बर्थडे स्पेशल: नाम बदलकर रखा 'प्रेमचंद'
यूं तो प्रेमचंद की हर रचना बहुमूल्य है जो अपने समय की सच्चाई को बयां करती हैं और उनकी ख़ासियत है कि वे आज भी प्रासंगिक हैं। प्रेमचंद की कहानी ईदगाह आपने भी शायद ज़रूर पढ़ी होगी। हामिद को मेला घूमने के लिए उसकी दादी अमीना ने तीन पैसे दिए। मेले में किस्म-किस्म की मिठाईयां, झूले और तोहफ़े बिक रहे थे। जहां दूसरे बच्चों ने मेले से अपने लिए खिलौने, भिश्ती और मिठाइयां ख़रीदी, वहीं चार या पांच साल के हामिद ने दादी के लिए चिमटा खरीदा। 6 पैसे के चिमटे को मोलभाव कर 3 पैसे में ख़रीद लेता है। क्योंकि रोटियां सेकते समय दादी का हाथ तवे से जल जाता था और पैसों की कमी की वजह से दादी चिमटा नहीं ख़रीद पा रही थी। हामिद ने अपने बचपन की ख़्वाहिशों को भुलाकर अपनी उम्र से बड़ा हो गया। गरीबी कैसे इंसान को उम्र से पहले बड़ा बना देती है, इस मनोविज्ञान को ईदगाह की कहानी खोल कर रख देती है।
प्रेमचंद को हिंदी और उर्दू के महानतम लेखकों में शुमार किया जाता है। प्रेमचंद की रचनाओं को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें 'उपन्यास सम्राट' की उपाधि दी थी। प्रेमचंद ने कहानी और उपन्यास में एक नई परंपरा की शुरुआत की जिसने आने वाली पीढ़ियों के साहित्यकारों का मार्गदर्शन किया। प्रेमचंद ने साहित्य में यथार्थवाद की नींव रखी। प्रेमचंद की रचनाएं हिंदी साहित्य की धरोहर हैं।
प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था और उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के नज़दीक लमही गांव में हुआ था। पिता का नाम अजायब राय था और वे डाकखाने में मामूली नौकरी करते थे। वे जब सिर्फ आठ साल के थे तब मां का निधन हो गया। पिता ने दूसरा विवाह कर लिया लेकिन वे मां के प्यार और वात्सल्य से महरूम रहे। प्रेमचंद का जीवन बहुत अभाव में बीता।
जब उनकी उम्र महज़ 15 साल थी तो पिता अजायब राय ने उनकी शादी उम्र में बड़ी लड़की से करा दी। शादी के एक साल बाद पिता का निधन हो गया और अचानक ही उनके सिर पांच लोगों की गृहस्थी और ख़र्च का बोझ आ गया। प्रेमचंद को बचपन से ही पढ़ने का शौक था और वे वकील बनना चाहते थे। लेकिन गरीबी की मार के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना अधूरा रह गया। प्रेमचंद को बचपन से ही उर्दू भाषा की शिक्षा मिली थी। हिंदी साहित्य के इतिहासकार बताते हैं कि उन्हें उपन्यास पढ़ने का ऐसा चस्का था कि बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही उन्होंने सारे उपन्यास पढ़ लिए और दो-तीन सालों के भीतर सैकड़ों उपन्यास पढ़ डाले।
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13 साल की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना शुरू कर दिया था। शुरुआत में कुछ नाटक लिखे और बाद में उर्दू में उपन्यास लिखा। इस तरह उनका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो उनके अंतिम समय तक उनका हमसफर बना रहा।
आर्थिक तंगी और पारिवारिक समस्याओं के कारण उनकी पत्नी मायके चली गई और फिर कभी नहीं लौटी। वे उस समय के धार्मिक और सामाजिक आंदोलन आर्य समाज से प्रभावित रहे। प्रेमचंद विधवा विवाह का समर्थन करते थे और 1906 में अपनी प्रगतिशील परंपरा को जीवन में ढालते हुए उन्होंने दूसरा विवाह बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। इसके बाद उनकी ज़िंदगी के हालत कुछ बेहतर हुए। अध्यापक से प्रोमशन होकर वे स्कूलों के डिप्टी इंस्पेक्टर बने और इसी दौरान उनकी पांच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन छपा' जो बहुत लोकप्रिय हुआ।
