रविवार, 27 जून 2021

दास्तांने सफर../ मुकेश प्रत्यूष

 आधी  रात के बाद लगभग घंटे भर तक  जिस तरह से पट ना में मूसलाधार  बारिश के साथ बिजली कड़क रही थी उसे देखते हुए मुझे चालीस वर्ष पहले की गई उत्‍तराखंड की यात्रा की एक रात याद आ गई।   


गंगा, यमुना और सरस्‍वती नदियों का उद्गम-स्‍थल देखने की ललक में मैं जून के महीने में उत्‍तराखंड की यात्रा पर निकल गया था। बरसात के दिनों में उत्‍तराखंड के पहाड़ी इलाकों में भूस्‍खलन और बादल फटने की घटनाएं होती रहती हैं। उन दिनों न तो इन जगहों को जोड़ने वाली सड़के बहुत अच्‍छी थीं, न रहने-खाने की ठीक-ठाक  सुविधाएं। 


मुझे यह स्‍वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि यायावरी मेरी  आदतों में शुमार है।  यात्रा की कोई बहुत लंबी-चौड़ी योजना नहीं बनाता। बस किसी दिन मन हुआ कहीं चला जाए। दूसरी दिन जरूरी इंतजाम किए । जैसे कपड़े, टार्च, छाता आदि कुछ जरूरी सामान रखना, बैंक जाकर ट्रेवेलर्स चेक बनवाना (एटीएम आने के बाद यह काम खत्‍म हो गया) और ट्रेन, बस (अब हवाई जहाज) आदि का पता करना और फिर जो होगा देखा जाएगा सोचकर  निकल पड़ना। ऐसे समय के लिए अम्‍मा की कही एक लाकोक्ति मन के किसी कोने में अनुगुंजित होती रहती है - कभी घोर धना, कभी मुट्ठी चना, कभी वह भी मना। अर्थात् जीवन में कभी बहुत धन हो सकता है, कभी यह स्थिति आ सकती है कि खाने के नाम पर केवल मुट्ठी भर चने के दाने हों और यह भी  संभव है कि कभी वह भी न मिले। और, अनियोजित यात्राओं में यह कई बार सार्थक हुआ है।  देश में तो कम विदेश में कई बार ऐसे अवसर आए कि पैसे होते हुए भी साथ लाये बिस्किट या सत्‍तू खाकर सोये। 


