शनिवार, 19 जून 2021

शंकर सुल्तानपुरी की पत्नी की मौत के बाद की यादें / अखिलेश श्रीवास्तव चमन

 एक दुःखद कहानी का मार्मिक अंत        


अखिलेश  श्रीवास्तव चमन

      


                                               

     17 जून 2021 की रात 12.40 बजे श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी का प्रयागराज में निधन हो गया। बताता चलूॅं कि श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी स्वर्गीय शंकर सुल्तानपुरी नामक उस विभूति की पत्नी थीं जिसने मात्र बारह वर्ष की आयु में अपना पहला उपन्यास लिख ड़ाला था, उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बावजूद जिसने मसिजीवी के रूप में हिन्दी सेवा का व्रत ले कर कोई नौकरी स्वीकार नहीं की। स्वाभिमानी इतना कि शासन, सत्ता का कोई पद, पुरस्कार और पेंशन नहीं स्वीकार किया। बताता चलूँ कि गवर्नर विष्णु कांत शास्त्री ने सरकारी आवास और पेंशन देने की पेशकश की थी, हिंदी संस्थान ने दो लाख का पुरस्कार देना चाहा था लेकिन शंकर सुल्तानपुरी ने स्वीकार नहीं किया। अपने जीवन काल में जिसने पाॅंच सौ पुस्तकें, आकाशवाणी के लिए कई सौ नाटक तथा दूरदर्शन के लिए कई सीरियल लिखे थे। आय का एक मात्र स्रोत सिर्फ रायल्टी होने के बावजूद यह निश्चय किया था कि रायल्टी के रूप में जो भी पैसा मिलेगा उसमें से आधा में अपना गुजारा करेंगे और आधा समाज सेवा में लगा देंगे। 

      शंकर सुल्तानपुरी के साथ ईश्वर ने पहला अन्याय तो यह किया था कि मात्र छः माह की आयु में ही उनके सर से पिता का साया उठा लिया था और दूसरा अन्याय यह किया कि उन्हें निःसंतान रखा। इन पति-पत्नी के अंतिम दिनों में इनके निकट रहने के दौरान मुझे समाज और सगे-सम्बन्धियों का जो चेहरा देखने को मिला वह अत्यधिक घिनौना, ड़रावना तथा हतप्रभ कर देने वाला है। शंकर सुल्तानपुरी को मैं ने तीन बार लम्बे समय के लिए लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया उस दौरान भी कोई सगा सम्बन्धी सामने नहीं आया था। उनकी पत्नी के साथ भी वैसा ही हुआ। प्रस्तुत है एक अंश।

        शंकर सुल्तानपुरी आजीवन किराए के मकान में रहते रहे थे। उनके मरते ही मकान मालिक जिनके मकान में वे विगत बाइस वर्षों से रह रहे थे ने श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी को मकान खाली करने की नोटिस दे दी। उनके सगे-सम्बन्धियों ने तो बहुत पहले से ही किनारा कर लिया था। बात भी ठीक थी, ऐसे व्यक्ति जो कविता, कहानी लिख कर दाल-रोटी खा रहा हो और किसी प्रकार का लाभ पहॅंुचा सकने की स्थिति में न हो उससे रिश्ता रखने का भला क्या औचित्य ? 

      उधर शंकर सुल्तानपुरी की की मृत्यु के बाद श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी पति के लेखन और सपनों को पूरा करने के प्रयास में लग गयी थीं। अपनी मृत्यु के लगभग पाॅंच वर्षों पूर्व शंकर सुल्तानपुरी ने एक ट्रस्ट बनाया था। उस ट्रस्ट का सविधान बनाने से ले कर उसका रजिस्ट्रेशन कराने तक का कार्य मैंने ही किया था। उस ट्रस्ट के माध्यम से वे मेधावी गरीब और विकलांग बच्चों की आर्थिक मदद किया करते थे। श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी चाहती थी कि उस ट्रस्ट तथा शंकर सुल्तानपुरी के लिखे साहित्य को जीवित रखा जाय। दो बैंकों के खातों में तथा कुछ फिक्स डिपाजिट मिला कर उनके पास कुल लगभग चौदह लाख की पूॅंजी थी। शंकर सुल्तानपुरी जी ने मुझे बताया था कि उनके गृह नगर सुल्तानपुर में उनकी पुश्तैनी जमीन में एक उनका टुकड़ा होना चाहिए। मैंने विभागीय अधिकारियों से कह कर उस जमीन का पता लगवा लिया था। एक स्थानीय व्यक्ति उसे चार लाख में खरीदने के लिए तैयार हो गया था। लेकिन उस जमीन को बेचने से पहले ही शंकर सुल्तानपुरी का निधन हो गया था। अब श्रीमती सुल्तानपुरी की इच्छा थी कि सुल्तानपुर की उस जमीन को बेच कर तथा पास का सारा पैसा मिला कर लखनऊ शहर के किसी कोने में एक छोटा सा मकान खरीद लें। उसी मकान में ट्रस्ट का का कार्यालय बना लें और आजीवन उसी में रहती रहें। 

