रविवार, 17 जनवरी 2021

मातृभाषा से मौखिक लय प्रकट होले -- परिचय दास

 मातृभाषा से  मौखिक लय प्रकट होले -- परिचय दास


परिचय दास से साक्षात्कार : डॉ सुमन सिंह )

----------------------------------------


नव नालंदा महाविहार सम विश्वविद्यालय ( संस्कृति मंत्रालय , भारत सरकार ) के हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर आ अध्यक्ष 

परिचय दास भोजपुरी में   निबंध , कविता  आ आलोचना के शिल्प में नई दृष्टि- प्रस्तुति   के प्रयत्न कइले हवें. भोजपुरी  साहित्य  के समकालीनता  के प्रत्यय  से आगे ले गइले आ  सृजनात्मक नवीनता के स्थापत्य दिहला  क कार्य  उनके द्वारा कइल गइल बा .  . कविता , निबंध आ आलोचना के खाली समकालीनता ले  सीमित रखले  से   बचवलें  . भोजपुरी में साहित्य के बड़हन  रेंज परिचय दास  जी दिहलन . लालित्यपूर्ण निबंध के एगो स्तरीय  आ अलीक रूप  उनके सृजन में ह   आ   उनकर  कविता प्रेम, व्यवस्था, प्रकृति, कविता, जीवन , मनुष्यता आदि के बारीक पहलू  के  स्पर्श   करेले   आ  ओके  निबाहेले . सौंदर्य के अति  उत्तरोत्तर आधुनिक  आ पारम्परिक - दूनो पक्षन  के समाहार  से  उनकर साहित्य  अनुस्यूत हो उठेला  . उनकरा में लोक क समकाल ह  आ  भाषा  के   भिन्न रचाव. समकालीनता के  जटिलता  आ वोकरा से  अगहूं   के  दृष्टि   के ऊ  आलोचना में  गहराई से शब्द  दिहला  में समर्थ  भइल  हवें . उनकर  11  से अधिका  खाली  कविता के किताब हईं .  भोजपुरी -हिंदी में  लिखित  आ  संपादित चालीसों  पुस्तक हईं  सन . साहित्य,कला,अनुवाद,लोक संदर्भ, सांस्कृतिक चिंतन, भारतीय साहित्य,साहित्य के  समाजशास्त्र इत्यादि पर कार्य हवे . सृजनात्मक रूप से कविता ,ललित निबंध,आलोचना इत्यादि में  उनकर   हस्तक्षेप ह. इनकर लेख / निबंध /रचना देश के महत्त्वपूर्ण अखबारन आ पत्रिकन  में लगातार छपत रहेलें . नेपाल  में  आयोजित साहित्य अकादेमी की ओर से अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन [2012 ,फ़रवरी ] के  सदस्य रहि चुकल हवें  , जेम्में ऊ  भोजपुरी भाषा-साहित्य पर व्याख्यान दिहले रहलें . वोह  सम्मेलन  में  मैथिली,भोजपुरी ,लिंबू, अवधी , थारू, नेपाली   आ हिन्दी भाषा पर चर्चा भइल रहे . दिल्ली में आयोजित सार्क सम्मेलन में ऊ  कविता -पाठ करि चुकल हवें  [2011].  संस्कृत,हिन्दी,अंग्रेज़ी,भोजपुरी आदि भाषा  में  गति रखेलें .हिन्दी के  प्रतिष्ठित पत्रिका -'इंद्रप्रस्थ भारती'  के  सम्पादन कर चुकल हवें .  मैथिली-भोजपुरी के  पत्रिका '' परिछन''  के संथापक -सम्पादक रहि चुकल हवें .  गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर से हिंदी में पी -एच. डी.  परिचय दास   मैथिली- भोजपुरी अकादमी , दिल्ली  के सचिव आ हिन्दी अकादेमी ,दिल्ली  के सचिव रहि चुकल हवें . हिन्दी अकादेमी,दिल्ली और मैथिली-भोजपुरी अकादेमी,दिल्ली के सचिव  रहत   300 से अधिक नवाचार परक  साहित्यिक -सांस्कृतिक कार्यक्रम  उनका नेतृत्व में आयोजित कइल  गइल  . भारतीय कविता के 3 अखिल भारतीय आयोजन  कइलन ,जेम्में  25 भाषा के साहित्यकार अइलन . एकरे  अलावा आलोचना, निबंध,कथा,अनुवाद आदि के भी आयोजन कइलन  ,जवन  अपन गंभीरता  आ  संसर्ग खातिर  जानल जालें .


 सुमन सिंह -   सबसे  पाहिले त हम ई जानल चाहब कि  आप के निर्मिति में गाँव -जवार , बगइचा , सीवान  , बोली  -बइठकी    क केतना योगदान  रहल  ?


