मंगलवार, 29 जून 2021

योग विज्ञान हैं

योग एक विज्ञान है,*

कोई शास्त्र नहीं है।

योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है। 


            लेकिन चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, चाहे पतंजलि, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, कोई भी व्यक्ति जो सत्य को उपलब्ध हुआ है, बिना योग से गुजरे हुए उपलब्ध नहीं होता।

            योग के अतिरिक्त जीवन के परम सत्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है।  जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों का नहीं है, जीवन सत्य की दिशा में किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों की सूत्रवत प्रणाली है।

           इसलिए पहली बात मैं आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि  योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है। योग के प्रयोग के लिए किसी तरह के अंधेपन की कोई जरूरत नहीं है।     

            नास्तिक भी योग के प्रयोग में उसी तरह प्रवेश पा सकता है जैसे आस्तिक।  योग नास्तिक-आस्तिक की भी चिंता नहीं करता है। 

विज्ञान आपकी धारणाओं पर निर्भर नहीं होता; विपरीत, विज्ञान के कारण आपको अपनी धारणाएं परिवर्तित करनी पड़ती हैं। 

             कोई विज्ञान आपसे किसी प्रकार के बिलीफ, किसी तरह की मान्यता की अपेक्षा नहीं करता है। विज्ञान सिर्फ प्रयोग की, एक्सपेरिमेंट की अपेक्षा करता है। विज्ञान कहता है, करो, देखो। विज्ञान के सत्य चूंकि वास्तविक सत्य हैं, इसलिए किन्हीं श्रद्धाओं की उन्हें कोई जरूरत नहीं होती है। दो और दो चार होते हैं, माने नहीं जाते।  और कोई न मानता हो तो खुद ही मुसीबत में पड़ेगा; उससे दो और दो चार का सत्य मुसीबत में नहीं पड़ता है।

           विज्ञान मान्यता से शुरू नहीं होता;  विज्ञान खोज से, अन्वेषण से शुरू होता है। वैसे ही योग भी मान्यता से शुरू नहीं होता; खोज, जिज्ञासा, अन्वेषण से शुरू होता है। इसलिए योग के लिए सिर्फ प्रयोग करने की शक्ति की आवश्यकता है, प्रयोग करने की सामर्थ्य की आवश्यकता है, खोज के साहस की जरूरत है; और कोई भी जरूरत नहीं है। 

            योग विज्ञान है, जब ऐसा कहता हूं, तो मैं कुछ सूत्र की आपसे बात करना चाहूं, जो योग-विज्ञान के मूल आधार हैं। इन सूत्रों का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है, यद्यपि इन सूत्रों के बिना कोई भी धर्म जीवित रूप से खड़ा नहीं रह सकता है। इन सूत्रों को किसी धर्म के सहारे की जरूरत नहीं है, लेकिन इन सूत्रों के सहारे के बिना धर्म एक क्षण भी अस्तित्व में नहीं रह सकता है। 

योग का पहला सूत्र: योग का पहला सूत्र है कि जीवन ऊर्जा है, लाइफ इज़ एनर्जी। जीवन शक्ति है।

            बहुत समय तक विज्ञान इस संबंध में राजी नहीं था; अब राजी है। बहुत समय तक विज्ञान सोचता था: जगत पदार्थ है, मैटर है। लेकिन योग ने विज्ञान की खोजों से हजारों वर्ष पूर्व से यह घोषणा कर रखी थी कि पदार्थ एक असत्य है, एक झूठ है, एक इल्यूजन है, एक भ्रम है। भ्रम का मतलब यह नहीं कि नहीं है। भ्रम का मतलब: जैसा दिखाई पड़ता है वैसा नहीं है और जैसा है वैसा दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन विगत तीस वर्षों में विज्ञान को एक-एक कदम योग के अनुरूप जुट जाना पड़ा है।


          अठारहवीं सदी में वैज्ञानिकों की घोषणा थी कि परमात्मा मर गया है, आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, पदार्थ ही सब कुछ है। लेकिन विगत तीस वर्षों में ठीक उलटी स्थिति हो गई है। विज्ञान को कहना पड़ा कि पदार्थ है ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। ऊर्जा ही सत्य है, शक्ति ही सत्य है।  लेकिन शक्ति की तीव्र गति के कारण पदार्थ का भास होता है। 

दीवालें दिखाई पड़ रही हैं एक, अगर निकलना चाहेंगे तो सिर टूट जाएगा। कैसे कहें कि दीवालें भ्रम हैं? स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं, उनका होना है। पैरों के नीचे जमीन अगर न हो तो आप खड़े कहां रहेंगे? 

नहीं, इस अर्थों में नहीं विज्ञान कहता है कि पदार्थ नहीं है। इस अर्थों में कहता है कि जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वैसा नहीं है।

             अगर हम एक बिजली के पंखे को बहुत तीव्र गति से चलाएं तो उसकी तीन पंखुड़ियां तीन दिखाई पड़नी बंद हो जाएंगी। क्योंकि पंखुड़ियां इतनी तेजी से घूमेंगी कि उनके बीच की खाली जगह, इसके पहले कि आप देख पाएं, भर जाएगी। इसके पहले कि खाली जगह आंख की पकड़ में आए, कोई पंखुड़ी खाली जगह पर आ जाएगी। अगर बहुत तेज बिजली के पंखे को घुमाया जाए तो आपको टीन का एक गोल वृत्त घूमता हुआ दिखाई पड़ेगा, पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़ेंगी। आप गिनती करके नहीं बता सकेंगे कि कितनी पंखुड़ियां हैं। अगर और तेजी से घुमाया जा सके तो आप पत्थर फेंक कर पार नहीं निकाल सकेंगे, पत्थर इसी पार गिर जाएगा। अगर और तेज घुमाया जा सके, जितनी तेजी से परमाणु घूम रहे हैं, अगर उतनी तेजी से बिजली के पंखे को घुमाया जा सके, तो आप मजे से उसके ऊपर बैठ सकते हैं, आप गिरेंगे नहीं। और आपको पता भी नहीं चलेगा कि पंखुड़ियां नीचे घूम रही हैं। *क्योंकि पता चलने में जितना वक्त लगता है, उसके पहले नई पंखुड़ी आपके नीचे आ जाएगी। आपके पैर खबर दें आपके सिर को कि पंखुड़ी बदल गई, इसके पहले दूसरे पंखुड़ी आ जाएगी। बीच के गैप, बीच के अंतराल का पता न चले तो आप मजे से खड़े रह सकेंगे।

ऐसे ही हम खड़े हैं अभी भी। अणु तीव्रता से घूम रहे हैं, उनके घूमने की गति तीव्र है इसलिए चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं। जगत में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। और जो चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं, वे सब चल रही हैं। 

अगर वे चीजें ही होती चलती हुई तो भी कठिनाई न थी। जितना ही विज्ञान परमाणु को तोड़ कर नीचे गया तो उसे पता चला कि परमाणु के बाद तो फिर पदार्थ नहीं रह जाता, सिर्फ ऊर्जा कण, इलेक्ट्रांस रह जाते हैं, विद्युत कण रह जाते हैं। उनको कण कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कण से पदार्थ का खयाल आता है। इसलिए अंग्रेजी में एक नया शब्द उन्हें गढ़ना पड़ा, उस शब्द का नाम क्वांटा है। क्वांटा का मतलब है: कण भी, कण नहीं भी; कण भी और लहर भी, एक साथ। विद्युत की तो लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकते। शक्ति की लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकते। लेकिन हमारी भाषा पुरानी है, इसलिए हम कण कहे चले जाते हैं। ऐसे कण जैसी कोई भी चीज नहीं है। अब विज्ञान की नजरों में यह सारा जगत ऊर्जा का, विद्युत की ऊर्जा का विस्तार है।

योग का पहला सूत्र यही है: जीवन ऊर्जा है, शक्ति है। 

दूसरा सूत्र योग का: शक्ति के दो आयाम हैं--एक अस्तित्व और एक अनस्तित्व; एक्झिस्टेंस और नॉन-एक्झिस्टेंस।

शक्ति अस्तित्व में भी हो सकती है और अनस्तित्व में भी हो सकती है। अनस्तित्व में जब शक्ति होती है तो जगत शून्य हो जाता है और जब अस्तित्व में होती है तो सृष्टि का विस्तार हो जाता है। जो भी चीज है, योग मानता है, वह नहीं है भी हो सकती है। जो भी है, वह न होने में भी समा सकती है। जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु है। जिसका होना है, उसका न होना है। जो दिखाई पड़ती है, वह न दिखाई पड़ सकती है। 

योग का मानना है, इस जगत में प्रत्येक चीज दोहरे आयाम की है, डबल डायमेंशन की है। इस जगत में कोई भी चीज एक-आयामी नहीं है। 

हम ऐसा नहीं कह सकते कि एक आदमी पैदा हुआ और फिर नहीं मरा। हम कितना ही लंबाएं उसके जीवन को, फिर-फिर कर हमें पूछना पड़ेगा कि कभी तो मरा होगा, कभी तो मरेगा। ऐसा कंसीव करना, ऐसी धारणा भी बनानी असंभव है कि एक छोर हो जन्म का और दूसरा छोर मृत्यु का न हो। दूर हो, कितना ही दूर हो, अंतहीन मालूम पड़े दूरी, लेकिन दूसरा छोर अनिवार्य है। एक छोर के साथ दूसरा छोर वैसे ही अनिवार्य है, जैसे एक सिक्के के दो पहलू अनिवार्य हैं। अगर एक ही पहलू का कोई सिक्का हो सके...तो असंभव मालूम होता है, यह नहीं हो सकता है। दूसरा पहलू होगा ही! क्योंकि एक पहलू होने के लिए ही दूसरे पहलू को होना पड़ेगा। 

विज्ञान का, योग-विज्ञान का दूसरा सूत्र है: प्रत्येक चीज दोहरे आयाम की है। होने का एक आयाम है, एक्झिस्टेंस का; नॉन-एक्झिस्टेंस का दूसरा आयाम है, न होने का। 

जगत है, जगत नहीं भी हो सकता है। हम हैं, हम नहीं भी हो सकते हैं। जो भी है, वह नहीं हो सकता है। नहीं होने का आप यह मतलब मत लेना कि कोई दूसरे रूप में हो जाएगा। बिलकुल नहीं भी हो सकता है। अस्तित्व एक पहलू है, अनस्तित्व दूसरा पहलू है। 

सोचना कठिन मालूम पड़ता है कि नहीं होने से होना कैसे निकलेगा? होना, नहीं होने में कैसे प्रवेश कर जाएगा? लेकिन अगर हम जीवन को चारों ओर देखें तो हमें पता चलेगा कि प्रतिपल, जो नहीं है, वह हो रहा; जो है, वह नहीं होने में खो रहा है। 

यह सूर्य है हमारा। यह रोज ठंडा होता जा रहा है। इसकी किरणें शून्य में खोती जा रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार वर्ष तक और गरम रह सकेगा। चार हजार वर्षों में इसकी सारी किरणें शून्य में खो जाएंगी, तब यह भी शून्य हो जाएगा। 

अगर शून्य में किरणें खो सकती हैं तो फिर शून्य से किरणें आती भी होंगी, अन्यथा सूर्यों का जन्म कैसे होगा? विज्ञान कहता है कि हमारा सूर्य मर रहा है, लेकिन दूसरे सूर्य दूसरे छोरों पर पैदा हो रहे हैं। वे कहां से पैदा हो रहे हैं? वे शून्य से पैदा हो रहे हैं।

वेद कहते हैं कि जब कुछ नहीं था। उपनिषद भी बात करते हैं उस क्षण की जब कुछ नहीं था। बाइबिल भी बात करती है उस क्षण की जब कुछ नहीं था, ना-कुछ ही था, नथिंगनेस ही थी। उस ना-कुछ से होना पैदा होता है और होना प्रतिपल ना-कुछ में लीन होता चला जाता है। अगर हम पूरे अस्तित्व को एक समझें तो इस अस्तित्व के निकट ही हमें अनस्तित्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा। 

योग का दूसरा सूत्र है: प्रत्येक अस्तित्व के पीछे अनस्तित्व जुड़ा है। 

तो शक्ति के दो आयाम हैं: अस्तित्व और अनस्तित्व। शक्ति हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है, न में भी खो सकती है। इसलिए योग मानता है, सृष्टि सिर्फ एक पहलू है, प्रलय दूसरा पहलू है। ऐसा नहीं है कि सब कुछ सदा रहेगा; खोएगा, शून्य भी हो जाएगा। फिर-फिर होता रहेगा, खोता रहेगा। जैसे एक बीज को तोड़ कर देखें, तो कहीं किसी वृक्ष का कोई पता नहीं चलता। कितना ही खोजें, वृक्ष की कहीं कोई खबर नहीं मिलती। लेकिन फिर इस छोटे से बीज से वृक्ष आता जरूर है। कभी हमने नहीं सोचा कि बीज में जो कभी भी नहीं मिलता है, वह कहां से आता है? और इतने छोटे से बीज में इतने बड़े वृक्ष का छिपा होना?

फिर वह वृक्ष बीजों को जन्म देकर फिर खो जाता है। ठीक ऐसे ही पूरा अस्तित्व बनता है, खोता है। शक्ति अस्तित्व में आती है और अनस्तित्व में चली जाती है।

अनस्तित्व को पकड़ना बहुत कठिन है। अस्तित्व तो हमें दिखाई पड़ता है। इसलिए योग की दृष्टि से, जो सिर्फ अस्तित्व को मानता है, जो समझता है कि अस्तित्व ही सब कुछ है, वह अधूरे को देख रहा है। और अधूरे को जानना ही अज्ञान है। अज्ञान का अर्थ न जानना नहीं है, अज्ञान का अर्थ अधूरे को जानना है। जानते तो हम हैं ही, अगर हम इतना भी जानते हैं कि मैं नहीं जानता, तो भी मैं जानता तो हूं ही। जानना तो हममें है ही। इसलिए अज्ञान का अर्थ न जानना नहीं है। अज्ञानी से अज्ञानी भी कुछ जानता ही है। अज्ञान का अर्थ--योग की दृष्टि में--आधे को जानना है।

और ध्यान रहे, आधा सत्य असत्य से बदतर होता है। क्योंकि असत्य से छुटकारा संभव है, आधे सत्य से छुटकारा बहुत मुश्किल होता है। क्योंकि वह सत्य भी मालूम पड़ता है और सत्य होता भी नहीं। प्रतीत भी होता है कि सत्य है और सत्य होता भी नहीं। अगर असत्य हो पूरा का पूरा, निखालिस असत्य हो, तो उससे छूटने में देर नहीं लगेगी। लेकिन अधूरा, आधा सत्य हो, तो उससे छूटना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

और भी एक कारण है कि सत्य जैसी चीज आधी नहीं की जा सकती, आधी करने से मर जाती है। क्या आप अपने प्रेम को आधा कर सकते हैं? क्या आप ऐसा कह सकते हैं किसी से कि मैं तुम्हें आधा प्रेम करता हूं? 

या तो प्रेम करेंगे या नहीं करेंगे। आधा प्रेम संभव नहीं है। 

क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि मैं आधी चोरी करता हूं? हो सकता है, आधे रुपये की चोरी करते हों। लेकिन आधे रुपये की चोरी पूरी ही चोरी है। लाख रुपये की चोरी भी पूरी चोरी है। आधे पैसे की चोरी भी पूरी चोरी है। चोरी आधी नहीं की जा सकती। आधी चीजों की की जा सकती है। लेकिन चोरी आधी नहीं हो सकती।

आधा! आधे का अर्थ ही यह है कि आप किसी भ्रम में हैं। 

तो योग कहता है, जो लोग सिर्फ अस्तित्व को देखते हैं, वे आधे को पकड़े हैं। और आधे को जो पकड़ता है, वह भ्रम में जीता है, वह अज्ञान में जीता है। उसका दूसरा पहलू भी है। जो आदमी कहता है कि मैं जन्म तो लिया हूं, लेकिन मरना नहीं चाहता। वह आदमी आधे को पकड़ रहा है। दुख पाएगा, अज्ञान में जीएगा। और कुछ भी करे, मौत आएगी ही, क्योंकि आधे को काटा नहीं जा सकता है। जन्म को स्वीकार किया है तो मौत उसका आधा हिस्सा है, वह साथ ही जुड़ा है। जो आदमी कहता है, मैं सुख को ही चुनूंगा, दुख को नहीं। वह फिर भूल में पड़ रहा है। योग कहता है, तुम आधे को चुन कर ही गलती में पड़ते हो। दुख सुख का ही दूसरा हिस्सा है। वह आधा हिस्सा है। इसलिए जो आदमी सुखी होना चाहता है, उस आदमी को दुखी होना ही पड़ेगा। जो आदमी शांत होना चाहता है, उसे अशांत होना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है।

योग कहता है, आधे को छोड़ देना ही अज्ञान है। वह उसका ही हिस्सा है। 

लेकिन हम देखते नहीं पूरे को! जो पहलू हमें दिखाई पड़ता है उसे हम पकड़ लेते हैं और दूसरे पहलू को इनकार किए चले जाते हैं। बिना यह समझे कि जब हमने आधे को पकड़ लिया है तो आधा पीछे प्रतीक्षा कर रहा है, मौजूद है, अवसर की खोज कर रहा है, जल्दी ही प्रकट हो जाएगा। 

योग कहता है कि ऊर्जा के दो रूप हैं। और जो दोनों ही रूप को समझ लेता है, वह योग में गति कर पाता है। जो एक रूप को, आधे को पकड़ लेता है, वह अयोगी हो जाता है। जिसको हम भोगी कहते हैं, वह आधे को पकड़े हुए आदमी का नाम है। जिसे हम योगी कहते हैं, वह पूरे को पकड़े हुए का नाम है।

योग का मतलब ही होता है--दि टोटल। योग का मतलब होता है--जोड़। गणित की भाषा में भी योग का मतलब जोड़ होता है। अध्यात्म की भाषा में भी योग का मतलब होता है--इंटीग्रेटेड, दि टोटल, पूरा, समग्र। 

भोगी हम उसे नहीं कहते जो योग का दुश्मन है; भोगी हम उसे कहते हैं जो आधे को पकड़ता और आधे को पूरा मान कर जीता है। योगी पूरे को जान लेता है, इसलिए फिर पकड़ता ही नहीं। 

यह भी बड़े मजे की बात है! पकड़ने वाले सदा आधे को ही पकड़ने वाले होते हैं, पूरे को जान लेने वाला पकड़ता नहीं। जिसको यह दिखाई पड़ गया कि जन्म के साथ मृत्यु है, अब वह किसलिए जन्म को पकड़े? और वह मृत्यु को भी क्यों पकड़े? क्योंकि वह जानता है मृत्यु के साथ जन्म है। जो जानता है कि सुख के साथ दुख है, वह सुख को क्यों पकड़े? और वह दुख को भी क्यों पकड़े, क्योंकि वह जानता है दुख के साथ सुख है। असल में वह जानता है, सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दो चीजें नहीं, एक ही चीज के दो आयाम हैं, दो डायमेंशन हैं। इसलिए योगी, पकड़ने के बाहर हो जाता है, क्लिंगिंग के बाहर हो जाता है। 

दूसरा सूत्र ठीक से समझ लेना जरूरी है कि ऊर्जा, शक्ति के दो रूप हैं। और हम सब एक रूप को पकड़ने की कोशिश में लगे होते हैं। कोई जवानी को पकड़ता है, तो फिर बुढ़ापे का दुख पाता है। वह जानता नहीं कि जवानी का दूसरा हिस्सा बुढ़ापा है। असल में जवानी का मतलब है, वह स्थिति जो बूढ़ी हुई जा रही है। जवानी का मतलब है, बुढ़ापे की यात्रा। बूढ़ा आदमी उतने जोर से बूढ़ा नहीं होता, ध्यान रखना, जितने जोर से जवान बूढ़ा होता है। बूढ़ा आदमी धीरे-धीरे बूढ़ा होने लगता है, जवान तेजी से बूढ़ा होता है। जवानी का मतलब ही बूढ़े होने की ऊर्जा है। बूढ़े का मतलब बीत गई जवानी की ऊर्जा है, चुक गई जवानी की ऊर्जा है। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक घर के बाहर का दरवाजा है, एक घर के पीछे का दरवाजा है।

