जनवरी 1970 से धारावाहिक प्रकाशन
जुलाई 1974 ग्रंथ का भव्य लोकार्पण
आधुनिक हिन्दी भाषा का
प्रथम रामायण
राम
--महाकवि रामचन्द्र जायसवाल
अयोध्याकाण्ड
अविस्मरणीय
अमर अंश
"मुझे न सिंहासन में बाँधो,
मुझे खुला मैदान चाहिये,
तीर-धनुष ले बढ़़े राम, खल
दानव का बलिदान चाहिये.
सिद्धाश्रम - से कितने आश्रम
दनुजों द्वारा उजड़ रहे हैं,
ऋषि-मुनियों को मार-मार वनों
में दानव-बादल घुमड़ रहे हैं.
मुझे नगर में कैद करो मत,
मुझे वनों में भेजो नाथ !
खतरे में है आर्य धर्म,
संस्कृति अपनी हो रही अनाथ.
जिस बेटे को पिता न समझे,
अपना खून नहीं पहचाना,
वही भरत अब अवधपुरी पर
करे राज्य निष्काम अजाना."
इसी तरह अनगिनत प्रार्थनाएँ
कर चुप श्री राम हो गये,
विष्णु-मूर्ति में ध्यान लगा कर
स्वयं विष्णु में आज खो गये.
मंदिर में था और न कोई,
केवल सीताराम वहाँ थे,
बाहर के प्रहरी क्या जानें
सचमुच सीताराम कहाँ थे.
सहसा टूटा ध्यान राम का,
विमल ब्रह्म वेला मुस्काई,
लगा राम को-- मैंने कोई
आज अलौकिक आभा पाई.
स्नान आदि पूजन-वंदन कर
ज्योंही रवि को किया प्रणाम,
सूत सुमंत्र वहाँ आ पहुँचे
कहा-- "शीघ्र चलिये श्री राम!
पूज्य पिता हैं बुला रहे" रथ
पर सवार हो राम चले झट,
किन्तु भीड़ थी पथ में इतनी
रथ बढ़ने में हुई रुकावट.
जयजयकार गगन भेदी सुन
पथ के तोरण, ध्वजा-पताका,
अति प्रसन्न हो झूम रहे थे,
फूलों ने पत्तों को ढाँका.
कल दीवाली हुई रात भर,
अब भी घी था हर दीपक में,
जगमग-जगमगअवधपुरी थी,
कोई नहीं यहाँ था शक में.
आज राम का राजतिलक है,
नाचो, गाओ, मोद मनाओ,
सड़कों पर छींटो गुलाब जल,
सारी नगरी खूब सजाओ.
रंग - विरंगे परिधानों से,
आभूषण से बदन सँवारो,
आज राम का राजतिलक है,
शुचि सुगंध संग हँसो बहारो !
रथ बढ़ता गया राम का,
कैकेयी का भवन - द्वार है,
"आज न वंदनवार यहाँ क्यों !
क्या कोई संकट अपार है ?"
राम शीघ्र रथ से उतरे औ'
गये सुमंत्र सूत के साथ,
जहाँ पिता दशरथ धरती पर
पड़े हुये थे बने अनाथ.
ज्योंही नजर पड़ी बेटे पर
चीख उठे दशरथ-- "हे राम !
राम ! राम ! हा, राम ! राम !
हा, राम ! राम ! हा, मेरे राम !"
भूल गये करना प्रणाम
श्री राम पिता से लिपट गये थे,
किन्तु पिता तो पुत्र राम से
इतना ज्यादा चिपट गये थे--
पड़ा छुड़ाना झट सुमंत्र को,
पर दशरथ बेहोश हो गये,
पानी छिड़का जब मुख पर
तब होश हुआ,अब नयन रो गये.
कोप - कक्ष से बाहर आकर
सूत सुमंत्र खड़े थे चिंतित,
हाय !हुआ भगवान!आज क्या ?
क्यों हैं राजा दशरथ पीड़ित ?"
यही प्रश्न था किया राम ने--
"पूज्य पिता को कैसा दुख है ?
कहिये मझली माँ ! जल्दी,किस
कारण सुख का सूर्य विमुख है ?"
लट छिटकाये, क्रोध छिपाये
कैकेयी बोली कटु वाणी--
"महाराज के दुख का कारण
तुम हो राम ! दु:ख तूफानी.
इसे दूर कर सकते केवल
तुम्हीं,अगर तुम सचमुच चाहो,
ढह सकता पर्वत पीड़ा का
अगर उसे तुम दृढ़ बन ढाहो."
सुनकर मझली माँ की बातें
व्यथा हुई मन में अति भारी,
राम विकल हो बोले-- "माता !
यह तो मुझ पर चोट करारी.
है धिक्कार मुझे , जो मेरे
कारण पिता दुखी हैं इतना,
मैं इनका दुख दूर करूँगा
चाहे मुझे कष्ट हो जितना.
कहिये माँ ! वह कौन कार्य है
जिससे पिता सुखी हो जायें ?
देखा नहीं मुझे है जाता
इनका दुख जल्दी बतलायें.
आप कहें तो कूद पड़ूँ मैं
अभी आग में, सच यह मानें,
आप कहें तो विष पी लूँ मैं,
मेरा वचन सत्य यह जानें.
क्या मैं कर सकता न पिता के
लिये माँ ! अब मत चुप रहिये,
जो अभीष्ट इनको हो कहिये,
माता ! जल्दी कहिये, कहिये."
सुन कर ऐसी कठिन प्रतिज्ञा
कैकेयी ने कहा-- "सुनो अब,
मुझे दिया था नृप ने दो वर
देवासुर - संग्राम हुआ जब.
रात उन्हीं दो वर देने को
मैंने इनसे किया निवेदन,
"एवमस्तु" कह दिया इन्होंने,
किन्तु सुना जब दोनों विवरण-
विचलित होने लगे वचन से,
क्या रघुकुल की रीत यही है ?
बोलो राम ! तुम्हीं बोलो, क्या
सत्य धर्म की यही नीति है ?
विचलित भले अवधपति हों,
विचलित नहीं भरत की माता,
मैं अपने दो वर लूँगी ही,
चाहे कुछ भी करें विधाता."
शांत चित्त हो कहा राम ने--
"माँ ! इतनी छोटी - सी बात,
इसके लिये पिता विचलित हैं !
झेल रहे दुख का आघात !
कहिये माँ ! वह कौन बात है
जिसे राम कर सकता पूरी ?
पिता वचन हो सत्य सनातन,
रहे न माँ की माँग अधूरी."
ऐसा सुन संकल्प राम का
कैकेयी ने बात खोल दी,
जिसको सुनने को आतुर थे
राम वही शुभ बात बोल दी--
"मिले भरत को राज्य और
वनवास राम को चौदह वर्ष,"
सुन कर दोनों वर माता के
हुआ राम को इतना हर्ष--
लिपट गये माँ के चरणों से,
कहा-- "हुआ मेरा कल्याण,
मिला तुम्हें वर,पर माँ ! तुमने
मुझे दिया वर का वरदान.
पिता ! मुझे आशीस दीजिये,
भरत - राम में भेद नहीं है,
भरत आपके पास रहेगा,
मुझे राज्य का खेद नहीं है.
आप मुझे तो सिर्फ अवध
का राज्य चाहते थे देना, पर
मझली माँ ने मुझे दिलाया
वन-उपवन का राज्य मनोहर.
यहाँ प्रजा की जितनी सेवा
करता मैं उससे भी ज्यादा
वनवासी ऋषियों की सेवा
करने का करता हूँ वादा.
देर न हो, शुभ कार्य शीघ्र हो,
वनवासी बन कर आता हूँ,
पिता ! मुझे आशीस दीजिये,
वल्कल लेने मैं जाता हूँ."
किन्तु पिता का गला रुँधा था,
दृग में थी आँसू की धारा,
चरण स्पर्श कर राम चले या
चला पिता का आज सहारा.
सुन सुमंत्र से समाचार
ये दोनों शीघ्र यहाँ थीं आई,
सीता थीं शान्त, मगर छोटी
माँ बिल्कुल थीं घबराई.
दीदी ! हुआ अनर्थ, किया
कैकेयी ने भीषण आघात,
वर माँगा स्वामी से उसने
बिना बताये, कल की रात.
एवमस्तु कह दिया प्रेम वश
किन्तु हुआ ऐसा परिणाम,
तड़प रहे हैं स्वामी, जल्दी
चलो वहाँ, सब बिगड़ा काम.
छोटी माँ के चरण स्पर्श कर
बोले राम-- "न घबराओ माँ !
मुझे विदा दो पहले, उसके
बाद वहाँ तुम सब जाओ माँ !
तड़प रहे हैं पिता मोहवश,
उनका मोह छुड़ाना माता !
मोह सदा दुखदाई है, है सिर्फ
ज्ञान ही सुख का दाता.