      श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी कहीं मकान दिलवाने के लिए मेरे पीछे पड़ी हुयी थीं जबकि मैं इस बात को टाल रहा था। मेरा सोचना था कि प्रथमतः तो इतनी कम पूॅंजी में लखनऊ शहर में कोई मकान मिलना ही मुश्किल है, और अगर कहीं किसी कोने में मिल भी जाय तो सारी जमा पूॅंजी मकान में लगा देने के बाद उनका जीवन निर्वाह कैसे होगा। मकान क्रय करने की अपनी इच्छा श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी ने कई दूसरे लागों को भी बता दी थी। यह देख कर कि बुढ़िया के पास चौदह लाख रुपए हैं और इसके आगे-पीछे कोई नहीं है, अहेरी किस्म के कई धूर्त उनके पीछे पड़ गए थे। उनको मकान, जमीन दिलाने का प्रलोभन देने लगे थे। गनीमत यह थी कि श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी अपनी हर छोटी-बड़ी बात मुझको बताती थीं और परामर्श लिया करती थीं। मैंने उनको कह रखा था कि जो कोई भी जमीन या मकान दिलाने की बात करे उससे मेरी भेंट कराइएगा। जाहिर सी बात है कि जब मैं कानून और व्यवहारिकता के लिहाज से बात करता था तो कपटी लोग समझ जाते थे कि उनकी दाल नहीं गलने वाली। और वे भाग खड़े होते थे।

      श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी मकान खरीदने की जिद पकड़े थीं। उधर मकान खाली करने के लिए मकान मालिक का दबाब बढ़ता जा रहा था। इसी बीच मार्च 2020 में श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी की छोटी बहन दिल्ली से आ पहॅंुचीं। मुझको संतोष हुआ कि चलो श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी की देखरेख करने के लिए कोई तो आया। लेकिन बहन जी के मोह-ममता का भेद जल्दी ही उजागर हो गया। श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी की बहन मुझ पर दबाव बनाने लगीं कि मै मकान खरीदवा दूॅं और उस मकान में तथा श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी के बैंक खातों में उनको उत्तराधिकारी बनवा दूॅं। सुन कर मैं हतप्रभ रह गया। उनकी बहन जी जब पीछे ही पड़ गयीं तो मैंने उनके सामने एक प्रस्ताव रखा। मैंने कहा कि इतने कम पैसों में शहर में मकान मिलना मुश्किल है। अतः आप या आपके भाई या अन्य बहनों में से कोई दस लाख रुपया अपनी तरफ से मिला दे। मैं श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी के नाम मकान खरीदवा दूॅंगा और यह व्यवस्था करवा दूॅंगा कि उनके मरने के बाद मकान पैसा लगाने वाले के नाम हो जाएगा। इस प्रस्ताव पर बहन जी बिदक गयीं। दरअसल उनकी निगाह तो श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी के पैसों पर था।