   परिचय दास --  मनई  अपना पारिस्थितिकी के प्रति सदाशय रहेला .हमारा निर्मिति में गांव , बोली, बइठकी आदि के बड़हन भूमिका बा. साँच त ईहे बा कि हमरा भाषा आ बोली के आरम्भ आ परिष्कार अपना गाँव जवार के भित्तरे भइल . हमार गाँव पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिला में भइल रहे जवन अब मऊ जिला  में बा. आजमगढ़ से मऊ जाये वाली रोड पर मोहम्मदाबाद  गोहना तहसील  हवे. मोहम्मदाबाद गोहना से घोसी जाए वाली सड़क पर देवलास  नांव  के एगो  प्रसिद्ध   स्थान  ह .वोही जूँ हमार गाँव रामपुर काँधी हवे . एह   गाँव के आबादी ५००  से भी कम   हवे .   गाँव में हर समाज आ वर्ग के लोग हवे. देवलास एगो सांस्कृतिक   स्थल  होखला  के साथे स्थानीय  स्तर पर शिक्षा  केन्द्रो  ह  . साल  भर  में एक  बेर    छठ  के बरियार    मेला    इहां  लागेला  , कातिक  में दिया-देवारी  के छह  दिन  बाद . वोम्मे   लकड़ी   आ लोहा के  खूबसूरत सामानन  के साथे   रोजमर्रा के चीज मिल जाली सन . ई मेला बहुत पुरान ह आ ई बतावेला   कि सूर्यपूजा के लोक परम्परा केतनी गहिर हवे . हो सकेला , छठ के सबसे पुरान संस्कृतियन   में  से ई एक होखे. एसे  ई सिद्ध  होला  कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में  छठ के सबसे प्राचीन परम्परा हईं सन.  ओके  कुछ अनुष्ठान रूप  बिहार में दिहल गइल होई.  देवलास में उत्तर प्रदेश , आस -पास के प्रदेशन  आ भारत के कुछ हिस्सन से मिठाई के दुकान, सर्कस , मनोरंजन के साधन, पथरचट्टन के कला , पशु आदि आवेलें . नौटंकी , कुछ दूसर  लोकनाट्य आदि एह अवसर पर बहुत अच्छा   किसिम  के होला.  मेला आ छठ के अलावा  भी आम तौर पर आस-पास के देवकली, आरीपुर ,रुक्कुनपुर , वारा सलेमपुर, बरबोझी , सियाबस्ती ,इटौरा -चौबेपुर ,छपरा, बिजौली , मकरी, फुलवरिया , सहुआरी , रामपुर कांधी  आदि गाँवन  के लोग सांझि -सबेरे   ओइजुके बैठिकी लगावेला . हमार प्राथमिक शिक्षा प्राइमरी स्कूल , देवलास में भइल.  वोह घरी वोह स्कूल के प्रधानाचार्य हमरे छोटका बाबा श्री राजवंश लाल जी रहलीं . छठीं से आठवीं तक के शिक्षा देवर्षि जूनियर हाई स्कूल , देवलास , आजमगढ़   में भइल  जेकर नांव अब देवर्षि इण्टर कॉलेज , देवलास , आजमगढ़ ( अब मऊ )  हो गइल बा. उंहां के प्राचार्य श्री वैदेही यादव जी रहलीं . भाषा के जनले -बुझले  के बारे में  माँ   श्रीमती माधुरी देवी आ तीनों दादी श्रीमती शहजादी देवी, श्रीमती सिरताजी देवी आ श्रीमती मेवाती देवी क गहिर असर  हम पर  रहल. इहे लोग प्राथमिक रूप में भोजपुरी के मिठास , लोकगीत आ लोकाचार से परिचित करावल . बाद में गाँव के लोग , इलाका के लोग. माँ लोकगीत के कुशल गायिका रहलीं , ढोलक भी अच्छी बजावें.   छोटकी दादी मेवाती देवी लोक शिल्पकार रहलीं. उनके हर भोजपुरी लोककला  के ज्ञान रहे. उन कर भी असर पड़ल. श्री राजवंश लाल जी हमरे बाबा श्री चंद्रभान लाल जी के छोट भाई रहलीं. अपना  पाठक लोगन के जानि के हर्ष होखी कि श्री राजवंश लाल जी ही हमरा भाषा आ साहित्य के संभावना के पुष्ट कइलीं. उनकर भाषा ज्ञान आ संस्कार  के हमरा ऊपर  बड़हन प्रभाव हवे.  ऊ कक्षा पाँच में हमार हिंदी के गुरु भी रहलीं. उनके ही वजह से हमके भाषा आ साहित्य के बारीकी सीखे के मिलल. कक्षा पाँचे में मीराबाई, कबीर, रसखान , सूर , तुलसी से लेके व्याकरण तक  के ज्ञान से परिचित करवलीं. कक्षा  पाँच में  हिंदी भाषा पर काफी पकड़ हो गइल रहे आ श्रुतलेख में प्राय: कवनो गलती ना निकले. चूँकि श्री राजवंश लाल जी के भोजपुरी बोलले, पढ़ले के तरीका बहुत उत्कृष्ट रहे , एसे हमके एगो मानक मिल गइल जेकरे आधार पर हम आगे बढ़ि सकीं. बाबा क उर्दू, अंग्रेजी पर भी अधिकार रहे.  बाबा कहें , वोही घरी कि हम अगर साहित्य में जाईं   त अच्छा  क सकीले . शुरू में संस्कृत के श्लोक रटवले    से लेके उर्दू  शायरी सुनावें.  पहिली संस्कृत रचना जवन ऊ हमके रटवलें , ऊ रहे -  ' या कुंदेंदु तुषार हार धवला ' . कक्षा  ६ के पहिले उहे हमके अंग्रेजी सिखावे शुरू कइलें. उर्दू भी पढ़ावल गइल हमके ,  बाकिर अब खाली वोकर इयादे रहि गइल बा. एह तरह से उनकर हमरे जीवन पर मार्मिक असर ह. ऊ हमरे पिता जी क भी गुरु रहि चुकल रहलें. पूरा इलाका में शिक्षा के प्रसार में उनकर योगदान हवे. उनकर पढ़ावल सैकड़न विद्यार्थी अच्छी अच्छी जगह पर गइलन . फ़ारसी शायरी , जइसे शेखसादी वगैरह के बारे में बड़का बाबा श्री चंद्रभान लाल जी , जे सहायक चकबंदी अधिकारी रहि  चुकल रहलें , हमके बतवलें. उनके हिंदी, अरबी, फ़ारसी, उर्दू वगैरह के ज्ञान रहे. फ़ारसी के कविता  कहत जांय आ वोकर हिंदी में अर्थ बतावत जांय. ऊहे हमार नांव रवींद्र नाथ रखलें .  बता  दीं  कि हमार मूल   नांव रवींद्र नाथ ह . कहल जाला कि बाबा श्री चंद्रभान लाल जी हमार नांव एह  लिए  रवींद्र नाथ  रखलें कि उनके ऊपर रवींद्र नाथ टैगोर के बहुत  असर रहे. ऊ  गाँव के लोगन से कहलन कि  हमर पोता रवींद्र नाथ टैगोर जइसन  बनी.  ई उनकर  भावना रहे .  रवींद्र नाथ टैगोर  जइसन कृतिकार होखल आ ऊ सिद्धि पावल कवनहूँ  रचनाकार के सपना हो सकेला . भोजपुरी खातिर हमनी के  एक ठो छोटहन  डेग रख देले बानी जा.  खैर, अपना परिवार में सृजनधर्मिता त रहबे कइल.  पिता जी श्री राजेंद्र लाल जी स्वयं भोजपुरी , हिंदी, अंग्रेजी , संस्कृत के जानकार हईं. ऊ डीे ए वी कालेज, आजमगढ़ से बी ए  हईं  आ शिब्ली कालेज , आजमगढ़ से एल एल बी  के पहिला साल पूरा कइले रहीं. ऊ स्थानीय स्तर पर  भोजपुरी के  लोकगायक रहल हईं. होली के अवसर पर उनकर गावल गीत गाँव जवार में बहुते प्रसिद्ध ह. सावन, चैती वगैरह के अवसर पर भी ऊ अच्छा गावें. भजन आदि पर भी उनकर अधिकार रहल ह.   गावे  खातिर  कुछ  आपन गीत भी लिखें. उनकर लिखल  गीतन   क  हस्तलिखित कॉपी हम देखले हईं  बाकिर पिता जी न कबहूँ खुद वोके छपवलें न कबहूँ हमसे  कहलें . कई गो पत्रिको  घरे आवे. बाबा आ पिता जी  कुछ अच्छी किताबो ले आवें. राजवंश लाल जी  हमके ढेर सारी किताब बचपने में ले आ के दे दिहले रहें जे के हम धीरे धीरे पढ़लीं , जइसे ईसप के कहानी, पंचतंत्र  के कहानी, प्रेमचंद , सोहन लाल द्विवेदी , श्याम नारायण पांडेय , रवींद्र नाथ ठाकुर के बाल कहानी , मैथिलीशरण गुप्त के कविता, सियारामशरण गुप्त के कविता , सुदर्शन के कहानी आदि.  कब्बो हिंदी व्याकरण आ अंग्रेजी व्याकरण के किताबो दें. भोजपुरी के किताब देवलास के मेला में मिले . ज्यादातर लोकगीत के. कुछ भोजपुरी लोककथा हिंदी में पढ़े के मिले जेवन  सस्ता साहित्य मंडल से रहे . सोरठी बृजभार , नैका बंजारा के पँवारा वगैरह भी मिले , शायद ठाकुर प्रसाद एंड संस याकि कलकत्ता के कवनो प्रकाशक  से. पिता जी के नाते  संस्कृत के कई गो किताब घर में रहली. जेके हम कब्बो कब्बो पढ़ीं. 


