मंगलवार, 5 जनवरी 2021

विनोद विमल बलिया की कविता

 पगडंडियों के बीच-


प्रयासरत हो! उठने को!

बार-बार और लगातार

नाकाम कोशिशों के बीच

गिरते-पड़ते अंततः सफल हो ही गया

मैं अपने बार-बार

गिरकर उठने की प्रक्रिया में!


अब अगली बारी थी

मेरे चलना सीखने की।

बिना खास मुश्किलों के ही

मैं अपने पांव बढ़ाने सीख ही लिया।


उत्साहित हो प्रथम जीत से

अब तो मुझे बस

मंजिल ही दिख रही थी

मंजिल को लक्ष्य बनाकर!

पुनः प्रयासरत हो !

एकाग्रचित्त और समर्पित हो

पाने को लक्ष्य

अग्रेसित हुआ चलने को


यद्यपि निरालम्ब ही आपा-धापी में

मैं निकल पड़ा चलने को

अपने लक्ष्य के पथ पर।

उत्साहित भी हूँ पूर्व में हासिल सफलता से

और नवीन संचार - संधान से अभिभूत

आश्वश्त भी हूँ कि

अब चलने में रखा ही क्या है?


अभी कुछ दूर ही तो चला हूँ मैं

एकल मार्ग पकड़ कर

जो शुरुआत में एक समान ही

बस दूर भर प्रतीत हो रहा है।


लेकिन यह क्या?

माथा चकराया मेरा।

एकल मार्ग अब बहुसंख्यक होता गया

जिस मार्ग में अब तक एकरूपता थी

कैसे बहुरूपता में बदलता गया?


मस्तिष्क भन्नाया ! और मैं जोर से झल्लाया ।

किसे पकड़ू? किसे छोड़ू?

उहापोह मनोस्थिति पर हावी होता देख

स्वयं को फिर से लक्ष्य के प्रति केंद्रित किया।


तभी मन मस्तिष्क में

समयबद्धता ने अपना

अलार्म बजाना शुरू किया।


ठहर जा मुसाफिर! तू कर क्या रहा है?

ऐसे में तो तू ,

लक्ष्य तक पहुँचते-पहुँचते

बहुत देर कर चुका होगा?


अब भी समय शेष है ।

और तू तो विशेष है।


अपने लक्ष्य को लक्षित कर

जिसे तू लेकर निकला था चलने को।


अब मैं एकार्थी से अनेकार्थी बन

समयबद्धता के तरंग और लक्ष्य के भँवर में

समाहित हो अपने समुचित मार्ग के

मार्गदर्शन को आतुर हो चला


समयबद्धता के तरंगों ने मुझे

एकांकी मार्ग से धकेलते हुए

कब बहुकांकी बना दिया

आभास ही नहीं रहा।


यद्यपि जटिलताओं के बीच

फिसलते पैरों को संभालने की

नाकाम कोशिशें जारी रहा

तभी कुछ अवचेतन आया ।

तब मैं अपने आप को

पगडंडियों के बीच पाया।


ये संकरी और उथली पगडंडिया

मेरे चन्चल और अस्थिर पैरों को

आगे बढने से रोककर

बार-बार मुझसे

मेरे गिरकर उठने की

कहानी सुना रहे है कि

गिरकर संभल जाना कोई

बच्चों का खेल नहीं है ।


फिर भी संघर्षरत हो

अपने लक्ष्य को

मैं इन पगडंडियों में उलझा

कुछ खोते कुछ पाते,

लगातार लक्ष्य पाने को

संघर्ष करता रहा।


ये पगडंडिया ही तो

मेरे पथ में उलझन और फिसलन

के व्यूह में फांस कर इन

विषमताओं से

दो-चार होना सिखाई कि

ए मुसाफिर -

उठना-गिरना गिरकर उठना

ही सफलता का पैमाना भर नहीं है


असल में इन अनजान पगडंडियों पर

फिसलन और उलझन के बीच

खुद को नियंत्रित रखते हुए

लक्ष्य को पाना ही सच्चा जीवन है।

वरना बनी बनाई सड़क पर

तो विनोद विमल भी दौड़ लगा लें।


            " विनोद विमल बलिया।"

               ( 05.01.2021)

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