते हुए अरूण कमल ने लिखा है कि बड़े-से-बड़े कवि को लोग भूल सकते हैं अगर बार-बार याद न दिलाया जा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें