तुम धरती हो.......
तुम धरती हो बिछी हो
जिस पर मैं चलता हूं
तुम वृक्ष हो झुकी हो
जिससे लिपट मैं अकसर सो जाता हूं
और जाग कर मेरी दरंदगी
अपने बदन की खुजली मिटाती है
मेरे दोस्तों के हरे जंगल सूख गये
वे परिंदे कहां चले गये
जिनके घोंसले मेरी आंंखें
आज भी ढोतीं हैं
एक तरफ मौत
और दूसरी तरफ तुम हो
दोनों के इस बेइंतिहां इश्क को
मैं कैसे कमाऊं
और कैसे खर्च करूं
तुम्हारी आंंखों के पानी से
तैरता तैरता
दरिया निकलता है
समंदर नीले हरफ में
छपी किताब है
मैं जाहिलों की नस्ल
मेरी कोई सभ्यता
अब तक
ईजाद नहीं हुुयी
मैं इन लहरों पर
एक नज़्म लिखूंगा
तरन सूट में तैरती
तुम मचलती मछलियों की
एक अदा लिख दो
सूरज के नाम
कल खत लिखूंगा
जो उम्र का पैगाम देकर
इल्म से महरूम करता है
मेरी प्यास में
तुम कुंएं की गहराई
मेरे अंधेरे की मिठास हो
मुझे नहीं मालूम
मुझ में और
कितने मस्कीजों की प्यास बाकी है
- राम प्रसाद यादव
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