बुधवार, 30 जून 2021

यथार्थवादी कविता के सर्जक नागार्जुन / विजय केसरी

 (30 जून, जनकवि नागार्जुन की जयंती पर विशेष)




जन-जन के दिलों में राज करने वाले जन कवि नागार्जुन की कविताएं देश काल को समर्पित रही है । हिंदी यथार्थवादी कविता के सर्जक के रूप में भी उन्हें याद किया जाता है और रहेगा।

 साहित्य के गद्य - पद्य दोनों विधाओं में उन्होंने विलक्षण काम किया । घोर वामपंथी होने के बावजूद उन्होंने स्वयं को कभी भी एक विचारधारा में बांधा नहीं । विचारधारा के बदलते स्वरूपों और पैंतरों पर उन्होंने आजीवन अपनी रचनाओं के द्वारा कड़ा प्रहार किया।  राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं को उन्होंने आंखें बंद कर स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसे समझा, परखा तब लिखा । इसके बाद जो लिखा वह अमिट बन गया और लोगों के दिलों को झकझोर कर रख दिया।  व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होने की उर्जा भरी। नागार्जुन की तमाम रचनाएं सदैव समय से संवाद करती रहेंगीं।

  फंतासी और कल्पनाओं की दुनिया से अलग समाज के सच को उन्होंने उसी रूप में प्रस्तुत कर हिंदी साहित्य को प्रतिष्ठित किया और धार-  धार बना दिया।

 नागार्जुन ने साहित्य के दोनों विधाओं पर पूरी गंभीरता व समान रूप से काम किया । उनकी ज्यादातर कविताएं ही जन-जन तक पहुंचने में सफल हो पाई। इसका कदापि यह अर्थ लगाना उचित नहीं है कि नागार्जुन का गद्य किसी भी मायने में कमतर है।

 नागार्जुन जिस काव्य परंपरा के कवि है, उनके यहां छंद का विपुल वैविध्य देखने को मिलता  है।  नागार्जुन के बहुतरे गीत व कविताएं है , जो उन्हें लोकप्रियता के सिंहासन पर आरूढ़ करती है।

 वे मूलत:  मैथिली भाषी थे।  उनका रचना संसार मैथिली, हिंदी,प्राकृत, संस्कृत, बंगला आदि विविध भाषाओं में फैला हुआ है।  वे किसी एक भाषा में भी बन्ध कर रहना नहीं चाहते थे । यही उनका स्वभाव था, जिस भी भाषा में उन्होंने रचना की, उस भाषा साहित्य का गहराई से  अध्ययन भी  किया । उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से सच कहने से कभी गुरेज नहीं किया।  और न ही सत्ता की परवाह की। 

उनकी कविताओं में जो लयबद्धता, पठनीयता, खनक और सच कहने का साहस है, वह उसे श्रेष्ठता प्रदान करती है।  लिहाजा उनकी कविताएं कबीर, सूरदास, तुलसी, निराला के बाद सबसे ज्यादा पढ़ी व सराही जाती है।

 नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को बिहार के दरभंगा जिला अंतर्गत तरौनी गांव के एक सामान्य ब्राह्मण परिवार में हुआ।  इनके पिता गोकुल मिश्र एक किसान के साथ-साथ आस-पास के गांव में पुरोहित का भी कार्य करते थे।

जनकवि नागार्जुन 5 नवंबर 1998 को  87 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदा हुए । माता जी के बचपन में गुजर जाने के बाद उनका पिता जी के साथ ही गांव गांव पुरोहिती  के कारण घूमना होता रहा।  गांव गांव घूमना और अलग-अलग घरों में उनका खाना होता था । आगे चलकर यह उनके स्वभाव में रच बस गया। उन्होंने यह स्वीकार भी किया है कि " जिसे कई चूल्हों की आदत पड़ी हो, वह कैसे एक चूल्हा पर टिक सकता है ?


  विरासत में मिली गरीबी ने नागार्जुन को तालीम का वह अवसर प्रदान नहीं कर पाया, जो अन्य बच्चे को प्राप्त हुए। बचपन से ही पठन-  पाठन में रुचि रहने के कारण स्वाध्याय के बल पर उन्होंने स्वयं को ज्ञान की उस ऊंचाई तक पहुंचाया, जहां महाविद्यालय, विश्वविद्यालय की डिग्रियां  कमतर पड़ने लगी।

 यही ज्ञान प्राप्त करने की भूख उन्हें श्रीलंका पहुंचाया,  जहां उन्होंने पाली का ज्ञान प्राप्त किया और वहां के भिक्षुओं को संस्कृत का ज्ञान प्रदान किया।

  इस दरमियान उन्होंने 1930 में विवाह कर  गृहस्थी बसा जरूर लिया किंतु वे पत्नी अपराजिता के संग ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाए । यार - मित्रों के यहां आना-जाना उनका लगातार लगा रहता । वे खाने-पीने के बेहद शौकीन थे। मित्रों के यहां पहुंचते ही औपचारिक बातचीत के बाद वे रसोई विज्ञान पर भी रसधार प्रवचन करना न भूलते।

लगभग उनके सभी मित्रगण और कुटुंब भी नागार्जुन के इस स्वभाव से परिचित हो गए । इसी अनुरूप सभी मित्रगण और कुटुंब उनका स्वागत किया करते। यहां भी हुए  वे  एक जगह ज्यादा दिनों तक नहीं टिकते । उनका यह यायावरी स्वभाव जीवन के अंतिम क्षणों तक बना रहा।

    कबीर की तरह अपनी बात को पूरी साफगोई के साथ रखने के कारण आमजन के बीच में उनकी आवाज के रूप  में मौजूद रहते । एक तरफ  अमीर का और अमीर होना तो  दूसरी ओर गरीब का और गरीब बनते जाना, यह उन्हें कभी रास नहीं आया ।

उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से उसके कारणों का पता लगाया और सत्तासीनो के खिलाफ जमकर लिखा। देशभर के किसान जो देशवासियों को अन्न उपलब्ध कराते हैं । उनके बेहाल हाल पर  नजर रखते हैं और रचते हैं। उनके साथ आंदोलन करते हुए जेल भी जाते हैं।

 देश की आजादी के पूर्व उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जमकर लिखा। आजादी के बाद सत्तासीनो के बेरुखी पर भी लिखा  । "कालिदास का सच बतलाना ,"  "सात दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास"  "तीनों बंदर बापू के",  "जयप्रकाश पर पड़ी लाठियां",  "खिचड़ी विप्लव देखा हमने",  "इंदु जी इंदु जी क्या हुआ', जैसी कविताएं आज भी जन मन को छूती है।

   

 जब देश में भीषण अकाल पड़ा था। देशवासी अन्य के लिए तरस रहे थे। हजारों मौतें भूख से हो गई। सरकारी स्तर पर की गई कोशिश है सिर्फ दिखावा साबित हुआ।  अकाल पर नेताओं के बयान आते रहे।   इस पर जनकवि नागार्जुन ने लिखा कि "कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास / कई दिनों तक काली कुत्तिया सोई उनके पास/ कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त/ कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त,"  इन पंक्तियों में नागार्जुन ने भूख से पीड़ित परिवार का जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया है।  देश की आजादी के 74 बरस बीत जाने के बाद भी आज भी हर वर्ष कई लोग भूख से मरते  हैं।

      नागार्जुन की कविताएं तब से लेकर अब तक लगातार भूख से पीड़ित लोगों के लिए संघर्ष करती नजर आ रही है ।नागार्जुन जन सरोकारों के कवि के रूप में प्रतिष्ठित है।

 वे अपनी रचनाओं के माध्यम से लगातार गरीबी, भूख और कुशासन के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे । नागार्जुन का यह संघर्ष व्यवस्था के खिलाफ है।  नागार्जुन स्वयं को समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ खड़ा करते हैं, वहीं से वे उनके साथ मिलकर व्यवस्था के खिलाफ आवाज भी बुलंद करते हैं ।

 उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी आईना दिखाने में गुरेज नहीं किया। घोर वामपंथी  होने के बावजूद भी नागार्जुन  ने 1962 में चीन भारत युद्ध के समय स्वयं को "भारत मां का पुत्र" कहकर  जो कविता दर्ज किया वह अपने आप में वामपंथियों को करारा जवाब है।

 नागार्जुन का स्पष्ट मत है कि "वह कविता जिसका जनजीवन से कोई वास्ता न हो, मुझे स्वीकार नहीं।  वे चाहते थे कि "कविता जीवन में सुभाषित की तरह पेश न आए बल्कि व्यक्ति समाज और सत्ता के दोषों को भी उजागर करें"। जनकवि नागार्जुन आज हमारे बीच नहीं  हैं किंतु उनकी कविताओं का यह संघर्ष क्रम चलता रहेगा।

मंगलवार, 29 जून 2021

योग विज्ञान हैं

योग एक विज्ञान है,*

कोई शास्त्र नहीं है।

योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है। 


            लेकिन चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, चाहे पतंजलि, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, कोई भी व्यक्ति जो सत्य को उपलब्ध हुआ है, बिना योग से गुजरे हुए उपलब्ध नहीं होता।

            योग के अतिरिक्त जीवन के परम सत्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है।  जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों का नहीं है, जीवन सत्य की दिशा में किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों की सूत्रवत प्रणाली है।

           इसलिए पहली बात मैं आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि  योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है। योग के प्रयोग के लिए किसी तरह के अंधेपन की कोई जरूरत नहीं है।     

            नास्तिक भी योग के प्रयोग में उसी तरह प्रवेश पा सकता है जैसे आस्तिक।  योग नास्तिक-आस्तिक की भी चिंता नहीं करता है। 

विज्ञान आपकी धारणाओं पर निर्भर नहीं होता; विपरीत, विज्ञान के कारण आपको अपनी धारणाएं परिवर्तित करनी पड़ती हैं। 

             कोई विज्ञान आपसे किसी प्रकार के बिलीफ, किसी तरह की मान्यता की अपेक्षा नहीं करता है। विज्ञान सिर्फ प्रयोग की, एक्सपेरिमेंट की अपेक्षा करता है। विज्ञान कहता है, करो, देखो। विज्ञान के सत्य चूंकि वास्तविक सत्य हैं, इसलिए किन्हीं श्रद्धाओं की उन्हें कोई जरूरत नहीं होती है। दो और दो चार होते हैं, माने नहीं जाते।  और कोई न मानता हो तो खुद ही मुसीबत में पड़ेगा; उससे दो और दो चार का सत्य मुसीबत में नहीं पड़ता है।

           विज्ञान मान्यता से शुरू नहीं होता;  विज्ञान खोज से, अन्वेषण से शुरू होता है। वैसे ही योग भी मान्यता से शुरू नहीं होता; खोज, जिज्ञासा, अन्वेषण से शुरू होता है। इसलिए योग के लिए सिर्फ प्रयोग करने की शक्ति की आवश्यकता है, प्रयोग करने की सामर्थ्य की आवश्यकता है, खोज के साहस की जरूरत है; और कोई भी जरूरत नहीं है। 

            योग विज्ञान है, जब ऐसा कहता हूं, तो मैं कुछ सूत्र की आपसे बात करना चाहूं, जो योग-विज्ञान के मूल आधार हैं। इन सूत्रों का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है, यद्यपि इन सूत्रों के बिना कोई भी धर्म जीवित रूप से खड़ा नहीं रह सकता है। इन सूत्रों को किसी धर्म के सहारे की जरूरत नहीं है, लेकिन इन सूत्रों के सहारे के बिना धर्म एक क्षण भी अस्तित्व में नहीं रह सकता है। 

योग का पहला सूत्र: योग का पहला सूत्र है कि जीवन ऊर्जा है, लाइफ इज़ एनर्जी। जीवन शक्ति है।

            बहुत समय तक विज्ञान इस संबंध में राजी नहीं था; अब राजी है। बहुत समय तक विज्ञान सोचता था: जगत पदार्थ है, मैटर है। लेकिन योग ने विज्ञान की खोजों से हजारों वर्ष पूर्व से यह घोषणा कर रखी थी कि पदार्थ एक असत्य है, एक झूठ है, एक इल्यूजन है, एक भ्रम है। भ्रम का मतलब यह नहीं कि नहीं है। भ्रम का मतलब: जैसा दिखाई पड़ता है वैसा नहीं है और जैसा है वैसा दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन विगत तीस वर्षों में विज्ञान को एक-एक कदम योग के अनुरूप जुट जाना पड़ा है।


          अठारहवीं सदी में वैज्ञानिकों की घोषणा थी कि परमात्मा मर गया है, आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, पदार्थ ही सब कुछ है। लेकिन विगत तीस वर्षों में ठीक उलटी स्थिति हो गई है। विज्ञान को कहना पड़ा कि पदार्थ है ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। ऊर्जा ही सत्य है, शक्ति ही सत्य है।  लेकिन शक्ति की तीव्र गति के कारण पदार्थ का भास होता है। 

दीवालें दिखाई पड़ रही हैं एक, अगर निकलना चाहेंगे तो सिर टूट जाएगा। कैसे कहें कि दीवालें भ्रम हैं? स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं, उनका होना है। पैरों के नीचे जमीन अगर न हो तो आप खड़े कहां रहेंगे? 

नहीं, इस अर्थों में नहीं विज्ञान कहता है कि पदार्थ नहीं है। इस अर्थों में कहता है कि जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वैसा नहीं है।

             अगर हम एक बिजली के पंखे को बहुत तीव्र गति से चलाएं तो उसकी तीन पंखुड़ियां तीन दिखाई पड़नी बंद हो जाएंगी। क्योंकि पंखुड़ियां इतनी तेजी से घूमेंगी कि उनके बीच की खाली जगह, इसके पहले कि आप देख पाएं, भर जाएगी। इसके पहले कि खाली जगह आंख की पकड़ में आए, कोई पंखुड़ी खाली जगह पर आ जाएगी। अगर बहुत तेज बिजली के पंखे को घुमाया जाए तो आपको टीन का एक गोल वृत्त घूमता हुआ दिखाई पड़ेगा, पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़ेंगी। आप गिनती करके नहीं बता सकेंगे कि कितनी पंखुड़ियां हैं। अगर और तेजी से घुमाया जा सके तो आप पत्थर फेंक कर पार नहीं निकाल सकेंगे, पत्थर इसी पार गिर जाएगा। अगर और तेज घुमाया जा सके, जितनी तेजी से परमाणु घूम रहे हैं, अगर उतनी तेजी से बिजली के पंखे को घुमाया जा सके, तो आप मजे से उसके ऊपर बैठ सकते हैं, आप गिरेंगे नहीं। और आपको पता भी नहीं चलेगा कि पंखुड़ियां नीचे घूम रही हैं। *क्योंकि पता चलने में जितना वक्त लगता है, उसके पहले नई पंखुड़ी आपके नीचे आ जाएगी। आपके पैर खबर दें आपके सिर को कि पंखुड़ी बदल गई, इसके पहले दूसरे पंखुड़ी आ जाएगी। बीच के गैप, बीच के अंतराल का पता न चले तो आप मजे से खड़े रह सकेंगे।

ऐसे ही हम खड़े हैं अभी भी। अणु तीव्रता से घूम रहे हैं, उनके घूमने की गति तीव्र है इसलिए चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं। जगत में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। और जो चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं, वे सब चल रही हैं। 

अगर वे चीजें ही होती चलती हुई तो भी कठिनाई न थी। जितना ही विज्ञान परमाणु को तोड़ कर नीचे गया तो उसे पता चला कि परमाणु के बाद तो फिर पदार्थ नहीं रह जाता, सिर्फ ऊर्जा कण, इलेक्ट्रांस रह जाते हैं, विद्युत कण रह जाते हैं। उनको कण कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कण से पदार्थ का खयाल आता है। इसलिए अंग्रेजी में एक नया शब्द उन्हें गढ़ना पड़ा, उस शब्द का नाम क्वांटा है। क्वांटा का मतलब है: कण भी, कण नहीं भी; कण भी और लहर भी, एक साथ। विद्युत की तो लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकते। शक्ति की लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकते। लेकिन हमारी भाषा पुरानी है, इसलिए हम कण कहे चले जाते हैं। ऐसे कण जैसी कोई भी चीज नहीं है। अब विज्ञान की नजरों में यह सारा जगत ऊर्जा का, विद्युत की ऊर्जा का विस्तार है।

योग का पहला सूत्र यही है: जीवन ऊर्जा है, शक्ति है। 

दूसरा सूत्र योग का: शक्ति के दो आयाम हैं--एक अस्तित्व और एक अनस्तित्व; एक्झिस्टेंस और नॉन-एक्झिस्टेंस।

शक्ति अस्तित्व में भी हो सकती है और अनस्तित्व में भी हो सकती है। अनस्तित्व में जब शक्ति होती है तो जगत शून्य हो जाता है और जब अस्तित्व में होती है तो सृष्टि का विस्तार हो जाता है। जो भी चीज है, योग मानता है, वह नहीं है भी हो सकती है। जो भी है, वह न होने में भी समा सकती है। जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु है। जिसका होना है, उसका न होना है। जो दिखाई पड़ती है, वह न दिखाई पड़ सकती है। 

योग का मानना है, इस जगत में प्रत्येक चीज दोहरे आयाम की है, डबल डायमेंशन की है। इस जगत में कोई भी चीज एक-आयामी नहीं है। 

हम ऐसा नहीं कह सकते कि एक आदमी पैदा हुआ और फिर नहीं मरा। हम कितना ही लंबाएं उसके जीवन को, फिर-फिर कर हमें पूछना पड़ेगा कि कभी तो मरा होगा, कभी तो मरेगा। ऐसा कंसीव करना, ऐसी धारणा भी बनानी असंभव है कि एक छोर हो जन्म का और दूसरा छोर मृत्यु का न हो। दूर हो, कितना ही दूर हो, अंतहीन मालूम पड़े दूरी, लेकिन दूसरा छोर अनिवार्य है। एक छोर के साथ दूसरा छोर वैसे ही अनिवार्य है, जैसे एक सिक्के के दो पहलू अनिवार्य हैं। अगर एक ही पहलू का कोई सिक्का हो सके...तो असंभव मालूम होता है, यह नहीं हो सकता है। दूसरा पहलू होगा ही! क्योंकि एक पहलू होने के लिए ही दूसरे पहलू को होना पड़ेगा। 

विज्ञान का, योग-विज्ञान का दूसरा सूत्र है: प्रत्येक चीज दोहरे आयाम की है। होने का एक आयाम है, एक्झिस्टेंस का; नॉन-एक्झिस्टेंस का दूसरा आयाम है, न होने का। 

जगत है, जगत नहीं भी हो सकता है। हम हैं, हम नहीं भी हो सकते हैं। जो भी है, वह नहीं हो सकता है। नहीं होने का आप यह मतलब मत लेना कि कोई दूसरे रूप में हो जाएगा। बिलकुल नहीं भी हो सकता है। अस्तित्व एक पहलू है, अनस्तित्व दूसरा पहलू है। 

सोचना कठिन मालूम पड़ता है कि नहीं होने से होना कैसे निकलेगा? होना, नहीं होने में कैसे प्रवेश कर जाएगा? लेकिन अगर हम जीवन को चारों ओर देखें तो हमें पता चलेगा कि प्रतिपल, जो नहीं है, वह हो रहा; जो है, वह नहीं होने में खो रहा है। 

यह सूर्य है हमारा। यह रोज ठंडा होता जा रहा है। इसकी किरणें शून्य में खोती जा रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार वर्ष तक और गरम रह सकेगा। चार हजार वर्षों में इसकी सारी किरणें शून्य में खो जाएंगी, तब यह भी शून्य हो जाएगा। 

अगर शून्य में किरणें खो सकती हैं तो फिर शून्य से किरणें आती भी होंगी, अन्यथा सूर्यों का जन्म कैसे होगा? विज्ञान कहता है कि हमारा सूर्य मर रहा है, लेकिन दूसरे सूर्य दूसरे छोरों पर पैदा हो रहे हैं। वे कहां से पैदा हो रहे हैं? वे शून्य से पैदा हो रहे हैं।

वेद कहते हैं कि जब कुछ नहीं था। उपनिषद भी बात करते हैं उस क्षण की जब कुछ नहीं था। बाइबिल भी बात करती है उस क्षण की जब कुछ नहीं था, ना-कुछ ही था, नथिंगनेस ही थी। उस ना-कुछ से होना पैदा होता है और होना प्रतिपल ना-कुछ में लीन होता चला जाता है। अगर हम पूरे अस्तित्व को एक समझें तो इस अस्तित्व के निकट ही हमें अनस्तित्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा। 

योग का दूसरा सूत्र है: प्रत्येक अस्तित्व के पीछे अनस्तित्व जुड़ा है। 

तो शक्ति के दो आयाम हैं: अस्तित्व और अनस्तित्व। शक्ति हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है, न में भी खो सकती है। इसलिए योग मानता है, सृष्टि सिर्फ एक पहलू है, प्रलय दूसरा पहलू है। ऐसा नहीं है कि सब कुछ सदा रहेगा; खोएगा, शून्य भी हो जाएगा। फिर-फिर होता रहेगा, खोता रहेगा। जैसे एक बीज को तोड़ कर देखें, तो कहीं किसी वृक्ष का कोई पता नहीं चलता। कितना ही खोजें, वृक्ष की कहीं कोई खबर नहीं मिलती। लेकिन फिर इस छोटे से बीज से वृक्ष आता जरूर है। कभी हमने नहीं सोचा कि बीज में जो कभी भी नहीं मिलता है, वह कहां से आता है? और इतने छोटे से बीज में इतने बड़े वृक्ष का छिपा होना?

फिर वह वृक्ष बीजों को जन्म देकर फिर खो जाता है। ठीक ऐसे ही पूरा अस्तित्व बनता है, खोता है। शक्ति अस्तित्व में आती है और अनस्तित्व में चली जाती है।

अनस्तित्व को पकड़ना बहुत कठिन है। अस्तित्व तो हमें दिखाई पड़ता है। इसलिए योग की दृष्टि से, जो सिर्फ अस्तित्व को मानता है, जो समझता है कि अस्तित्व ही सब कुछ है, वह अधूरे को देख रहा है। और अधूरे को जानना ही अज्ञान है। अज्ञान का अर्थ न जानना नहीं है, अज्ञान का अर्थ अधूरे को जानना है। जानते तो हम हैं ही, अगर हम इतना भी जानते हैं कि मैं नहीं जानता, तो भी मैं जानता तो हूं ही। जानना तो हममें है ही। इसलिए अज्ञान का अर्थ न जानना नहीं है। अज्ञानी से अज्ञानी भी कुछ जानता ही है। अज्ञान का अर्थ--योग की दृष्टि में--आधे को जानना है।

और ध्यान रहे, आधा सत्य असत्य से बदतर होता है। क्योंकि असत्य से छुटकारा संभव है, आधे सत्य से छुटकारा बहुत मुश्किल होता है। क्योंकि वह सत्य भी मालूम पड़ता है और सत्य होता भी नहीं। प्रतीत भी होता है कि सत्य है और सत्य होता भी नहीं। अगर असत्य हो पूरा का पूरा, निखालिस असत्य हो, तो उससे छूटने में देर नहीं लगेगी। लेकिन अधूरा, आधा सत्य हो, तो उससे छूटना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

और भी एक कारण है कि सत्य जैसी चीज आधी नहीं की जा सकती, आधी करने से मर जाती है। क्या आप अपने प्रेम को आधा कर सकते हैं? क्या आप ऐसा कह सकते हैं किसी से कि मैं तुम्हें आधा प्रेम करता हूं? 

या तो प्रेम करेंगे या नहीं करेंगे। आधा प्रेम संभव नहीं है। 

क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि मैं आधी चोरी करता हूं? हो सकता है, आधे रुपये की चोरी करते हों। लेकिन आधे रुपये की चोरी पूरी ही चोरी है। लाख रुपये की चोरी भी पूरी चोरी है। आधे पैसे की चोरी भी पूरी चोरी है। चोरी आधी नहीं की जा सकती। आधी चीजों की की जा सकती है। लेकिन चोरी आधी नहीं हो सकती।

आधा! आधे का अर्थ ही यह है कि आप किसी भ्रम में हैं। 

तो योग कहता है, जो लोग सिर्फ अस्तित्व को देखते हैं, वे आधे को पकड़े हैं। और आधे को जो पकड़ता है, वह भ्रम में जीता है, वह अज्ञान में जीता है। उसका दूसरा पहलू भी है। जो आदमी कहता है कि मैं जन्म तो लिया हूं, लेकिन मरना नहीं चाहता। वह आदमी आधे को पकड़ रहा है। दुख पाएगा, अज्ञान में जीएगा। और कुछ भी करे, मौत आएगी ही, क्योंकि आधे को काटा नहीं जा सकता है। जन्म को स्वीकार किया है तो मौत उसका आधा हिस्सा है, वह साथ ही जुड़ा है। जो आदमी कहता है, मैं सुख को ही चुनूंगा, दुख को नहीं। वह फिर भूल में पड़ रहा है। योग कहता है, तुम आधे को चुन कर ही गलती में पड़ते हो। दुख सुख का ही दूसरा हिस्सा है। वह आधा हिस्सा है। इसलिए जो आदमी सुखी होना चाहता है, उस आदमी को दुखी होना ही पड़ेगा। जो आदमी शांत होना चाहता है, उसे अशांत होना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है।

योग कहता है, आधे को छोड़ देना ही अज्ञान है। वह उसका ही हिस्सा है। 

लेकिन हम देखते नहीं पूरे को! जो पहलू हमें दिखाई पड़ता है उसे हम पकड़ लेते हैं और दूसरे पहलू को इनकार किए चले जाते हैं। बिना यह समझे कि जब हमने आधे को पकड़ लिया है तो आधा पीछे प्रतीक्षा कर रहा है, मौजूद है, अवसर की खोज कर रहा है, जल्दी ही प्रकट हो जाएगा। 

योग कहता है कि ऊर्जा के दो रूप हैं। और जो दोनों ही रूप को समझ लेता है, वह योग में गति कर पाता है। जो एक रूप को, आधे को पकड़ लेता है, वह अयोगी हो जाता है। जिसको हम भोगी कहते हैं, वह आधे को पकड़े हुए आदमी का नाम है। जिसे हम योगी कहते हैं, वह पूरे को पकड़े हुए का नाम है।

योग का मतलब ही होता है--दि टोटल। योग का मतलब होता है--जोड़। गणित की भाषा में भी योग का मतलब जोड़ होता है। अध्यात्म की भाषा में भी योग का मतलब होता है--इंटीग्रेटेड, दि टोटल, पूरा, समग्र। 

भोगी हम उसे नहीं कहते जो योग का दुश्मन है; भोगी हम उसे कहते हैं जो आधे को पकड़ता और आधे को पूरा मान कर जीता है। योगी पूरे को जान लेता है, इसलिए फिर पकड़ता ही नहीं। 

यह भी बड़े मजे की बात है! पकड़ने वाले सदा आधे को ही पकड़ने वाले होते हैं, पूरे को जान लेने वाला पकड़ता नहीं। जिसको यह दिखाई पड़ गया कि जन्म के साथ मृत्यु है, अब वह किसलिए जन्म को पकड़े? और वह मृत्यु को भी क्यों पकड़े? क्योंकि वह जानता है मृत्यु के साथ जन्म है। जो जानता है कि सुख के साथ दुख है, वह सुख को क्यों पकड़े? और वह दुख को भी क्यों पकड़े, क्योंकि वह जानता है दुख के साथ सुख है। असल में वह जानता है, सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दो चीजें नहीं, एक ही चीज के दो आयाम हैं, दो डायमेंशन हैं। इसलिए योगी, पकड़ने के बाहर हो जाता है, क्लिंगिंग के बाहर हो जाता है। 

दूसरा सूत्र ठीक से समझ लेना जरूरी है कि ऊर्जा, शक्ति के दो रूप हैं। और हम सब एक रूप को पकड़ने की कोशिश में लगे होते हैं। कोई जवानी को पकड़ता है, तो फिर बुढ़ापे का दुख पाता है। वह जानता नहीं कि जवानी का दूसरा हिस्सा बुढ़ापा है। असल में जवानी का मतलब है, वह स्थिति जो बूढ़ी हुई जा रही है। जवानी का मतलब है, बुढ़ापे की यात्रा। बूढ़ा आदमी उतने जोर से बूढ़ा नहीं होता, ध्यान रखना, जितने जोर से जवान बूढ़ा होता है। बूढ़ा आदमी धीरे-धीरे बूढ़ा होने लगता है, जवान तेजी से बूढ़ा होता है। जवानी का मतलब ही बूढ़े होने की ऊर्जा है। बूढ़े का मतलब बीत गई जवानी की ऊर्जा है, चुक गई जवानी की ऊर्जा है। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक घर के बाहर का दरवाजा है, एक घर के पीछे का दरवाजा है।

जन्म और मृत्यु, सुख और दुख; जीवन के सभी द्वंद्व--अस्तित्व-अनस्तित्व, आस्तिक-नास्तिक। वे भी आधे-आधे को पकड़ते हैं। इसलिए योग की दृष्टि में दोनों ही अज्ञानी हैं। आस्तिक कहता है कि भगवान बस है। आस्तिक सोच भी नहीं सकता कि भगवान का न होना भी हो सकता है। लेकिन यह बड़ा कमजोर आस्तिक है, क्योंकि यह भगवान को नियम के बाहर कर रहा है। नियम तो सभी चीजों पर एक सा लागू है। भगवान अगर है तो उसका न होना भी होगा।

नास्तिक उसके दूसरे हिस्से को पकड़े है। वह कहता है, भगवान नहीं है। 

लेकिन जो चीज नहीं है, वह हो सकती है। और इतने जोर से कहना कि नहीं है, इस डर की सूचना देता है कि उसके होने का भय है। अन्यथा, नहीं है कहने की कोई जरूरत नहीं है। जब एक आस्तिक कहता है कि नहीं, भगवान है ही, और लड़ने को तैयार हो जाता है, तब वह भी खबर दे रहा है कि भगवान के भी न हो जाने का डर उसे है। अन्यथा क्या बिगड़ता है! कोई कहता है नहीं है तो कहे। 

आस्तिक लड़ने को तैयार है, क्योंकि वह भगवान का एक हिस्सा पकड़ रहा है। वह वही की वही बात है, चाहे अपना जन्म पकड़ो और चाहे भगवान का होना पकड़ो, लेकिन दूसरे हिस्से को इनकार किया जा रहा है। 

योग कहता है: दोनों हैं, होना और न होना साथ ही साथ हैं।

इसलिए योगी नास्तिक को भी कहता है कि तुम भी आ जाओ, क्योंकि आधा सत्य है तुम्हारे पास; आस्तिक को भी कहता है, तुम भी आ जाओ, क्योंकि आधा सत्य ही है तुम्हारे पास और आधे सत्य असत्य से भी खतरनाक हैं।

दूसरा सूत्र है: द्वंद्व के बीच शक्ति का विस्तार है। 

अंधेरे और प्रकाश के बीच एक ही चीज का विस्तार है, दो चीजें नहीं हैं। लेकिन हमें लगता है दो चीजें हैं। वैज्ञानिक से पूछें! वह कहेगा, दो नहीं हैं। वह कहेगा, जिसे हम अंधेरा कहते हैं, वह सिर्फ कम प्रकाश का नाम है। और जिसे हम प्रकाश कहते हैं, वह कम अंधेरे का नाम है। डिग्रीज का फर्क है। 

इसलिए रात में, पक्षी हैं जिनको दिखाई पड़ता है। अंधेरा है आपका, उनके लिए अंधेरा नहीं है। क्यों? उनकी आंखें उतने धीमे प्रकाश को भी पकड़ने में समर्थ हैं। 

ऐसा नहीं है कि धीमा प्रकाश ही पकड़ में नहीं आता, बहुत तेज प्रकाश भी आंख की पकड़ में नहीं आता। अगर बहुत तेज प्रकाश आपकी आंख पर डाला जाए, आंख तत्काल अंधी हो जाएगी, देख नहीं पाएगी। देखने की एक सीमा है। उसके नीचे भी अंधकार है, उसके ऊपर भी अंधकार है। बस एक छोटी सी सीमा है, जहां हमें प्रकाश दिखाई पड़ता है। लेकिन जिसे हम अंधकार कहते हैं, वह भी प्रकाश की तारतम्यताएं हैं, वे भी डिग्रीज हैं। उनमें जो अंतर है, क्वालिटेटिव नहीं है, क्वांटिटेटिव है। गुण का कोई अंतर नहीं है, सिर्फ परिमाण का अंतर है।

गर्मी और सर्दी पर कभी खयाल किया है? हम समझते हैं, दो चीजें हैं। नहीं, दो चीजें नहीं हैं। गर्मी-सर्दी से समझना बहुत आसान पड़े। लेकिन हम कहेंगे, दो चीजें नहीं हैं! जब गर्मी बरसती है सूरज की तब हम कैसे मान लें कि यह वही है? जब शीतल छाया में बैठते हैं, तो शीतल छाया को हम कैसे सूरज की गरमी मान लें? 

नहीं, मैं नहीं कह रहा हूं कि आप एक मान कर शीतल छाया में बैठना छोड़ दें। मैं इतना ही कह रहा हूं कि जिसे आप शीतल छाया कह रहे हैं, वह गरमी की ही कम मात्रा है। और जिसे आप सख्त धूप कह रहे हैं, वह शीतलता की ही कम हो गई मात्रा है। 

कभी ऐसा करें कि एक हाथ को स्टोव के पास रख कर गरम कर लें और एक को बर्फ पर रख कर ठंडा कर लें और फिर दोनों हाथों को एक बाल्टी भरे पानी में डाल दें। तब आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे कि बाल्टी का पानी गरम है या ठंडा! एक हाथ कहेगा, ठंडा है। एक हाथ कहेगा, गरम है। 

अब एक ही बाल्टी का पानी दोनों नहीं हो सकता। और आपके दोनों हाथों में से दो खबरें आ रही हैं! जो हाथ ठंडा है उसे पानी गरम मालूम होगा, जो हाथ गरम है उसे पानी ठंडा मालूम होगा। ठंडक और गरमी रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं।

योग का दूसरा सूत्र है: जीवन और मृत्यु, अस्तित्व-अनस्तित्व, अंधकार-प्रकाश, बचपन-बुढ़ापा, सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, सब रिलेटिव हैं, सब सापेक्षताएं हैं। ये सब एक ही चीज के नाम हैं। बुराई-भलाई...। 

यहां जरा कठिनाई हो सकती है। क्योंकि ठंडक और गर्मी को मान लेना बहुत आसान है, एक सी होंगी, कुछ हर्ज भी नहीं होता। लेकिन राम और रावण, तो जरा अड़चन हो सकती है। मन कहेगा, ऐसा कैसा हो सकता है? लेकिन राम और रावण भी तारतम्यताएं हैं, वे भी दो विरोधी चीजें नहीं हैं, एक ही चीज का कम-ज्यादा होना है। राम में रावण जरा कम है, रावण में राम जरा कम है, बस इतना ही। इसलिए जो रावण को प्रेम करे, उसमें उसे राम दिखाई पड़ सकता है। और जो राम की दुश्मनी करे, उनमें भी रावण दिखाई पड़ सकता है। वे तारतम्यताएं हैं। तो जिसे हम प्रेम करते हैं उसमें राम दिखाई पड़ने लगता है, जिसे हम नहीं प्रेम करते उसमें रावण दिखाई पड़ने लगता है। राम में भी बुरा देखने वाले लोग मिल जाएंगे, रावण में भी भला देखने वालों की कोई कमी नहीं है। तारतम्यताएं हैं। आपके हाथ पर निर्भर करेगा। राम और रावण को अगर एक ही बाल्टी में रखा जा सके तो आसानी हो। लेकिन रखना मुश्किल है। अच्छाई और बुराई भी योग की दृष्टि में एक ही चीज के भेद हैं। 

इसका यह मतलब नहीं कि आप बुरे हो जाएं। इसका यह मतलब नहीं है कि आप अच्छाई छोड़ दें। योग का कुल कहना इतना है कि अगर अच्छाई को जोर से पकड़ा, तो ध्यान रखना, दूसरे पहलू पर बुराई भी पकड़ में आ जाएगी। अच्छा आदमी बुरा होने से नहीं बच सकता। और बुरा आदमी अच्छे होने से नहीं बच सकता। 

इसलिए अच्छे से अच्छे आदमी को अगर थोड़ा उधाड़ कर देखेंगे तो बुरा आदमी भीतर बैठा मिल जाएगा। और बुरे से बुरे आदमी को जरा तलाश करेंगे तो अच्छा आदमी भीतर बैठा मिल जाएगा। यह बड़े मजे की बात है कि अगर हम अच्छे आदमियों के सपनों की जांच-पड़ताल करें तो वे बुरे सिद्ध होंगे। सब अच्छे आदमी आमतौर से बुरे सपने देखते हैं। जिसने दिन में चोरी से अपने को बचाया, वह रात में चोरी कर लेता है। कंपनशेसन करना पड़ता है न! वह जो दूसरा हिस्सा है वह कहां जाएगा? जिसने दिन में उपवास किया, वह रात राजमहल में निमंत्रित हो जाता है, भोजन कर लेता है। जो दिन भर सदाचारी था, रात में वासना के स्वप्न उसे घेर लेते हैं। 

इसलिए अगर भले आदमी को शराब पिला दें, तब आपको पता चलेगा कि भीतर कौन बैठा है! शराब किसी को बुरा नहीं बना सकती है। शराब में वैसा कोई गुण नहीं है बुरा बनाने का। शराब में सिर्फ एक गुण है कि वह जो दूसरा पहलू है उसे उघाड़ देती है। इसलिए अक्सर शराब पीने वाले लोग शराब पीने के बाद अच्छे मालूम पड़ेंगे। 

मैंने सुना है एक आदमी के बाबत कि एक दिन वह सांझ अपने घर लौटा। उसकी पत्नी बहुत हैरान हुई। उसकी पत्नी ने कहा कि मालूम होता है तुम आज शराब पीकर आ गए हो! 