हरिद्वार के बाद मेरा पहला पड़ाव था हनुमानचट्टी, जहां तक सड़क मार्ग से जाया जा सकता था।  आगे की 14 किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ाई पैदल, घोड़े, पालकी या पिट्ठू से करनी पड़ती थी। हनुमानचट्टी पहुंचते-पहुंचते देर शाम हो  गई थी। तुरंत रात बिताने के लिए कुछ इंतजाम करना था। हनुमानचट्टी बहुत छोटी-सी जगह थी। यमुनोत्री जाने और वहां से वापस आने वाले यात्री, जो तब बहुत कम होते थे, केवल रात बिताने के लिए  रूकते थे। स्‍थानीय निवासी कुछ किराया लेकर अपने घरों में उन्‍हें रात में रहने देते, खाना खिला देते। बिजली प्राय: नहीं रहती थी। मैंने आस-पास   पता करना शुरू किया। लेकिन कहीं कोई कमरा खाली नहीं था। एक धर्मशाला थी लेकिन भरी हुई।  पता चला थोड़ी ऊंचाई पर एक लकड़ी का घर है उसमें कमरा खाली है। तेज चलता हुआ वहां पहुंचा। घर क्‍या था एक पहाड़ी नाले  के ठीक किनारे लकड़ी की बनी एक थोड़ी बड़ी गुमटी थी। बिजली नहीं थी। कमरे में मोमबत्‍ती जल रही थी।   अब सवाल पसंद-नापंसद का नहीं रह गया था  तेजी से बढ़ती ठंढ से अपने को बचाने का था। बर्फ से ढंके पहाड़ों पर अगर मौसम साफ हो तो दिन में गर्मी लगती है। किसी गर्म कपड़े की जरूरत नहीं पड़ती पर शाम ढलते ही ठंढ इतनी बढ जाती है कि स्‍वेटर-कोट, मफलर, दास्‍ताने के बावजूद ठंढ लगती है। ऐसा मैंने कोहिमा, मोकुकचुंग, नाथुला,  गंगटोक, गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ, स्‍वीटरजरलैंड के माउंट टिटलिस आदि सभी जगहों पर महसूस किया है। खैर, लकड़ी के उस घर में लकड़ी की चौकी  थी जिसपर बिछावन लगा था और कंबल पड़ा था। देखते ही समझ में आ गया किसी का इस्तेमाल किया हुआ है। वे शायद उसे रोज बदलते नहीं थे।  मैंने चादर और तकिया का गिलाफ बदलने और ओढने के लिए धुले चादर की मांग की जिसे अनिच्‍छा से उसने पूरा कर दिया। दरअसल किसी के सोये चादर पर सोने में मुझे थोड़ी असुविधा होती है और चाहे कितनी भी ठंढ  हो बिना धुला कवर लगाए कंबल मैं ओढ़ नहीं पाता। सुबह जल्‍दी उठने के लिए जल्‍दी सोना था। करीब आधी रात को तेज आवाज  से नींद खुल गई। जोरों की  बारिश हो रही थी। । बादल इस तरह से गड़गड़ा रहे थे जैसे अभी प्रलय ला देंगे। कमरे के बगल में जो पहाड़ी नाला  शाम तक सूखा था बहुत तेज आवाज के साथ बह रहा था।   आवाज और प्रवाह इतना तेज कि लगे हमारा कमरा अब बहेगा कि तब। कुछ देर के लिए तो घबराये फिर सोचा अब कोई और उपाय तो है नहीं तो चिंता करने से क्या फायदा। सुबहहोने से कुछ पहले बारिश रुकी। नींद तो  दुबारा नहीं आई पर रात कट गई। पौ फटते ही तैयार होकर कंधे पर लटकने वाले कपड़े के झोले में छाता, टार्च, कुछ आपातकालीन दपवाइयां, डाली  और बाकी सामान उसी कमरे में छोड़कर यमुनोत्री के लिए निकल पड़ा। मालिक को एक और रात का  किराया अग्रिम दे दिया और कहा अगर रात में नहीं लौटा तो कल का भी किराया दे दूंगा।  जब तक मैं खाली नहीं करता किसी और को किराये पर न दे। उसे कोई नुकसान नहीं हो रहा था मान गया।  यमुनोत्री का रास्‍ता बहुत पतला और तीखी चढ़ाई का था। एक ओर सौकड़ों फीट ऊंचे पहाड़ जिससे सिर को छूते हुए  से नुकीले पत्थर निकले हुए  थे और दूसरी ओर सौकड़ों फीट गहरी खाई। थोड़ी सी असावधानी  होते या ध्‍यान भटकते ही या तो सिर किसी पत्‍थर से टकराता या खाई में गिरने का कारण बन जाता। रास्‍ते में तीन छोटे-छोटे गांव  नारद चट्टी, फूल चट्टी एवं जानकी चट्टी (अब यहां तक सड़क बन गई है) थे।  थोड़ी दूर चलते ही एक व्‍यक्ति मिला कई प्रकार की लाठियां/छउि़यां लिए हुए। लगा सहारे के लिए एक छड़ी ले ली जाए तो अच्‍छा रहेगा।  एक छड़ी खरीदी। फिर रूक-रूक कर होती बारिश में धीरे-धीरे चलता-बैठता हुआ चार घंटे में यमुनोत्री पहुंचा। स्‍थानीय लोगों को मिलाकर मुश्किल से पच्‍चीस-तीस लोग रहे होंगे वहां। 


 पश्चिमी हिमालय के कालिंद पर्वत, जिसके कारण यमुना को कालिंदी भी कहा जाता है,  पर स्थित चंपासर ग्‍लेशियर  के मुहाने से थोड़ा-थोड़ा पानी निकल रहा था। आगे चलते हुए यह जितना विकराल हो जाता है उसकी कल्‍पना भी यहां नहीं की जा सकती। 


