सीमा मधुरिमा जी आपने बहुत अच्छा और तीखी स्पष्टता के साथ लिखा है .
आपका लिखा पढ़ कर मुझे कुछ वर्ष पूर्व लिखी अपनी कविता याद आई .यह कविता एक कवि की रचना पढ़ कर लिखी थी . उक्त कवि ने यह सिद्ध करना चाहा कि स्त्री प्रेम के लिए पुरुष के हर बंधन को डर के स्वीकार करती है . आशा है आपको मेरा लिखा अच्छा लगेगा
-स्त्री का सच ! -
और पुरुष ने जाना -
डर गई स्त्री
ऐसी दुर्बल कब थी वो ?
हाँ , मैं जानती हूँ
वो प्रेम के लिए
पिंजरे में क़ैद है
आभूषण जान कर
पशु की तरह
ज़ंजीर पहनी है
कंक्रीट के ढेर को
घर समझ
स्वर्ग बनाने में जुटी है .
पुरुष ने जाना -
वृक्ष-पुल्लिंग
लता - स्त्रीलिंग
आहा ! !
अपनी निर्बलता के कारण
सहारा लेती है .
सागर -पुल्लिंग
नदी - स्त्रीलिंग
देखा !!
मिलने को हरहराती
दौड़ी आती है .
इन उपमाओं के भ्रम में
उसे डरा जाना
यह भी जानो -
युद्ध-पुल्लिंग
शांति-स्त्रीलिंग
संहार -पुल्लिंग
सृष्टि -स्त्रीलिंग
सृजन की क्षमता रखने वाली
कभी नहीं डरी
इस संसार में पुरुष
मानव बन कर रहे
केवल इस कारण
प्रेम के भार से वो झुकी !
और पुरुष ने जाना -
डर गई स्त्री !
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