उस आदमी ने कहा कि कैसी बातें कर रही हो! मैंने शराब बिलकुल नहीं पी है। 

उसकी पत्नी ने कहा कि तुम्हारा व्यवहार बता रहा है कि तुम पीकर आ गए हो। 

उस आदमी ने कहा, हे परमात्मा, कैसी अजीब दुनिया है! 

वह रोज शराब पीकर आता था, आज पीकर नहीं आया है। लेकिन शराब पीकर आता था, उसके भीतर का अच्छा आदमी प्रकट होता रहा। आमतौर से जिन्हें हम बुरे आदमी कहते हैं, उनके भीतर अच्छे आदमी छिपे रहते हैं। और जिनको हम अच्छे आदमी कहते हैं, उनके भीतर बुरे आदमी छिपे रहते हैं। हालांकि जब अच्छे आदमी के भीतर का बुरा आदमी काम करता है बुरा, तो भी अच्छे का बहाना लेकर करता है। अगर अच्छा बाप अपने बेटे की गर्दन दबाता है, तो सीधी नहीं दबा देता; सिद्धांत, नीति, शिष्टाचार, अनुशासन, इन सबका बहाना लेकर दबाता है। अगर अच्छा शिक्षक दंड देता है, तो जिसको दंड देता है उसी के हित में देता है। अच्छा आदमी अगर बुरा भी करता है, तो अच्छी खूंटी पर ही टांगता है बुराई को। और बुरा आदमी अगर अच्छे काम भी करता है, तो स्वभावतः उसके पास बुराई की खूंटी ही होती है, वह उसी पर टांगता है। लेकिन जो भी एक पहलू को पकड़ेगा, उसके भीतर दूसरा पहलू सदा मौजूद रहेगा। 

योग कहता है: दोनों को समझ लो और पकड़ो मत। 

इसलिए जब पहली बार योग की खबर पश्चिम में पहुंची तो वहां के विचारक बहुत हैरान हुए। क्योंकि उन विचारकों ने कहा, इस योग में नीति की, मॉरेलिटी की तो कोई जगह ही नहीं है! ये सारे योग में कुछ नैतिकता का स्थान नहीं मालूम पड़ता! जिन लोगों ने पश्चिम में पहली बार योग की खबरें सुनीं, उन्होंने कहा कि इसमें कहीं भी नहीं लिखा हुआ है--जैसा कि टेन कमांडमेंट्स हैं ईसाइयों के--यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो! यह बुरा है, यह बुरा है, यह बुरा है! डोंट्स की कोई बात ही नहीं है इसमें। यह कैसा योग! 

लेकिन विज्ञान कभी भी पक्ष की बात नहीं करता। विज्ञान तो निष्पक्ष दोनों बातों को खोल कर रख देता है। योग कहता है: यह बुराई है, यह अच्छाई है। और दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। अगर तुम एक को भी पकड़ोगे तो दूसरा तुम्हारे भीतर छिपा हुआ मौजूद रहेगा। तुम दोनों को समझ लो और पकड़ो मत। 

इसलिए योग अच्छे और बुरे का ट्रांसेनडेंस है। दोनों के पार हो जाना है।

योग सुख और दुख का अतिक्रमण है।

योग जन्म और मृत्यु का अतिक्रमण है।

योग अस्तित्व-अनस्तित्व का अतिक्रमण है, दोनों के पार है, बियांड है।

यह दूसरा सूत्र ठीक से समझ लें तो आगे बहुत सी बातें समझनी आसान हो जाएंगी।


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पाप का फल भोगना ही पड़ता हैं

पाप का फल भोगना ही पड़ता है।*

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कृष्ण मेहता


मनुष्य को ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि मेरा पाप तो कम था पर दण्ड अधिक भोगना पडा अथवा मैंने पाप तो किया

नहीं पर दण्ड मुझे मिल गया! कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, सर्वसमर्थ भगवान् का विधान है कि पापसे अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है, वह किसी -न-किसी पाप का ही फल होता है।


किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे। उनके घर के सामने एक सुनार का घर था। सुनार के पास सोना आता रहता था और वह गढ़कर देता रहता था। ऐसे वह पैसे कमाता था। एक दिन उसके पास अधिक सोना जमा हो गया। रात्रि में पहरा लगाने वाले सिपाही को इस बात का पता लग गया। उस पहरेदार ने रात्रि में उस सुनार को मार दिया और जिस बक्से में सोना था, उसे उठाकर चल दिया। इसी बीच सामने रहने वाले सज्जन लघुशंका के लिये उठकर बाहर आये। उन्होंने पहरेदार को पकड़ लिया कि तू इस बक्से को कैसे ले जा रहा है? तो पहरेदार ने कहा-'तू चुप रह, हल्ला मत कर। इसमें से कुछ तू ले ले और कुछ मैं ले लूँ।' सज्जन बोले- 'मैं कैसे ले लूँ? मैं चोर थोड़े ही हूँ!' पहरेदार ने कहा - 'देख, तू समझ जा, मेरी बात मान ले, नहीं तो दुःख पायेगा।' पर वे सज्जन माने नहीं। तब पहरेदार ने बक्सा नीचे रख दिया और उस सज्जन को पकड़कर जोर से सीटी बजा दी। सीटी सुनते ही और जगह पहरा लगाने वाले सिपाही दौड़कर वहाँ आ गये।

उसने सबसे कहा कि 'यह इस घर से बक्सा लेकर आया है और मैंने इसको पकड़ लिया है।' तब सिपाहियों ने घर में घुसकर देखा कि सुनार मरा पड़ा है। उन्होंने उस सज्जन को पकड़ लिया और राजकीय आदमियों के हवाले कर दिया। जज के सामने बहस हुई तो उस सज्जन ने कहा कि 'मैंने नहीं मारा है, उस पहरेदार सिपाही ने मारा है।' सब सिपाही आपस में मिले हुए थे, उन्होंने कहा की 'नहीं इसी ने मारा है, हमने खुद रात्रि में इसे पकड़ा है', इत्यादि। मुकदमा चला। चलते-चलते अन्त में उस सज्जन के लिये फाँसी का हुक्म हुआ। फाँसी का हुक्म होते ही उस सज्जन के मुख से निकला- 'देखो, सरासर अन्याय हो रहा है ! भगवान् के दरबार में कोई न्याय नहीं! मैंने मारा नहीं, मुझे दण्ड हो और जिसने मारा है, वह बेदाग छूट जाय, जुर्माना भी नहीं; यह अन्याय है! जज पर उसके वचनों का असर पड़ा कि वास्तव में यह सच्चा बोल रहा है, इसकी किसी तरह से जाँच होनी चाहिये ।


ऐसा विचार करके उस जज ने एक षड्यन्त्र रचा। सुबह होते ही एक आदमी रोता-चिल्लाता हुआ आया और

बोला-'हमारे भाई की हत्या हो गयी, सरकार ! इसकी जाँच होनी चाहिये।' तब जज ने उसी सिपाही को और कैदी सज्जन को मरे व्यक्ति की लाश उठाकर लाने के लिये भेजा। दोनों उस आदमी के साथ वहाँ गये, जहाँ लाश पड़ी थी। खाटपर लाश के ऊपर कपड़ा बिछा था। खून बिखरा पड़ा था। दोनों ने उस खाट को उठाया और उठाकर ले चले। साथ का दूसरा आदमी खबर देने के बहाने दौड़कर आगे चला गया। तब चलते-चलते सिपाही ने कैदी से कहा-'देख, उस दिन तू मेरी बात मान लेता तो सोना मिल जाता और फाँसी भी नहीं होती, अब देख लिया सच्चाई का फल ?' कैदी ने कहा-'मैंने तो अपना काम सच्चाई का ही किया था, फाँसी हो गयी तो हो गयी! हत्या की तूने और दण्ड भोगना पड़ा मेरे को! भगवान् के यहाँ न्याय नहीं!'


खाट पर झूठमूठ मरे हुए के समान पड़ा हुआ आदमी उन दोनों की बातें सुन रहा था। जब जज के सामने खाट रखी गयी तो खूनभरे कपड़े को हटाकर वह उठ खड़ा हुआ और उसने सारी बात जज को बता दी कि रास्ते में सिपाही यह बोला और कैदी यह बोला। यह सुनकर जज को बड़ा आश्चर्य हुआ। सिपाही भी हक्का-बक्का रह गया। सिपाही को पकड़कर कैद कर लिया गया। परन्तु जज के मन में सन्तोष नहीं हुआ। उसने कैदी को एकान्त में बुलाकर कहा कि 'इस मामले में तो मैं तुम्हें निर्दोष मानता हूँ, पर सच-सच बताओ कि इस जन्म में तुमने

कोई हत्या की है क्या?' वह बोला-बहुत पहले की घटना है। एक दुष्ट था, जो छिपकर मेरे घर मेरी स्त्री के पास आया करता मैंने अपनी स्त्री को तथा उसको अलग-अलग खूब समझाया, था। पर वह माना नहीं। एक रात वह घरपर था और अचानक मैं आ गया। मेरे को गुस्सा आया हुआ था। मैंने तलवार से उसका गला काट दिया और घर के पीछे जो नदी है, उसमें फेंक दिया। इस घटना का किसी को पता नहीं लगा। यह सुनकर जज बोला-'तुम्हारे को इस समय फाँसी होगी ही; मैंने भी सोचा कि मैंने किसी से घूस (रिश्वत) नहीं खायी, कभी बेईमानी नहीं की, फिर मेरे हाथ से इसके लिये फाँसी का हुक्म लिखा कैसे गया ?


अब सन्तोष हुआ। उसी पाप का फल तुम्हें यह भोगना पड़ेगा। सिपाही को अलग फाँसी होगी।' [उस सज्जन ने चोर सिपाही को पकड़कर अपने कर्तव्य का पालन किया था। फिर उसको जो दण्ड मिला है, वह उसके कर्तव्य-पालन का फल नहीं है. प्रत्युत उसने बहुत पहले जो हत्या की थी, उस हत्या का फल है। कारण कि मनुष्य को अपनी रक्षा करने का अधिकार है, मारने का अधिकार नहीं। मारने का अधिकार रक्षक क्षत्रिय का, राजा का है। अत: कर्तव्य का पालन करने के कारण उस पाप (हत्या) का फल उसको यहीं मिल गया और परलोक के भयंकर दण्ड से उसका छुटकारा हो गया। कारण कि इस लोक में जो दण्ड भोग लिया जाता है, उसका

थोड़े में ही छुटकारा हो जाता है, थोड़े में ही शुद्धि हो जाती है, नहीं तो परलोक में बड़ा भयंकर (ब्याजसहित) दण्ड भोगना पड़ता है।]

इस कहानी से यह पता लगता है कि मनुष्य के कब किये हुए पाप का फल कब मिलेगा इसका कुछ पता नहीं। भगवान् का विधान विचित्र है। जबतक पुराने पुण्य प्रबल रहते

है तबतक उग्र पाप का फल भी तत्काल नहीं मिलता। जब पुराने पुण्य खत्म होते हैं, तब उस पाप की बारी आती है। पाप का फल (दण्ड) तो भोगना ही पड़ता है, चाहे इस जन्म में भोगना पड़े या जन्मान्तर में।

कब कितना और कैसे खाएं pchaye

 किस माह में क्या नहीं खाना चाहिए, खाया तो होगा गंभीर रोग


पचाए

हिन्दू शास्त्रों और आयुर्वेद में भोजन के संबंध में बहुत कुछ लिखा है। जैसे किस वार को क्या क्या खाना चाहिए और क्या नहीं, किस तिथि को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं और किस माह में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। दरअसल, इसके पीछे वैज्ञानिक कारण है। प्रत्येक वार, तिथि या माह में मौसम में बदलावा होता है। इस बदलावा को समझकर ही खाना जरूरी है।


जैसे आप यह नहीं जानते हैं कि क्यों नहीं रात को दही खाना चाहिए और क्यों नहीं दूध के साथ नमक नहीं खाना चाहिए। आप इस संबंध में किसी डॉक्टर से पूछ लें। वैसे हम तो बता ही देंगे। खाने के मेल को भी जानना जरूरी है लेकिन फिलहाल यहां प्रस्तुत है कि किस माह में क्या नहीं खाना चाहिए और क्या खाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि हिन्दू माह ही मौसम के बदलाव को प्रदर्शित करते हैं अंग्रेजी माह नहीं।

 

इसके लिए कुछ दोहे प्रचलित है-

किस माह में क्या ना खाएं-

।।चौते गुड़, वैशाखे तेल, जेठ के पंथ, अषाढ़े बेल।

सावन साग, भादो मही, कुवांर करेला, कार्तिक दही।

अगहन जीरा, पूसै धना, माघै मिश्री, फाल्गुन चना।

जो कोई इतने परिहरै, ता घर बैद पैर नहिं धरै।।।

  

किस माह में क्या खाएं-

।।चैत चना, बैसाखे बेल, जैठे शयन, आषाढ़े खेल, सावन हर्रे, भादो तिल।

कुवार मास गुड़ सेवै नित, कार्तिक मूल, अगहन तेल, पूस करे दूध से मेल।

माघ मास घी-खिचड़ी खाय, फागुन उठ नित प्रात नहाय।।

 1.चैत्र माह

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार मार्च-अप्रैल के बीच आता है। हिन्दू कैलेंडर के यह प्रथम माह है। इस माह से चैत्र नवरात्रि प्रारंभ होती है। चैत्र माह में गुड़ खाना मना है। चना खा सकते हैं।

 2.वैशाख

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार अप्रैल-मई के बीच आता है। वैशाख माह में नया तेल लगाना मना है। इस माह में तेल व तली-भुनी चीजों से परहेज करना चाहिए। बेल खा सकते हैं।

 3.ज्येष्ठ

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार मई-जून के बीच आता है। जेठ माह में दोपहर में चलना खेलना मना है। इन महीनों में गर्मी का प्रकोप रहता है अत: ज्यादा घूमना-फिरना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अधिक से अधिक शयन करना चाहिए। इस माह बेल खाना चाहिए।

 4.आषाढ़

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार जून-जुलाई के बीच आता है। आषाढ़ माह में पका बेल न खाना मना है। इस माह में हरी सब्जियों के सेवन से भी बचें। लेकिन इस माह में खूब खेल खेलना चाहिए। कसरत करना चाहिए।

 5.श्रावण (सावन)

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार जुलाई-अगस्त के बीच आता है। सावन माह में साग खाना मना है। साग अर्थात हरी पत्तेदार सब्जियां और दूध व दूध से बनी चीजों को भी खाने से मना किया गया है। इस माह में हर्रे खाना चाहिए जिसे हरिद्रा या हरडा कहते हैं।

 6.भाद्रपद (भादो)

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार अगस्त-सितम्बर के बीच आता है। भादो माह में दही खाना मना है। इन दो महीनों में छाछ, दही और इससे बनी चीजें नहीं खाना चाहिए। भादो में तिल का उपयोग करना चाहिए।

 7.आश्विन (क्वार)

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार सितम्बर-अक्टूबर के बीच आता है। क्वार माह में करेला खाना मना है। इस माह में नित्य गुड़ खाना चाहिए।

 8.कार्तिक  

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार अक्टूबर-नवम्बर के बीच आता है। कार्तिक माह में बैंगन, दही और जीरा बिल्कुल भी नहीं खाना मना है। इस माह में मूली खाना चाहिए।

 9.मार्गशीर्ष (अगहन)

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार नवम्बर-दिसंबर के बीच आता है। इस समय में भोजन में जीरे का उपयोग नहीं करना चाहिए। तेल का उपयोग कर सकते हैं।

 10.पौष (पूस)

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार दिसंबर-जनवरी के बीच आता है। दूध पी सकते हैं लेकिन धनिया नहीं खाना चाहिए क्योंकि धनिए की प्रवृति ठंडी मानी गई है और सामान्यत: इस मौसम में बहुत ठंड होती है। इस मौसम में दूध पीना चाहिए। 

 11.माघ

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार जनवरी-फरवरी के बीच आता है। माघ माह में मूली और धनिया खाना मना है। मिश्री नहीं खाना चाहिए। इस माह में घी-खिचड़ी खाना चाहिए।

 12.फाल्गुन (फागुन)

यह माह अंग्रेजी माह के अनुसार फरवरी-मार्च के बीच आता है। इस माह में सुबह जल्दी उठना चाहिए। इस माह में में चना खाना मना।

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मोमोज आपकी जिंदगी बरबाद कर देगा ....


आजकल गली मोहल्लो नुक्कड़ मार्केट पर सिल्वर के स्ट्रीमर में उबलते हुए मोमोज  तीखी लाल मिर्च की चटनी के साथ खाते हुए युवा किशोर आपको भारी संख्या में दिख जाएंगे अक्सर शाम के समय मासूम युवा किशोर नहीं जानते वह मोमोज खा कर अपने स्वास्थ्य चरित्र को किस हद तक बर्बाद कर रहे हैं

Momoz मैदा के बने हुए होते हैं मैदा गेहूं का एक उत्पाद है जिसमें से प्रोटीन व फाइबर निकाल लिया जाता है मृत #starch ही शेष रहता है उसे और अधिक चमकाने के लिए बेंजोयल पराक्साइड मिला दिया जाता है जो एक रासायनिक बिलीचर है जी हां वही ब्लीचर्स जिससे चेहरे की सफाई की जाती है 

यह ब्लीचर शरीर में जाकर किडनी को नुकसान पहुंचाता है

मैदे के प्रोटीन रहित होने से इसकी प्रकृति एसिडिक हो जाती है यह शरीर में जाकर हड्डियों के कैल्शियम को सोख लेता है तीखी लाल मिर्च की चटनी उत्तेजक होती है जिससे यौन रोग धातु रोग  जैसी महा भयंकर बीमारियां देश के किशोर व युवा को खोखला कर रही है

यह खाना आप तो पर तो भयंकर अत्याचार है आंतों का सत्यानाश कर देता है जीभ के स्वाद में आकर अपने स्वास्थ्य को युवा किशोर खराब कर रहे हैं

momoz पूर्वी एशियाई देशों चीन तिब्बत का खाना है वहां की जलवायु के यह अनुकूल वहां यह  जौ के आटे से बनाया जाता है ना कि मैदा से है भारत की गर्म जलवायु के यह  अनुकूल नहीं है

आज ही शुभ संकल्प लें इस स्वास्थ्य नाशक रोगप्रधान आहार को कभी नहीं खाएंगे ना ही किसी को खाने दिजिए !!

वरिष्ठ बनो बुढ़ा नहीं

 *मनुष्य को उम्र बढ़ने पर ‘वरिष्ठ’ बनना चाहिये, ‘बूढ़ा’ नहीं !*

             बुढ़ापा अन्य लोगों का आधार ढूँढता है

जबकि

वरिष्ठता तो लोगों को आधार देती है ।


बुढ़ापा छुपाने का मन करता है, 

जबकि

वरिष्ठता को उजागर करने का मन करता है।

बुढ़ापा अहंकारी होता है,

जबकि

वरिष्ठता अनुभवसंपन्न, विनम्र और संयमशील होती है।

बुढ़ापा नई पीढ़ी के विचारों से छेड़छाड़ करता है,

जबकि

वरिष्ठता युवा पीढ़ी को, बदलते समय के अनुसार जीने की छूट देती है।


बुढ़ापा "हमारे ज़माने में ऐसा था" की रट लगाता है.........

जबकि

वरिष्ठता बदलते समय से अपना नाता जोड़ लेती है, उसे अपना लेती है। 


बुढ़ापा नई पीढ़ी पर अपनी राय लादता है, थोपता है......

जबकि

वरिष्ठता तरुण पीढ़ी की राय को समझने का प्रयास करती है

     बुढ़ापा जीवन की शाम में अपना अंत ढूंढ़ता है....... 

जबकि

वरिष्ठता तो जीवन की शाम में भी एक नए सवेरे का इंतजार करती है, युवाओं की स्फूर्ति से प्रेरित होती है।

संक्षेप में ...

            वरिष्ठता और बुढ़ापे के बीच के अंतर को समझकर, जीवन का आनंद पूर्ण रूप से लेने में सक्षम बनना चाहिए।

 *वरिष्ठ बनिये बूढ़े नही!*


🌹 *जय श्री सीताराम*🌹

सोमवार, 28 जून 2021

आया माह आसाढ़ बरसात का संदेशा लाया

 #आषाढ़_मास 25 जून से शुरू हो चुका है और 24 जुलाई तक रहेगा।


यह #हिन्दू_पंचांग का चौथा महीना है। इसी महीने से *वर्षा ऋतु की शुरुआत होती है। इस महीने में रोगों का संक्रमण सर्वाधिक होता है। वातावरण में थोड़ी सी नमी आनी शुरू हो जाती है।*


*इसी महीने में #श्री_जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। इस महीने में सूर्य और देवी की भी उपासना की जाती है। इस महीने में तंत्र और शक्ति उपासना के लिए "गुप्त नवरात्रि" भी मनाई जाती है। इसी महीने (हरिशयनी एकादशी) से श्री हरिविष्णु शयन के लिए चले जाते हैं।* अगले चार माह तक शुभ कार्यों की वर्जना रहती है। *आषाढ़ माह की पूर्णिमा को #गुरु_पूर्णिमा का महान उत्सव भी मनाया जाता है।*


*आषाढ़ माह के व्रत और त्योहार*:

*28 जून- पंचक काल प्रारंभ*

*02 जुलाई- शीतलाष्टमी*

*03 जुलाई- पंचक का समापन*

*05 जुलाई- योगिनी एकादशी व्रत*

*07 जुलाई- प्रदोष व्रत*

*08 जुलाई- मासिक शिवरात्रि*

*09 जुलाई- अमावस्या तिथि*

*11 जुलाई- गुप्त नवरात्रि प्रारंभ*

*12 जुलाई- श्री जगन्नाथ जी रथयात्रा प्रारंभ*

*13 जुलाई- विनायक चतुर्दशी व्रत*

*16 जुलाई- कर्क संक्रांति*

*18 जुलाई- गुप्त नवरात्रि पारण*

*19 जुलाई- आशा दशमी का व्रत रहेगा*

*20 जुलाई- हरिशयनी एकादशी*

*21 जुलाई- प्रदोष व्रत, वामन द्वादशी*

*22 जुलाई- विजया पार्वती व्रत*

*24 जुलाई- पूर्णिमा व्रत*

 

*किन देवी-देवताओं की हो पूजा?*


*आषाढ़ के महीने में सबसे ज्यादा फलदायी उपासना गुरु की होती है।* इसके अलावा देवी की उपासना भी शुभ फल देती है। श्री हरि विष्णु की उपासना। *इस महीने में जल देव की उपासना जल का महत्व दर्शाती है।* इस महीने में मंगल और सूर्य की उपासना अवश्य करें, ताकि ऊर्जा का स्तर बना रहे।

🙏जय श्री हरि🙏

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रविवार, 27 जून 2021

दास्तांने सफर../ मुकेश प्रत्यूष

 आधी  रात के बाद लगभग घंटे भर तक  जिस तरह से पट ना में मूसलाधार  बारिश के साथ बिजली कड़क रही थी उसे देखते हुए मुझे चालीस वर्ष पहले की गई उत्‍तराखंड की यात्रा की एक रात याद आ गई।   


गंगा, यमुना और सरस्‍वती नदियों का उद्गम-स्‍थल देखने की ललक में मैं जून के महीने में उत्‍तराखंड की यात्रा पर निकल गया था। बरसात के दिनों में उत्‍तराखंड के पहाड़ी इलाकों में भूस्‍खलन और बादल फटने की घटनाएं होती रहती हैं। उन दिनों न तो इन जगहों को जोड़ने वाली सड़के बहुत अच्‍छी थीं, न रहने-खाने की ठीक-ठाक  सुविधाएं। 


मुझे यह स्‍वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि यायावरी मेरी  आदतों में शुमार है।  यात्रा की कोई बहुत लंबी-चौड़ी योजना नहीं बनाता। बस किसी दिन मन हुआ कहीं चला जाए। दूसरी दिन जरूरी इंतजाम किए । जैसे कपड़े, टार्च, छाता आदि कुछ जरूरी सामान रखना, बैंक जाकर ट्रेवेलर्स चेक बनवाना (एटीएम आने के बाद यह काम खत्‍म हो गया) और ट्रेन, बस (अब हवाई जहाज) आदि का पता करना और फिर जो होगा देखा जाएगा सोचकर  निकल पड़ना। ऐसे समय के लिए अम्‍मा की कही एक लाकोक्ति मन के किसी कोने में अनुगुंजित होती रहती है - कभी घोर धना, कभी मुट्ठी चना, कभी वह भी मना। अर्थात् जीवन में कभी बहुत धन हो सकता है, कभी यह स्थिति आ सकती है कि खाने के नाम पर केवल मुट्ठी भर चने के दाने हों और यह भी  संभव है कि कभी वह भी न मिले। और, अनियोजित यात्राओं में यह कई बार सार्थक हुआ है।  देश में तो कम विदेश में कई बार ऐसे अवसर आए कि पैसे होते हुए भी साथ लाये बिस्किट या सत्‍तू खाकर सोये। 


हरिद्वार के बाद मेरा पहला पड़ाव था हनुमानचट्टी, जहां तक सड़क मार्ग से जाया जा सकता था।  आगे की 14 किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ाई पैदल, घोड़े, पालकी या पिट्ठू से करनी पड़ती थी। हनुमानचट्टी पहुंचते-पहुंचते देर शाम हो  गई थी। तुरंत रात बिताने के लिए कुछ इंतजाम करना था। हनुमानचट्टी बहुत छोटी-सी जगह थी। यमुनोत्री जाने और वहां से वापस आने वाले यात्री, जो तब बहुत कम होते थे, केवल रात बिताने के लिए  रूकते थे। स्‍थानीय निवासी कुछ किराया लेकर अपने घरों में उन्‍हें रात में रहने देते, खाना खिला देते। बिजली प्राय: नहीं रहती थी। मैंने आस-पास   पता करना शुरू किया। लेकिन कहीं कोई कमरा खाली नहीं था। एक धर्मशाला थी लेकिन भरी हुई।  पता चला थोड़ी ऊंचाई पर एक लकड़ी का घर है उसमें कमरा खाली है। तेज चलता हुआ वहां पहुंचा। घर क्‍या था एक पहाड़ी नाले  के ठीक किनारे लकड़ी की बनी एक थोड़ी बड़ी गुमटी थी। बिजली नहीं थी। कमरे में मोमबत्‍ती जल रही थी।   अब सवाल पसंद-नापंसद का नहीं रह गया था  तेजी से बढ़ती ठंढ से अपने को बचाने का था। बर्फ से ढंके पहाड़ों पर अगर मौसम साफ हो तो दिन में गर्मी लगती है। किसी गर्म कपड़े की जरूरत नहीं पड़ती पर शाम ढलते ही ठंढ इतनी बढ जाती है कि स्‍वेटर-कोट, मफलर, दास्‍ताने के बावजूद ठंढ लगती है। ऐसा मैंने कोहिमा, मोकुकचुंग, नाथुला,  गंगटोक, गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ, स्‍वीटरजरलैंड के माउंट टिटलिस आदि सभी जगहों पर महसूस किया है। खैर, लकड़ी के उस घर में लकड़ी की चौकी  थी जिसपर बिछावन लगा था और कंबल पड़ा था। देखते ही समझ में आ गया किसी का इस्तेमाल किया हुआ है। वे शायद उसे रोज बदलते नहीं थे।  मैंने चादर और तकिया का गिलाफ बदलने और ओढने के लिए धुले चादर की मांग की जिसे अनिच्‍छा से उसने पूरा कर दिया। दरअसल किसी के सोये चादर पर सोने में मुझे थोड़ी असुविधा होती है और चाहे कितनी भी ठंढ  हो बिना धुला कवर लगाए कंबल मैं ओढ़ नहीं पाता। सुबह जल्‍दी उठने के लिए जल्‍दी सोना था। करीब आधी रात को तेज आवाज  से नींद खुल गई। जोरों की  बारिश हो रही थी। । बादल इस तरह से गड़गड़ा रहे थे जैसे अभी प्रलय ला देंगे। कमरे के बगल में जो पहाड़ी नाला  शाम तक सूखा था बहुत तेज आवाज के साथ बह रहा था।   आवाज और प्रवाह इतना तेज कि लगे हमारा कमरा अब बहेगा कि तब। कुछ देर के लिए तो घबराये फिर सोचा अब कोई और उपाय तो है नहीं तो चिंता करने से क्या फायदा। सुबहहोने से कुछ पहले बारिश रुकी। नींद तो  दुबारा नहीं आई पर रात कट गई। पौ फटते ही तैयार होकर कंधे पर लटकने वाले कपड़े के झोले में छाता, टार्च, कुछ आपातकालीन दपवाइयां, डाली  और बाकी सामान उसी कमरे में छोड़कर यमुनोत्री के लिए निकल पड़ा। मालिक को एक और रात का  किराया अग्रिम दे दिया और कहा अगर रात में नहीं लौटा तो कल का भी किराया दे दूंगा।  जब तक मैं खाली नहीं करता किसी और को किराये पर न दे। उसे कोई नुकसान नहीं हो रहा था मान गया।  यमुनोत्री का रास्‍ता बहुत पतला और तीखी चढ़ाई का था। एक ओर सौकड़ों फीट ऊंचे पहाड़ जिससे सिर को छूते हुए  से नुकीले पत्थर निकले हुए  थे और दूसरी ओर सौकड़ों फीट गहरी खाई। थोड़ी सी असावधानी  होते या ध्‍यान भटकते ही या तो सिर किसी पत्‍थर से टकराता या खाई में गिरने का कारण बन जाता। रास्‍ते में तीन छोटे-छोटे गांव  नारद चट्टी, फूल चट्टी एवं जानकी चट्टी (अब यहां तक सड़क बन गई है) थे।  थोड़ी दूर चलते ही एक व्‍यक्ति मिला कई प्रकार की लाठियां/छउि़यां लिए हुए। लगा सहारे के लिए एक छड़ी ले ली जाए तो अच्‍छा रहेगा।  एक छड़ी खरीदी। फिर रूक-रूक कर होती बारिश में धीरे-धीरे चलता-बैठता हुआ चार घंटे में यमुनोत्री पहुंचा। स्‍थानीय लोगों को मिलाकर मुश्किल से पच्‍चीस-तीस लोग रहे होंगे वहां। 


 पश्चिमी हिमालय के कालिंद पर्वत, जिसके कारण यमुना को कालिंदी भी कहा जाता है,  पर स्थित चंपासर ग्‍लेशियर  के मुहाने से थोड़ा-थोड़ा पानी निकल रहा था। आगे चलते हुए यह जितना विकराल हो जाता है उसकी कल्‍पना भी यहां नहीं की जा सकती। 


पुराणों में यमुना को सूर्यतनया कहा गया है जिसका अ र्थ है सूर्य की पुत्री।  पुराणों के अनुसार  सूर्य की छाया और संज्ञा नामक दो पत्नियां हैं जिनसे    यमुना, यम, शनिदेव,  वैवस्वत तथा  मनु  हुए। अर्थात यमुना यमराज और शनिदेव की बहन हैं। कालिंदी (यमुना) को कृष्‍ण की आठ पटरानियों में भी एक माना जाता है।


 गलेशियर के पार्श्‍व में यमुना का एक मंदिर है। कहा जाता है कि इसे 11वीं शताब्‍दी में बनाया गया था। मंदिर के प्रांगण में एक विशाल शिलाखंड है जिसे दिव्‍यशिला  कहा जाता है।  मंदिर के बाहर हैं दो तप्त कुंड हैं। एक छोटा, जिसे सूर्यकुंड कहा जाता है में पानी लगातार खौलता रहता है। इसका तापमान लगभग दो सौ डिग्री सेल्सियस होता है। इसी स्रोत से गर्म पानी की  एक धारा बगल में बने एक   बड़े कुंड, जिसे जानकी कुंड कहा जाता है और  जिसमें कई लोग एक साथ स्‍नान कर सकते हैं, में जाती है।  इस कुंड का तापमान अपेक्षाकृत कम होता है लेकिन एकबारगी इसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता। कुछ लोग स्‍नान कर रहे थे। पैदल चलता हुआ मैं भी थक गया था सोचा पहले स्‍नान कर लूं। कुंड में पैर डालते ही छटपटाकर बाहर खींच लिया लगा उबलते पानी में पैर चला गया है। लोगों ने कहा आराम से आइये। हिम्‍मत नहीं हो रही थी लेकिन देखा जब इन लोगों को कुछ नहीं हो रहा है तो मुझे भी नहीं होगा और धीरे-धीरे कुंड में जाकर गले तक बैठ गया। सच कहता हूं थोड़ी देर में ही यात्रा की पूरी थकान दूर हो गई। अब बाहर निकलने का मन नहीं करे। लेकिन निकलना तो था ही। निकला। मंदिर में दर्शन किये। यमुना से पहले दो-तीन छोटी-छोटी दुकाने थीं लेकिन खाने-पीने की एक भी नहीं।  बताया गया उसी सूर्यकुंड में खाना पकाकर लोग खाते हैं। मेरे पास भी वही एक उपाय था।  लगभग आधा मीटर  नया कपड़ा, सौ ग्राम चावल और ढाई सौ ग्राम आलू खरीदे और   वापस सूर्यकुंड के पास आकर बैठ गया। चावल और आलू को उस कपड़े में बाांधकर कुंड में लटका दिया करीब बीस मिनट में चावल-आलू पक गये। नमक का प्रयोग यहां वर्जित है। सूर्य के प्रसाद के साथ नमक कहीं नहीं लिया जाता। बिहार में भी छठ में खरना के दिन से ही नमक का प्रयोग बंद कर दिया जाता है। यहां भी इसे सूर्य का प्रसाद माना जाता है। वहीं पास में बैठककर आलू का मसलकर चोखा बनाया और उसीके साथ चावल खाए। अब इसे भूख की तीव्रता कहें या गंधक से उबलते पानी का असर नमक, तेल, मसाले की कमी नहीं खली। खाकर फिर एक बार चारो  ओर घूमा रात गुजारने को कोई जगह नहीं दिखी। वापसी एकमात्र विकल्‍प था चल दिया ताकि अंधेरा होने से पहले ठिकाने पर पहुंच जाऊं। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया लगभग दो किलोमीटर पहले ही अंधेरा घिर आया और टार्चकी रोशनी  के सहारे वापस आया। 


 आने पर  पता चला रात  पास के एक गांव में बादल फटा था। काफी नुकसान हुआ है। रात में उस पहाड़ी नाले से उसी का मलवा बह रहा था। 


इसके बाद मैं कई बार यमुनोत्री गया। अममा-पापा को लेकर, पत्‍नी-बच्‍चों के साथ। बच्‍चे जब छोटे थे कई बार  ग्‍लेशियर के कुछ अंदर तक चले जाते  टूटी-टूट कर गिर रहे बर्फ के टुकड़ों से खेलने के लिए।  बेशक, यह खतरनाक होता।

गुरुवार, 24 जून 2021

परंपरा से पैदा होती है रचनात्मकता /:- डॉ. जितेंद्र बजाज

 यह प्रश्न करना कि अपनी प्राचीन ज्ञान परंपरा पर हमें क्यों चर्चा करनी चाहिए,स्वयं में एक विलक्षण प्रश्न है। दुनिया में किसी भी देश में इस प्रकार का प्रश्न नहीं पूछा जाता। यूरोप में यदि आप किसी से पूछें कि ग्रीक और लैटिन पढऩा क्यों आवश्यक है, तो वह आप पर हँसेगा। यूरोप का कोई भी व्यक्ति ग्रीक और लैटिन न जाने, वह बड़ा विद्वान नहीं हो सकता। इसी प्रकार यदि आप अरब में भी यह प्रश्न पूछेंगे तो लोगों को विचित्र लगेगा। उन्हें भी अरबी, फारसी और अपने प्राचीन ज्ञान को जानना स्वाभाविक रूप से आवश्यक लगता है।


