गुरुवार, 9 जुलाई 2020

गिरीश पंकज की 10 ग़ज़लें




गिरीश पंकज

1

सियासत चाहती है हर कोई दरबार में आए
वो छींके भी तो उसकी यह ख़बर अख़बार में आए

यहां तो सिर्फ जुमले, झूठ, धोखा, छल दिखाई दे
कभी तो सत्य का इक अंश भी सरकार में आए

अगर सच बोलने का शौक है तो मत सियासत कर बचो इससे कि नकलीपन तेरे किरदार में आए

बड़े हो आदमी लेकिन हमेशा क्यों तने रहना
जरा-सी नम्रता सुंदर तेरे व्यवहार में आए

जो चमचे-भक्त हैं चाहेंगे सब हो जाएं उन जैसे
भला कैसे ये बीमारी किसी खुद्दार में आए

वहां जिसको भी देखा बंदगी करता दिखा मुझको
दुखी होकर के लोटे हम कहां बेकार में आए

मिलावट का है ऐसा दौर के कुछ कर नहीं सकते मनाता हूं यही पंकज न अपने प्यार में आए

2

छा गये हैं इन दिनों घुसपैठिये साहित्य में
कर रहे चालाकियाँ हर मरतबे साहित्य में

पास जिनके पद ओ पैसा छा रहे हैं देखिए
और सच्चे लोग बन गये हाशिये साहित्य में

हम अदब में साधना-आराधना करते रहे
पर यहाँ घुसते गये कुछ मसखरे साहित्य में

ऐश करते ज़िंदगी भर शान से देखा जिन्हें
पढ़ रहे वे लोग नकली मर्सिये साहित्य में

कुछ यहाँ  फैला रहे हैं बस अंधेरा  दोस्तो
हम मगर रखते रहे जलते दिये साहित्य में

ज्ञान की जो प्यास है उसको बुझाना है अगर
आइए औ झूमिए फिर बिन पिये साहित्य में

हम यहाँ जन-जन की पीड़ा को सुनाते रह गए
किंतु 'पंकज' हिट हुए हैं चुटकुले साहित्य में

3

ख़ुद नफरत से भरे हुए हैं दूजे को दुत्कार रहे
इस बस्ती में कैसे-कैसे अद्भुत-से किरदार रहे

जब भी मिलते चिकनी-चुपड़ी पर पीछे निंदा करना
अपने हिस्से इक्का-दुक्का ऐसे भी कुछ यार रहे

बहुत दुखी हो जाते हैं जो रहते हैं थोड़े सज्जन
जिनके जीवन में बस केवल झूठे नातेदार रहे

खुद्दारी को जीनेवाले ध्यान रखा करते अकसर
क्यों लादे अहसान किसी का क्यूं कर कोई उधार रहे

क्या लेकर आए थे जग में क्या लेकर के जाएंगे
बेहतर होगा मन में अपने इस दुनिया से प्यार रहे

4

कल यहाँ उत्थान था लेकिन पतन है आजकल
संक्रमण के दौर में अपना वतन है आजकल

कल तलक जिस देह को हम ने ढँका तहजीब से
आधुनिकता बोल कर के निर्वसन है आजकल

कौन कितना गिर सके प्रतियोगिता-सी चल रही
और उसमें ही हमारा मन मगन है आजकल

खाओ- पीयो, ऐश कर लो ज़िन्दगी का क्या पता
हर किसी बिगड़े हुए का यह कथन है आजकल

मानता हूँ रोशनी बाहर बड़ी रंगीन है
किंतु भीतर में अंधेरा भी गहन है आजकल

चाहते हैं लोग उपलब्धि मिले हर हाल में
इसलिए तो आत्मा उनकी रहन है आजकल

वासना को अब मोहब्बत का यहां दर्जा  मिला
मुक्त - यौनाचार का मानो चलन है आजकल

5

दुख में डूबा अब तो बस मजदूर दिखाई देता है
और यहां हर 'सिस्टम' बेहद क्रूर दिखाई देता है

रामराज का सपना तुमने बापू देखा था अच्छा
सात दशक के बाद भी लेकिन दूर दिखाई देता है

दीन-हीन की सेवा करना फर्ज यहां सरकारों का
पर कुरसी पर केवल 'ट्विटर-शूर' दिखाई देता है

किनको हमने नेता चुन के सौंप दिया है अपना भाग
जिसको देखो छलिया और मगरूर दिखाई देता है

जो है मेहनतकश उसका तो चेहरा पिटा हुआ देखा और मुफ़्तखोरों पर हरदम नूर दिखाई देता है

6

बंदा खाली-खाली है अब
होठों पर बस गाली है अब

चुके हुए भक्तों-चमचों की
पूँजी केवल ताली है अब

मेहनतकश का चेहरा पीला
शोषक पर ही लाली है अब

खिला नहीं सकते भूखे को
सेठ कहे कंगाली है अब

बोल दिया सत्ता है बहरी
उस पे तनी दुनाली है अब

7

मूरख ज़िद पर अड़े रहेंगे
सड़े हुए थे, सड़े रहेंगे

जड़ता ने मारा लोगों को
जहां पड़े, बस पड़े रहेंगे

नम्र बहुत हैं जो जीवन में
बढ़े रहेंगे, बड़े रहेंगे

जो विनम्र धनवाले हैं वे
सेवा करने खड़े रहेंगे

सच्चे हैं तो जूझेंगे ही
सच की खातिर लड़े रहेंगे

8

तूफां से टकराते हम
पीड़ा में मुस्काते हम

गद्दों पर बेचैन हैं कुछ
पत्थर पर सो जाते हम

भूखे रहकर भी अक्सर
हँसते हैं और गाते हम

रोते नहीं सदा हँसकर
सब का बोझ उठाते हम

करते हैं निर्माण सदा
पर मजदूर कहाते हम

भले ना हो रहने का घर
सब का मगर बनाते हम

है संतोष बड़ी दौलत
उस को सदा लुटाते हम

9

मुश्किल से मुसकाया फिर
अपना दर्द छिपाया फिर

जिसे भूलने बैठा था
दर्द याद वो आया फिर

पागल मन तो भटकेगा
पर उसको समझाया फिर

सच बोला था मार पड़ी
जोखिम मगर उठाया फिर

जोकर रोया था पहले
हमको मगर हँसाया फिर

लुटा, मगर था मेहनतकश
जोड़ लिया सरमाया फिर

रूठ गया था वो ज़िद्दी
अपना उसे बनाया फिर

यही मोहब्ब्त है पंकज
अपना था वो आया फिर

10

सच बोला तो मरा एक दिन
लेकिन क्या वह डरा एक दिन

बीज रोप कर पानी देना
हो जाएगा हरा एक दिन

यह भी जीवन की सच्चाई
फूल खिला और झरा एक दिन

हत्या करके मूरख सोचे
पाएगा अप्सरा एक दिन

घड़ा पाप का देखा सब ने
आखिर वो तो भरा एक दिन

सच को कितना दबा सकोगे
साबित होगा खरा एक दिन

कितनी खुद्दारी 'पंकज' में
परखो उसको जरा एक दिन

@ गिरीश पंकज

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...