साहित्य आ भाषा के प्रति हमार शुरुए से लगाव रहे. हर भाषा शिक्षक के पढ़ावल हम बहुत ध्यान से पढ़ीं आ ओके सीखीं. शिक्षक के मान देईं.स्थानीय स्तर पर श्री विजयशंकर पांडेय जी से संस्कृत , श्री विश्वनाथ यादव जी, श्री भृगुनाथ यादव जी, श्री दुब्बर राम जी, श्री  सूर्यनाथ सिंह जी से हिंदी , श्री रवींद्र नाथ त्रिपाठी से साइंस ,  जनाब फारुकी साहब आ श्री जगरूप राम जी से गणित , श्री नन्हकू राम  जी से सामाजिक  विज्ञान के दिहल  शिक्षा के असर हमरा पर बा. श्री विजयशंकर पांडेय जी के वजह से हमके संस्कृत के रूप से लेके साहित्य तक में गहिर रूचि पैदा भइल. श्री विश्वनाथ यादव जी खुद कवि हईं . उनकर लिखल ' बार बार बेहया का वंदन ' हमरा अंतस्थल में उतर चुकल रहे. श्री भृगुनाथ यादव जी के साहित्य के बारीकी रहे. उनकर पढ़ावल तुलसी के  रचना के पंक्ति   - ' बलि जाउँ लला इन बोलन की ' के  साहित्य में अन्यार्थ के माध्यम  से ' बलि जाउँ  ललाइन बोलन की '  के रूप में व्याख्या कइले रहें. उनके अंदर क्षमता रहे कि भाषा के जइसे चाहें मोड़ दें , व्यंग्य के धार दे दें. बी ए  में  प्रोफ़ेसर अशोक कुमार जी से अंग्रेजी सीखे के मिलल . अशोक जी अंग्रेजी साहित्य के अलावा प्राचीन शास्त्रन में रुचि लें आ वोकर युगानुरूप व्याख्या करें. गीता प्रेस के किताब वगैरह भी पढ़ें. बी ए में हम  राजकीय डिग्री कालेज , मोहम्मदाबाद गोहना, आज़मगढ़ (अब मऊ ) के पत्रिका के छात्र सम्पादक भी रहलीं.  