यदि हम आज की भाषा की ही बात करें तो किसी भी भाषा में तब तक कोई भी ऊँचा लेखन संभव नहीं है, जब तक आप उसके प्राचीन साहित्य को नहीं जान लेते। यदि आप भाषा की परंपरा को नहीं जानेंगे तो आपको भाषा आएगी ही नहीं। आपको न उपमाओं का पता चलेगा, न शब्दों का पता चलेगा। भाषा परंपरा से ही समृद्ध होती है। जब मैंने हिंदी में लिखना चाहा तो पहले आग्रहपूर्वक रामचरितमानस पढ़ा, फिर शब्दकल्पद्रुम को उपयोग किया। उसमें कोई शब्द किस पुराण या अन्यान्य ग्रंथ में आया है, उसका उल्लेख है। आज मैं जो हिंदी जानता हूँ तो इसमें इन दोनों ग्रंथों का योगदान है। आज यदि साहित्य में कुछ अच्छा दिखता नहीं है, तो इसलिए कि हमारा अपनी प्राचीन साहित्य और उसकी परंपरा के साथ संबंध-विच्छेद हुआ है। विश्व का कोई भी महान साहित्य परंपरा से कट कर नहीं लिखा गया।

जिस प्रकार साहित्य में बिना परंपरा को जाने कुछ अच्छा और महान रचना नहीं की जा सकती, ठीक इसी प्रकार ज्ञान-विज्ञान की कोई भी शाखा को उसकी परंपरा को जाने आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। उदाहरण के लिये यदि भारत में मेडिकल की पढ़ाई करने वालों का आयुर्वेद के साथ संपर्क रहा होता तो उनके काम में रचनात्मकता आ जाती। अभी केवल नकल दिखती है। यदि आप अपनी परंपरा के साथ जुड़ते हैं तो बड़ी रचनात्मकता आती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप वही करेंगे जो परंपरा में होता रहा है, बल्कि आप नया करेंगे और उसमें आप रचनात्मक होंगे।

यदि आप मेडिसिन की 1940 के आसपास की कोई पुस्तक उठा लें। उस समय तक एंटीबॉयोटिक नहीं थे, उनका आविष्कार द्वितीय महायुद्ध के बाद हुआ था, विटामिनों का अभी पता ही चला था, सर्जरी अधिक होती नहीं थी, क्योंकि एंटिबॉयोटिक नहीं थे। ऐसे में उनके उस समय की मेडिसिन की पुस्तकें किस पर आधारित थीं? वे आधारित थीं उनके ग्रीक पुस्तकों पर। हिप्पोक्रेटस और उसकी परंपरा में जो कुछ था, उसके आधार पर ही था। सबकुछ परंपरा में ही होता है। उसके बाहर तो कुछ होता ही नहीं है।

इसी प्रकार यदि हमें आज की समस्याओं को समझना चाहें तो इसके लिए भी अपनी ज्ञान परंपरा की जानकारी होनी चाहिए। अन्य लोगों को इसकी समझ भी नहीं आएगी। 1990 के आसपास हम भारत और विश्व में प्रतिव्यक्ति अनाज उत्पादन के आंकड़े एकत्र कर रहे थे। उस समय हमें आंकड़ों से यह पता चला कि प्रतिव्यक्ति उत्पादन और खपत के अनुपात की दृष्टि से भारत विश्व के अंतिम देशों में से है। इसका अर्थ यही है कि भारत में व्यापक स्तर पर भूखमरी है। हमने इस पर सभी से चर्चा की। योजना आयोग वालों से कहा तो उनका उत्तर होता था कि हमारी सभ्यता काफी पुरानी है और इतने वर्षों से खेती करने के कारण यहाँ की भूमि थक गई है और इसलिए यहाँ और उत्पादन नहीं बढ़ सकता। उनके मन में यही था कि इससे अधिक उत्पादन नहीं हो सकता। उस समय हमने सोचा कि इस विषय में भारत के प्राचीन साहित्य में क्या कहा गया है, इसे देखते हैं। उस समय मैंने उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि को पढ़ा। उनमें किए गए वर्णन के आधार पर हमने पुस्तक लिखी अन्नं बहु कुर्वीत। उसे पढऩे से ऐसा लगता है कि उन ग्रंथों में यह सारी चर्चा इसी समस्या को लेकर की गई है।

यह ठीक है कि उन ग्रंथों में यह सारी इसी समस्या को लेकर नहीं है, लेकिन उस समय यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है कि धर्मसम्मत समाज का यह कर्तव्य है कि वह अपने आसपास के लोगों का इतना ध्यान रखें कि उनमें से कोई भूखा न रहे। केवल सभी मनुष्यों का ही नहीं, बल्कि सभी जीवों का भी ध्यान रखें। यह ध्यान रखने के बाद ही आप धर्मसम्मत भोजन कर सकते हैं। यह हमारी परंपरा में है। परंतु यदि हम अपनी परंपरा को नहीं जानते हैं, तो हम योजना आयोग के लोगों की तरह ही सोच पाएंगे कि हमारे लोगों की आर्थिक क्षमता इतनी नहीं है कि वे अपना भोजन जुटा सकें। अपनी परंपरा को जानने वाले यह तर्क दे ही नहीं सकते। इसलिए परंपरा का तो प्रत्येक समस्या से संबंध है। अपनी परंपरा को जाने बिना अपनी समस्या का जो भी समाधान हम निकालेंगे, वे गलत समाधान होंगे।

परंपरा का संबंध हमारे विदेश राजनय से भी है। यदि आपको मालूम ही नहीं है कि आपका देश क्या रहा है, आपकी सभ्यता क्या रही है तो आप क्या राजनय निभाएंगे? दुनिया के लोग तो अपनी परंपरा से ही राजनय सीखते हैं। ग्रीक साहित्य में कैसे किसी समस्या को देखा गया, अन्य देशों के साथ कैसे संबंध बनाए गए, इससे लोग सीखते हैं। चीन भी अपनी परंपरा से सीखता है, जापान भी सीखता है। केवल हम ही नहीं सीखते। यहाँ तक कि ईरान जैसे देश में अभी कुछ दिनों पहले वहाँ के विदेश मंत्री का एक वक्तव्य था। उसने कहा था कि अमेरिका को उसे कुछ सिखाने की आवश्यकता नहीं है। वे कोई आज के देश नहीं हैं। उनकी सभ्यता इन बहुत सारे देशों से कहीं अधिक पुरानी है। वे जानते हैं कि विश्व मे क्या होता है। वे लड़े भी हैं, हारे भी हैं। फिर भी वे उठे हैं। इसलिए उन्हें अमेरिका से सीखने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे राजदूत इस विश्वास के साथ कुछ कह सकते हैं क्या? क्या वे कह सकते हैं कि हमने महाभारत पढ़ा है और हमें पता है कि राजनीति क्या होती है? भारत में रामायण और महाभारत पढ़े बिना क्या आप दुनिया से संबंध बनाएंगे? किस प्रकार की चर्चा आप कर पाएंगे।


भारतीय ज्ञान परंपरा की उद्गाता ‘वैदिक संपत्ति’


भारत पर सभ्यतागत आक्रमणों में एक बडा आक्रमण यहां की ज्ञान परंपरा पर किया गया था। भारतीय ज्ञान परंपरा का सबसे बडा आधार थे वेद और इसलिए अंग्रेजों सहित समस्त यूरोपीय बौद्धिक जगत ने वेदों को निरर्थक साबित करने के लिए एडी-चोटी एक कर दिया था। सबसे पहले कहा गया कि वेद तो चरवाहे और गरेडिये आर्यों के लिखे गीत मात्रा हैं, इनमें किसी प्रकार का कोई दर्शन या विज्ञान नहीं है। फिर वेदों के व्यर्थता को साबित करने के लिए इनका अनर्गल भाष्य करने और वैदिक साहित्य को हीनतर साबित करने के लिए वैदिक साहित्य पर विभिन्न प्रकार के आरोप लगाने जैसे प्रयास भी किए गए। वेदों में वर्णित प्रकृति के रहस्यों पर आधारित आलंकारिक कथाओं को मनुष्य इतिहास के रूप में दिखाने और उसके आधार पर वेदों में अश्लीलता, चरित्राहीनता और अनर्गल प्रलापों के भरे होने के दावे किए गए। स्वाभाविक ही था कि वेदों को परम प्रमाण मानने और उन पर गहरी आस्था रखने वाले वैदिक सनातन समाज पर यह एक गंभीर सभ्यतागत आक्रमण था। इस आक्रमण का वैदिक समाज ने जोरदार सामना किया और इन सभी आरोपों के खंडन और वेदज्ञान की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए विपुल साहित्य की रचना की। ऐसी ही एक पुस्तक है वैदिक संपत्ति।

वैदिक संपत्ति के लेखक हैं पंडित रघुनंदन शर्मा और यह पुस्तक आज से 84 वर्ष पहले 1932 में लिखी गई, परंतु इसकी विशेषता यह है कि इसमें जो बातें लिखी और कही गई हैं, वे सभी आज भी उतनी ही प्रासंगिक और उतनी ही प्रामाणिक हैं। वेदों पर लगाए गए आक्षेपों का उत्तर देने के क्रम में लेखक ने आधुनिक विज्ञान से लेकर इतिहासकारों तक पर जो प्रश्न उठाए हैं, वे भी आज तक उतने ही महत्वपूर्ण बने हुए हैं और अनुत्तरित भी हैं। वैदिक संपत्ति पुस्तक एक अनूठी पुस्तक है जिसमें काफी सारे विषयों पर बडी ही प्रामाणिक, अधिकृत और शोधपरक जानकारी दी गई है। इसकी विषय सूची को यदि हम पढें तो पाएंगे कि विषय इतने अधिक विविधतापूर्ण हैं कि किसी एक लेखक द्वारा इतने सारे विषयों पर इतने अधिकारपूर्वक लिखना असंभव सा प्रतीत होता है। परंतु पंडित रघुनंदन शर्मा ने इस असंभव से कार्य को संभव कर दिखाया है। इतिहास से लेकर भाषाविज्ञान तक, भूगोल से लेकर नृतत्वविज्ञान तक, राजनीतिशास्त्रा से लेकर समाजशास्त्रा तक, ज्योतिष से लेकर जीवविज्ञान तक इतने सारे शास्त्रों, विषयों और विज्ञानों पर इतने अधिकारपूर्वक इतना प्रामाणिक लिखा गया है अविश्वसनीय सा प्रतीत होता है, और लेखक के प्रति स्वाभाविक श्रद्धा जाग उठती है।

वेदों के बारे में यूरोपीयों के दुष्प्रचार का आज यह परिणाम हुआ है कि अधिकांश भारतीय विद्वान भी वेदों में मानव इतिहास को स्वीकार करने लगे हैं। स्थिति यह है कि प्राचीन भारत के इतिहास को लिखने वाला हर छोटा-बडा इतिहासकार वेदों को उद्धृत करता ही है। उसमें वर्णित नामों और मानवीय एवं खगोलीय घटनाओं को भारत के इतिहास से जोडता ही है। परंतु यदि भारत के ऋषियों की मान्यता देखें तो वेदों में इतिहास संभव ही नहीं है। भारतीय मान्यता स्पष्ट है कि वेद ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरंभ में प्रकाशित किए गए हैं। ऐसे में उसमें बाद का इतिहास कैसे हो सकता है? प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा है, तो फिर वेदों में आए नदियों, राजाओं, नगरों आदि नामों का क्या तात्पर्य है? पंडित रघुनंदन शर्मा ने पुस्तक के प्रारंभ में ही इस बात को साफ किया है और एक-एक नाम पर चर्चा की है। यह विवेचन काफी सरल और समझ में आने वाला है। इस अध्याय को पढने से वेदों में मानव इतिहास के होने के भ्रम का पूरी तरह निवारण हो जाता है।

वेदों की रचना और रचनाकाल को लेकर भी देश में काफी भ्रम है। आज का कोई भी व्यक्ति जो स्वयं को वैज्ञानिक सोच का मानता है, उसे वेदों की प्राकट्य सृष्टि के प्रारंभ में हुए होने की बात काल्पनिक और अविश्वसनीय लगती है। विशेषकर जबसे दुनिया में विकासवाद की परिकल्पना का प्रचार-प्रसार हुआ है, भारतीय शास्त्रों के विद्वान भी इसकी चपेट में आकर सनातन शास्त्रों की व्याख्या तदनुसार ही करने लगे हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोग पुराणों में वर्णित अवतारों को विकासवाद की स्थापना के रूप में साबित करने का प्रयास करते हैं। परंतु विकासवाद की अवधारणा न केवल भारतीय स्थापना के विरूद्ध है, बल्कि वैज्ञानिक रूप से स्थापित भी नहीं है।

वेदों की प्राचीनता के अध्याय में पंडित रघुनंदन शर्मा ने बडी गहनता से विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का विश्लेषण करते हुए विकासवाद पर जो प्रश्नचिह्न लगाए हैं, उनका उत्तर आज 84 वर्ष बाद भी विज्ञान के पास नहीं है।

वैदिक संपत्ति में आर्य आक्रमण सिद्धांत के उलट प्रारंभिक मनुष्यों यानी कि वैदिक भारतीयों के विदेशगमन के सिद्धांत को स्थापित किया गया है। लेखक की स्थापना है कि प्राचीन त्रिवष्टप या आज के तिब्बत के आस-पास मानव सृष्टि हुई और उसके बाद वहां से वे पूरी दुनिया में फैले। सुदूर इलाकों में लोग गए तो उनके रंग-रूप में परिवर्तन हुआ। इसके वर्णन में लेखक ने पूरी नृतत्वविज्ञान समझा दिया है।

भारत से बाहर गए विभिन्न कालखंडों में लोग कालांतर में वापस भी आए। ऐसे जिन विदेशी दलों का भारत में आगमन हुआ और उनका भारत पर जो प्रभाव पडा, उसकी भी गहन पडताल की गई है। यह अध्याय तो एकदम आँखें खोल देने वाला है क्योंकि आर्य बाहर से नहीं आए, यह कहते-कहते हम इसे भी उपेक्षित कर देते हैं कि भले ही आर्य कोई जाति नहीं थी और ऐसे कोई लोग बाहर से नहीं आए थे, परंतु वैदिक आर्यों की इस मूल बसावट में भी फिर भी विदेशी दलों का मिलान तो हुआ ही है। उनके कारण वैदिक साहित्य में कुछ गडबडियां भी हुई हैं। वैदिक साहित्य में हुई गडबडियों की चर्चा में भी रघुनंदन शर्मा ने स्तब्ध कर देने वाली जानकारियां दी हैं।

संहिताओं से लेकर उपनिषदों और ब्राह्मण ग्रंथों तक जो छेडछाड हुई है, उसे जानने के लिए वैदिक संपत्ति का यह अध्याय काफी उपयोगी है। आमतौर पर लोग महाभारत और पुराणों में ही गडबडियों को देखते हैं, परंतु छांदोग्य जैसे उपनिषद में भी कुछ छेडछाड हो सकती है, यह इसे पढे बिना समझना कठिन है। इसी क्रम में लेखक ने सती प्रथा के होने का भी सप्रमाण खंडन किया है। एकाध किसी घटना के आधार पर किस प्रकार एक प्रथा का बवंडर खडा किया गया और सनातन समाज को बदनाम किया गया, इसका जबरदस्त वर्णन किया गया है। इसे पढने से राजा राममोहन राय के काम पर बडा प्रश्नचिह्न लग जाता है।

वैदिक संपत्ति में लेखक ने वेदों के ज्ञान का विशद वर्णन किया है। वेदों में वर्णित समाज व्यवस्था, राज्य व्यवस्था सहित अन्यान्य विषयों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। इसे पढने से वेदों का एक निर्भ्रांत और साफ चित्रा व्यक्ति के मन में उभरता है, अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा जागती है और भारत की सनातनता का विश्वास दृढ होता है। यह पुस्तक भारत के प्राचीन ज्ञान की एक जबरदस्त कुंजी है। यह भारतीय ज्ञान और वैदिक साहित्य पर लगाए गए समस्त आक्षेपों का निराकरण कर उनके सटीक उत्तर प्रस्तुत करती है और जो सवाल यह खडे करती है, आधुनिक विज्ञान उनपर आज भी निरूत्तर है।

यह पुस्तक गोविंदराम हासानंद, 4408, नई सड़क, दिल्ली 110006 से प्राप्त की जा सकती है।

✍🏻साभार - भारतीय धरोहर

लेखक समाजनिति अध्ययन केन्द्र, चेन्नई के निदेशक हैं)

कौन करे इस रचनात्मक आत्मोत्सर्जन-प्रविधि का अनुकरण ! / श्याम बिहारी श्यामल

 ज्ञानेन्द्रपति की काव्य-भाषा को लेकर, कवि-समाज के भीतर एक कसमसाहट-सी क्यों है ? 


पिछले दशकाधिक वर्षों के दौरान कई महत्वपूर्ण कवि व आलोचकों से बातचीत में इसकी झलक मुझे प्रत्यक्ष मिली है. यहां नाम लेना इसलिए उचित नहीं कि मेरी जानकारी में ऐसे लोगों ने इसे लिखत-पढ़त में कहीं व्यक्त नहीं किया और बातचीत में अनौपचारिक ढंग से कही बात को नामोल्लेख पूर्वक आम कर देना 'व्यक्तिगत' की मर्यादा का सीधे-सीधे हनन होगा. इसके बावजूद चर्चा इसलिए अनिवार्य है क्योंकि यह संदर्भ कहीं न कहीं बड़े फलक को छूने और प्रभावित करने वाला है. 


ज्ञानेन्द्रपति को अब से कुछ घंटे पहले, यानी बुधवार (23 जून 2021) को देरशाम, नागार्जुन सम्मान पर बधाई देते हुए फोन पर ही मैंने यह प्रश्न किया कि क्या उनकी निगाह में उनका समवर्ती या परवर्ती कोई ऐसा कवि है जो उनकी काव्य-प्रविधि का अनुकरण-परिग्रहण या विस्तरण करता  हो ? 