जन्म और मृत्यु, सुख और दुख; जीवन के सभी द्वंद्व--अस्तित्व-अनस्तित्व, आस्तिक-नास्तिक। वे भी आधे-आधे को पकड़ते हैं। इसलिए योग की दृष्टि में दोनों ही अज्ञानी हैं। आस्तिक कहता है कि भगवान बस है। आस्तिक सोच भी नहीं सकता कि भगवान का न होना भी हो सकता है। लेकिन यह बड़ा कमजोर आस्तिक है, क्योंकि यह भगवान को नियम के बाहर कर रहा है। नियम तो सभी चीजों पर एक सा लागू है। भगवान अगर है तो उसका न होना भी होगा।

नास्तिक उसके दूसरे हिस्से को पकड़े है। वह कहता है, भगवान नहीं है। 

लेकिन जो चीज नहीं है, वह हो सकती है। और इतने जोर से कहना कि नहीं है, इस डर की सूचना देता है कि उसके होने का भय है। अन्यथा, नहीं है कहने की कोई जरूरत नहीं है। जब एक आस्तिक कहता है कि नहीं, भगवान है ही, और लड़ने को तैयार हो जाता है, तब वह भी खबर दे रहा है कि भगवान के भी न हो जाने का डर उसे है। अन्यथा क्या बिगड़ता है! कोई कहता है नहीं है तो कहे। 

आस्तिक लड़ने को तैयार है, क्योंकि वह भगवान का एक हिस्सा पकड़ रहा है। वह वही की वही बात है, चाहे अपना जन्म पकड़ो और चाहे भगवान का होना पकड़ो, लेकिन दूसरे हिस्से को इनकार किया जा रहा है। 

योग कहता है: दोनों हैं, होना और न होना साथ ही साथ हैं।

इसलिए योगी नास्तिक को भी कहता है कि तुम भी आ जाओ, क्योंकि आधा सत्य है तुम्हारे पास; आस्तिक को भी कहता है, तुम भी आ जाओ, क्योंकि आधा सत्य ही है तुम्हारे पास और आधे सत्य असत्य से भी खतरनाक हैं।

दूसरा सूत्र है: द्वंद्व के बीच शक्ति का विस्तार है। 

अंधेरे और प्रकाश के बीच एक ही चीज का विस्तार है, दो चीजें नहीं हैं। लेकिन हमें लगता है दो चीजें हैं। वैज्ञानिक से पूछें! वह कहेगा, दो नहीं हैं। वह कहेगा, जिसे हम अंधेरा कहते हैं, वह सिर्फ कम प्रकाश का नाम है। और जिसे हम प्रकाश कहते हैं, वह कम अंधेरे का नाम है। डिग्रीज का फर्क है। 

इसलिए रात में, पक्षी हैं जिनको दिखाई पड़ता है। अंधेरा है आपका, उनके लिए अंधेरा नहीं है। क्यों? उनकी आंखें उतने धीमे प्रकाश को भी पकड़ने में समर्थ हैं। 

ऐसा नहीं है कि धीमा प्रकाश ही पकड़ में नहीं आता, बहुत तेज प्रकाश भी आंख की पकड़ में नहीं आता। अगर बहुत तेज प्रकाश आपकी आंख पर डाला जाए, आंख तत्काल अंधी हो जाएगी, देख नहीं पाएगी। देखने की एक सीमा है। उसके नीचे भी अंधकार है, उसके ऊपर भी अंधकार है। बस एक छोटी सी सीमा है, जहां हमें प्रकाश दिखाई पड़ता है। लेकिन जिसे हम अंधकार कहते हैं, वह भी प्रकाश की तारतम्यताएं हैं, वे भी डिग्रीज हैं। उनमें जो अंतर है, क्वालिटेटिव नहीं है, क्वांटिटेटिव है। गुण का कोई अंतर नहीं है, सिर्फ परिमाण का अंतर है।

गर्मी और सर्दी पर कभी खयाल किया है? हम समझते हैं, दो चीजें हैं। नहीं, दो चीजें नहीं हैं। गर्मी-सर्दी से समझना बहुत आसान पड़े। लेकिन हम कहेंगे, दो चीजें नहीं हैं! जब गर्मी बरसती है सूरज की तब हम कैसे मान लें कि यह वही है? जब शीतल छाया में बैठते हैं, तो शीतल छाया को हम कैसे सूरज की गरमी मान लें? 