बीच में इण्टर साइंस के पढ़ाई खातिर हम इलाहाबाद  के सी ए वी कालेज  में  गइलीं . हमार पहली प्रकाशित रचना एहिजुके के पत्रिका में ह ( सन १९७९ ). अगले साल भी वोही पत्रिका में रचना छपल. सम्पादक रहलीं विद्वान्   अध्यापक   श्री नरेश  सहगल  जी. हमके ना पता आज उनके ई याद होखी भी ना बाकिर श्रीमान सहगल साहब  पहिल बार हमार रचना ( कहानी ) छपलन  . उनके वोह रचना में कुछ स्फुरण दिखाई देहले होई. बाद में छपले के बाद ऊ हमसे कहलन - ' तुम्हारी कहानी में पिता शब्द आया था. इसे ज़रुरत के मुताबिक़ मैंने धर्मपिता कर दिया है  ' . वोह समय के शिक्षक आ सम्पादक एगो श्रेष्ठ लैंगुएज ट्रेनर भी होखें.  कालेज में एगो साधारण गाँव के  साधारण विद्यार्थी के रचना इज्जति से छपल (१९७९ ). एही कालेज से हमके निबंध खातिर पहिला  , कविता खातिर दूसरा  आ व्याख्यान खातिर दूसरा  पुरस्कार मिलल. सम्मान  हमके  बड़हन रचनाकार  श्री नागार्जुन के हाथ से दियावल गइल.  नागार्जुन जी मंच से कहलीं - ' अरे भाई , यह लड़का कौन है  ,  अकेले ही  जिसको तीन पुरस्कार  दिए गए ?  बेटा, मैं  यहीं  प्रयाग हिंदी साहित्य सम्मेलन  में ठहरा हूँ , शाम को  मिलना '' . हमरा खातिर ई गौरव के बाति रहे . ऊँहें  कालेज -मंच पर नागार्जुन के मुख से उनकर प्रसिद्ध कविता सुनलीं -- ' कालिदास सच -सच बतलाना '.  ऊ हँसि के हमनी  के  कालेज -प्राचार्य से  कहलीं कि ई उनकर सौभाग्यवती कविता हवे , जेके प्राय: सुनावे के कहल जाला. खैर , हमनी तीन विद्यार्थी नागार्जुन जी से मिले गइलीं जा सांझि के बेरा हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग में . नागार्जुन जी से पता चलल कि ऊ त कई भाषा में कविता लिखेलन. हिंदी, संस्कृत, मैथिली , बांग्ला , पाली आदि. हम विद्यार्थियन से  कहलन कि कई बेर अच्छी प्रेम कविता के हिंदी में ऊ स्वागत ना होला जइसे बांग्ला में होला . एही कारन  हम अनेक बेर बांग्ला में ई कोमल अभिव्यक्ति आ ऐन्द्रिकता ले आईले. फिर हम से पुछलन - ' तोहार महतारी के बोली का ह ' ? ' भोजपुरी ', हम बतवलीं.  ' तब त तोहके भोजपुरी में भी लिखे के चाहीं '. ई बाति ऊ खाँटी भोजपुरी में कहलन . ऊ बतवलन कि  भोजपुरी के बहुत पुरान परंपरा ह. उनकर ई प्रेरणा काम कर गइल  आ हम भोजपुरी में लिखे  आ भोजपुरी साहित्य के ठीक से पढ़े  शुरू कइलीं. हमरे अंदर भोजपुरी के लेके दृढ़ता आइल. आज हमार  भोजपुरी आ हिंदी लेखन लगातार  जारी हवे . इलाहाबाद के के वातावरण वोह घरी बहुत रचनात्मक रहे . उंहां के गहिर प्रभाव बा हमरा उप्पर .कवि , लेखक , पत्रकार , वैज्ञानिक , अध्यापक , प्रेषक सब केहू कहीं न कहीं सृजनात्मक रहे. गणित के अध्यापक होके भी प्रोफ़ेसर टी. पति  साहित्य में गहिर रुचि लें . एह तरह  भाषा -साहित्य के झंकृति उंहां के फिजा में रहे. उंहां  कई  गो  प्रकाशन  गृह  रहलें . उसे ई होखे कि रुचि के किताब लेके पढ़ल जाव. आकाशवाणी , इलाहाबाद में १९७९ में हमरा  बारे में  इंटरव्यू लिहल गइल आ रचनो प्रसारित भइल.  इलाहाबादे में हम तीसरी कसम फिल्म इलाहाबाद पॉलिटेक्निक में देखलीं आ लगातार फणीश्वर नाथ  रेणु  के रचना लोकभारती प्रकाशन से कीन के पढ़लीं. ईहे हमार निर्मिति के समय रहे. इलाहाबाद में ओकरे फुलला फरइला के अवसर मिलल. फिज़िक्स के क्लास में भी कब्बो -कब्बो  ' मैला आँचल ' पढ़ीं. खैर , ई त ठीक ना रहे बाकिर शायद साहित्ये में गइला के ऊ रूप -रेखा तैयार होत रहे.  श्री गाँधी  पोस्ट ग्रेजुएट कालेज, मालटारी , आजमगढ़ से समकालीन साहित्य के समझ आ गोरखपुर विश्वविद्यालय से साहित्य पर समालोचनात्मक दृष्टि मिलल.  


सुमन सिंह -- लेखन  के क्षेत्र में कब आ कइसे अइलीं ? प्रेरक के रहल ?


