गुरुवार, 16 जुलाई 2020

......म गरमच्छ बनने की कथा / आलोक यात्री


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रोचक है छिपकलियों के बच्चों की मगरमच्छ बनने की कथा

  बात शुरू करने से पहले आपका कुछ दृश्यों पर नजर डाल लेना आवश्यक है
  सीन : 1
  एक शख्स हाथ में कुल्हाड़ी लेकर एक व्यक्ति के पीछे भागा चला आ रहा है। कुल्हाड़ी के प्रहार से वह उस व्यक्ति का पैर काट डालता है और भेजा उड़ा देता है। यह विभक्त दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाला है। यह वहशी दरिंदा इतने पर भी नहीं रुकता। पैर काटे जाने वाले व्यक्ति की मदद को सामने आने वाले सहयोगियों पर वह स्वचालित हथियारों से गोलियां चलाता है। फ्रेम में गोलीबारी में घायल लोग दिखाई देते हैं। असल में यह वह लोग हैं जो इस हमले में जान गंवा चुके हैं। पाठकों में ऐसा कोई है जो यह अंदाजा लगा सके कि उपरोक्त सीन हॉलीवुड या बॉलीवुड की कौन सी फिल्म से है? दक्षिण भारतीय फिल्मों में ऐसे दृश्य आम हैं। लेकिन मारधाड़, खून-खराबा और हिंसा का तड़का लगा कर फिल्म बनाने के माहिर साउथ के निर्देशक भी हैवानियत की इस सीमा तक अभी नहीं पहुंचे हैं।
  सीन : 2
  वर्दीधारी लोगों का हुजूम गांव की एक‌ गली से होता हुआ एक शानदार हवेली की तरफ बढ़ रहा है। साथ में बड़ी संख्या में मजदूर भी हैं। जिनके हाथों में कुदाल, बसूली, हथौड़े जैसे औजार हैं। इस हुजूम के पीछे कुछ जेसीबी और बुलडोजर भी नजर आ रहे हैं। इस हुजूम के एक बड़ी सी हवेली के सामने रुकने पर तस्वीर कुछ साफ होती है। इशारा पाते ही मजदूर, जेसीबी और बुलडोजर कोठी के साथ इमारत परिसर और आसपास खड़ी करीब एक दर्जन लग्जरी गाड़ियों को ध्वस्त करने के काम में जुट जाते हैं। दिन भर चली इस कार्रवाई में आलीशान बंगला जमींदोज हो जाता है और तमाम वाहन कबाड़ में बदल जाते हैं।
  सीन : 3
  पूर्वी उत्तर प्रदेश के देहात इलाके का एक जिला। जिले के चार अलग-अलग मुकद्दम। पहला कप्तान, दूसरा उप कप्तान, तीसरा कोतवाल और चौथा सिस्टम का दुलारा जुर्म की दुनिया का वो बेताज बादशाह जो जुबान से कम बंदूक से ज्यादा बोलता है। गंगा जमुना, दीवार, शोले से लेकर सिंघम फिल्म की तरह इस कहानी में भी एक जुनूनी पुलिस वाले की एंट्री होती है। जो समय-समय पर सिस्टम की पकाई दाल में काला-काला चुनकर कप्तान को इस उम्मीद में भेजता रहता है कि साहब खुश होंगे और जुर्म के बेताज बादशाह को कानून का सबक सिखाएंगे। यह जुनूनी अफसर डीएसपी देवेंद्र मिश्र वही शख्स हैं जो 3 जुलाई की रात को पहले ही सीन में कुल्हाड़ी से हैवानियत का शिकार होते हैं। सिस्टम से वाकिफ, पकी दाल खाने के माहिर कप्तान साहब, पदोन्नति पाकर डीआईजी बन जाते हैं।
  तो... भाइयों कहानी पूरी फिल्मी है। जी हां उसी विकास दुबे की जिसे पुलिस ने 10 जुलाई की सुबह कानपुर के निकट एनकाउंटर में उस समय मार गिराया जब वह पुलिस की हिरासत से भागने की कोशिश कर रहा था। उज्जैन से विकास दुबे को लाने वाली पुलिस टीम को शायद पता नहीं था कि विकास दुबे दौड़ नहीं सकता। देश के आपराधिक इतिहास के इस दुर्दांत अपराधी के अंत के बाद उससे जुड़ी कईं कथाओं से अब पर्दा उघड़ रहा है। कुछ सवाल भी खड़े हो रहे हैं। मसलन एक गुंडे का घर तोड़ने और उसके वाहनों को क्षतिग्रस्त करने के लिए पुलिस को अपनी हैसियत का ऐसा भौंडा प्रर्दशन क्यों करना पड़ा? क्या यह कृत्य पुलिस की नाकामी से पैदा हुई हताशा का नतीजा था? अपराधियों की कुर्की एक कानूनी प्रक्रिया है। लेकिन यह कार्रवाई और कृत्य कानून के किस दायरे में आता है? इसे वही स्पष्ट बता सकते हैं जिनके आदेश पर पुलिस टीम ने टीवी कैमरों के सामने पूरे दिन शौर्य प्रदर्शन किया।
  पश्चिम के मुकाबले पूर्वी उत्तर प्रदेश की भूमि बाहुबलियों के लिए अधिक उपजाऊ साबित होती रही है। इसी का नतीजा है कि बीते दो दशक में छाती पर सत्तर मुकदमों के तमगे लटकाए विकास दुबे श्रीप्रकाश शुक्ला और मुन्ना बजरंगी जैसे दुर्दांत अपराधियों की कतार में आ खड़ा हुआ। कहने को तो विकास अपना राजनैतिक गुरु पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हरिकृष्ण श्रीवास्तव को बताता था, लेकिन उसकी मंशा कहीं न कहीं मुख्तार अंसारी, रघु राज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, अतीक अहमद, हरि शंकर तिवारी, अमरमणि त्रिपाठी से भी आगे निकलने की थी। बीते तीन दशकों में सूबे की कानून व्यवस्था पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि पूरब के मुकाबले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपराधियों को धूल चटाने का काम अधिक प्रभावी तरीके से देखने को मिलता है। चर्चित आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय द्वारा माफिया डी.पी. यादव के खिलाफ खोला गया मोर्चा उदयन परमार, शैलजा कांत मिश्रा, वी.के. गुप्ता, डाॅ. डी.एस. चौहान, अरुण कुमार, जय नरायण सिंह जैसे अधिकारियों ने भी जारी रखा। देखा जाए तो महाराष्ट्र के चर्चित पुलिस अधिकारी दया नायक के कारनामे पर बनी फिल्म "अब तक छप्पन" की पटकथा भी एक तरह से गाजियाबाद में ही लिखी गई। यही नहीं श्रीप्रकाश शुक्ला और मुन्ना बजरंगी जैसे दिग्गज अपराधियों का अंत भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भूमि पर ही हुआ। मायावती को छोड़ दें तो चौधरी चरण सिंह और बाबू बनारसी दास के बाद से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना नसीब नहीं हुआ। बीते तीन दशकों में मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा किसी भी मुख्यमंत्री ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपराधियों के खिलाफ ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की। एक अदना सा ग्रामीण युवक विकास दुबे कैसे बन जाता है? इस संदर्भ में मशहूर लेखक बर्नाड शाॅ के इस कथन "हर छिपकली का बच्चा खुद को मगरमच्छ समझता है" को समझना होगा। बहरहाल सूबे के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से की पड़ताल यह बताती है कि छिपकली का बच्चा मगरमच्छ कैसे बनता है? इन मगरमच्छों के चारे-पानी की कथा अभी शेष है। (जारी)
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