विश्वामित्र महामुनि के सँग
जिनने मुझे समर में भेजा,
आज सिर्फ वनवास-कांड से
काँपा उनका सुदृढ़ कलेजा.
मझली माँ का दोष न कुछ भी
होनहार उज्ज्वल है मैया !
राम तुम्हारा वन जायेगा,
भरत बनेगा राजा भैया."
कहा सुमित्रा ने-- "बेटा ! तुम
गये समर में नहीं अकेले,
साथ तुम्हारे लक्ष्मण भी था,
थे महान गुरु, तुम दो चेले.
किन्तु आज तो सिर्फ अकेले,
चौदह वर्ष कठिन वनवास !
नहीं - नहीं मैं तुम्हें न जाने
दूँगी , मैं हूँ बहुत उदास.
अगर मुझे तुम कर प्रसन्न
जाना चाहो तो जाओ राम !
साथ तुम्हारे लक्ष्मण भी
जायेगा बन सेवक निष्काम.
जहाँ राम हो वहीं लक्ष्मण,
यह छोटी माँ का आदेश;
जाया नहीं कपूत है मैंने,
वह देखो लक्ष्मण का वेष."
बाहर मंत्रीवर सुमंत्र थे
खड़े प्रतीक्षा में उद्विग्न,
देख राम को समझा उनने
नहीं यहाँ अब कोई विघ्न.
अधरों पर मुस्कान लिये
श्री राम बढ़े जाते थे आगे,
पर पीछे थे तड़प रहे
दशरथ जिनके सब सुख भागे.
सुन कराह सहसा दौड़े
मंत्री सुमंत्र, पर राम न दौड़़े,
राम बढ़े जाते थे आगे सह
दिल पर सब चीख-हथौड़े.
पैदल ही बढ़ते जाते थे
राम लुटाते निज आभूषण,
सबने समझा राजतिलक की
खुशियां बरस रहीं बन सावन.
और अन्त में तज जूते भी
राम बढ़े पुलकित उस ओर,
जिधर सुशोभित माँ कौशल्या
का भवन, मधुर था शोर.
बाजे थे बज रहे द्वार पर,
राम घुसे मुस्काते अन्दर,
ध्यान मग्न थीं माँ कौशल्या,
प्रभु - पूजा में रहीं रात भर.
बेटे की पद - चाप कान में
जभी पड़ी, टूटा वह ध्यान,
बेटा चरण छुये कैसे,
माँ ने लिपटाया उसे अजान.
छाती जुड़ा गई माता की,
बेटा आज बनेगा राजा,
राजतिलक के इस शुभ दिन
को स्वयं विधाता ने है साजा.
किन्तु साज से रिक्त देह को
कौशल्या ने जभी निहारा,
बोले राम-- "विपिन वासी के
लिये नहीं आभूषण प्यारा.
आशीर्वाद मुझे दे मैया !
चौदह वर्ष बाद आऊँ मैं,
इन चरणों के शुभ दर्शन कर
दुर्लभ पुण्य पुन: पाऊँ मैं."
यह कह कर झुक पड़े और
माँ के चरणों पर टेका माथ,
तभी सुमित्रा जी आ पहुँचीं,
सीता भी थीं उनके साथ.
बाहर मंत्रीवर सुमंत्र थे
खड़े प्रतीक्षा में उद्विग्न,
देख राम को समझा उनने
नहीं यहाँ अब कोई विघ्न.
अधरों पर मुस्कान लिये
श्री राम बढ़े जाते थे आगे,
पर पीछे थे तड़प रहे
दशरथ जिनके सब सुख भागे.
सुन कराह सहसा दौड़े
मंत्री सुमंत्र, पर राम न दौड़़े,
राम बढ़े जाते थे आगे सह
दिल पर सब चीख - हथौड़े.
पैदल ही बढ़ते जाते थे
राम लुटाते निज आभूषण,
सबने समझा राजतिलक की
खुशियां बरस रहीं बन सावन.
और अन्त में तज जूते भी
राम बढ़े पुलकित उस ओर,
जिधर सुशोभित माँ कौशल्या
का भवन, मधुर था शोर.
बाजे थे बज रहे द्वार पर,
राम घुसे मुस्काते अन्दर,
ध्यान मग्न थीं माँ कौशल्या,
प्रभु - पूजा में रहीं रात भर.
बेटे की पद - चाप कान में
जभी पड़ी, टूटा वह ध्यान,
बेटा चरण छुये कैसे,
माँ ने लिपटाया उसे अजान.