परिचय दास --  हमार परिवार , शिक्षकगण आ समाज हमके ऊ वातावरण दिहलन कि हम लिख पवलीं . जइसन कि पहिलहीं बता चुकल हईं कि भाषा आ साहित्य में हमार स्वयं  रुचि रहे . भाषा के शिक्षकन  के सनेह रहे , बाबा , माँ , आजी आ पिता जी सबही क्रिएटिव रहे. कुछ अंदर से स्फुरण , कुछ घर के प्रभाव , कुछ समाज के स्थिति  आ अच्छी पुस्तकन  के पढ़ले के कारन प्रेरणा भइल. तब लागल कि सृजनात्मक कार्य करे के चाहीं , लिखे के चाहीं. यानि लिखले बगैर आदिमी ना रहि सके. परिवारी जन के भाव लोकपरक रहे. हम समकालीन परिदृश्य के मुताबिक़ रचना करे शुरू कइलीं , लोक आ परम्परा समेटत . भोजपुरी  भाषा   में एगो स्तर के निरूपण श्री राजवंश लाल जी से मिलल , आ  भोजपुरी भाषा में साहित्य -रचना  के  निदेश  नागार्जुन जी से . यद्यपि  साहित्य के हमार रास्ता  अलग संरचना  , अलग शैली  आ भिन्न मार्ग  की ओर गइल , जवन स्वाभाविक बा.  


सुमन सिंह -- पहिले हिंदी में लिखे शुरू कइलीं  कि भोजपुरी में ?


परिचय दास --  निश्चित रूप से भोजपुरी में . १९७५ में पहिल भोजपुरी  रचना  : मज़दूरन के हड़ताल पर . बाकिर प्रकाशित रचना के रिकॉर्ड हिंदी खड़ी बोली के नांव बा- १९७९ में इलाहाबाद के  सी ए वी कालेज पत्रिका में. 


 सुमन सिंह -- भोजपुरीआप भोजपुरी आ हिंदी दूनों में कविता , लेख , निबंध , कहानी , आलोचना , संस्मरण वगैरह लिखीलां . कवन विधा आप के ढेर निकट हवे ? 


परिचय दास -- ई कहल मुश्किल हवे . हर विधा के आपन संरचना आ तमीज़ हवे . एसे जवन बात एक विधा में पूरी ना हो पावेले ऊ दूसरी विधा में हम कहीले.  जइसे ई बुज्झीं कि संश्लिष्ट गद्यात्मकता के आपन स्वरुप हवे आ कविता के आपन.  हमके निबंध लिखिके आपन बात  लालित्यपूर्ण ढंग से कहला के अवसर मिलेला , जबकि कविता में  एगो विशिष्ट तरलता . कहनी त बहुत कम लिखले हईं , यद्यपि पहिल प्रेषित रचना कहनिये हवे. उपन्यास लिखला के मन बा , महाकाव्यात्मक फलक पर . ई आरम्भो  कइले हईं. एक तरह से गद्य के महाकाव्य. आलोचना में हम संतुलन के प्रयत्न करीले . कविता क एगो अइसन रूप हम ले आवे जा रहल हईं जवन विशिष्ट होखी. कोशिश हमार ईहे ह कि अद्वितीयता आवे , कुछ अलीक होखे. 


सुमन सिंह --  आप के व्यक्तित्व के विविध आयाम हवे. आप साहित्यकार , चित्रकार , नाट्यकर्मी, गायक हईं. कइसे संभव   भइल , कला के विविध पक्ष  के निबाह  ?


परिचय दास -- देखीं , सगरो कला के मूल एक्के ह . हर कला के दूसर  कला से एगो सहित-सम्बन्ध हवे , गहिर जुड़ाव हवे. जवन बात साहित्य में ना पावेला ऊ चित्रकला में आ जाला . गायन से अलग खुशी मिलेला. हमके लोकशैली के गायन ढेर पसंद ह आ समय -समय पर हम गइबो करीले.  नाट्यकर्म सबकर मेल हवे.  नौटंकी में बहर-ए -तबील में गावल एगो अलगे रंग जमावेला. चैती, कजरी, होरी, सोहर आदि त गइबे करीलां.  कई बेर प्रयोगो करीलां - एगो कविता पर चित्र , फिर वोकर सांगीतिक प्रस्तुत . इन सबके बीच एक अंतर अनुशासनिक अन्तर्सम्बन्ध हवे.  भरथरी  जी के कहनांव ह कि  साहित्य, संगीत आ कला के बगैर कवनो  जिनिगी ह ? बस हमार ईहे पक्ष रहेला कि वास्तविक सृजनकर्म मात्र प्रचार क साधन ना  हो सकेला. वोके अइसन रचे के चाहीं कि वोकर अंतस मर्म प्रकटित  होखे. 


 सुमन सिंह -- आखिर का कारन ह कि भोजपुरी भाषा आ साहित्य के उत्थान खातिर व्यक्तिगत आ संस्थागत स्तर पर जवन कदम उठावल जात ह ऊ कारगर ना हो पावत ह ?


