शनिवार, 11 जुलाई 2020

मसलाराम / अशोक चक्रधर




मेरी एक पुस्तक है 'मसला राम',
उसमें एक कविता है 'मसला राम'।
कविता में मसला राम एक आदिवासी है,
कहानी अच्छी-खासी है।
व्यवस्था पर दंश है,
नीचे उसका एक अंश है--

'ड्राइवर ने पूछा- आदिवासी है?
-नईं हजूर, बंदा भारतवासी है!
रोज़गार मंदा है, चौपट धंधा है।
मरना चाहता हूँ साब
क्योंकि भुखमरी और कड़की थी,
घर में एक अदद मां
एक अदद जोरू
और एक अदद मुर्ग़ी थी।
बिना दवाई के माई देह त्याग गई,
जोरू पड़ोसी के साथ
और मुर्ग़ी पड़ोसी के मुर्ग़े के साथ भाग गई।
ज़िंदगी काटूँ किसके सहारे,
तुमने ब्रेक क्यों मारे?'

लगता है इस वीडियो में
पुलिस के डंडों के बरस जाने
और ड्राइवर के तरस खाने के बाद
मसला राम को आई होगी
माई, मेहरारू और मुर्ग़ी की याद।
ज़ख़्म थे प्राण-भेदी,
उन्हें छिपाने के लिए ड्राइवर ने
मसला राम को
अपनी शॉल, पेंट और कमीज़ दे दी।
पेंट लंबी और कमीज़ बड़ी थी,
शॉल ही ठीक थी
जो कंधे पर पड़ी थी।
मंजीरे पता नहीं कहां से ले आया,
ये गीत उसने
मुखिया के घर के आगे
नाच-नाच कर सुनाया।

अरे!
कविता से बाहर निकल आया है
मसला राम,
निराशा से उल्लसित होकर
ले रहा है
राधा रानी का नाम।

मेरा इस आम आदमी को प्रणाम!
🙏

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