         अब किराए का मकान खाली करना अपरिहार्य हो गया था। अतः मेडिकल कालेज के निकट एक गली में किराए का एक कमरा देख कर श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी को वहाॅं शिफ्ट कर दिया गया। इतना करते-करते कोरोना का प्रकोप शुरू हो गया और देश में लाॅक डाउन की घोषणा हो गयी थी। लाॅक डाउन के कारण बहन जी दिल्ली नहीं लौट सकीं। उसी दौरान एक दिन श्रीमती कमलेश सुल्तानपुरी फिसल कर गिर गयीं और बिस्तर पर पड़ गयीं। किराए के जिस नए मकान में वह गयी थीं उसके सामने राजकुमार शुक्ला नामधारी एक व्यक्ति की बहन का घर था। अपनी बहन के घर आते-जाते शुक्ला को यह ज्ञात हुआ कि सामने के मकान में कोई बुढ़िया रह रही है जिसके पास काफी पैसा है लेकिन कोई औलाद नहीं है। शुक्ला ने मेलजोल बढ़ाना शुरू किया और यह समझाया कि वे श्रीमती सुल्तानपुरी को अपने साथ रखने को तैयार हैं। उनके परिवार में माॅं के अतिरिक्त उनकी दो सयानी बेटियाॅं हैं जो उनकी भरपूर सेवा करेंगी। श्रीमती सुल्तानपुरी उनको पाँच हजार महीना देती रहें और उनके परिवार में आराम से पड़ी रहें। श्रीमती सुल्तानपुरी की बहन जी स्वयं भी छुटकारा पा कर दिल्ली लौटना चाहती थीं। उन्होंने यह नहीं सोचा कि एक सर्वथा अनजान व्यक्ति अचानक इतना अधिक हमदर्द क्यों हो रहा है। कोरोना का प्रकोप थोड़ा कम होते ही जुलाई 20 के प्रथम सप्ताह में श्रीमती सुल्तानपुरी को उनके सारे सामान सहित शुक्ला के घर पहॅंुचा कर बहन जी दिल्ली लौट गयीं। 

       कोरोना के कारण मेरा आना-जाना नहीं हो सका था और शुक्ला के घर भेजने का निर्णय भी मुख्यतः बहन जी द्वारा लिया गया था इसलिए मुझको भी बाद में जानकारी मिली। पता चला कि शुक्ला महाशय खुद किराएदार हैं। वे मंुशी पुलिया से लगभग पाॅंच किमी. दूर एक नई बस्ती में किराए के मकान में रहते हैं और घर में ही मोमबतती तथा अगरबत्ती बना कर अपने परिवार का पेट पालते हैं। जिस कमरे में उन्होंने श्रीमती सुल्तानपुरी को रखा था उसमें हवा, पानी जाने की कोई गंुजाइश नहीं थी। सीलन युक्त उस कमरे में भरी दोपहरी में भी घटाटोप अॅंधेरा रहा करता था। स्थिति ऐसी थी कि अच्छा-खासा स्वस्थ आदमी भी वहाॅं रहे तो बीमार हो जाय। 

     श्रीमती सुल्तानपुरी को ले जाने के साथ ही शुक्ला जी अपने अभियान में जुट गए। सबसे पहले उन्होंने श्रीमती सुल्तानपुरी के बैंक खातों में नामिनी के रूप में अपना नाम जुड़वाना चाहा। श्रीमती सुल्तानपुरी ने मुझको बताया तो मैंने मना कर दिया। बावजूद इसके शुक्ला जी ने उनके सारे पासबुक, चेकबुक और फिक्स डिपाजिट की रसीदें अपने कब्जे में ले लिया। उसके बाद वे सुल्तानपुर स्थित जमीन को बिकवाने के प्रयास में लग गए। ग्राहक पहले से तैयार ही था। इस बारे में श्रीमती सुल्तानपुरी ने मुझको बताया तो तय हुआ कि क्रेता द्वारा  निर्धारित तिथि को मैं उनके साथ सुल्तानपुर जाऊॅंगा और पैसा सीधे उनके खाते में जमा करने के बाद रजिस्ट्री करवा दूॅंगा। लेकिन शुक्ला जी बगैर मुझको बताए श्रीमती सुल्तानपुरी को ले कर सुल्तानपुर गए और जमीन की रजिस्ट्री करवा आए। मेरे बार-बार यह कहने कि पैसा श्रीमती सुल्तानपुरी के बैंक खाता में लिया जाय, पूरा चार लाख रुपया नकद लिया गया जिसे शुक्ला ने अपने पास रख लिया। 

       शुक्ला के यहाॅं जाने के महीने भर बाद से ही श्रीमती सुल्तानपुरी बीमार रहने लगी थीं। मैं या मेरे जैसा कोई अन्य शुभचिंतक जब भी फोन करता शुक्ला जी श्रीमती सुल्तानपुरी के पास बैठ जाया करते थे। परिणाम यह होता था कि वह खुल कर कोई बात नहीं कर पाती थीं। उनसे मिलने जाने पर भी शुक्ला अथवा उसकी बेटियाँ उनके पास बैठी रहती थीं। वह घबड़ाती थीं कि अगर सच कह देंगी और नाराज हो कर शुक्ला भी भगा देगा तो उनको ठिकाना मिलना कठिन हो जाएगा। फिर कुछ दिनों बाद अचानक श्रीमती सुल्तानपुरी का मोबाइल फोन खराब हो गया। अब उनसे बात करने के लिए हम शुक्ला पर निर्भर हो गए। उसका मन होता तो बात कराता था वरना कह देता था कि वह सो रही हैं। 