नहीं, मैं नहीं कह रहा हूं कि आप एक मान कर शीतल छाया में बैठना छोड़ दें। मैं इतना ही कह रहा हूं कि जिसे आप शीतल छाया कह रहे हैं, वह गरमी की ही कम मात्रा है। और जिसे आप सख्त धूप कह रहे हैं, वह शीतलता की ही कम हो गई मात्रा है। 

कभी ऐसा करें कि एक हाथ को स्टोव के पास रख कर गरम कर लें और एक को बर्फ पर रख कर ठंडा कर लें और फिर दोनों हाथों को एक बाल्टी भरे पानी में डाल दें। तब आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे कि बाल्टी का पानी गरम है या ठंडा! एक हाथ कहेगा, ठंडा है। एक हाथ कहेगा, गरम है। 

अब एक ही बाल्टी का पानी दोनों नहीं हो सकता। और आपके दोनों हाथों में से दो खबरें आ रही हैं! जो हाथ ठंडा है उसे पानी गरम मालूम होगा, जो हाथ गरम है उसे पानी ठंडा मालूम होगा। ठंडक और गरमी रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं।

योग का दूसरा सूत्र है: जीवन और मृत्यु, अस्तित्व-अनस्तित्व, अंधकार-प्रकाश, बचपन-बुढ़ापा, सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, सब रिलेटिव हैं, सब सापेक्षताएं हैं। ये सब एक ही चीज के नाम हैं। बुराई-भलाई...। 

यहां जरा कठिनाई हो सकती है। क्योंकि ठंडक और गर्मी को मान लेना बहुत आसान है, एक सी होंगी, कुछ हर्ज भी नहीं होता। लेकिन राम और रावण, तो जरा अड़चन हो सकती है। मन कहेगा, ऐसा कैसा हो सकता है? लेकिन राम और रावण भी तारतम्यताएं हैं, वे भी दो विरोधी चीजें नहीं हैं, एक ही चीज का कम-ज्यादा होना है। राम में रावण जरा कम है, रावण में राम जरा कम है, बस इतना ही। इसलिए जो रावण को प्रेम करे, उसमें उसे राम दिखाई पड़ सकता है। और जो राम की दुश्मनी करे, उनमें भी रावण दिखाई पड़ सकता है। वे तारतम्यताएं हैं। तो जिसे हम प्रेम करते हैं उसमें राम दिखाई पड़ने लगता है, जिसे हम नहीं प्रेम करते उसमें रावण दिखाई पड़ने लगता है। राम में भी बुरा देखने वाले लोग मिल जाएंगे, रावण में भी भला देखने वालों की कोई कमी नहीं है। तारतम्यताएं हैं। आपके हाथ पर निर्भर करेगा। राम और रावण को अगर एक ही बाल्टी में रखा जा सके तो आसानी हो। लेकिन रखना मुश्किल है। अच्छाई और बुराई भी योग की दृष्टि में एक ही चीज के भेद हैं। 

इसका यह मतलब नहीं कि आप बुरे हो जाएं। इसका यह मतलब नहीं है कि आप अच्छाई छोड़ दें। योग का कुल कहना इतना है कि अगर अच्छाई को जोर से पकड़ा, तो ध्यान रखना, दूसरे पहलू पर बुराई भी पकड़ में आ जाएगी। अच्छा आदमी बुरा होने से नहीं बच सकता। और बुरा आदमी अच्छे होने से नहीं बच सकता। 

इसलिए अच्छे से अच्छे आदमी को अगर थोड़ा उधाड़ कर देखेंगे तो बुरा आदमी भीतर बैठा मिल जाएगा। और बुरे से बुरे आदमी को जरा तलाश करेंगे तो अच्छा आदमी भीतर बैठा मिल जाएगा। यह बड़े मजे की बात है कि अगर हम अच्छे आदमियों के सपनों की जांच-पड़ताल करें तो वे बुरे सिद्ध होंगे। सब अच्छे आदमी आमतौर से बुरे सपने देखते हैं। जिसने दिन में चोरी से अपने को बचाया, वह रात में चोरी कर लेता है। कंपनशेसन करना पड़ता है न! वह जो दूसरा हिस्सा है वह कहां जाएगा? जिसने दिन में उपवास किया, वह रात राजमहल में निमंत्रित हो जाता है, भोजन कर लेता है। जो दिन भर सदाचारी था, रात में वासना के स्वप्न उसे घेर लेते हैं। 

