बुधवार, 30 जून 2021

यथार्थवादी कविता के सर्जक नागार्जुन / विजय केसरी

 (30 जून, जनकवि नागार्जुन की जयंती पर विशेष)




जन-जन के दिलों में राज करने वाले जन कवि नागार्जुन की कविताएं देश काल को समर्पित रही है । हिंदी यथार्थवादी कविता के सर्जक के रूप में भी उन्हें याद किया जाता है और रहेगा।

 साहित्य के गद्य - पद्य दोनों विधाओं में उन्होंने विलक्षण काम किया । घोर वामपंथी होने के बावजूद उन्होंने स्वयं को कभी भी एक विचारधारा में बांधा नहीं । विचारधारा के बदलते स्वरूपों और पैंतरों पर उन्होंने आजीवन अपनी रचनाओं के द्वारा कड़ा प्रहार किया।  राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं को उन्होंने आंखें बंद कर स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसे समझा, परखा तब लिखा । इसके बाद जो लिखा वह अमिट बन गया और लोगों के दिलों को झकझोर कर रख दिया।  व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होने की उर्जा भरी। नागार्जुन की तमाम रचनाएं सदैव समय से संवाद करती रहेंगीं।

  फंतासी और कल्पनाओं की दुनिया से अलग समाज के सच को उन्होंने उसी रूप में प्रस्तुत कर हिंदी साहित्य को प्रतिष्ठित किया और धार-  धार बना दिया।

 नागार्जुन ने साहित्य के दोनों विधाओं पर पूरी गंभीरता व समान रूप से काम किया । उनकी ज्यादातर कविताएं ही जन-जन तक पहुंचने में सफल हो पाई। इसका कदापि यह अर्थ लगाना उचित नहीं है कि नागार्जुन का गद्य किसी भी मायने में कमतर है।

 नागार्जुन जिस काव्य परंपरा के कवि है, उनके यहां छंद का विपुल वैविध्य देखने को मिलता  है।  नागार्जुन के बहुतरे गीत व कविताएं है , जो उन्हें लोकप्रियता के सिंहासन पर आरूढ़ करती है।

 वे मूलत:  मैथिली भाषी थे।  उनका रचना संसार मैथिली, हिंदी,प्राकृत, संस्कृत, बंगला आदि विविध भाषाओं में फैला हुआ है।  वे किसी एक भाषा में भी बन्ध कर रहना नहीं चाहते थे । यही उनका स्वभाव था, जिस भी भाषा में उन्होंने रचना की, उस भाषा साहित्य का गहराई से  अध्ययन भी  किया । उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से सच कहने से कभी गुरेज नहीं किया।  और न ही सत्ता की परवाह की। 

उनकी कविताओं में जो लयबद्धता, पठनीयता, खनक और सच कहने का साहस है, वह उसे श्रेष्ठता प्रदान करती है।  लिहाजा उनकी कविताएं कबीर, सूरदास, तुलसी, निराला के बाद सबसे ज्यादा पढ़ी व सराही जाती है।

 नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को बिहार के दरभंगा जिला अंतर्गत तरौनी गांव के एक सामान्य ब्राह्मण परिवार में हुआ।  इनके पिता गोकुल मिश्र एक किसान के साथ-साथ आस-पास के गांव में पुरोहित का भी कार्य करते थे।

जनकवि नागार्जुन 5 नवंबर 1998 को  87 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदा हुए । माता जी के बचपन में गुजर जाने के बाद उनका पिता जी के साथ ही गांव गांव पुरोहिती  के कारण घूमना होता रहा।  गांव गांव घूमना और अलग-अलग घरों में उनका खाना होता था । आगे चलकर यह उनके स्वभाव में रच बस गया। उन्होंने यह स्वीकार भी किया है कि " जिसे कई चूल्हों की आदत पड़ी हो, वह कैसे एक चूल्हा पर टिक सकता है ?