      बहरहाल श्रीमती सुल्तानपुरी की तबियत दिनों दिन खराब होती जा रही थी। उनकी बातचीत से यह अंदाजा लग गया कि न तो उनकी ढ़ंग से देखरेख हो रही है और न ही उनको समय से भरपेट भोजन मिल रहा है। मेरे अलावे एक अन्य व्यक्ति तो पूरी ईमानदारी और गंभीरता से श्रीमती सुल्तानपुरी के लिए चिंतित थे और हर दूसरे, तीसरे दिन उनकी खोज-खबर लेते रहते थे वह हैं नोएडा निवासी श्री नरेन्द्र निर्मल जी। हम दोनों ही श्रीमती सुल्तानपुरी को ले कर चिंतित थे। हम लोगों का मत था कि स्थिति काबू से बाहर हो जाए उससे पहले श्रीमती सुल्तानपुरी को शुक्ला के यहाॅं से हटाना आवश्यक है। शंकर सुल्तानपुरी के दूर के रिश्तेदार होने के कारण निर्मल जी उनके ससुराल और मायके दोनों ही पक्षों के लोगों को जानते थे। उन्होंने बारी बारी सभी को खटखटाना शुरू किया। निर्मल जी ने  श्रीमती सुल्तानपुरी के सगे भाई जो गुरूग्राम में रहते हैं और करोड़ों की हैसियत वाले हैं,  को फोन कर के स्थिति बताई। भाई ने कहा कि वे शीघ्र ही लखनऊ जायेंगे। लेकिन भाई लखनऊ तो खैर आए ही नहीं दूसरे दिन से उन्होंने निर्मल जी का फोन उठाना भी बंद कर दिया। श्रीमती सुल्तानपुरी छः बहन थीं। उनकी दो सगी बहनें लखनऊ में ही रहती हैं। निर्मल जी ने सभी को फोन किया लेकिन कोई भी मदद के लिए सामने नहीं आया। अंततः शंकर सुल्तानपुरी जी की एक भतीजी जो इलाहाबाद में रहती है श्रीमती सुल्तानपुरी को अपने पास रखने के लिए तैयार हुयी। 

       हमें अनुमान था कि शुक्ला सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को अपने हाथ से जाने देना नहीं चाहेगा। इसलिए 12 फरवरी को हम पूरी तैयारी के साथ अचानक शुक्ला के घर पहॅंुच गए। शंकर सुल्तानपुरी की भतीजी इलाहाबाद से गाड़ी और चार लोगों को साथ ले कर आयी। उनके भतीजे राहुल तथा मैं मंुशी पुलिया से उनके साथ हो लिए। लखनऊ में रह रही श्रीमती सुल्तानपुरी की एक बहन, एक भतीजी तथा रिश्ते की एक और महिला को भी बुलवा लिया गया। वहाॅं जा कर देखा तो श्रीमती सुल्तानपुरी बिस्तर में मुर्दा की भाॅंति पड़ी थीं। यहाॅं तक कि बोलने,  हिलने-डुलने और उठ कर बैठने तक में असमर्थ थीं। 