इसलिए अगर भले आदमी को शराब पिला दें, तब आपको पता चलेगा कि भीतर कौन बैठा है! शराब किसी को बुरा नहीं बना सकती है। शराब में वैसा कोई गुण नहीं है बुरा बनाने का। शराब में सिर्फ एक गुण है कि वह जो दूसरा पहलू है उसे उघाड़ देती है। इसलिए अक्सर शराब पीने वाले लोग शराब पीने के बाद अच्छे मालूम पड़ेंगे। 

मैंने सुना है एक आदमी के बाबत कि एक दिन वह सांझ अपने घर लौटा। उसकी पत्नी बहुत हैरान हुई। उसकी पत्नी ने कहा कि मालूम होता है तुम आज शराब पीकर आ गए हो! 

उस आदमी ने कहा कि कैसी बातें कर रही हो! मैंने शराब बिलकुल नहीं पी है। 

उसकी पत्नी ने कहा कि तुम्हारा व्यवहार बता रहा है कि तुम पीकर आ गए हो। 

उस आदमी ने कहा, हे परमात्मा, कैसी अजीब दुनिया है! 

वह रोज शराब पीकर आता था, आज पीकर नहीं आया है। लेकिन शराब पीकर आता था, उसके भीतर का अच्छा आदमी प्रकट होता रहा। आमतौर से जिन्हें हम बुरे आदमी कहते हैं, उनके भीतर अच्छे आदमी छिपे रहते हैं। और जिनको हम अच्छे आदमी कहते हैं, उनके भीतर बुरे आदमी छिपे रहते हैं। हालांकि जब अच्छे आदमी के भीतर का बुरा आदमी काम करता है बुरा, तो भी अच्छे का बहाना लेकर करता है। अगर अच्छा बाप अपने बेटे की गर्दन दबाता है, तो सीधी नहीं दबा देता; सिद्धांत, नीति, शिष्टाचार, अनुशासन, इन सबका बहाना लेकर दबाता है। अगर अच्छा शिक्षक दंड देता है, तो जिसको दंड देता है उसी के हित में देता है। अच्छा आदमी अगर बुरा भी करता है, तो अच्छी खूंटी पर ही टांगता है बुराई को। और बुरा आदमी अगर अच्छे काम भी करता है, तो स्वभावतः उसके पास बुराई की खूंटी ही होती है, वह उसी पर टांगता है। लेकिन जो भी एक पहलू को पकड़ेगा, उसके भीतर दूसरा पहलू सदा मौजूद रहेगा। 

योग कहता है: दोनों को समझ लो और पकड़ो मत। 

इसलिए जब पहली बार योग की खबर पश्चिम में पहुंची तो वहां के विचारक बहुत हैरान हुए। क्योंकि उन विचारकों ने कहा, इस योग में नीति की, मॉरेलिटी की तो कोई जगह ही नहीं है! ये सारे योग में कुछ नैतिकता का स्थान नहीं मालूम पड़ता! जिन लोगों ने पश्चिम में पहली बार योग की खबरें सुनीं, उन्होंने कहा कि इसमें कहीं भी नहीं लिखा हुआ है--जैसा कि टेन कमांडमेंट्स हैं ईसाइयों के--यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो! यह बुरा है, यह बुरा है, यह बुरा है! डोंट्स की कोई बात ही नहीं है इसमें। यह कैसा योग! 

लेकिन विज्ञान कभी भी पक्ष की बात नहीं करता। विज्ञान तो निष्पक्ष दोनों बातों को खोल कर रख देता है। योग कहता है: यह बुराई है, यह अच्छाई है। और दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। अगर तुम एक को भी पकड़ोगे तो दूसरा तुम्हारे भीतर छिपा हुआ मौजूद रहेगा। तुम दोनों को समझ लो और पकड़ो मत। 

इसलिए योग अच्छे और बुरे का ट्रांसेनडेंस है। दोनों के पार हो जाना है।

योग सुख और दुख का अतिक्रमण है।

योग जन्म और मृत्यु का अतिक्रमण है।

योग अस्तित्व-अनस्तित्व का अतिक्रमण है, दोनों के पार है, बियांड है।

यह दूसरा सूत्र ठीक से समझ लें तो आगे बहुत सी बातें समझनी आसान हो जाएंगी।


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