अव्वल तो ऐसे समय जबकि वह बधाइयों के कॉल्स-मैसेज की बाढ़ से घिरे थे, इस तरह के सवाल की उन्हें न अपेक्षा या उम्मीद रही होगी, न ही प्रचलित व्यवहारिकता में ऐसा कुछ पूछे जाने का यह सही वक्त, इसके बावजूद उन्होंने कुछ पल सोचकर उत्तर संजीदगी से दिया. 


उनका एक शब्द का यह उत्तर मेरी धारणा के ही अनुकूल अर्थात 'नहीं' था !


कविता में निराला, मुक्तिबोध से लेकर रघुवीर सहाय तक की काव्य-भाषा-शैली के अनुकरण करने वालों की लंबी फेहरिश्त है. पिछली आधी सदी की हिंदी कविता में, मेरे ख्याल से सबसे अधिक अनुकृत होने वाले मॉडल अग्रज कवि रघुवीर सहाय हैं, निराला-मुक्तिबोध से भी अधिक. कारण, उनके यहां जो एक तात्कालिक प्रतिक्रियापन या त्वरित तल्खी है, वह परवर्तियों या नयों के लिए जितना ही आकर्षक है, ग्राह्यता की दृष्टि से उतना ही सहज और प्रभावान्विति की दृष्टि से  वैसा ही असरदार और लाभदायी भी. लिहाजा, रघुवीर सहाय परवर्तियों में खूब झिलमिलाते दिख जाते हैं. उनके प्रभाव में रंगे आधा दर्जन नाम तो अपनी-अपनी पीढ़ी के 'संजीदा' शामिल हैं. उसी तरह, कॉपी करने वालों के लिए तो जटिलतम समझे जाने वाले मुक्तिबोध तक असंभव नहीं रहे. दम साधकर गझिन रूपक गढ़ने वाले, नई से नई पीढ़ी तक में कई नाम सामने है. 


फिर, ज्ञानेन्द्रपति में ऐसा क्या है, जो उन्हें अरूपांतरणीय बनाए हुए है ? 


यह कटु तथ्य है कि हिंदी कविता दशकों से एकजैसापन के गहरे संताप से जूझ रही है. कुछ इस तरह, जैसे ताजा हवाएं राह भूल गईं हों और प्रयोग के सारे द्वार बंद हो चुके हों!


हालत यह कि नाम ढंककर दस समकालीन प्रतिनिधि रचनाकारों की कविताएं सामने रख दी जाएं, तो पहचानना मुश्किल हो जाए कि दसों किसी एक ही कवि की रचनाएं हैं या दस अलग सर्जक की ! या, कौन किसकी ! आश्चर्यजनक ढंग से, जैसे सांचे से धड़ाधड़ ढलाई जारी हो. 


इसके बरक्स ज्ञानेन्द्रपति की कोई कविता या काव्यांश दिख जाए तो  उसे बगैर उनका नाम देखे भी उन्हीं की रचना के रूप में पहचानना, कम से कम कविता के नियमित रसास्वादकों के लिए असंभव नहीं. 


ज्ञानेन्द्रपति जिस तत्सम शब्दावली को अपना उपादान बनाते हैं, प्रकटतः यह हमारी प्राचीन थाती है. वह जिस कहन-शैली को संभव करते हैं, यह भी कोई ठोंक-पीटकर गढ़ी हुई नहीं! कथ्य भी इसी दुनिया और हमारे ही अपने जीवन के हिस्से ! इसके बाद भी कुछ तो ऐसा है जो उनकी कविता में यूं घटित होता है जिसे कोई और उतार नहीं पा रहा. कुछ यूं जैसे बीज पुराना, धरती-माटी भी चिरपरिचित और रोपण-सिंचन तक पूर्वज्ञात लेकिन निकलने वाली पौध से लेकर उसकी विकास-क्रिया और अंततः डाल पर खिल आने वाले पुष्प तक, सर्वथा अकृत्रिम, नए और अनुकरण-मुक्त! कुछ इसी तरह, ज्ञानेन्द्रपति की निर्मिति को जो तत्व विशिष्ट बनाता है, वह है उनका अपना अनुभव-रस, जिसे वह अपनी ही कठिन जीवन-प्रणाली से अर्जित करते हैं! 


ज्ञानेन्द्रपति कविता को लिख तो बाद में पाते हैं, पहले उसे उसके उत्स-संदर्भों में, ज्ञानेंद्रियों के अनेक स्तरों पर धारण करते हैं ! पुष्प देने से पहले धरती जैसे खनन सहन करती है, नमी वरण करती है, बीज धारण करती है और तब चरणबद्ध अन्य सभी आत्मशमन-क्रियाएं ! उन्हें और उनकी व्यक्तिगत कठिन जीवन-प्रणाली को जानने या उनके निकट पहुंचने वाले ही समझ सकते हैं कि कैसे वह ठीक इसी तरह अपने रचना-परिदृश्य को रेशा-रेशा अनुभवजन्य बनाते और लम्हा-लम्हा जीते हैं! 


इस सर्जनात्मक आत्मोत्सर्जन का, कोई देखकर अनुकरण करना चाहे तो यह भला संभव कहां है ! अब इस कारण किसी परवर्ती में निराशा या समवर्ती में कसमसाहट हो, तो हो !


ज्ञानेन्द्रपति को प्रतिष्ठित साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हो चुका है और इससे भी पहले उनकी सर्जना को विशाल हिंदी कविता के फलक पर अपनी उल्लेखनीय विशिष्ट पहचान ! जनकवि नागार्जुन के नाम से जुड़ा ताजा सम्मान भी विशेष है. उन्हें आदरपूर्ण बधाई 🌹🙏🙏🌹

आलोक धन्वा  Naresh Saxena Madan Kashyap Subhash Rai Anwarshamim

कबीर-बानी / कौशल किशोर

ऐसी बानी बोलिये,मन का आपा खोय। 

औरन को शीतल करे,आपहु शीतल होय।।


बुरा जो देखन मैं चला,बुरा न मिलिया कोय। 

जो दिल खोजा आपना,मुझसे बुरा न कोय।।


पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ,पंडित भया न कोय। 

ढाई आखर प्रेम का,पढ़े सो पंडित होय।।


कबिरा सोई पीर है,जो जाने पर पीर। 

जो पर पीर न जानई,सो काफि़र बेपीर।।


निरबल को न सताइये,जाकी मोटी हाय। 

मुई खाल की स्वाँस से,लौह भसम हुइ जाय।।


पाथर पूजे हरि मिले,तो मैं पूजुँ पहार। 

या से तो चाकी भली,पीस खाय संसार।।


नैना अंतर आव तू,नैन झपहियों लेहु। 

ना मैं देखों और को,ना तोहि देखन देहु।।


सहज मिलै सो दूध सम,माँगा मिलै सो पानि। 

कह कबीर वह रक्त है,जा में  ऐंचातानि।।


पानी केरा बुदबुदा,अस मानुस की जात। 

देखत ही छिप जायगा,ज्यों तारा परभात।।


चलता चाकी देखके,दिया कबीरा रोय। 

दो पाटन के बीच में,बाकी बचा न कोय।।


*   *   *   *   *   *   *   *   *

बुधवार, 23 जून 2021

विश्वास का नियम

🙏🙏एक नियम* ✌️✌️


*रात के ढाई बजे था, एक सेठ को नींद नहीं आ रही थी । वह घर में चक्कर पर चक्कर लगाये जा रहा था। पर चैन नहीं पड़ रहा था । आखिर थक कर नीचे उतर आया और कार निकाली ।*


*शहर की सड़कों पर निकल गया। रास्ते में एक मंदिर दिखा सोचा थोड़ी देर इस मंदिर में जाकर भगवान के पास बैठता हूँ। प्रार्थना करता हूं तो शायद शांति मिल जाये।*


*वह सेठ मंदिर के अंदर गया तो देखा, एक दूसरा आदमी पहले से ही भगवान की मूर्ति के सामने बैठा था । मगर उसका उदास चेहरा, आंखों में करूणा दर्श रही थी।*


*सेठ ने पूछा " क्यों भाई इतनी रात को मन्दिर में क्या कर रहे हो ?"*


*आदमी ने कहा " मेरी पत्नी अस्पताल में है, सुबह यदि उसका आपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जायेगी और मेरे पास आपरेशन के लिए पैसा नहीं है ।*


*उसकी बात सुनकर सेठ ने जेब में जितने रूपए थे  वह उस आदमी को दे दिए। अब गरीब आदमी के चहरे पर चमक आ गईं थीं ।*


*सेठ ने अपना कार्ड दिया, और कहा इसमें फोन नम्बर और पता भी है और जरूरत हो तो निसंकोच बताना।*


*उस गरीब आदमी ने कार्ड वापिस दे दिया और कहा, "मेरे पास उसका पता है " इस पते की जरूरत नहीं है सेठजी ।*


*आश्चर्य से सेठ ने कहा "किसका पता है भाई ।*


*"उस गरीब आदमी ने कहा,  "जिसने रात को ढाई बजे आपको यहां भेजा उसका।"*


*इतने अटूट विश्वास से सारे कार्य पूर्ण हो जाते है ।*


*घर से जब भी बाहर जाये, तो घर में विराजमान अपने प्रभुसे जरूर मिलकर जाएं, और जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले ।*


*क्योंकि, उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार रहता है ।*

 

*"घर" में यह नियम बनाइए की, जब भी आप घर से बाहर निकले, तो घर में, मंदिर के पास दो घड़ी खड़े रह कर "प्रभु चलिए... आपको साथ में रहना हैं ।" ऐसा बोल कर ही निकले क्यूँकि आप भले ही "लाखों की घड़ी" हाथ में क्यूँ ना पहने हो, पर "समय" तो "प्रभु के ही हाथ" में हैं ।*


प्रस्तुति -:चौधरी अफज़ल नदीम


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏✌️🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

मंगलवार, 22 जून 2021

गांव में शादी विवाह

 *#गांव #के #बियाह*

🚩

पहले गाँव मे न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग।

थी तो बस सामाजिकता।

गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से चारपाई आ जाती थी,

हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही इकट्ठा हो जाता था और गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं।

औरते ही मिलकर दुलहिन तैयार कर देती थीं और हर रसम का गीत गारी वगैरह भी खुद ही गा डालती थी।

तब DJ अनिल-DJ सुनील जैसी चीज नही होती थी और न ही कोई आरकेस्ट्रा वाले फूहड़ गाने।

गांव के सभी चौधरी टाइप के लोग पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे।

हंसी ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी।

शादी ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था।

गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती।

सच कहा उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।

खाना परसने के लिए गाँव के लौंडों का गैंग ontime इज्जत सम्हाल लेते थे।

कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते जिसमे एक कॉमन गाना बजता था-मैं सेहरा बांधके आऊंगा मेरा वादा है और दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम न समझते। 

दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा रहता, टैम टैम पर बार झारते रहता था कंघी से और टेम टेम पर काजर-पउडर भी पोत देता था ताकि दुलहा सुन्नर लगे।

फिर दुवरा का चार होता फिर शुरू होती पण्डित जी की महाभारत जो रातभर चलती।लड़कियां जूता चुराती और 101 में मान जाती।

फिर कोहबर होता, ये वो रसम है जिसमे दुलहा दुलहिन को अकेले में दुइ मिनट बतियाने के लिए दिया जाता लेकिन इत्ते कम टेम मा कोई क्या खाक बात कर पाता।

सबेरे खिचड़ी में जमके गारी गाई जाती और यही वो रसम है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते कि ना, हम नही खाएंगे खिचड़ी। फिर उनको मनाने कन्यापक्ष के सब जगलर टाइप के लोग आते।

अक्सर दुलहा की सेटिंग अपने चाचा या दादा से पहले ही सेट रहती थी कि बेटा हमार ही कहने पे खिचड़ी खाना इससे उनका भी अलग ही भौकाल बन जाता। औए खिचड़ी खिलाने के बाद तो वो कुछ देर के लिये अज़ीमो शान शहंशाह बनके घूमते।

बारातियों के लिए सबेरे जलेबी,नमकीन,चाय की व्यवथा होती और फिर वही लौंडो का गैंग इस काम को बखूबी अंजाम देता। 

आखिर गाँव की इज्जत का सवाल होता कि कहीं कोई कसर न रह जाय।

आखिर में होती अचर धराई फिर बिदाई।

हां रात में बरातियों के मनोरंजन के लिए कोई कोई नौटंकी नाच भी लेके जाता था।

सबसे मेन बात कि जीजा औए फूफा तब भी वैसे थे, आज भी वैसे ही है।

पूरे आयोजन के दौरान भगौना जैसा मुंह फुगाके एक कोने में खड़े रहते और उनको मनाना भी लंका जीत लेने के बराबर का काम था।

खैर ये उनका हक है, मजा भी तभी आता है।

🚩

 💕

नारायणराम मास्साब की फसक/ कमलेश बोरा

 पुराने किस्से 


नारायणराम मास्साब के बारे में समूचे रानीखेत और आसपास के इलाकों में विख्यात था कि वे नब्बे की उमर में भी दिन भर में एक थ्री-पीस काट और सिल लेते थे. वे अंग्रेजों के ज़माने के टेलर थे और 1947 से पहले रानीखेत छावनी के बड़े और गोरे अफसरों की वर्दियां और सूट सिया करते थे. ज़ाहिर है उनका बड़ा नक्शा था और वे वैसी ही सिलाई वसूला करते थे. मरने के दिन तक बेहद नफीस और एलीटिस्ट लेकिन जनप्रिय बने रहे इस उस्ताद को लेकर एक फसक अर्थात गप्प बहुत चलती है.


नारायणराम जब बारह-तेरह साल के हुए तो रोटी-पानी की तलाश में अपने गाँव से निकट की सबसे बड़ी बसासत अर्थात गरमपानी नामक एक छोटी सी जगह जाकर वहां के इकलौते बूढ़े दर्जी दीवानीराम के यहाँ बतौर अप्रेन्टिस भर्ती हो गए. सहस्त्राब्दियों से मानवजाति को झौयेन-झुलसैण रायता और जम्बू के छौंक वाले चटपटे आलू के गुटके परोसने वाली धुंआई गुमटियों के तीर्थसदृश महात्म्य के लिए द्वापर-त्रेता युग के समय से ही विख्यात रहा गरमपानी रानीखेत से कोई तीसेक किलोमीटर दूर है.


जन्मजात प्रतिभा के धनी बालक नारायण ने तीनेक महीने के भीतर अपने उस्ताद को पीछे छोड़ दिया जिसके फलस्वरूप उसकी ख्याति तमाम गाँवों में फैल गयी. इससे दीवानीराम की दुकान की आमदनी बहुत कम समय में कई गुना बढ़ गयी.


वह उदारता का ज़माना था. श्रेष्ठता और प्रतिभा को पहचाने जाने और उसे समुचित सम्मान दिए जाने का रिवाज़ था. ज्यादा समय नहीं बीता जब निस्संतान और विधुर दीवानीराम मास्साब ने अपनी दुकान नारायण के नाम कर उसे अपने घर में दत्तक पुत्र की हैसियत से रहने की जगह भी दे दी और खुद को स्वैच्छिक सेवानिवृत्त कर लिया. साल भर बाद दीवानीराम ने जीवन से संतुष्ट होकर संसार का त्याग किया और बालक नारायण को चौदह साल की आयु में मास्साब का खिताब अता हुआ. यह किसी प्रतिभावान शास्त्रीय गायक द्वारा छोटी सी आयु में उस्ताद फलां अली खान साहब जैसी पदवी पा लिए जाने जैसा कारनामा था.


नारायणराम पाजामों और पेटीकोटों पर ऐसी महीन तुरपाई करता कि मैग्नीफ़ाइंग ग्लास लेकर भी उसे देखा नहीं जा सकता था. कैंची उसके हाथ में आते ही कपड़े पर ऐसे चलना शुरू कर देती जैसे रामलीला के समय हारमोनियम पर तारादत पन्त उर्फ़ तारी मास्साब की उँगलियाँ. नारायणराम के हाथ के कटे कपड़ों की धज ऐसी होती कि पहनने वाले को लगता जैसे समूचे ब्रह्माण्ड में वह वस्त्र उसी के वास्ते सृजित किया गया हो. कालान्तर में पाजामे, फतुही और वास्कट की तमाम नई-नई डिजाइनें उनके रचनाशील मस्तिष्क ने ईजाद कीं. कहने का अभिप्राय यह है कि बहुत कम समय में नारायणराम इलाके के गुचियो गुच्ची और जॉर्जीयो अरमानी बन गए. भुजान-उपराड़ी से लेकर मजखाली- डीकोटी तक के लोग भी उनके पास आने लगे और लोधिया-क्वारब से लेकर मौना-ल्वेशाल तक के भी. नारायण हाथ में लिए गए काम को इतनी तेज़ी से अंजाम देता था कि रानीखेत तक में यह मशहूर हो गया कि गरमपानी का एक लौंडा टेलर दिन भर में सौ पाजामे तक सिल लेता है.


स्थानीय लोगों के रिश्तेदार गरमपानी आते तो मेजबानों के इसरार पर नारायणराम से एक न एक कपड़ा ज़रूर सिलवा कर ले जाते और वर्षों बाद कहते पाए जाते – “गरमपानी के नारायण मास्साब का सिला हुआ ठैरा. इस जिन्दगी में तो फटने से रहा!”


फिलहाल रानीखेत में अंग्रेजों की फ़ौज की रेजीमेंट हुआ करती थी. एक रात अँगरेज़ अफसरों से भरा एक ट्रक गरमपानी के पास खराब हो गया. उन्होंने वहीं टेंट लगाकर रात बिताई और सुबह नाश्ते के बाद रानीखेत को रवाना हुए. खैरना का पुल पार करते ही उनका ट्रक गहरी खाई में गिरा और सारे अफसरों की मौके पर ही दर्दनाक मौत हो गई. सिर्फ एक युवा अफसर किसी तरह बच सका. स्थानीय लोगों के सहयोग से जैसे-तैसे इस इकलौते अफसर ने रानीखेत पहुंचकर अपने सीनियर अफसरों को पूरे वाकये से अवगत कराया.