परिचय दास -- व्यक्तिगत स्तर पर उत्थान साहित्य , कला, संगीत आदि सृजन के रूप में होखी. ऊ श्रेष्ठ कोटि के रही त  वोकर भविष्य  ह. संस्थागत   रूप से  साहित्य आ भाषा के उचित प्रसार , सही लोगन ले पहुंचावल जरूरी ह. यदि  उहाँ से  अल्पमोली संस्करण के रूप में श्रेष्ठ साहित्य दे पावल जाय  त बहुते अच्छी बात . संस्था के शीर्ष पर आ सगरो ढांचा में साहित्य -संस्कृति -सुधी व्यक्तियन  के रहला से गति आई. भोजपुरी समाजो के चाहीं कि अपना भाषा आ साहित्य में रुचि देखावो .वोके चाहीं कि अइसन माहौल बनावो कि भोजपुरी के पठन -पाठन हो सके , वोह संस्कृति के सहज विकास हो सके. गाँव -गाँव में एह ढंग के प्रयास चाहीं. लेखक  आ कवि  लोगन के छोड़   के  केतना लोग सामान्य जनता से बा जे भोजपुरी बोलला के साथे भोजपुरी में लिखला के प्रयत्न करेला ? लिखला के त बात छोड़ दीं , चिट्ठी -पत्री  आदि भी भोजपुरी में लिखेला ( ?  ) . अगर चिट्ठी के ज़माना ख़तम हो गइल बा त संचार के माध्यमन  में भोजपुरी के उपयोग करेला ( ? ). जरूर भोजपुरी में कमेंट करीं . न लिखत होखीं त कब्बो -कब्बो लिखीं. वोसे एगो माहौल बनी  , सक्रियता आई. शासन  के चाहीं  आ समाज के भी  कि  अच्छी पुस्तक आवें, अच्छा संगीत आवे ,अच्छी कला के विस्तार होखे . ई कोशिश  जारी  रहे. अगर  कहीं कमी बा त अंतस -चिंतन  क के वोके दूर करे के चाहीं. सबसे पहिले त भाषा -साहित्य -संस्कृति के प्रति अनुराग होखे आ वोकर प्रस्तुति भी. अगर  भोजपुरी में अच्छा साहित्य , संगीत , कला निखर आई  आ जन-मानस में सहज स्वाभिमान   त दुनिया क कवनो समाज हमनी के इंकार ना कर पायी.  कोशिश त बा  हम  सबकर , बाकिर एम्में अउर गति आवे के चाहीं. 


 सुमन सिंह -- आप नाट्यकर्मी हईं .एसे  जानल चाहब कि भोजपुरी नाटकन क वर्तमान में का स्थिति ह ? काहें भोजपुरी सिनेमा क अश्लीलता से भोजपुरी क कुल गौरव ढंका-टोपा गइल ह ? भोजपुरी सिनेमा के भूत , भविष्य  आ वर्तमान पर कवनों टिप्पणी कइल चाहब ?


परिचय दास -- भोजपुरी नाटकन के आज के प्रोफेशनल लोगन से ई सवाल पुछाइत  त ज्यादा ठीक रहित  बाकिर कुछ जवन आपन  नाटकन के  सैद्धांतिक अध्ययन , नौटंकी आ लोकनाट्य में अभिनय -निर्देशन आ नाट्यसमीक्षा से जुड़ाव के  जवन  अनुभव आ दृष्टि बा वोकरा  अनुसार  राउर  सवाल के जवाब  दियाई . भोजपुरी नाटक अपना बले पर करे के होखी. कुछ लोगन के संस्थागत सहयोग मिल जाला बाकिर जियादातर के त संघर्षे करके पड़ेला . उत्तर भारत में नाटकन के स्थिति कठिनाई भरल हवे . एक त अच्छे लेखक के रचना मिले , दूसर ऊ टीम वर्क हवे त वोकरे तैयारी , रिहर्सल आदि में खर्चा. सेट , डिज़ाइन , हाल आदि के व्यय. कलाकारन के भी कुछ देवे के होखी. सबसे बाद बाति ह - लोगन के रुचि पर सवाल .ई रुचि विकसित करे के होई. गाँव-गाँव  में , शहर-छोट शहर  में एगो लहर ले आवे के होखी. ई आसान नइखे. सबसे कठिन ह रुचि -बोध के परिष्कृत कइल. गाँव में जवन लोकपरम्परा रहे वोके जगावे के होखी , समकालीन रूप में. नई दृष्टि के साथे. रचना के प्रस्तुति में स्तर पर धियान देवे के होखी.  आज के समझ के साथ कुछ रुचिशील   बिंदु  डाले के चाहीं जैसे नाटक में उत्सुकता बनल रहे. गवईं राजनीति के थोड़ा कम क के संस्कृति पर भी धियान देवे के होखी. ' एक महीना में एक नाटक ' -- ई अभियान छेड़े के चाहीं . गाँव के नवछेड़िया लइका बढ़- चढ़ के हिस्सा लें . 


 गाँव के लइका पारी -पारा अलग अलग भूमिका करें. अगर पैसा ना जुटे त अतवार के दुपहरिया में गाँव के सामने प्रस्तुति होखे , सामान्य तौर  पर , एगो चौकी रख के.  वइसे हर प्रदेश में नाट्य अकादमी हईं सन ,  उनके भी चाहीं कि एह अभियान में यथासंभव सहयोग करें. एक ढोलक , एक हारमोनियम , झाल वगैरह से संगीत के प्रस्तुति हो सकेला. बाकिर महत्त्वपूर्ण ह -- नाटक में नई तकनीक के प्रवेश. वोकरे बगैर नाटक पिछड़ल लगी. त बीच बीच में जिला ,प्रदेश आ देश  स्तर पर कवनो   नाट्य निर्देशक के  ले अइले के प्रयत्न करीं. एसे ई होई कि नाटक में प्रोफेशल टच आ जाई . जिला सूचना अधिकारी से बात करीं . ब्लॉक , तहसील, जिला, प्रदेश के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग के कवनो न कवनो आधार मिली , वोके लीं.  सूचना  प्रसारण  मंत्रालय   के गीत- नाटक प्रभाग  से सहयोग लीं . शिक्षा , संस्कृति आ दुसरा विभागन से बात-चीत करीं. आर्थिक आ अकादमिक सहायता कवनो ना कवनो विधि मिली .   जनता से सहयोग लीं. आपन प्रयत्न त राखबे करीं. सबसे बड़हन बाति ह - निरंतरता , दृष्टि के परिष्कार आ रुचिबोध .  नाटक दिल्ली, पटना, कोलकाता , जमशेदपुर, रांची , बनबारास, गोरखपुर वगैरह में भी खेलल जालें . नाटकन में आर्थिकी के साथ-साथ वोकर अकादमिक पहलुओं देखे के चाहीं. कुछ प्रोफेशनल लोग अच्छा कर रहल बा . ई थोड़ा व्यापक होखे के चाहीं. विशेष कर भोजपुरी में.  भिखारी ठाकुर के सम्मान बा सबके मन में , बाकिर उनका बाद के लिखल नाटक पर भी जाए के चाहीं. हो सकेला  बाद वाले उन्हनिन में से क्लासिक निकरि आवे. क्लासिक त क्रिएट करे  के पड़ी. आखिर 'अंधा युग ' कइसे हिंदी में क्लासिक हो गइल. एम्मे खाली एह नाटक के श्रेष्ठ सर्जने के भूमिका नइखे बलुक वोकरा प्रस्तुति , पात्र- चयन , सेट , जगह , निर्देशन , संगीत ,  वगैरह के भी भूमिका बा. जरूरी प्रयोगशीलता  भी चाहीं.  खराब रचना या नाटक के लाइजनिंग के बल पर कवनो प्रस्तुति समय के बाद ना टिकी. लाइजनिंग के बल पर कवनो साहित्य आ रचनाकार  समयोत्तर ना टिक पावे.