  विरासत में मिली गरीबी ने नागार्जुन को तालीम का वह अवसर प्रदान नहीं कर पाया, जो अन्य बच्चे को प्राप्त हुए। बचपन से ही पठन-  पाठन में रुचि रहने के कारण स्वाध्याय के बल पर उन्होंने स्वयं को ज्ञान की उस ऊंचाई तक पहुंचाया, जहां महाविद्यालय, विश्वविद्यालय की डिग्रियां  कमतर पड़ने लगी।

 यही ज्ञान प्राप्त करने की भूख उन्हें श्रीलंका पहुंचाया,  जहां उन्होंने पाली का ज्ञान प्राप्त किया और वहां के भिक्षुओं को संस्कृत का ज्ञान प्रदान किया।

  इस दरमियान उन्होंने 1930 में विवाह कर  गृहस्थी बसा जरूर लिया किंतु वे पत्नी अपराजिता के संग ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाए । यार - मित्रों के यहां आना-जाना उनका लगातार लगा रहता । वे खाने-पीने के बेहद शौकीन थे। मित्रों के यहां पहुंचते ही औपचारिक बातचीत के बाद वे रसोई विज्ञान पर भी रसधार प्रवचन करना न भूलते।

लगभग उनके सभी मित्रगण और कुटुंब भी नागार्जुन के इस स्वभाव से परिचित हो गए । इसी अनुरूप सभी मित्रगण और कुटुंब उनका स्वागत किया करते। यहां भी हुए  वे  एक जगह ज्यादा दिनों तक नहीं टिकते । उनका यह यायावरी स्वभाव जीवन के अंतिम क्षणों तक बना रहा।

    कबीर की तरह अपनी बात को पूरी साफगोई के साथ रखने के कारण आमजन के बीच में उनकी आवाज के रूप  में मौजूद रहते । एक तरफ  अमीर का और अमीर होना तो  दूसरी ओर गरीब का और गरीब बनते जाना, यह उन्हें कभी रास नहीं आया ।

उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से उसके कारणों का पता लगाया और सत्तासीनो के खिलाफ जमकर लिखा। देशभर के किसान जो देशवासियों को अन्न उपलब्ध कराते हैं । उनके बेहाल हाल पर  नजर रखते हैं और रचते हैं। उनके साथ आंदोलन करते हुए जेल भी जाते हैं।

 देश की आजादी के पूर्व उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जमकर लिखा। आजादी के बाद सत्तासीनो के बेरुखी पर भी लिखा  । "कालिदास का सच बतलाना ,"  "सात दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास"  "तीनों बंदर बापू के",  "जयप्रकाश पर पड़ी लाठियां",  "खिचड़ी विप्लव देखा हमने",  "इंदु जी इंदु जी क्या हुआ', जैसी कविताएं आज भी जन मन को छूती है।

   

 जब देश में भीषण अकाल पड़ा था। देशवासी अन्य के लिए तरस रहे थे। हजारों मौतें भूख से हो गई। सरकारी स्तर पर की गई कोशिश है सिर्फ दिखावा साबित हुआ।  अकाल पर नेताओं के बयान आते रहे।   इस पर जनकवि नागार्जुन ने लिखा कि "कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास / कई दिनों तक काली कुत्तिया सोई उनके पास/ कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त/ कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त,"  इन पंक्तियों में नागार्जुन ने भूख से पीड़ित परिवार का जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया है।  देश की आजादी के 74 बरस बीत जाने के बाद भी आज भी हर वर्ष कई लोग भूख से मरते  हैं।

      नागार्जुन की कविताएं तब से लेकर अब तक लगातार भूख से पीड़ित लोगों के लिए संघर्ष करती नजर आ रही है ।नागार्जुन जन सरोकारों के कवि के रूप में प्रतिष्ठित है।

 वे अपनी रचनाओं के माध्यम से लगातार गरीबी, भूख और कुशासन के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे । नागार्जुन का यह संघर्ष व्यवस्था के खिलाफ है।  नागार्जुन स्वयं को समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ खड़ा करते हैं, वहीं से वे उनके साथ मिलकर व्यवस्था के खिलाफ आवाज भी बुलंद करते हैं ।

 उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी आईना दिखाने में गुरेज नहीं किया। घोर वामपंथी  होने के बावजूद भी नागार्जुन  ने 1962 में चीन भारत युद्ध के समय स्वयं को "भारत मां का पुत्र" कहकर  जो कविता दर्ज किया वह अपने आप में वामपंथियों को करारा जवाब है।

 नागार्जुन का स्पष्ट मत है कि "वह कविता जिसका जनजीवन से कोई वास्ता न हो, मुझे स्वीकार नहीं।  वे चाहते थे कि "कविता जीवन में सुभाषित की तरह पेश न आए बल्कि व्यक्ति समाज और सत्ता के दोषों को भी उजागर करें"। जनकवि नागार्जुन आज हमारे बीच नहीं  हैं किंतु उनकी कविताओं का यह संघर्ष क्रम चलता रहेगा।

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