छाती जुड़ा गई माता की,
बेटा आज बनेगा राजा,
राजतिलक के इस शुभ दिन
को स्वयं विधाता ने है साजा.
किन्तु साज से रिक्त देह को
कौशल्या ने जभी निहारा,
बोले राम--"विपिन वासी के
लिये नहीं आभूषण प्यारा.
आशीर्वाद मुझे दे मैया !
चौदह वर्ष बाद आऊँ मैं,
इन चरणों के शुभ दर्शन कर
दुर्लभ पुण्य पुन: पाऊँ मैं."
यह कह कर झुक पड़े और
माँ के चरणों पर टेका माथ,
तभी सुमित्रा जी आ पहुँचीं,
सीता भी थीं उनके साथ.
सुन सुमंत्र से समाचार
ये दोनों शीघ्र यहाँ थीं आई,
सीता थीं शान्त, मगर छोटी
माँ बिल्कुल थीं घबराई.
दीदी ! हुआ अनर्थ, किया
कैकेयी ने भीषण आघात,
वर माँगा स्वामी से उसने
बिना बताये, कल की रात.
एवमस्तु कह दिया प्रेम वश
किन्तु हुआ ऐसा परिणाम,
तड़प रहे हैं स्वामी, जल्दी
चलो वहाँ, सब बिगड़ा काम.
छोटी माँ के चरण स्पर्श कर
बोले राम-- "न घबराओ माँ !
मुझे विदा दो पहले, उसके
बाद वहाँ तुम सब जाओ माँ !
तड़प रहे हैं पिता मोहवश,
उनका मोह छुड़ाना माता !
मोह सदा दुखदाई है, है सिर्फ
ज्ञान ही सुख का दाता.
विश्वामित्र महामुनि के सँग
जिनने मुझे समर में भेजा,
आज सिर्फ वनवास-कांड से
काँपा उनका सुदृढ़ कलेजा.
मझली माँ का दोष न कुछ भी
होनहार उज्ज्वल है मैया !
राम तुम्हारा वन जायेगा,
भरत बनेगा राजा भैया."
कहा सुमित्रा ने-- "बेटा ! तुम
गये समर में नहीं अकेले,
साथ तुम्हारे लक्ष्मण भी था,
थे महान गुरु, तुम दो चेले.
किन्तु आज तो सिर्फ अकेले,
चौदह वर्ष कठिन वनवास !
नहीं - नहीं मैं तुम्हें न जाने
दूँगी , मैं हूँ बहुत उदास.
अगर मुझे तुम कर प्रसन्न
जाना चाहो तो जाओ राम !
साथ तुम्हारे लक्ष्मण भी
जायेगा बन सेवक निष्काम.
जहाँ राम हो वहीं लक्ष्मण,
यह छोटी माँ का आदेश;
जाया नहीं कपूत है मैंने,
वह देखो लक्ष्मण का वेष.
वनवासी बन स्वयं आ गया,
राम ! इसे स्वीकार करो अब,
तुमको मँझली माँ प्यारी है तो
मुझको भी प्यार करो अब.
मँझली ने तो सौतेले बेटे
को दिया कठिन वनवास,
मैं अपने बेटे को देती हूँ
वनवास सहित उल्लास."
बोले राम-- "धन्य हो माता !
तुम तो सचमुच बहुत विचित्रा,
जब तक सरयू की धारा, तब
तक पृथ्वी पर नाम सुमित्रा."
सुनती-गुनती रही सभी कुछ,
पर न बड़ी माता कुछ बोली,
पूजा की थी थाल वहीं पर
जिसमें थी शुचि अक्षत - रोली.
लगा दिया उसने दोनों बेटों
को तिलक भाल पर ऐसा,
आसमान के उच्च भाल पर
सूर्य - चन्द्र शोभित हो जैसा.
राजतिलक हो गया राम का
सचिव बने प्रिय भाई लक्ष्मण,
राम करेंगे राज्य सभी के दिल
पर, हुलसित होगा त्रिभुवन.
या विदा की यह अनुमति थी,
किन्तु न दिल से निकले राम,
आँसू भी बन गये फूल थे
नयनों में भी राम ललाम.
रोम - रोम रोमांचित था या
रोम - रोम में राम रमे थे,
बिछुड़न की अब बात कहाँ
थी, माताओं के धैर्य थमे थे.
वीरों की ये माताएँ थीं,
धीरों की ये माताएँ थीं,
इन्हें दु:ख कैसे व्यापेगा,
जहाँ त्याग की गाथाएँ थीं.