उसी शाम को रेजीमेंट के सबसे बड़े अफसर यानी ब्रिगेडियर हैनरी, जिसका नाम स्थानीय किस्सों में अब भी लाड़ से हैनरू लाटा के रूप में आता है, को अपने दो हिन्दुस्तानी अर्दलियों के साथ गरमपानी में नारायणराम को खोजते देखा गया. जब वे नारायणराम के पास पहुंचे तो कुल सत्तरह साल के इस खलीफा टेलर मास्टर को देखकर एकबारगी तो हैनरू लाटे को यकीन नहीं हुआ कि वही नारायणराम है. लेकिन स्थानीय प्रधान और असंख्य प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा तस्दीक किये जाने के बाद उसने सबसे पहले तो नारायणराम को एक अपॉइंटमेंट लेटर थमाया जिसका आशय यह था की नारायणराम को सीधे सूबेदार की ऑनरेरी पोस्ट देकर रेजीमेंट का टेलर-इन-चीफ बना दिया गया है - चार सौ रुपये की पगार पर. उन दिनों नारायणराम की महीने भर की कमाई बारह से पंद्रह रूपये की होती थी. हैनरू ने दूसरा काम यह किया कि नारायणराम से अपना सामान बाँध कर एक घंटे के भीतर अपनी जीप में आने को कहा.


नारायणराम ने हाथ जोड़कर अंग्रेज़ साहब विनती करते हुए कहा कि उसे डेढ़ घंटे का समय दिया जाए क्योंकि वह अपने सारे पेंडिंग टेलरिंग प्रोजेक्ट्स को निबटाना चाहेगा. साहब को कोई ऐतराज़ न हुआ. बोले – “टुमको दो गन्टा डीया जाओ नरेन बट अबी का अबी अमको टुमको लेके साबबाडुर के पास अल्मोरा ले के जाने का ऐ.”


नारायणराम ने हैनरू लाटे के सामने ही पौन घंटे में बिलकुल शुरू से शुरू कर दो वास्कटें तैयार कीं और सवा घंटे के भीतर वह अपने सामान समेत हैनरू पधान की जीप के सामने खड़ा हो गया. ऐसी उस्तादी देख ब्रिगेडियर हैनरी सत्रह साल के इस लौंडे का कायल हो गया था और उसी शाम से भुच्च गंवार पहाड़ियों के प्रति उसका रवैया सदा के लिए बदल गया. अर्दली नारायण के सामान को जीप के पीछे लगी ट्राली में डाल चुकने के बाद उससे ट्राली में ही बैठने को कह रहे थे जब हैनरू पधान ने उन्हें लताड़ते हुए कहा – “टुम डोनो रास्कल साला बेटो उदर ट्राली मे. और नरेन टुम इडर बेटो अमारा संग में पीचू का सीट पे.”


तो साहब पांच सौ दर्शक मुंह खोले खड़े थे और गरमपानी-गौरव को एक खुर्राट अँगरेज़ साहब की बगल में बैठता देख रहे थे. यह अकल्पनीय था. वे कुछ भी रिएक्ट कर पाते उसके पहले ही धूल उड़ाती जीप चल दी.


खैरना पुल के पास पहुँचते ही हैनरू पधान ने नारायण से पूछा – “अबी बताओ नरेन. टुम क्या किया अमारे ऑफीसर के साथ ... ओ केटा ऐ के इडर गरमपानी में टुमने उसका जान बचाया ...”


नारायण को याद आया. उस सुबह लौंडा जैसा दिखने वाला एक अँगरेज़ सिपाही उसकी दुकान में आया था जिसकी कमीज़ का एक काज बिगड़ गया था. उसने बिना पैसे लिए उसके काज को पांच मिनट में दुरुस्त कर दिया था.


उसने अँगरेज़ बहादुर को किस्सा बयान कर दिया.


“टबी तो ... " हैनरू लाटे ने नारायण का हाथ थामते हुए भावुक स्वर में कहना शुरू किया - "तुमने उसका बटन का ऐसा काज लगाया नरेन की जबी अमारा औफीसर्स का गाड़ी पलटा और सब खाई में गिर रा था टो जो विलियम ठा अमारा औफीसर. टो उसका बटन खुल गया और उसका काज एक पेड़ का फंगी से मटलब टहनी में जा करके उडर में फंस गया. बाकी सारा औफीसर लोग तो उपर चला गया ऑलमाईटी का पास में और ओ जो विलियम जो ऐ ना ओ अबी मेस में मटन का बोटी खाता और विस्की पीटा ... विस्की समजता टुम मिस्टर नरेन? ...”


#पुराने_किस्से

साभार Ashok Pande दाज्यू

*मुक्तिघर के मुर्दे*

 *मुक्तिघर के मुर्दे*



कौन सा नंबर है तुम्हारा, एक मुर्दे ने पास पड़े मुर्दे से पूछा?


मालूम नही। दूसरे ने बेतकल्लुफ जवाब दिया।


कौन से नम्बर का दाह हो रहा है?


अरे मालूम नही बोला न, तुम्हे क्या जल्दी पड़ी है दाह संस्कार की। ज़िंदा था तब  राशन, टिकट, बैंक की लाइन में घँटों खड़ा रह लेता था। आज क्या हुआ


उस लाइन में मैं खुद लगता था। यहां बच्चे लगे हैं लाइन में।


एक काम कर। खड़ा होकर बजा डाल सबकी। एकदम से नम्बर आएगा।


जब खड़ा हो सकता था तब नही बजाई। काश तब बोलते हम। 


तो अब पड़ा रह शांति से। चुप्पी मारने की सजा  यही होती है। जब आदमी कुछ नही बोलता, तब ही आदमी मर जाता है। 


2

तुम्हारी जान कैसे गयी। एक मुर्दे ने दूसरे से पूछा


ऑक्सीजन नही मिली


तुम कैसे मरे


मुझे हॉस्पिटल में बेड नही मिला


कितने सस्ते में मर गए न हम लोग, पहले ने आह भरी।


हम यही डिज़र्व करते थे भाई। चुपचाप जैसे मर गए वैसे चुपचाप अंतिम संस्कार का इंतजार करो। 


3

मुझे एक बार जीने का मौका मिल जाये तो चीख़ चीख़ कर कहूँ कि हमें सिस्टम ने मारा है। हम इतने बीमार नही थे जितना सिस्टम बीमार निकला। एक मुर्दे ने खीझ कर दूसरे मुर्दे से कहा।


चुपचाप पड़ा रह। मुर्दे कभी बोलते नही। यह मुर्दों का देश है साधो। जब जिंदा थे तब भी मुर्दा ही थे हम। अब हेकड़ी दिखाने का कोई लाभ नही


4

यार कितने संस्कार हो चुके, कितने बाकी हैं, एक मुर्दे ने दूसरे से पूछा


अभी 7 हुए हैं, 27 बाकी हैं। देख ले आजु बाजू, कितने मुर्दे पड़े हैं। 


कितना बुरा हाल हो गया है देश का। पहला मुर्दा सुबकने लगा


दिख गया देश का हाल?  अब मुर्दों के जलने की लपटें देख और ऊंचाई नाप मुल्क की तरक्की की। 


5

सुनो


बोलो


हमारे बच्चे इस देश मे कैसे रहेंगे। हर तरफ महामारी और नफरत फैल चुकी है।


हां। हमने क्या योगदान दिया कि नफरत न फैले


सच मे कुछ भी नही


तो एक काम करते हैं। खुद को लानत भेजते हैं और फिर से मर जाते हैं।


वीरेंदर भाटिया

सोमवार, 21 जून 2021

सुभाष भाई आज साठ के हो गए

 सुभाष भाई आज साठ के हो गए । नौकरी से रिटायर वे चार महीने पहले ही हो गए थे । लेकिन अपने जुनून और जज़्बे से वे कभी रिटायर नहीं होंगे ।

 पिछले महीने उन्होने एक धारदार कहानी लिखी – ‘तूफानी के बाद की दुनिया’ जिसमें एक सामंती अतीत से लेकर एन आर सी के बहाने अल्पसंख्यकों की बेदखली की इबारत लिखते फासीवाद के नए प्रतिनिधियों तक का एक लोमहर्षक संसार है । यह संसार कोरोना को आपदा में अवसर के रूप में बदल रहा है । आश्चर्यजनक रूप से यह कहानी इन तमाम सारे मुद्दों को डील करती है । कथाकार सुभाष चंद कुशवाहा को जाना ही इसलिए जाता है कि वे बिलकुल आज के जीवन और उसकी चुनौतियों को अपनी कहानी में ले आते हैं । पिछले ही महीने उन्होंने भील विद्रोह पर अपनी किताब पूरी कर दी । और कई महीने पहले से उन्होने लोकरंग को कराने की तैयारियां शुरू की और अप्रेल की शुरुआत में कोरोना की दूसरी लहर आने की आशंकाओं के बीच उसको करने न करने के गहरे द्वंद्व के बीच अंततः उसे सफलतापूर्वक सम्पन्न करा ही दिया। इस बीच उनके आदरणीय पिताजी ने भी इस संसार को अलविदा कहा । इस प्रकार अनेक उतार-चढ़ाव के बीच सुभाष ने इस साल वरिष्ठता ग्रहण कर ली । उनके विपुल साहित्यिक जीवन और विस्तृत कृतित्व को लेकर गाँव के लोग ने उन पर एकाग्र एक विशेषांक लगभग तैयार कर लिया है जो सिर्फ उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव के कारण छपने से रह गया है लेकिन उम्मीद है एक पखवारे में वह छप जाएगा । अभी देश की जनता जिस विपदा से जूझ रही है उसके खत्म होने पर हम एक कार्यक्रम भी करेंगे । अभी तो सुभाष भाई को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें दे रहे हैं । 

साथ ही हम उनपर एकाग्र गाँव के लोग का आवरण पृष्ठ भी साझा कर रहे हैं । यह बहुत मूल्यवान सामग्री से सम्पन्न अंक है जिसके लिए अपर्णा ने बेहिसाब परिश्रम किया है । प्रो मैनेजर पाण्डेय , कथाकार मदन मोहन , प्रो शंभु गुप्त , प्रो रामप्रकाश कुशवाहा , प्रो दिनेश कुशवाहा , प्रो सदानंद साही, प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह , डॉ गुलाबचंद यादव , राकेश कबीर , आशा कुशवाहा , युवा कथाकार दीपक शर्मा , सामाजिक कार्यकर्ता विद्या भूषण रावत , गिरमिटिया लोकगायक राजमोहन, डॉ हीरालाल मौर्य , निर्देशक तनवीर अख्तर , मनोज कुमार मौर्य , मोमिता बनर्जी , लोकगायिका चन्दन तिवारी , योगेंद्र चौबे , भूदेव राय , इस्राइल अंसारी और अनन्या ने सुभाष जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक नए गवाक्ष खोले हैं । इस अंक में उनकी पाँच यादगार कहानियाँ तो हैं ही लेकिन कार्यकारी संपादक अपर्णा और विद्याभूषण रावत द्वारा सुभाष से लिए गए बेहतरीन साक्षात्कार भी हैं । यह अंक सुभाष की रचनायात्रा पर पहला ऐसा आयोजन है जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के सभी पहलुओं को पाठकों के सामने लाता है । एक बार फिर से विद्रोही इतिहास के इबारतकार और अपने ढंग के अनूठे कथाकार सुभाष चंद्र कुशवाहा को बधाई !

तुपकाडीह टीसन पर दो औरतें' / -शिवदयाल

एक झलक भर दिखी थी

धीमी रफ्तार से गुजरती ट्रेन की खिड़की से -

पास-पास बैठीं वे दो अल्पवयस औरतें

दीन-दुनिया से बेखबर

बस एक-दूसरे को अपने वृत्त में लिए 

जाने क्या कह-सुन रही थीं


रफ्तार में रहते हुए

मैंने समय को ठहरते देखा था

विस्मय से, नहीं, मानो अस्वीकार के भाव से -

उन दो औरतों के अस्तित्व-वलय में

बंधा, ठहरा समय! 


उनकी पीठ पीछे

कुछ धीमे गुजर रही थी पटना रांची जनशताब्दी

जाने क्यों धीमी हो जाती हैं रेलगाड़ियां

तुपकाडीह स्टेशन से गुजरते..,

और सामने उनके थोड़ी दाहिनी ओर

महाकाय बोकारो इस्पात संयंत्र 

और उसके ऊपर धुंआया क्षितिज

सद्य-दोपहरी का

- उन दो औरतों के लिए मानो बेमतलब!


वह प्रणय प्रसंग था या

नैहर-सासुर का अंतहीन आख्यान

बेमुरव्वत, लापरवाह मरद की कारस्तानियां

मौके की टोह में लगे मनचलों की करतूतें

बीमारी-हेमारी, महंगाई-तंगी

आसन्न जाड़े की तैयारी..

आखिर क्या रहा होगा?

उन दो औरतों के बीच

कितना सुख बिछा होगा

कितना दुःख पसरा होगा

आजतक सोचता हूं।


और यह भी सच लगता है कि

दुनिया के रहस्य खुलते हैं 

दो औरतों की बातचीत में..

जाने क्या खुला था

तुपकाडीह स्टेशन पर

उन दो किन्तु मानो एकमेव 

स्थितिप्रज्ञ, अंतर्लीन औरतों के बीच

कि समय आज तक वहीं ठिठका खड़ा है..


                   -  शिवदयाल

रविवार, 20 जून 2021

बाबूजी और श्मशान / जयनंदन

बाबूजी और शमशान


बाबूजी श्मशान थे

और श्मशान एक तरह से बाबूजी 

दोनों एक-दूसरे के पर्याय

रोज बाबूजी में चितायें जलती थीं

और रोज चिताओं में बाबूजी जलते थे

डरावने अंधेरों की नीरवता में गुम 

श्मशान में

यानी बाबूजी में

अनगिनत कुत्ते और स्यार गुहार मचाते थे

और कुत्ते तथा स्यारों की आवाजों से

श्मशान की

यानी बाबूजी की

पहचान बनती थी

इस तरह बाबूजी में श्मशान था

और श्मशान में बाबूजी


बाबूजी और श्मशान 

 

और श्मशान एक तरह से बाबूजी 

दोनों एक-दूसरे के पर्याय

रोज बाबूजी में चितायें जलती थीं

और रोज चिताओं में बाबूजी जलते थे

डरावने अंधेरों की नीरवता में गुम 

श्मशान में

यानी बाबूजी में

अनगिनत कुत्ते और स्यार गुहार मचाते थे

और कुत्ते तथा स्यारों की आवाजों से

श्मशान की

यानी बाबूजी की

पहचान बनती थी

इस तरह बाबूजी में श्मशान था

और श्मशान में बाबूजी


जयनंदन



पिता का प्यार / उदय वर्मा

 पिता का प्यार

समग्रता का समुद्र होता है

और बच्चों को 

समग्रता में ही मिलता है 

पिता की अंगुली 

पकड़ कर रखा गया 

पहला कदम

भले ही हम भूल जाते हैं 

पर उसकी अहमियत 

का अनन्त एहसास

हमारे साथ साये की तरह

साथ-साथ चलता है 

पिता हमारे पास हों या ना हों 

पर उनकी फटकर

और कभी-कभी

दुलार भरी सीख सदा 

 हमारे पास होती है

और जद्दोजहद से भरी

बेचैन धड़ियों में 

हमारा हाथ थाम लेती है 

अब भागमभाग की जिन्दगी में

बच्चे बदल रहें हैं 

उनकी अपनी दुनिया 

आबाद हो रही है 

पिता का नायकत्व 

पीछे ,बहुत पीछे छूट रहा है

पहले पिता 

आदेश की भाषा जानते थे

वे बच्चों के लिए पिता कम

संरक्षक ज्यादा होते थे

पर उनके मन में

रोटी की तरह 

बच्चों के लिए 

प्यार पकता रहता था 

जिसे देखा नहीं 

महसूस किया जा सकता था

वे किसी से कुछ नहीं चाहते थे

पर सब को कुछ न कुछ

देने को तत्पर रहते थे 

आज के जमाने के पिता 

पहले के पिता जैसे ही हैं 

वे अपने बच्चों को 

देने में अपनी सारी ऊर्जा

खपा देते हैं

पर बच्चे बदल रहें हैं 

सफलता की सीढ़ियां चढ़ते

बच्चों कोअपने पिता की 

चिंताएं बांटने का

कोई भ्रम नहीं होता

 रिश्तों के बाजार में 

पिता अकेले हो रहें हैं 

बावजूद इसके 

उनकी चिरपरिचित

भूमिका नहीं बदली है 

पिता की बच्चों को 

खुशनुमा संसार देने की

यात्रा अनवरत जारी है ..............


उदय वर्मा 

शक्तिशाली कौन?

 🦆प्रेरणादायक कहानी🦆/ शक्तिशाली कौन?

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बूढ़ा पिता अपने IAS बेटे के चेंबर में  जाकर उसके कंधे पर हाथ रख कर खड़ा हो गया !


और प्यार से अपने पुत्र से पूछा...


"इस दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान कौन है"?


पुत्र ने पिता को बड़े प्यार से हंसते हुए कहा "मेरे अलावा कौन हो सकता है पिताजी "!


पिता को इस जवाब की  आशा नहीं थी, उसे विश्वास था कि उसका बेटा गर्व से कहेगा पिताजी इस दुनिया के सब से शक्तिशाली इंसान आप हैैं, जिन्होंने मुझे इतना योग्य बनाया !


उनकी आँखे छलछला आई !

वो चेंबर के गेट को खोल कर बाहर निकलने लगे !


उन्होंने एक बार पीछे मुड़ कर पुनः बेटे से पूछा एक बार फिर बताओ इस दुनिया का सब से शक्तिशाली इंसान कौन है ???


       पुत्र ने  इस बार कहा...

         "पिताजी आप हैैं,

       इस दुनिया के सब से

        शक्तिशाली इंसान "!


पिता सुनकर आश्चर्यचकित हो गए उन्होंने कहा "अभी तो तुम अपने आप को इस दुनिया का सब से शक्तिशाली इंसान बता रहे थे अब तुम मुझे बता रहे हो " ???


पुत्र ने हंसते हुए उन्हें अपने सामने बिठाते  हुए कहा ..


"पिताजी उस समय आप का हाथ मेरे कंधे पर था, जिस पुत्र के कंधे पर या सिर पर पिता का हाथ हो वो पुत्र तो दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान ही होगा ना,,,,,


बोलिए पिताजी"  !


पिता की आँखे भर आई उन्होंने अपने पुत्र को कस कर के अपने गले लगा लिया !


    "किसी ने क्या खूब चन्द पंक्तिया लिखी हैं"

          जो पिता के पैरों को छूता है वो कभी गरीब नहीं होता।


जो मां के पैरों को छूता है  वो कभी बदनसीब नही होता।


जो भाई के पैराें को छुता हें वो कभी गमगीन नही होता।


जो बहन के पैरों को छूता है वो कभी चरित्रहीन नहीं होता।


जो गुरू के पैरों को छूता है

 उस जेसा कोई खुशनसीब नहीं होता.......


