माटी के लाल आज़मियों की तलाश में..
शमीम करहानी को जानते हैं आप ! जिसने नेहरू को नज्में सुनाई और बापू की शहादत पर भावना प्रधान नज्म़ लिखा- जगहों न बापू को नींद आ गयी है..
@ अरविंद सिंह
शमीम करहानी (8 जून 1913 - 19 मार्च 1975)
20 वीं सदी के एक प्रख्यात उर्दू कवि ('शायर') थे।
प्रारंभिक जीवन, शिक्षा और रोजगार :
शमीम करहानी का जन्म अविभाजित आजमगढ़ के करहां गाँव में एक 'ज़मींदार' परिवार सैयद मुहम्मद अख्तर और उम्मत उल ज़हरा के यहाँ 8 जून 1913 को हुआ था। उनका असली नाम 'सैयद शम्सुद्दीन हैदर' था। उन्होंने खुद 'शमीम करहानी' को अपने 'ताख्लूस' नाम के रूप में चुना। बाद में, उनका यह नाम इतना प्रसिद्ध हो गया कि एक बार, एक साक्षात्कार में, जब उनसे उनका नाम पूछा गया, तो उन्हें खुद अपने वास्तविक नाम को याद करने के लिए एक पल रुकना पड़ा! उन्होंने अपनी माध्यमिक शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से की और 'मौलवी कामिल मुंशी' भी किया। अपने पेशे के लिए, उन्होंने एक शिक्षक बनना चुना। उन्होंने दयानंद एंग्लो-वैदिक स्कूल प्रणाली, कौमी अवाज और एंग्लो अरबी स्कूल (नई दिल्ली) के साथ काम किया। वह फ़ारसी भाषा का विद्वान थे; जबकि उन्होंने अपनी सारी शायरी उर्दू में की।
कविता और भारत का स्वतंत्रता संग्राम :-
शमीम का बचपन से ही से शेरों शायरी और कविताओं में रूचि था। उन्होंने आठ साल की उम्र में अपनी पहली शायरी लिखी. जैसे उन्हें पता था कि वह किस लिए पैदा हुए हैं। उन्होंने लिखना शुरू कर दिया और पूरे उत्तर प्रदेश में छा गए। यह वह युग था जब भारत वीरतापूर्वक ब्रिटिश शासन से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। एक भारतीय होने के नाते उन्होंने ऐसी नज्में लिखनी शुरू कीं, जो अपने देश के आमजन लिए नैतिक संदेश देती हैं। ये कविताएँ इतनी प्रभावशाली हुईं कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लखनऊ और वाराणसी जैसे शहरों की सड़कों पर निकाली गई 'प्रभात-फेरी' में उनके लोकप्रिय क्रांतिकारी 'नज़्म' और 'नगमास' ('गीत') गाए गए।
जल्द ही शमीम करहानी की राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी कविता ने आम लोगों और साहित्य दोनों का ध्यान आकर्षित करना शुरू कर दिया। इस राष्ट्रवादी मंच के माध्यम से वे प्रगतिशील लेखक आंदोलन में शामिल हो गयें। 1948 में उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के ठीक बाद अदभुत रचना लिखी-" जगाओ ना बापू को नींद आ गयी है", की रचना की। उपरोक्त कविता में ऐसी भावनात्मक अपील थी कि यह जंगल की आग की तरह फैल गई थी। एक बार, शमीम करहानी को भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में कविता सुनाने का अवसर मिला। कविता को सुनकर नेहरू शमीम के गीतों से इतने प्रभावित हो गए कि वे उन्हें कांग्रेस की चुनावी सभाओं में अपनी कविताएँ सुनाने के लिए लखनऊ आने को कहें। बाद में, स्वतंत्रता के बाद, नेहरू ने शमीम को दिल्ली आने के लिए कहा। वह 1950 में दिल्ली चले गए और नेहरू से 'तीन-मूर्ति' में मिले। नेहरू ने उन्हें भारत के स्वतंत्रता आंदोलन पर उर्दू में एक महाकाव्य लिखने के लिए कहा और अपनी व्यक्तिगत जेब से नौकरी के लिए उन्हें वजीफा देना शुरू कर दिया। 7 फरवरी 1950 को उन्होंने (प्रधानमंत्री नेहरू) शमीम की डायरी में लिखा:
"एक कवि को अपने जीवन को खुद एक कविता बनाना चाहिए। शमीम करहानी ने भारत की आजादी के लिए गाया है। मुझे उम्मीद है कि वह ऐसा करते रहेंगे और इस स्वतंत्रता का आनंद लेंगे।"
"रोशन अंधेरा" नामक उनका संग्रह पूरी तरह से "भारत छोड़ो आंदोलन" के लिए समर्पित था।
शमीम करहानी फैज़ अहमद 'फैज़', अली 'सरदार' जाफ़री, 'मजाज़ लकन्नावी', मोईन अहसान 'जज़्बी', अली 'जावद' ज़ैदी आदि जैसे समकालीन शायरों के समकालीन थे, जो मूल रूप से 'ग़ज़ल-गो' थे। (एक व्यक्ति जो 'ग़ज़ल' की रचना करता है), हालाँकि, उर्दू शायरी के प्रत्येक 'विधा' पर अपना हाथ आज़माता रहा और उसकी कुछ रचनाओं को उर्दू साहित्य में शाश्वत स्थान मिला। उन्होंने (ग़ज़लों के अलावा) कविताएँ, 'रुबाइयाँ', 'क़ातात', 'जियेट', इलेगीज़, 'मर्सियाज़', 'यूलोगीज़' आदि की रचना की है
शायर और मोहब्बत का जो हसीं रिश्ता होता है उसे इन्होंने ने भी शिद्दत से निभाया। इनकी गजलें अन्य शायरों की तरह मोहब्बत का अफसाना है। जो पुरानी यादों को जहन में हरी-भरी कर देती हैं। करहानी का निधन 19 मार्च 1975 को नई दिल्ली में हुआ।
बचाओ दामन-ए-दिल ऐसे हम-नशीनों से
मिला के हाथ जो डसते हैं आस्तीनों से
निगार-ए-वक़्त को इतना तो पैरहन दे दो
छुपा ले दीदा-ए-पुर-नम को आस्तीनों से
हमारी फ़िक्र अमानत है सुब्ह-ए-फ़र्दा की
समाँ है दूर का देखो न ख़ुर्द-बीनों से
अब अपने ज़ख़्म-ए-जबीं को छुपा भी ले ऐ दिल
टपक रहा है पसीना कई जबीनों से
तुझे हवा-ए-मुख़ालिफ़ जगा दिया किस ने
बहुत क़रीब था साहिल कई सफ़ीनों से
न जाने मुजरिम-ए-ज़ौक़-ए-नज़र पे क्या गुज़री
भरी थी राह-ए-तमाशा तमाश-बीनों से
सुकूत-ए-वक़्त मुअर्रिख़ है लिख लिया उस ने
जो पत्थरों ने कहा बे-ख़ता जबीनों से
'शमीम' अंजुमन-ए-अहल-ए-ज़र में क्या जाएँ
लहू का रंग झलकता है आबगीनों से
जुनूँ के दश्त में इक छावनी बसा लेंगे...
गली गली है अंधेरा तो मेरे साथ चलो
तुम्हें ख़याल है मेरा तो मेरे साथ चलो
मैं जा रहा हूँ उजालों की जुस्तुजू के लिए
सता रहा हो अंधेरा तो मेरे साथ चलो
जुनूँ के दश्त में इक छावनी बसा लेंगे
नहीं है कोई बसेरा तो मेरे साथ चलो
मैं राहज़न हूँ मगर आश्ना-ए-मंज़िल-ए-दिल
जो राहबर है लुटेरा तो मेरे साथ चलो
क़दम क़दम पे जलाता चलूँगा दिल के चराग़
जो रास्ता है अंधेरा तो मेरे साथ चलो
अगर चमन से ज़ियादा पसंद है तुम को
ग़रीब-ए-दश्त का डेरा तो मेरे साथ चलो
'शमीम' ज़ुल्मत-ए-दौराँ से जंग है दरपेश
जो चाहता हो सवेरा तो मेरे साथ चलो
मुझे न देख मोहब्बत भरी निगाहों से...