पुराणों में यमुना को सूर्यतनया कहा गया है जिसका अ र्थ है सूर्य की पुत्री।  पुराणों के अनुसार  सूर्य की छाया और संज्ञा नामक दो पत्नियां हैं जिनसे    यमुना, यम, शनिदेव,  वैवस्वत तथा  मनु  हुए। अर्थात यमुना यमराज और शनिदेव की बहन हैं। कालिंदी (यमुना) को कृष्‍ण की आठ पटरानियों में भी एक माना जाता है।


 गलेशियर के पार्श्‍व में यमुना का एक मंदिर है। कहा जाता है कि इसे 11वीं शताब्‍दी में बनाया गया था। मंदिर के प्रांगण में एक विशाल शिलाखंड है जिसे दिव्‍यशिला  कहा जाता है।  मंदिर के बाहर हैं दो तप्त कुंड हैं। एक छोटा, जिसे सूर्यकुंड कहा जाता है में पानी लगातार खौलता रहता है। इसका तापमान लगभग दो सौ डिग्री सेल्सियस होता है। इसी स्रोत से गर्म पानी की  एक धारा बगल में बने एक   बड़े कुंड, जिसे जानकी कुंड कहा जाता है और  जिसमें कई लोग एक साथ स्‍नान कर सकते हैं, में जाती है।  इस कुंड का तापमान अपेक्षाकृत कम होता है लेकिन एकबारगी इसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता। कुछ लोग स्‍नान कर रहे थे। पैदल चलता हुआ मैं भी थक गया था सोचा पहले स्‍नान कर लूं। कुंड में पैर डालते ही छटपटाकर बाहर खींच लिया लगा उबलते पानी में पैर चला गया है। लोगों ने कहा आराम से आइये। हिम्‍मत नहीं हो रही थी लेकिन देखा जब इन लोगों को कुछ नहीं हो रहा है तो मुझे भी नहीं होगा और धीरे-धीरे कुंड में जाकर गले तक बैठ गया। सच कहता हूं थोड़ी देर में ही यात्रा की पूरी थकान दूर हो गई। अब बाहर निकलने का मन नहीं करे। लेकिन निकलना तो था ही। निकला। मंदिर में दर्शन किये। यमुना से पहले दो-तीन छोटी-छोटी दुकाने थीं लेकिन खाने-पीने की एक भी नहीं।  बताया गया उसी सूर्यकुंड में खाना पकाकर लोग खाते हैं। मेरे पास भी वही एक उपाय था।  लगभग आधा मीटर  नया कपड़ा, सौ ग्राम चावल और ढाई सौ ग्राम आलू खरीदे और   वापस सूर्यकुंड के पास आकर बैठ गया। चावल और आलू को उस कपड़े में बाांधकर कुंड में लटका दिया करीब बीस मिनट में चावल-आलू पक गये। नमक का प्रयोग यहां वर्जित है। सूर्य के प्रसाद के साथ नमक कहीं नहीं लिया जाता। बिहार में भी छठ में खरना के दिन से ही नमक का प्रयोग बंद कर दिया जाता है। यहां भी इसे सूर्य का प्रसाद माना जाता है। वहीं पास में बैठककर आलू का मसलकर चोखा बनाया और उसीके साथ चावल खाए। अब इसे भूख की तीव्रता कहें या गंधक से उबलते पानी का असर नमक, तेल, मसाले की कमी नहीं खली। खाकर फिर एक बार चारो  ओर घूमा रात गुजारने को कोई जगह नहीं दिखी। वापसी एकमात्र विकल्‍प था चल दिया ताकि अंधेरा होने से पहले ठिकाने पर पहुंच जाऊं। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया लगभग दो किलोमीटर पहले ही अंधेरा घिर आया और टार्चकी रोशनी  के सहारे वापस आया। 


 आने पर  पता चला रात  पास के एक गांव में बादल फटा था। काफी नुकसान हुआ है। रात में उस पहाड़ी नाले से उसी का मलवा बह रहा था। 


इसके बाद मैं कई बार यमुनोत्री गया। अममा-पापा को लेकर, पत्‍नी-बच्‍चों के साथ। बच्‍चे जब छोटे थे कई बार  ग्‍लेशियर के कुछ अंदर तक चले जाते  टूटी-टूट कर गिर रहे बर्फ के टुकड़ों से खेलने के लिए।  बेशक, यह खतरनाक होता।

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