कुछ सवाल ।
दुर्दांत हत्यारा विकास दुबे आखिर मारा गया।सही सोचने समझने वाले किसी शख्स की सहानुभूति इस अपराधी से नहीं हो सकती।जाहिर है मेरी भी नहीं है। .. . बहु प्रतीक्षित मुठभेड़ में वह आज कानपुर में मारा गया।जबकि उसने उज्जैन के महाकाल मंदिर परिसर मे ं अपनी गिरफ्तारी कराई थी।ये समर्पण था या गिरफ्तारी का सरकारी प्रहसन?तमाम सवाल हवा में तैर रहे हैं।विकास ने पिछले दिनों आठ पुलिस वालों की हत्या मुठभेड़ के दौरान करके सनसनी फैला दी थी।इससे प्रदेश सरकार का इकबाल कमजोर पड़ा था।सो पुलिस ने हर स्तर पर जंग सी छोड़ दी थी।उसके कुछ साथी भी विकास के पहले ही मुठभेड़ों में मारे गये गये। विकास की तलाश में पुलिस बल झोंक दिया गया था।पुलिस को धता बताते हुए वो 1500किमी दूर उज्जैन पंहुचने मे ं सफल रहा।यहां रहस्यमय ढंग से इसकी गिरफ्तारी हुई थी।म.प्र.सरकार के एक धाकड़ मंत्री की भूमिका भी संदिग्ध रही है।इसके तमाम किस्से सोशल मीडिया में तैर रहे हैं।विकास की मौत के बाद अब राजनीतिक संरक्षण देने वाले तमाम आका चैन की नींद जरूर सोंएगे।क्योंकि दो दशकों से यह अपराधी खुलकर अपना खेल कर रहा था।पुलिस वाले उसके टुकड़ों पर बिकते थे।यह भी रहस्य नहीं रहा। इसके खिलाफ पुलिस वाले भी गवाही देने की हिम्मत नहीं करते थे।सो यह अदालत से भी बच जाता था।इसका आपराधिक इतिहास इस बात का गवाह है। ये सच केवल एक विकास का ही नहीं है।तो क्या इसका माकूल इलाज पुलसिया मुठभेड़ उर्फ सरकारी हत्या जायज है? यह सवाल बहुत अहम है। हमारे सिस्टम में बहुत लोचा है।अदालती फैसले देर से होते हैं।दबंग इंसाफ पर भारी पड़ते हैं।खुंखार अपराधी भी बच निकलते हैं।कई बार पुलिस भी असहाय होती है।ये कटु सच्चाई है।तो विकल्प रूप मे ं हम मठभेड़ो के नाम पर हत्याओं को कबूल कर लें?कतई नहीं। क्योंकि ये गलती की तो हम अदालती व्यवस्था को जाने अनजाने ठेंगा दिखा देंगे।इसकी सीधी आंच लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी झुलसा देगी।ये खतरनाक खेल है।हमें हर हाल में इससे बचना होगा। सरकार के आका एक बार हथियार बंद पुलिस को खुद गोली से न्याय देने का खुला चस्का लगा देंगे तो भारी अराजकता का आलम होगा।जाहिर है इससे आम आदमी को सबसे ज्यादा झेलना होगा।विकास जैसे अपराधी की मौत पर भीड़ खुश ही होगी।क्योंकि न्याय व्यवस्था की हकीकत वह जानती है।।ये स्थिति दुखद है।यदि न्याय व्यवस्था में खामियों केनाम पर हम पुलिस को निरंकुश बनने देते हैं तो ये बड़ी आफत को न्यौता होगा।कर्मठ पुलिसकर्मियों के साथ भी छल होगा। ऐसा भी नहीं है कि योगी जी के शासन मे ं ही पुलसिया मठभेड़ों की संस्कृति आयी हो।ये पुरानी बीमारी है।वीपी सिंह के दौर मे ं भी मुठभेड़ों को लेकर भारी विवाद हुआ था।पुलिस की हर मुठभेड़ संदेह के घेरे मे ं होती है।हां,जब पुलिस विकास जैसे दुर्दांत को मारती है तो उसे भीड़ की शाबाशी जरूर मिलती है। दरअसल, हम यहीं चूक रहे हैं।विकास के मामले में हमारे जैसों का अनुमान गलत साबित हुआ।किसी थर्ड क्लास फिल्म की बोदी कहानी की तरह मुठभेड़ हुई और वो मारा गया।क्योंकि पुलिस वालों को इस बार डर नहीं था। संभव है बहादुरी का इनाम इकराम भी मिल जाए।क्योंकि सरकार का इकबाल थोड़ा चोटिल होकर लौट तो आया। . विकास की मौत से कुछ बड़े सवाल जरूर खड़े हुए हैं।एक बार हथियार बंद पुलिस को इस तरह से न्याय देने की लत लग गयी तो?इसके भयानक नतीजे देश के दूसरे हिस्सों में भी देखे गये हैं।1987म ई के महीने में मेरठ दंगों के दौरान सशस्त्र पुलिस पीएसी ः ने सांप्रदायिक होकर नरसंहार किया था।मैंनें इसकी कवरेज की थी।अदालत ने दशकों बाद पीएसी वालों को सजा सुनाई है।ये तो एक उदाहरण भर है। इसीलिये कह रहा हूं कि पुलसिया मुठभेड़ों की संस्कृति खतरनाक है।न्याय व्यवस्था के लिए भी चुनौती है।लोकतंत्र में सरकारें बदलती रहती हैं।लेकिन गलत परंपराओं की पीड़ा लंबे समय तक सालती हैं।विकास के हाथों जो पुलिस वाले शहीद हुए उन्हें सादर नमन! उनका बलिदान याद रखा जाएगा।लेकिन पुलिस का तौर तरीका भी गंभीर सवालों के घेरे मे ं ही रहेगा!उम्मीद की जानी चाहिए कि मुख्यमंत्री योगी जी भी दूरगामी बिंदुओं का मंथन जरूर करेंगे! ्
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