- एक -
दुनिया का सबसे बड़ा टेलिविज़न थीं बाबूजी की आँखें
उनके ज़रिए देखे जा सकते थे दृश्य दुनियाभर के तरह-तरह के
समझा जा सकता था संसार और मनुष्य।
घाम में घनी छाया थे बरसात में छप्पर
सर्दी में उनका होना अलाव का होना होता या रज़ाई का
घुप्प अंधेरे में वे रौशनी का पुँज थे थरथराहट भरा।
एक बड़ा सोख्ता काग़ज़ थे बाबूजी
सोख लेते थे दुख की नीली काली स्याही
सुंदर मनभावन हर्फ़ों के लिए जगह छोड़ते हुए।
वे एक नाव थे
जिस पर बैठ हम लहरों के पार उतरते बेख़ौफ़
वे पतवार थे सुनिश्चित करते
कि पार करना है नदी उतराना नहीं धार में।
सबसे मज़बूत संबल थी उनकी उँगली
सबसे दुरुस्त कंपास
बाबूजी थे तो घर था लड़कपन था संभावना थी और आश्वस्ति
तब अचानक बड़े नहीं हुए थे हम।
बाबूजी कभी ठठाकर हँसते
कभी निर्विकार रहते
आँखें उनकी दीप्त पथ प्रदर्शक रहीं
कई बार उंगलियों की जगह लेती।
बाबूजी के दुखों से दोस्ताना हुआ
पिता बनने के बाद।
- दो -
उन्होंने कहा खत्म हो जाएँगे विभाजन
सब एक होंगे, नहीं हुआ
उन्होंने कहा मिट जाएँगी जातियाँ
सब बराबर होंगे, नहीं हुआ
उन्होंने कहा नहीं रहेगा धर्म-संप्रदाय का भेद
सब साथ रहेंगे, पर यह भी नहीं हुआ
उन्होंने कहा लड़कियाँ बराबर होंगी लड़कों के अंतर नहीं रहेगा स्त्री-पुरुष का
आजादी मिलेगी उन्हें, इज्जत लड़कों सी
जबकि उनकी देह पर झपटे लोग मान-मर्दन करते।
सपने देखते थे बाबूजी सोते-जागते
जेल गए सपनों की बदौलत
भागते फिरे बरतानी हुकूमत से
सपना देखा बराबरी का
इंसाफ और खुशहाली का
और भी कई सपने
सपने सच नहीं हुए उनके जीते जी
लेकिन उन्हें अपने सपनों पर भरोसा था
भरोसा था भरोसे पर ।
उम्मीद बाकी रही उनमें आखिरी साँस तक
बिजली की उम्मीद में हमें ढिबरी की रोशनी में पढ़ाते
ख़ुशहाली की उम्मीद में हम माड़-भात खाते ।
हम भाई-बहनों को जो बेशकीमती चीजें सौंपी
उन्होंने जाते जाते
उनमें उम्मीद भरी वह ढिबरी भी थी।
- तीन -
बाबूजी ने नहीं पूछा क्यों लिखी
किसकी खातिर लिखी कविता प्रेम भरी
वे इस बात से खुश थे कि बेटे ने कविता लिखी
उन्होंने कविता की मात्राएँ दुरुस्त की
छंदों-मात्राओं का ककहरा समझाया।
धनकुबेरों की जयकार तब भी थी लेकिन अर्थव्यवस्था इतनी उदार न थी
कि मेहनतकशों का हक कुबेरों को दे दे
उम्मीद बाकी थी परिवर्तनकामियों की आँख में किताबों-रिसालों का मोल घटा था
बेटा आठवीं जमात में था ।
पढ़ने में दिलचस्पी थी बाबूजी की
उनकी सुबहें किताबों में थीं शाम का धुँधलका वहीं
चेहरे और भंगिमा और आँख से पढ़ा जा सकता था
पढ़ी जा रही किताब या किसी खास सफे का मजमून
प्रिवी पर्स खत्म किया जा चुका था
बैंकों को सरकार ने ले लिया था
सरकार सब की थी कुछ खास लोगों की नहीं
उम्मीद थी कि बराबरी कायम होगी
जात-धर्म की बंदिशें टूटेंगी
गल जाएँगी गुरबतों की बेड़ियाँ।
बाबूजी बार-बार उदास हो जाते किताब पढ़ते-पढ़ते
किसी स्त्री की चित्कार सुनाई देती उन्हें
हत्या-आत्महत्या का सिलसिला दिखता
वे आँखें बंद कर लेते
चेहरा एक अपठ-उदास किताब बन जाता
उन्होंने पढ़ लिया था आगत का पन्ना
उनका देश उनका न था, बदल गया था
आखिरी दिनों में उन्हें इस बात का गहरा अफसोस रहा।
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