जो मिल गई हैं निगाहें कभी निगाहों से
गुज़र गई है मोहब्बत हसीन राहों से
चराग़ जल के अगर बुझ गया तो क्या होगा
मुझे न देख मोहब्बत भरी निगाहों से
बला-कशों की अँधेरी गली को क्या जाने
वो ज़िंदगी जो गुज़रती है शाह-राहों से
लबों पे मोहर-ए-ख़मोशी लगाई जाएगी
दिलों की बात कही जाएगी निगाहों से
इधर कहा कि न छूटे सवाब का जादा
उधर सजा भी दिया राह को गुनाहों से
फ़ज़ा-ए-मय-कदा-ए-दिल-कुशा में आई है
हयात घुट के जो निकली है ख़ानक़ाहों से
मिरी नज़र का तक़ाज़ा कुछ और था ऐ दोस्त
मिला न कुछ मह ओ अंजुम की जल्वा-गाहों से
ख़िज़ाँ की वादी-ए-ग़ुर्बत गुज़ार लें तो 'शमीम'
मिलें दयार-ए-बहाराँ के कज-कुलाहों से
मैं जागता हूँ सितारों से कह दो सो जाएँ...
जुनूँ तो है मगर आओ जुनूँ में खो जाएँ
किसी को अपना बनाएँ किसी के हो जाएँ
जिगर के दाग़ कोई कम हैं रौशनी के लिए
मैं जागता हूँ सितारों से कह दो सो जाएँ
तुलू-ए-सुब्ह ग़म-ए-ज़िंदगी को ज़िद ये है
कि मेरे ख़्वाब के लम्हे ग़ुरूब हो जाएँ
ये सोगवार सफ़ीना भी रह के क्या होगा
उसे भी आ के मिरे नाख़ुदा डुबो जाएँ
सदी सदी के उजालों से बात होती है
तिरे ख़याल के माज़ी में क्यूँ न खो जाएँ
हम अहल-ए-दर्द चमन में इसी लिए आए
कि आँसुओं से ज़मीन-ए-चमन भिगो जाएँ
किसी की याद में आँखें हैं डबडबाई हुई
'शमीम' भीग चली रात आओ सो जाएँ
ये आ गए किस अंधेरे में हम उजाले से...
निकल पड़े हैं सनम रात के शिवाले से
कुछ आज शहर-ए-ग़रीबाँ में हैं उजाले से
चलो पलट भी चलें अपने मय-कदे की तरफ़
ये आ गए किस अंधेरे में हम उजाले से
ख़ुदा करे कि बिखर जाएँ मेरे शानों पर
सँवर रहे हैं ये बादल जो काले काले से
बुतों की ख़ल्वत-ए-रंगीं में बज़्म-ए-अंजुम में
कहाँ कहाँ न गए हम तिरे हवाले से
जुनूँ की वादी-ए-आज़ाद में तलब कर लो
निकाल लो हमें शाम-ओ-सहर के हाले से
हयात-ए-अस्र मुझे फेर दे मिरा माज़ी
हसीन था वो अंधेरा तिरे उजाले से
कोई मनाए तो कैसे मनाए दिल को 'शमीम'
ये बात पूछिए इक रूठ जाने वाले से
शमीम करहानी कार्यों की सूची :-
बर्क-ओ-बरन (1939)
रोशन अन्धेरा (1942)
तारानी (1944)
बाध चल रे हिंदुस्तान (1948)
टेमर (1948)
अक्स-ए-गुल (1962)
इंतेखाब-ए-कलाम-ए-शमीम करहानी (1963)
ज़ुल्फ़िकार (1964)
हार्फ-ए-नीम शब (1972)
जान-ए-बरदार (1973)
सुभ-ए-फ़रान (1974)
मुख्य बूटाराबी (1974)
Kileed-ए-इंशा
पुष्प छैया (अक्स-ए-गुल का हिंदी अनुवाद)
पुरस्कार संपादित :-
1964 में उनके संग्रह 'अक्स-ए-गुल' के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कार मिला
1972 में उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा उनके संग्रह-हार्फ-ए-नीम शब ’के लिए पुरस्कार मिला
1972 में सरूप नारायण उर्दू नज़्म पुरस्कार मिला
उनके संग्रह 'रंग के गीत' के लिए भारत सरकार की ओर से पुरस्कार मिला
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