*#गांव #के #बियाह*
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पहले गाँव मे न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग।
थी तो बस सामाजिकता।
गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से चारपाई आ जाती थी,
हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही इकट्ठा हो जाता था और गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं।
औरते ही मिलकर दुलहिन तैयार कर देती थीं और हर रसम का गीत गारी वगैरह भी खुद ही गा डालती थी।
तब DJ अनिल-DJ सुनील जैसी चीज नही होती थी और न ही कोई आरकेस्ट्रा वाले फूहड़ गाने।
गांव के सभी चौधरी टाइप के लोग पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे।
हंसी ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी।
शादी ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था।
गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती।
सच कहा उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।
खाना परसने के लिए गाँव के लौंडों का गैंग ontime इज्जत सम्हाल लेते थे।
कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते जिसमे एक कॉमन गाना बजता था-मैं सेहरा बांधके आऊंगा मेरा वादा है और दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम न समझते।
दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा रहता, टैम टैम पर बार झारते रहता था कंघी से और टेम टेम पर काजर-पउडर भी पोत देता था ताकि दुलहा सुन्नर लगे।
फिर दुवरा का चार होता फिर शुरू होती पण्डित जी की महाभारत जो रातभर चलती।लड़कियां जूता चुराती और 101 में मान जाती।
फिर कोहबर होता, ये वो रसम है जिसमे दुलहा दुलहिन को अकेले में दुइ मिनट बतियाने के लिए दिया जाता लेकिन इत्ते कम टेम मा कोई क्या खाक बात कर पाता।
सबेरे खिचड़ी में जमके गारी गाई जाती और यही वो रसम है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते कि ना, हम नही खाएंगे खिचड़ी। फिर उनको मनाने कन्यापक्ष के सब जगलर टाइप के लोग आते।
अक्सर दुलहा की सेटिंग अपने चाचा या दादा से पहले ही सेट रहती थी कि बेटा हमार ही कहने पे खिचड़ी खाना इससे उनका भी अलग ही भौकाल बन जाता। औए खिचड़ी खिलाने के बाद तो वो कुछ देर के लिये अज़ीमो शान शहंशाह बनके घूमते।
बारातियों के लिए सबेरे जलेबी,नमकीन,चाय की व्यवथा होती और फिर वही लौंडो का गैंग इस काम को बखूबी अंजाम देता।
आखिर गाँव की इज्जत का सवाल होता कि कहीं कोई कसर न रह जाय।
आखिर में होती अचर धराई फिर बिदाई।
हां रात में बरातियों के मनोरंजन के लिए कोई कोई नौटंकी नाच भी लेके जाता था।
सबसे मेन बात कि जीजा औए फूफा तब भी वैसे थे, आज भी वैसे ही है।
पूरे आयोजन के दौरान भगौना जैसा मुंह फुगाके एक कोने में खड़े रहते और उनको मनाना भी लंका जीत लेने के बराबर का काम था।
खैर ये उनका हक है, मजा भी तभी आता है।
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