💞अच्छा दिखने के लिये मत जिओ 

          बल्कि अच्छा बनने के लिए जिओ💞

पिता बोझ नहीं बल्कि दायित्व है' / विजय केसरी

(20.06.21).आज "अंतर्राष्ट्रीय पिता दिवस " है । हम सबों को थोड़ा रुक कर अपने अपने पिता को याद करने और उनके लिए कुछ करने की जरूरत है।  आज की बदली परिस्थितियां और भागमभाग भरी जिंदगी ने सबों को बेचैन बना कर रख दिया है । इस बेचैनी ने लगभग सभी रिश्तो को तार-तार कर के रख दिया है ।

कहने को तो हम सब एक दूसरे के रिश्तेदार जरूर होते हैं,  किंतु कितने लोग रिश्तों को निभा पाते हैं ? यह बड़ा सवाल है।  चूंकि  आज पिता दिवस है । हम सबों को पिता के अर्थ को समझने की जरूरत है । चाहे बहुत पढ़ा लिखा परिवार हो,  कम पढ़ा लिखा परिवार हो अथवा बिल्कुल अनपढ़ परिवार हो,  सब परिवारों के लोग अपने अपने स्तर से पिता के अर्थ को बखूबी समझते हैं। हर पिता पहले पुत्र ही होते हैं । पुत्र ही आगे चलकर एक पुत्री व पुत्र के पिता बनते हैं।  माता के बाद अगर एक बच्चा का सबसे अधिक झुकाव किसी से होता है,  वह है पिता। पिता को हम सब चाहे जिन नामों से भी पुकारे, पिता बस पिता होते हैं।


हर परेशानियों में बच्चों के संग पूरी मजबूती के साथ खड़े होते हैं । परिवार की जरूरतों को पूरा करने में दिन-रात मेहनत करने में कोई कसर नहीं उठाते हैं।  पिता परिवार के स्तंभ होते हैं ।बच्चों की खुशहाली ही एक पिता के लिए सबसे बड़ी दौलत होती है।  घर गृहस्थी चलाना कोई आसान काम नहीं होता । बच्चे अगर यह समझते हैं कि यह सब तो एक पिता की जवाबदेही है,  बच्चों का यह सोचना कोई गलत बात नहीं है।  इस जवाबदेही में महत्वपूर्ण बात यह है कि एक पिता को इस दायित्व को पूरा करने में अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ता है।  हर परिवार की अपनी अपनी परेशानी होती है।  यह परेशानियां देखने में मामूली जरूर लगती है , किंतु इन परेशानियों से एक पिता ही जूझता है। यह परेशानियां सिर्फ 1 दिन के लिए नहीं होती है,  बल्कि हर दिन एक नई चुनौती के रूप में सामने खड़ी होती है।


एक नौकरी पेशा पिता को अगर समय पर वेतन नहीं मिला तो हर क्षण उसकी परेशानियां बढ़ती चली जाती है । घर के लिए राशन की व्यवस्था करना । मकान मालिक को किराया देना।  बच्चों का स्कूल का फीस आदि के लिए एक पिता को अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ता है । इन तमाम परेशानियों के बीच रहते हुए एक पिता लगातार संघर्ष करता है ।जूझता है ।  और परेशानियों को परास्त कर ही दम लेता है । यह सब  पिता बिल्कुल सहजता के साथ करता है । कभी घबराता नहीं है।  इन परेशानियों को कभी बोझ समझता नहीं है ,बल्कि दायित्व समझता है । घर के बच्चे अगर बीमार पड़ जाते हैं तो पिता बच्चे को ठीक कराने के लिए दिन-रात लगा देंतें हैं।  इस कार्य में उन्हें अपने बॉस अथवा मालिक से डांट भी सुननी पड़ती है , परंतु इस डांट फटकार को भी सहजता से सुन लेते हैं।  एक पिता अपने परिवार को खुशहाल रखने का हर संभव कोशिश करता है । उनमें जितनी क्षमता होती है परिवार की खुशहाली के लिए लगा देता है।


हम सब चाहे जिस उम्र में क्यों न पहुंच जाए । अगर पिता का साथ बना रहता है तो अंदर में एक अजब शक्ति का अनुभव होता है।  पिता की उपस्थिति हर उम्र में एक पुत्र को संबल प्रदान करता है।  एक पुत्र को लगता है कि मुझ पर पिता का साया बरकरार है।  अगर कोई मुसीबत आएगी तो उससे मुकाबला करने के लिए पिता का साया तो है । बचपन के दिनों में जब हम सब बिल्कुल छोटे थे । माता पिता की गोद में थे।  हमें देखते ही माता पिता के चेहरे पर एक अजब खुशी प्रगट हो जाया करती थी। माता तो दिन भर साथ होती थी । पिता जब रात में घर वापस लौटते तो हम बच्चों के लिए कुछ न कुछ लाना न भूलते । सबसे पहले हम बच्चों को लाए हुए सामान देते।  समान लेकर हम बच्चे उसी में मशगूल हो जाते।  हमें सामानों के साथ खेलते और खाते देख दिन भर का उनका थकापन और भूख प्यास मिट जाता है।


 आज जब हम पिता की भूमिका में आ चुके हैं । हम भी वही कर रहे हैं,  जो एक जमाना में हमारे पिता कर रहे होते थे । बस जरूरत है उस पल को याद करने की।  जरूरत है , अपने पिता को याद करने की ,  उनका खिदमत करने की ।हम  सबों को विचार करना है कि वे कहीं हमारी नई गृहस्थी से दूर तो नहीं हो गए हैं ? अगर हम नौकरी पेशा में कहीं बाहर है, तो पिता से फोन कर कितनी बार हालचाल पूछते हैं ?  पिता से मिले कितने दिन हो गए  ? जिस तरह से हम अपने बच्चों को देखकर खुश होते हैं , हमारे पिता भी हमें देख कर खुश होते हैं।


 इस भागमभाग भरी जिंदगी में  पुराने रिश्ते टूटते चले जाते हैं । नए रिश्ते के अंतर्गत एक युवा पति पत्नी और बच्चों को एक साथ एक घर में रहने में कोई दिक्कत नहीं होती है । इस नए घर में माता पिता को ही रहने में सबों को दिक्कत होती है, ऐसा क्यों ? क्या माता-पिता बोझ है ?  इस सवाल पर समाज के हर पुत्र को विचार करने की जरूरत है । आज के दिन यह भी विचार करने की जरूरत है कि हमारा अस्तित्व पिता के कारण ही निर्मित हुआ है । अगर पिता न होते तो हमारा अस्तित्व भी न होता । हम हैं तभी हमारे पुत्र पुत्री का अस्तित्व है । आज हम अपने बच्चों को बड़ा करने में कोई कसर नहीं उठाते हैं । हमारे पिता भी हमें बड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं उठाए होंगे।


आज की नई पीढ़ी को यह बात अच्छी तरह समझ लेना की जरूरत है कि पिता की उपस्थिति में ही घर में एक अनुशासन और पारिवारि में संस्कार बना रहता है । घर के सभी छोटे बड़े मिलजुल कर एक दूसरे को सहयोग प्रदान करते हैं।  जो युवा पति पत्नी अपने माता पिता को भूलकर स्वतंत्र रूप से रहते हैं, उनके बच्चों में वैसा संस्कार नहीं बन पाता है ,  जैसा कि जिन घरों में दादा-दादी साथ होते हैं।


 आजाद जीवन शैली से सबसे अधिक तनाव पनपते हैं।  और उनके बच्चों का स्वभाव भी चिड़चिड़ापन हो जाता है। आजादी का कतई यह अर्थ लगाया जाना नहीं चाहिए कि हम सब अपने माता पिता को ही भूल जाए । हर पुत्र के लिए पिता बोझ नहीं बल्कि दायित्व है।  देश के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिता जीवित नहीं है ।वेे प्रधानमंत्री की ऊंची कुर्सी पर आसीन है। इसके बावजूद भी मां से मिलने और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं । जब मोदी जी अपनी मां से मिलते होंगे , मां उसे गले लगाती होंगी ,  दोनों को कितनी खुशी मिलती होगी ।  जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है । एक समय पिता आपकी ताकत थी,  आज आप पिता की ताकत बने।

बाबूजी के लिए / राकेश रेणु

 

- एक -


दुनिया का सबसे बड़ा टेलिविज़न थीं बाबूजी की आँखें 

उनके ज़रिए देखे जा सकते थे दृश्य दुनियाभर के तरह-तरह के 

समझा जा सकता था संसार और मनुष्य।

 

घाम में घनी छाया थे बरसात में छप्पर 

सर्दी में उनका होना अलाव का होना होता या रज़ाई का  

घुप्प अंधेरे में वे रौशनी का पुँज थे थरथराहट भरा।


एक बड़ा सोख्ता काग़ज़ थे बाबूजी 

सोख लेते थे दुख की नीली काली स्याही 

सुंदर मनभावन हर्फ़ों के लिए जगह छोड़ते हुए।


वे एक नाव थे 

जिस पर बैठ हम लहरों के पार उतरते बेख़ौफ़ 

वे पतवार थे सुनिश्चित करते 

कि पार करना है नदी उतराना नहीं धार में।


सबसे मज़बूत संबल थी उनकी उँगली 

सबसे दुरुस्त कंपास 

बाबूजी थे तो घर था लड़कपन था संभावना थी और आश्वस्ति 

तब अचानक बड़े नहीं हुए थे हम। 


बाबूजी कभी ठठाकर हँसते  

कभी निर्विकार रहते 

आँखें उनकी दीप्त पथ प्रदर्शक रहीं 

कई बार उंगलियों की जगह लेती।


बाबूजी के दुखों से दोस्ताना हुआ  

पिता बनने के बाद।


- दो -


उन्होंने कहा खत्म हो जाएँगे विभाजन 

सब एक होंगे, नहीं हुआ 

उन्होंने कहा मिट जाएँगी जातियाँ 

सब बराबर होंगे, नहीं हुआ 

उन्होंने कहा नहीं रहेगा धर्म-संप्रदाय का भेद 

सब साथ रहेंगे, पर यह भी नहीं हुआ 

उन्होंने कहा लड़कियाँ बराबर होंगी लड़कों के अंतर नहीं रहेगा स्त्री-पुरुष का 

आजादी मिलेगी उन्हें, इज्जत लड़कों सी 

जबकि उनकी देह पर झपटे लोग मान-मर्दन करते।


सपने देखते थे बाबूजी सोते-जागते 

जेल गए सपनों की बदौलत 

भागते फिरे बरतानी हुकूमत से  

सपना देखा बराबरी का  

इंसाफ और खुशहाली का 

और भी कई सपने  

सपने सच नहीं हुए उनके जीते जी 

लेकिन उन्हें अपने सपनों पर भरोसा था 

भरोसा था भरोसे पर ।


उम्मीद बाकी रही उनमें आखिरी साँस तक  

बिजली की उम्मीद में हमें ढिबरी की रोशनी में पढ़ाते 

ख़ुशहाली की उम्मीद में हम माड़-भात खाते ।


हम भाई-बहनों को जो बेशकीमती चीजें सौंपी 

उन्होंने जाते जाते 

उनमें उम्मीद भरी वह ढिबरी भी थी।


 

 - तीन -


बाबूजी ने नहीं पूछा क्यों लिखी 

किसकी खातिर लिखी कविता प्रेम भरी

वे इस बात से खुश थे कि बेटे ने कविता लिखी 

उन्होंने कविता की मात्राएँ दुरुस्त की 

छंदों-मात्राओं का ककहरा समझाया।

 

धनकुबेरों की जयकार तब भी थी लेकिन अर्थव्यवस्था इतनी उदार न थी 

कि मेहनतकशों का हक कुबेरों को दे दे 

उम्मीद बाकी थी परिवर्तनकामियों की आँख में किताबों-रिसालों का मोल घटा था 

बेटा आठवीं जमात में था ।


पढ़ने में दिलचस्पी थी बाबूजी की 

उनकी सुबहें किताबों में थीं शाम का धुँधलका वहीं

चेहरे और भंगिमा और आँख से पढ़ा जा सकता था 

पढ़ी जा रही किताब या किसी खास सफे का मजमून 

प्रिवी पर्स खत्म किया जा चुका था 

बैंकों को सरकार ने ले लिया था 

सरकार सब की थी कुछ खास लोगों की नहीं

उम्मीद थी कि बराबरी कायम होगी 

जात-धर्म की बंदिशें टूटेंगी 

गल जाएँगी गुरबतों की बेड़ियाँ।

 

बाबूजी बार-बार उदास हो जाते किताब पढ़ते-पढ़ते

किसी स्त्री की चित्कार सुनाई देती उन्हें 

हत्या-आत्महत्या का सिलसिला दिखता 

वे आँखें बंद कर लेते 

चेहरा एक अपठ-उदास किताब बन जाता

उन्होंने पढ़ लिया था आगत का पन्ना

उनका देश उनका न था, बदल गया था

आखिरी दिनों में उन्हें इस बात का गहरा अफसोस रहा।

शनिवार, 19 जून 2021

चंद्रकांता संतति और खत्रीजी / गिरीश पंकज जी

 कल बाबू देवकीनंदन खत्री का जन्मदिन था । नमन।  इनका तो नाम ही काफ़ी है। 18 जून 1861को उनका जन्म बिहार में हुआ था। 1 अगस्त, 1913  में मात्र बावन साल की आयु में वे महाप्रयाण कर गये लेकिन एक ऐसा इतिहास भी रच गये, जो कालजयी हो गया है। हम सब जानते हैं  कि उन्होंने  'चंद्रकांता',  'चंद्रकांता संतति ' जैसी असाधारण रूप से लोकप्रिय होने वाली कृतियाँ हिंदी साहित्य को दीं। इसके अतिरिक्त उन्होने  काजर की कोठरी, कुसुम कुमारी, नरेंद्र मोहिनी, गुप्त गोदना, वीरेंद्र वीर  और भूतनाथ जैसी कुछ कृतियाँ भी लिखीं। देवकीनंदन जी के प्रारंभिक शिक्षा बिहार में हुई, बाद में पर बनारस आ गए और यही उन्होंने लहरी बुक डिपो की स्थापना की। सन 1900 में उन्होंने हिन्दी मासिक 'सुदर्शन' का प्रकाशन भी आरम्भ किया, जिसकी साहित्य जगत में एक विशिष्ट पहचान बन गई थी।  हम सब जानते हैं कि चंद्रकांता सन्तति पर  बेहद लोकप्रिय धारावाहिक भी बना, जिसे बच्चे, बूढ़े और नौजवान सभी ने बड़े चाव से देखा। एक फिल्म भी बनी। हिंदी साहित्य के पारंपरिक लेखन के तिलस्म को एक तरह से देवकीनंदन जी ने तोड़ा था। तिलस्म और अय्यारी  से भरपूर  लेखन करके उन्होंने हिंदी जगत को चौंका दिया था । उनका लेखन इतना लोकप्रिय हुआ  कि उसे पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी। बाबू देवकीनंदन जी की अंतिम कृति 'भूतनाथ' थी, जो उनके अचानक चले जाने के बाद अधूरी रह गई थी, तो उसको उनके सुयोग्य पुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री जी ने पूरा किया था। बाद में दुर्गाप्रसाद जी ने भी अपने पिता की परंपरा को आगे बढ़ाया और  'खूनी पंजा' और 'सुफेद शैतान' (दो भागों में) जैसे जासूसी उपन्यास भी लिखे। चंद्रकांता संतति, खूनी पंजा और सुफेद शैतान मुझे दुर्गाप्रसाद खत्री जी के सुपुत्र हमारे चाचा केदारनाथ खत्री जी से ही मुझे प्राप्त हुई थी। यहाँ मैं गर्व के साथ  बताना चाहता हूँ कि मेरे पूज्य पिताजी श्री कृष्णप्रसाद उपाध्याय और चाचा केदारनाथ खत्री जी बड़े अंतरंग मित्र थे । एकदम सगे भाई की तरह। पिताजी का बाल्य और युवाकाल बनारस में बीता। वहीं वे आज़ादी की लड़ाई में भी सक्रिय थे। वे क्रांतिकारी थे और खादी भंडार में कार्य भी करते थे । तभी वे केदार चाचा के संपर्क में आये और उनके परम मित्र बन गये।  मित्र क्या,भाई जैसा ही दोनों आपस में व्यवहार करते थे। बाद में पिताजी मनेंद्रगढ़ चले आए,खादी भंडार खोलने । लेकिन बनारस से उनका जीवंत रिश्ता बना रहा । हर वर्ष गर्मी की छुट्टियों में पिताजी हम बच्चों को लेकर बनारस आते। वही मैंने गंगा माँ की गोद में तैरना सीखा। बनारस जाते तो पिताजी का केदार चाचा के रामकटोरा अवस्थित घर जाना जरूर होता  था। वे  हम सब को भी अपने साथ ले जाते । मेरा जन्म भी बनारस में हुआ इसलिए बनारस जाना मेरे लिए किसी बड़े उत्सव से कम न होता था । पढ़ने-लिखने में मेरी रुचि को देखते हुए केदार चाचा ने मुझे अपने दादा और पिताजी की पुस्तकें पढ़ने के लिए दी, जिसे पढ़कर बेहद रोमांच का अनुभव हुआ। हालांकि सबसे पहले मैंने 'खूनी पंजा' पढ़ी। मुझे अच्छे से याद है कि बनारस से मनेंद्रगढ़ लौटते वक्त ट्रेन में 'खूनी पंजा' पढ़ते हुए मैं काफी भयग्रस्त हो गया था । तब पिताजी ने मुस्करा कर कहा था, बाद में पढ़ना, इसलिए उस उपन्यास को अधूरा छोड़ दिया।  बहुत बाद में उसे पूरा किया । चंद्रकांता भी कुछ  बड़े होने के बाद पढ़ी। पिछले दिनों एक बार फिर मैंने खूनी पंजा और  सुफेद शैतान को पढ़कर अभिभूत हुआ । केदार चाचा के परिवार से आज तक मेरा आत्मीय परिचय आज तक बना हुआ है।  केदार चाचा के दो पुत्र राजेश खत्री (पप्पू) और राकेश खत्री (बबुआ) से निरंतर संवाद कायम रहता है।  उनकी दोनों बहनों का भी स्नेह मुझे मिला । पुराने लोग रिश्ते निभाते थे । धीरे-धीरे ये सब चीजें खत्म होती जा रही हैं।  फिर भी जितना हो सके, आत्मीयता की मिठास को बनाये रखना चाहिए। 


गिरीश पंकज

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...