जहां तक भोजपुरी सिनेमा  ( पुरान भोजपुरी में  ' सलीमा '  शब्द ) में अश्लीलता के सवाल ह त ' अश्लीलता ' अमूर्त शब्द हवे.   काम -भावना  आ ऐन्द्रिकता के चित्रण एगो अलग बाति हवे जब कि सामाजिक रुग्णता भिन्न चीज. निश्छल तरलता प्रेम ह जब कि काम -भावना के भद्द पेशगी  इन्द्रिय -उत्तेजना  आ जुगुप्सा की ओर. एह तरह से ई कुंठा के स्तरहीन प्रस्तुति  होला. आ ई कुल्हि व्यापार आ बेंचे खातिर होखे त प्रश्न उठेला. खजुराहो में सब कुछ के बादो अश्लीलता नइखे , सूर ,  विद्यापति  , जयदेव आ चंडीदास में एगो ऊंचाई हवे.  सिनेमा में  अगर कहीं छिछल फुहरपन आ रहल बा त वोकर कारन क्षणिक उत्तेजना के भँजावल आ बेचल ह. एसे सिनेमा के स्तर गिरी. भोजपुरी के लग्गे सिनेमा खातिर स्ट्रांग विज़ुअल , कॉन्टेंट आ सिचुएशन हवे , ऊ सामने ले आवे के चाहीं. एसे ओके मान बढ़ीं . ओकरे पास ' गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबों ' जइसन क्लासिक फिल्म हवे , ओकर धियान करे के चाहीं. कवनो चीज़ में सुंदरता देखल दृष्टि आ अंतर्भाव पर निर्भर हवे. दृश्य , वाक्य , शब्द के उपयोग सापेक्षिक होला आ एही आधार पर मूल्यांकनो . फिल्म में भाषा के गिरावट आ  स्तरहीन द्विअर्थी संवाद  ऐन्द्रिकता के भद्दगी में बदलला से , चाहे कवनो दृश्य में स्त्री-पुरुष के प्रसंग के ' सिर्फ उत्तेजना ' के कारन बनवला से  मूल सृजनात्मकता पर आंच आई. अच्छी सोच , अच्छी दृष्टि आ अच्छे प्रोफ़ेशनलिज़्म  के साथे सिनेमा के निर्माण होखे के चाहीं. अच्छा संवाद , अच्छी सिनेमेटोग्राफी ,  अच्छा निर्देशन, अच्छा अभिनय आ सही  जगह प्रदर्शन .रिस्क ले के दर्शकन के रुचि परिष्कार भी करे के चाहीं. ई सही ह कि फिल्म   में पइसा लागल होला  त पइसा आवेके चाहीं  बाकिर कवनो सिनेमा कृति अच्छी होई त ऊ समय के सन्दर्भ बन जाई आ हमनी के अस्मिता के रूप में ठाढ़ हो जाई. अगर ' गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबों '  क्लासिक फिल्म हवे त वोकरे पाछे क्लासिक दृष्टियो रहल होखी. आज के समय के देखत फिल्म के शिल्प में बदलाव  ले आवत निर्माण होखे के चाहीं . फिल्म निर्माण में  स्तरीयता चाहीं , भोंड़ापन से दर्शकन के क्षणिक रूप से उत्तेजित कइल जा सकल जाला बाकिर चित्त के परिष्कार संभव नइखे. भोजपुरी के आत्मा  के जगावे खातिर स्तरीय सृजनात्मकता ले आईं . भोजपुरी सिनेमा के पास व्यापक क्षेत्र ह.   उत्तर प्रदेश , बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़, दिल्ली , बंगाल के शहरन  में , ओड़िशा , असम के शहरन  में , पंजाब के शहरन  में  , महाराष्ट्र के शहरन -जइसे मुंबई  आदि में, गुजरात के सूरत  आदि में भोजपुरी फिल्मन के प्रसार ह.  एकरे अलावा देश से बहरे मारिशस , त्रिनिदाद , सूरीनाम ,नेपाल , फिजी, गुयाना, नीदरलैंड आदि में भी भोजपुरी सिनेमा के दर्शक हवें.  भोजपुरी आदिमी के सम्मान आ इमेज के ध्यान देत  भोजपुरी फिल्म के निर्माण करे के चाहीं. यद्यपि मल्टीप्लैक्स सिनेमा हाल के कारन भोजपुरी सिनेमा के प्रदर्शन पर असर भइल हवे. छोट शहरन के छोट सिनेमा हालन के बंद होखले के स्थिति में ई दिक्कत आ रहल बा. बाकिर एकर उपाय निकारे के होखी , एकर  समुचित हल ढूंढे के होखी .जवन फिल्म साफ़ -सुथरी  बन रहल होखें  , उनके प्रोमोट कइले के तरीका ले आवे के होखी. अच्छी कलाकृति के जनता ले पहुँचहीं के चाहीं. 