माताएँ ही सिर्फ नहीं थीं,
बहुओं की भी थीं ये सास,
समझ गईं क्यों सिया-उर्मिला
उधर खड़ी हैं बनी उदास.
पति बिन पत्नी का जीवन
होता जग में अति दुखदाई,
"जाओ बेटी ! तुम भी जाओ
यदि जाने की इच्छा भाई."
सीता को तो जाना ही था,
वह न दुखी थी अपने कारण,
उनका दुख था इतना भीषण
सम्भव जिसका नहीं निवारण.
दोनों भाई साथ रहेंगे, पर
दो बहनें बिछुड़ जायँगी !
बचपन की वह प्यारी जोड़ी
अब न साथ में रह पायेगी !
सुना कि देवर जी ने आज्ञा
दी है-- रहना यहीं उर्मिला,
हाय ! रहेगी पति बिन कैसे !
शेषनाग बिन मही उर्मिला ?
ओ विदेह की असली बेटी !
रोक आँसुओं को अब अन्दर,
लहराने दे चौदह वर्षों तक
सम्मुख यह विरह - समन्दर.
टूट गई यदि दुख से तू
तो कौन कहायेगी वैदेही ?
वारिस कौन बनेगी उसका
जो कि ज्ञान के परम सनेही ?
चरण स्पर्श कर माताओं के
चले लक्ष्मण - राम - जानकी,
इधर उर्मिला के मानस में
गंगा बहने लगी ज्ञान की.
मुनि-आश्रम से वल्कल मँगवा
राम बने पल में वनवासी,
समाचार सुन फैल गई
सम्पू्र्ण अवध में घनी उदासी.
हाय ! कहाँ तो राजतिलक था,
कहाँ आज वनवास मिला है !
कहीं क्रोध था, कहीं अश्रु था,
जनता का विश्वास हिला है.
आकुल - व्याकुल कितने ही
नर - नारी दौड़े राजभवन को
हाय ! अनर्थ हुआ यह कैसा ?
शोक हुआ जन-जन के मन को.
मेरे राम मिलेंगे फिर कब ?
सोच - सोच सब जन अकुलाये,
करुणा की साकार मूर्ति को
निरख नयन में जल भर आये.
सबको रोते छोड़ मोड़ मुख
राम चले गुरु - गृह की ओर,
पैदल सीता जी को चलते
देख अवध में छाया शोर.
था झकझोर रहा सबको यह
दृश्य करुण दे मन में पीर,
भावों के घन सघन हुए,
नयनों से बरसा झरझर नीर.
जाओ राम ! लक्ष्मण ! सीते !
त्याग - धर्म के नव आदर्श !
गौरवान्वित हुआ आज है
तुम तीनों से भारतवर्ष.
गुरु वशिष्ठ के द्वार जभी
पहुँचे ये तीनों विदा माँगने,
भीड़ उमड़ आई इतनी ज्यों
अवधपुरी हो खड़ी सामने.
गुरु की पत्नी अरुन्धती को
सीता ने निज आभूषण सब
किया समर्पित, मन था हर्षित,
त्याग मूर्त्ति सीता भी अभिनव.
गुरु वशिष्ठ थे ध्यान लगाये
अपने आसन पर उस काल,
शायद देख रहे थे वे
आने वाला इतिहास विशाल.
मन ही मन गुरु को प्रणाम कर
राम - लक्ष्मण ने कर जोड़ा,
दिव्य दृष्टि वाले महर्षि ने
निज समाधि को बरबस तोड़ा.
बोले मुस्काकर-- "राघव ! तुम
वीर पुरुष हो, नहीं विरागी,
तुमने त्याग दिया वैभव, पर
धनुष-वाण के बनो न त्यागी.
बहुत उचित है अवध राज्य का
धनुष-वाण भी नहीं साथ हो,
पर दहेज में मिला तुम्हें जो
उससे तुम दोनों सनाथ हो.
वे दो दिव्य धनुष, अक्षय
वाणों से भरे हुए दो तरकस,
मेरे पास सुरक्षित हैं, लो
इन्हें सँभालो, बहे वीर रस.
स्वयं वरुण ने दिये जनक को
थे ये दोनों अस्त्र भयंकर,
मुझे पता है, क्या-क्या गुण हैं
इन दोनों अस्त्रों के भीतर."
आज्ञा सुन आचार्य देव गुरुवर
वशिष्ठ की राम - लक्ष्मण,
धनुष और तरकस धारण कर
गुरु-पद स्पर्श किया चिर पावन.
