कुलीन कवियों की आत्ममुग्धता/ भारतेंदु मिश्र
कविता की राजनीति पर चर्चा हो रही है।कुछ कुलीन कवि उस चर्चा को आगे बढ़ा रहे हैं।उन्हें मालूम है कि उनके सजातीय, संगोत्रीय संगोष्ठी में बुलाए जा चुके हैं। कुछ भक्त पत्रकार ,कुछ उनकी कृपा से नौकरी पाए हुए अघाए हुए कवि नुमा लोग उनकी चर्चा को चर्चित करने के लिए आतुर बैठे हैं।प्रकाशक ने बैनर देकर दरी बिछा दी है।उसे अपना धंधा चलना है।अचर्चित कम चर्चित पुस्तकें बेचनी हैं उसकी भी अपनी राजनीति है। कविता की राजनीति पर कुलीन कवि ही बोल सकते हैं।ये कुलीनता उन्होंने लगातार हिंदी की जनोन्मुख छंदोबद्ध कविताओं और ऐसे कवियों को उपेक्षित करके,उनकी लोकोन्मुख कविताओं को लतिया कर अर्जित की है। प्रकशित होने के लिए आयी ऐसी कविताओं को तब उन्होंने बहुत जतन से फाड़ कर कचरापेटी में फेंका था।उन्होंने बन्द कमरे में शपथ ली थी कि कुछ खास पत्र और पत्रिकाओं में न ये कविताएं छपेंगी और न कभी छंदोबद्ध कवियों की चर्चा होगी।और यह भी कि हिंदी के नाम से जो सम्मान और पुरस्कार सुलभ हैं उन्हें किस आधार पर मिलकर बाँट लिया जाए। ये कुलीन कवियों की सेवा से हुए लाभ पर भी विमर्श करते हैं। बड़ा कुलीन नामवरी दांव से युवा कुलीन को अपने तौर सिखाता गया।इन्होंने लोक कवियों का दम घोट दिया।लेनिन और मॉर्क्स ने ब्रज, अवधी, बुंदेली कविताओं और उनकी संवेदना पर कभी विचार नहीं किया था तो ये कैसे समझ पाते।संघियों ने राष्ट्रवाद और धार्मिक हेरा फेरी के अलावा मनुष्य को देखा ही नहीं।विचार विमर्श तो बहाने हैं।कविता के इन कुलीन कारीगरों ने जनता के सामने कई परदे लगा दिए। विद्यार्थियों के सामने झूठ मूठ के तर्कों से स्वयं को सबसे बड़ा जनवादी सबसे बड़ा वाला प्रगतिशील साबित करने में कामयाब हुए। घटिया कवियों की घटिया कविताएं पाठ्यक्रमों में घुसा दीं।मार्क्सवादी कुलीनता का संबंध सांध्य संगोष्ठियों के बाद होने वाली तदुपरांत सुरा गोष्ठी में पर्यवसित होकर फलदायी होता है। इसी रास्ते पर चलकर सिद्ध प्रसिद्द कवि से कविराज बना जा सकता है।पत्रिकाओं में अपने ऊपर विमर्श कैसे प्रायोजित कराया जाए ये सब कुलीनता की राजनीति का हिस्सा है।
इनकी कविताओं में इनका दम फूल चुका है।लेकिन कविता की राजनीति को तो जिंदा रखना है।इस लिए ये इस प्रकार के आयोजनों के माध्यम से खुद को मीडिया में जिंदा रखे हैं।छपास और पुरस्कारास का लोभ इन नए मुमूर्ष कवियों को इन बचे खुचे कुलीन कवियों से जोड़े है। प्रगतिशील कुलीन कवि मौके पर चौका लगाने की राजनीति में निपुण हो चुके हैं।लेकिन अब सोशल मीडिया इन्हें परास्त कर चुका है।
अब "जनसत्ता" में ,या फिर "तद्भव" "हंस" में कविता और कहानी न छपे तो भी कवि बनने का मार्ग सोशल मीडिया ने खोल दिया है।अब अकुलीन कच्चे कवियों को कब तक रोका जा सकता है।आलोचक तो हैं भी नहीं, जो एक दो हैं भी वो नए कवियों पर बात नहीं करते।अब आत्ममुग्धता केवल कुलीन कवि में ही नहीं बल्कि तमाम दलित,स्त्रियां, और नए अकुलीन कवियों की जमात में कोरोना वायरस की तरह आत्ममुग्धता ने संक्रमण कर लिया है।इनकी कुलीन चेतना का मोहभंग होने में अब देर नहीं है।
इस लेख को मेरे नाम से यहाँ प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद |ये लेख आजकल पत्रिका में भी २०१० में प्रकाशित हो चुका है | मेरा फोन नम्बर भी यदि इसमें जोड़ सकें तो कृपा होगी -९८६८०३१३८४ ताकि कोई संवाद करना चाहे तो संभव हो सके |
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