 सुमन सिंह --  का भोजपुरी साहित्य के मूल्यांकन  वइसे ना हो पाइल   जइसे अन्य  क्षेत्रीय  बोली भाषा के भइल ? का कारन ह ई उपेक्षा के पीछे ?


परिचय दास -- ई मूल्यांकन  के  करेला ? मूल्यांकन वोकरे के लिखनहार लोग करेला. जब समाज अपन भाषा के बरती , आपन साहित्य के पढ़ी त एगो दृष्टि बनी. अबहिन ले इहो नइखे हो पावल कि भोजपुरी में का लिखाता आ  का पढ़ाता ! एकर कवनो ठोस डाटा नइखे. एकाध जो एन्साइक्लोपीडिया आइल बाड़ी सन बाकिर ू पर्याप्त ना.  त जब कवनो पाठक , चाहे भाषा -प्रेमी के अपना धरोहर के पुरहर पते ना रही कि पाहिले का लिखाइल बा  आ यह टाइम का श्रेष्ठ लिखाता त कैसे मूल्यांकन होई ! दूसर बात ई ह कि भोजपुरी में श्रेष्ठ रचना के मूल्यांकन खातिर जवान मनोयोग चाहीं वोकर लगातार बनल रहल जरूरी हवे . भोजपुरी साहित्य के मूल्यांकन खातिर एगो जाहिर वस्तुनिष्ठ दृष्टि चाहीं . एह भाषा के बोले -बरते वाले लोग पहिले खुद मूल्यांकन  करें , समाज आपन साहित्य के इज्जति दे. ई बहुत महत्त्वपूर्ण हवे. एह भाषा के सत्ता के  पूरा  समन्वयन  न  मिलल . एकर जगह वैधानिक रूप में  भी  होखे के चाहीं. बाकिर वैधानिकता कवनो भाषा के श्रेष्ठता न दियवा सकेले . वोकरे खातिर भाषा  आ साहित्य के श्रेष्ठता होखे के चाहीं. जब साहित्य के श्रेष्ठता रही , जब भोजपुरी भाषा के आपन थिएटर के क़्वालिटी रही , जब फिल्मन के गुणवत्ता रही , जब  साफ़ सुत्थर ( द्विअर्थी ना ) भोजपुरी संगीत  के तूती बोली त कवनो वजह न कि भारतीय समाज एके प्राथमिक वैल्यू न दे. आखिर असमिया फिल्मकार जाहनु  बरुआ  के फिल्मन के दूसरी भाषा में पुरहर सम्मान हवे , सब केहू अडूर गोपालकृष्णन के इज्जत देला . उनकर मलयाली फिल्मन के सम्मान करेला , चाहे ऊ मलयालम जानत होखे चाहे ना. कुछ अपना संस्कृति के उत्कृष्टता खातिर जनता से लेके बौद्धिक  आ लिखनिहार  लोगन के भी प्रयास करे के चाहीं कि ऊ अउर लोगन ले पहुँचे . 


सुमन सिंह --  आप क ललित निबंध की ओर कइसे झुकाव भइल ? ललित निबंध वइसहीं बहुत कम लिखल गइल बा , ओकरा बादो ओकर उपलब्धता नइखे ?


परिचय दास -- हमार बचपने से निबंध की ओर झुकाव ह. ई काहें ह , एकर व्यक्ति के मनश्चित्त से सम्बन्ध ह. परीक्षा  में उत्तरन   के अलावा   पहिल  बेर हम निबंध  कक्षा १२  में अपना विद्यालय -- इलाहाबाद के सी. ए. वी. इण्टर कालेज के  विद्यालय  शैक्षिक -सांस्कृतिक समिति द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में  1979  में  लिखलीं.  वोमे कई जो विषय राखल रहल . हम विषय चुनलीं - ' सत्य '. वोह निबंध में हम लिखलीं - ' सत्य बोलला के अभ्यास से अइसन हो जाई   कि जवने बोलबा ऊहे सत्य हो जाई . ई सत्य के आचरण में उतरला के प्रतिश्रुति हवे '. ऊ निबंध एक तरह से ललित निबंध ही रहे. वोके प्रथम पुरस्कार दिहल गइल . अध्यापक लोग वो निबंध के पढ़ी के विद्यार्थियन के सुनावें. हम सोचीं कि अइसन का लिख दिहली अपना निबंध में कि एतना ......  !   शिक्षक लोग हमरा भीतर एगो सम्भावना देखल कि गद्य के ईहो रूप हो सकेला. बाद में निर्णायक मंडल खुदे हमसे ई बात कहलस. हमके पुरस्कार श्री नागार्जुन के हाथ से दियावल गइल. जहां ले ललित निबंध विधा के बाति बा , ई सच बा कि एह में सर्जना कमें होला. गद्यं कवीनां निकषं वदंति. अच्छा  निबंध गद्य के प्रतिमान ह आ ललित निबंध हमरा दृष्टि में निबंध के प्रतिमान. एम्में कल्पना के स्फीति , परम्परा के अवगाहन , समकाल पर दृष्टि आदि जरूरी ह. एसे आज के भाग-दौड़ के समय में प्रसन्न गद्य कठिन हो गइल बा  हाँ , ई जरूर?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...