आशीर्वाद दिया गुरु ने जो
उसे जान पाया कब कोई,
सबने केवल देखा-- दोनों
भाई में नव छटा सँजोई.
जयजयकार किया जनता ने,
कुछ ने समझा युद्ध छिड़ेगा,
राम राज्य के बाधक जो हैं
उनके सिर से वाण भिड़ेगा.
अब न खैरियत कैकेयी की,
परशुराम का रूप राम हैं,
जनमत राम राज्य का इच्छुक,
अब तो निश्चय सिद्ध काम है.
आगे - आगे राम चले, उनके
पीछे सीता, फिर लक्ष्मण,
इनके पीछे जन-बल था,करता
जाता "जय ! जय !" उच्चारण.
गुरु वशिष्ठ ने शस्त्र दिया है
राजतिलक अब होगा निश्चय,
किसमें ताकत है जो काटे गुरु
वशिष्ठ का अन्तिम निर्णय ?
--बात फैलने लगी जोर से,
राम घुसे कैकेयी के घर,
संग जानकी, लक्ष्मण भी थे
तीनों ही फिर आये बाहर.
अज्ञानी जनता ने जाना
कैकेयी अब रही न जग में,
साफ हो गया काँटा भारी जो
अब तक था जनरुचि-मग में.
पर यह क्या ! निकली कैकेयी,
आई अपने भवन - द्वार तक,
राम, जानकी, लक्ष्मण ने इस
माँ के पद पर टेका मस्तक !
राम राज्य की नींव न हिंसा,
राम राज्य है त्याग - तपस्या,
बिना त्याग-तप के सुलझी कब
किसी देश की निजी समस्या ?
चले राम - जानकी - लक्ष्मण
त्याग-तपस्या के शुभ पथ पर,
पर ममतावश प्रजाजनों की
आँखें आईं आँसू से भर.
बहुत करुण है,बहुत करुण है
राम - विदाई की यह वेला,
आँसू बहे, हृदय हहरा,
प्राणों ने पीड़ा का दुख झेला.
" कैसे रहें राम बिन बोलो ?
चलो राम के संग प्रजाजन !"
--आत्माराम सभी के विह्वल
होकर कहते-- "छोड़ो क्रन्दन ."
रथ पर थे आरूढ़ राम, पर
रथ जनता से बढ़ा न आगे,
चारों तरफ भीड़ थी भारी,
उलझे आज प्रेम के धागे.
जहाँ राम हों वहीं अयोध्या,
चली राम के संग अयोध्या,
उलझन में पड़ गये राम, बोले
लक्ष्मण से--"लक्ष्मण!यह क्या?
बिना प्रजा के राज्य करेंगे
कैसे भाई भरत यहाँ अब ?
दोष लगेगा मुझ पर भारी,
होगा यह तो धर्म - पराभव.
त्रेता का इतिहास कहेगा--
किया राम ने राज-त्याग कब ?
जन-बल तो ले गया साथ ही
जन-बल से ही होता वैभव."
लक्ष्मण क्या कहते, वे तो
खुद चले राम के संग आज हैं,
सभी प्रेम के अधिकारी हैं,
आज राममय सब समाज है.
कैसे कोई आज किसी को
रोके , धारा बहुत तेज है,
प्रेम - नदी की बाढ़ अनोखी,
बड़ा कठिन इसका सहेज है.
जनता की ही कौन कहे,
लो सिंहासन भी बहा धार में,
राजा दशरथ दौड़ पड़े "हा राम !
राम ! !" कह विकल प्यार में.
बछड़े को जाते कब गैया
देख सकी है, वह भी दौड़ी,
कौशल्या ने व्याकुल होकर
लाँघी आज महल की पौरी.
माँ की ममता बिलख रही है,
प्यार पिता का तड़प रहा है,
सास-ससुर का स्नेह सिसकता,
आज अवध ही उजड़ रहा है.
"मत जाओ हे राम !
तुम्हारा बूढ़ा बाप बुलाता है रे !
यह भी तो है पितृ - वचन ,
अब प्राण बहुत अकुलाता है रे !"
--बार - बार दशरथ रटते थे--
"मत जाओ, रुक जाओ राम !
या मुझको भी साथ चलो ले,
मुझ पर आज विधाता वाम."
सुनकर भी अनसुना किया यह
मोह जनित आदेश राम ने,
और कहा सीता से धीरे--
"लक्ष्य न पीछे, सदा सामने."
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