     शुक्ला के यहाॅं जाते ही हमने कहा कि हम श्रीमती सुल्तानपुरी को उसके यहाॅं से ले जाने के लिए आए हैं। वह हक्का बक्का हो गया। उसको कुछ कहने का मौका दिए बगैर ही हम सामान समेटने लगे। वहाॅं श्रीमती सुल्तानपुरी के मायके और ससुराल दोनो पक्ष के लोग थे और दोनों ही एक दूसरे के किसी प्रकार के लांछन से बचना चाहते थे। अतः उनके सामानों की पड़ताल का जिम्मा उन्होंने मुझको सौंप दिया। सारे बक्से, अटैची और बैग आदि खॅंगाल लिए गए लेकिन श्रीमती सुल्तानपुरी के पासबुक, चेकबुक, फिक्स डिपाजिट के कागज तथा उनके गहने नहीं मिले। मैंने शुक्ला तथा उसकी दोनों बेटियों से पूछा तो उन्होंने साफ अनभिज्ञता जाहिर कर दी। कहा कि सारी चीजें संभवतः उनकी आलमारी में बंद होगा। आलमारी की चाबी भी गायब भी। न चाबी मिल रही थी न आलमारी खुल रही थी और न ही सामानों का पता चल रहा था। मैं माजरा समझ गया। मैंने शुक्ला को हड़काया और गुस्सा होते हुए आलमारी का ताला तोड़ने की बात की तो वह ढ़ीला पड़ गया। उसने स्वीकार किया कि कुछ सामान उसके पास हैं। मेरे बार-बार धमकाने पर थोड़ा-थोड़ा कर के उसने दोनों बैंकों के पास बुक, चेक बुक, स्टेट बैंक के फिक्स डिपाजिट की रसीदें तथा कुछ गहने अपने घर से ले आ कर दिया। श्रीमती सुल्तानपुरी की बहन जो वहाॅं उपस्थित थीं ने देख कर बताया कि गहने पूरे नहीं हैं। इनमें कई आइटम कम हैं। इसी प्रकार बैंक आफ बड़ौदा में जमा लगभग चार लाख के फिक्स डिपाजिट की रसीदें भी नहीं मिली। बहरहाल जितना मिल सका उसे ही बहुत मान लिया हमने। उठ सकने में भी असमर्थ श्रीमती सुल्तानपुरी को टाॅंग कर प्रथम मंजिल से उतारा गया और कार में लाद कर इलाहाबाद भेजा गया।   

       मैंने घर आ कर पासबुकों और चेकबुकों की जाॅंच की तो पता चला कि शुक्ला जी श्रीमती सुल्तानपुरी से चेकों पर हस्ताक्षर करा के पैसे निकालते रहे थे। लगभग आठ महीने अपने घर रखने के दौरान उन्होंने श्रीमती सुल्तानपुरी का आठ लाख रुपया हड़प लिया था और चार लाख के फिक्स डिपाजिट गायब कर चुके थे। श्रीमती सुल्तानपुरी कुछ बता सकने की स्थिति में नहीं थीं इसलिए गहने, कपड़े तथा अन्य कीमती वस्तुओं का कोई अनुमान नहीं लग सका। श्रीमती सुल्तानपुरी के इलाहाबाद चले जाने से शुक्ला के अलावे जिस अन्य को बहुत परेशानी हुयी वह हैं उनकी दिल्ली निवासी छोटी बहन। जब उनको पता चला कि शंकर सुल्तानपुरी की भतीजी अपनी चाची को इलाहाबाद ले गयी तो वह छटपटाने लगीं। मारे गुस्सा के उन्होंने सर पर आसमान उठा लिया कि उनको बताए बगैर वह क्यों ले गयी। मुझको तथा श्री नरेन्द्र निर्मल को फोन कर कर के उन्होंने नाक में दम कर दिया। उनका कहना था कि श्रीमती सुल्तानपुरी के गहने और पासबुक, चेकबुक वगैरह उनकी भतीजी को नहीं बल्कि उनको दे दी जाय। साथ ही हर जगह उनको नामिनी बनवा दिया जाय। यानी बहन जिंदा रहे या मरे इससे मतलब नहीं, उनको मतलब बहन के पैसों, गहनों से था। श्रीमती सुल्तानपुरी के मरने तक उनकी बहन इसी बात को दुहराती रहीं और उनके मरने के अगले दिन सवेरे ही उन्होंने यह राय लेना शुरू कर दिया कि श्रीमती सुल्तानपुरी के उत्तराधिकारी के रूप में उनका नाम किस प्रकार आ सकेगा।   

       तो यह है हमारे समाज और सगे रिश्तेदारों की हकीकत। बहरहाल हमें संतोष है कि शंकर सुल्तानपुरी की भतीजी ने श्रीमती सुल्तानपुरी की तन, मन धन से भरपूर सेवा की। श्रीमती सुल्तानपुरी पिछले एक सप्ताह से बहुत कष्ट में थीं। बोलने-चालने तथा खाने-पीने तक में असमर्थ थीं। इलाहाबाद के सारे ड़ाक्टरों ने 13 तारीख को ही जबाब दे दिया था। अतः उनका चले जाना ही ठीक था। मेरी विनम्र श्रद्वांजलि।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ प्रेरक कहानियाँ / वीरेंद्र सिंह

प्रेरक कहानी*  1 बुजुर्ग महिला और बस कंडक्टर एक बार एक गांव में जगत सिंह नाम का व्यक्ति अपने परिवार के साथ रहता था। वह अपने गांव से शहर की ओ...