प्रेमचंद आज़ादी से पहले के समय के समाज और अंग्रेज़ी शासन के बारे में लिख रहे थे। उन्होंने जनता के शोषण, दुख, दर्द और उत्पीड़न को बहुत बारीकी से महसूस किया और उसे लिखा। लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत को ये गवारा नहीं था। 1910 में उनकी रचना 'सोजे़-वतन' (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। उस समय वे नवाबराय के नाम से लिखते थे। उनकी खोज हुई और उनकी आंखों के सामने 'सोजे़-वतन' की सभी प्रतियां जला दी गईं। कलेक्टर ने उन्हें बिना अनुमति के लिखने पर भी पाबंदी लगा दी।
20वीं सदी में उर्दू में प्रकाशित होने वाली 'ज़माना' पत्रिका के संपादक और प्रेमचंद के घनिष्ठ मित्र मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद नवाबराय हमेशा के लिए प्रेमचंद हो गए और इसी नाम से लिखने लगे।
प्रेमचंद का रचना संसार बहुत बड़ा और समृद्ध है। बहुआयामी प्रतिभा के धनी प्रेमचंद ने कहानी, नाटक, उपन्यास, लेख, आलोचना, संस्मरण, संपादकीय जैसी अनेक विधाओं में साहित्य का सृजन किया है। उन्होंने कुल 300 से ज़्यादा कहानियां, 3 नाटक, 15 उपन्यास, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें लिखीं। इसके अलावा सैकड़ों लेख, संपादकीय लिखे जिसकी गिनती नहीं है। हालांकि उनकी कहानियां और उपन्यास उन्हें प्रसिद्धि के जिस मुकाम तक ले गए वो आज तक अछूता है।
प्रेमचंद ने शुरुआती सभी उपन्यास उर्दू में लिखे जिनका बाद में हिंदी में अनुवाद हुआ। 1918 में 'सेवासदन' उनका हिंदी में लिखा पहला उपन्यास था। इस उपन्यास को उन्होंने पहले 'बाज़ारे हुस्न' नाम से उर्दू में लिखा लेकिन हिंदी में इसका अनुवाद 'सेवासदन' के रूप में प्रकाशित हुआ। यह एक स्त्री के वेश्या बनने की कहानी है। हिंदी साहित्यकार डॉ. रामविलास शर्मा के मुताबिक़ सेवासदन भारतीय नारी की पराधीनता की समस्या को सामने रखता है। इसके बाद 1921 में किसान जीवन पर उनका पहला उपन्यास 'प्रेमाश्रम' प्रकाशित हुआ। अवध के किसान आंदोलनों के दौर में 'प्रेमाश्रम' किसानों के जीवन पर लिखा हिंदी का शायद पहला उपन्यास है। फिर 'रंगभूमि', 'कायाकल्प', 'निर्मला', 'गबन', 'कर्मभूमि' से होता हुआ उपन्यास लिखने का उनका यह सफर 1936 में 'गोदान' के उफ़क तक पहुंचा।
प्रेमचंद के उपन्यासों में 'गोदान' सबसे ज़्यादा मशहूर हुआ और विश्व साहित्य में भी उसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। एक सामान्य किसान को पूरे उपन्यास का नायक बनाना भारतीय उपन्यास परंपरा की दिशा बदल देने जैसा था। गोदान पढ़कर महसूस होता है कि किसान का जीवन सिर्फ़ खेती से जुड़ा हुआ नहीं होता। उसमें सूदखोर जैसे पुराने ज़माने की संस्थाएं तो हैं ही नए ज़माने की पुलिस, अदालत जैसी संस्थाएं भी हैं। यह सब मिलकर होरी की जान लेती हैं। होरी की मृत्यु पाठकों के ज़हन को झकझोर कर रख देती है। गोदान का कारुणिक अंत इस बात का गवाह है कि तब तक प्रेमचंद का आदर्शवाद से मोहभंग हो चुका था। उनकी आख़िरी दौर की कहानियों में भी ये देखा जा सकता है। जीवन के आख़िरी दिनों में वे उपन्यास मंगलसूत्र लिख रहे थे जिसे वे पूरा नहीं कर सके।
लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 में उन्होंने आख़िरी सांसें लीं। प्रेमचंद अपने उपन्यासों में भारतीय ग्रामीण जीवन को केंद्र में रखते थे। प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया वो आने वाली पीढ़ियों के उपन्यासकारों के लिए एक चुनौती बनी रही। प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों का भारत और दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। प्रेमचंद हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर हैं और बने रहेंगे।
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