✌️ पाठकों के लिए खासतौर पर इस बार पेश हैं दिनेश श्रीवास्तव का होली (पुराण ) साहित्य 👌🙏✌️
गीतिका
कैसे खेलूँ फाग
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देश जला अपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।
प्रेम हुआ सपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
नष्ट हुआ पर्यावरण,धुआँ-धुआँ चहुओर,
बंद हुआ दिखना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
मंदिर तो अब बन गए,पर मुश्किल में आज,
राम-नाम जपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
भाई-भाई लड़ रहे,लहु- लुहान है देश,
मुश्किल है रहना यहाँ, कैसे खेलूँ फ़ाग।।
नफ़रत के परिवेश में,कौन सुनेगा गीत,
छोड़ दिया लिखना यहाँ,कैसे खेलूँ फाग।।
नहीं बचा है अब यहाँ, प्रेम और सौहार्द,
किसे कहूँ अपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
बदरंगी दुनियाँ बनी, फैला पापाचार,
सब कुछ है सहना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
मंत्री संत्री सब यहाँ, लूट रहे सबओर।
महाराष्ट्र पटना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
कोरोना बढ़ने लगा,पुनः यहाँ पर आज।
मुश्किल है बचना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
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होली है
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सज गए सब फागुनी बाजार ,होली है।
पर नहीं कोई यहाँ खरीदार,होली है।।-१
रो रही हैं किस्मतें अब तो किसानों की,
पड़ रही है जो फ़सल पर मार, होली है।-२
मिल नहीं सकता गले पर,दिल मिला लूँगा,
अब 'कोरोना' ने किया बेज़ार, होली है।-३
होना नहीं नाराज़, अब हालात ऐसे हैं,
कर रहा मनुहार सौ-सौ बार,होली है।-४
लड़ रहा है देश अपने दुश्मनों से रात दिन,
कुछ भेज दो उनके लिए उपहार, होली है।-५
चलकर करें विनती वहाँ बैठे किसानों से,
उठकर करें वे देश से अब प्यार, होली है-६
कौन जाने कल कहाँ होंगे, नहीं होंगे,
नफरतों की गिर पड़े दीवार, होली है।-७
*ग़ज़ल*
फागुन फिर से आया है।
पुरवा शोर मचाया है।।
मन-तरंग अब आंदोलित,
किसने रंग लगाया है।
शर्माती है कोयल रानी
किसने गीत सुनाया है।
इंतजार अब है किसका,
बंदनवार सजाया है।
पलकें उनकी झुकीं-झुकीं,
कुछ तो राज छिपाया है।
पायल को है पता कहाँ,
बोझिल पाँव बनाया है।
मन-मयूर में कौन समाया,
बादल समझ न पाया है।
*होलिका जलती जाए*
(१)
जाए होली जल यहाँ, रहे न कुछ भी शेष।
वैर,भाव,संताप सब,छद्म,कुटिलता,द्वेष।।
छद्म,कुटिलता,द्वेष,भाव निर्मल हो जाए।
मन से हटे विकार,न कोई कभी सताए।।
करता विनय दिनेश,भाग्य सब पर इठलाए।
भारत में हर वर्ष,होलिका जलती जाए।।
(२)
आया फागुन झूम के,चढ़ा फागुनी रंग।
मदिरा का सेवन कहीं, कहीं चढ़ा है भंग।।
कहीं चढ़ा है भंग, अंग सब डगमग डोले।
समझ रहे सब लोग,स्वयं को बम-बम भोले।।
कहता सत्य दिनेश,नहीं मुझको है भाया।
होली का यह रूप,कहाँ से ऐसा आया।।
* कुण्डलिया-
( १)
महके इत्र गुलाल की,खुशबू अब चहुँओर।
ढोलक झाँझ मृदंग का,होता चहुँ-दिशि शोर।।
होता चहुँ-दिशि शोर,नाचती सभी दिशाएँ।
गुल-पराग मदमस्त,भ्रमर होकर इठलाएँ।
कहता सत्य दिनेश,आज मन सबका बहके।
फागुन सुखद सुगंध,दिशाएँ लेकर महके।।
(२)
होली के हुड़दंग में,भूल न जाना आप।
नहीं मिटा है आज तक,कोरोना का शाप।।
कोरोना का शाप,अभी बचकर है रहना।
कुछ दिन की है बात,कष्ट हमको है सहना।।
दो गज दूरी मास्क,लगा हो हँसी- ठिठोली।
करता विनय दिनेश,सँभल कर खेलो होली।।
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*भाँग*
(१)
करिए सेवन भाँग का,होली की यह रीत।
कभी जोगिड़ा भाँगड़ा,कभी फागुनी गीत।।
कभी फागुनी गीत,मगर यह बात समझना।
कभी नशे में चूर,न इतना खुद को करना।।
करता विनय दिनेश,ध्यान इतना तो धरिए।
पावन यह त्योहार,रंग में भंग न करिए।।
(२)
पी ली हमने भाँग को,होली का त्योहार।
अंतर अब लगता नहीं,कौन पुरुष या नार।।
कौन पुरुष या नार,नशा ऐसा है छाया।
धन्य धन्य हे! भाँग,तुम्हारी अद्भुत माया।।
पता नहीं है आज,हुई क्यों चड्ढी गीली।
होली के दिन 'चंद्र', भाँग क्यों इतनी पी ली।
दिनेश श्रीवास्तव:
रंग विरंगी कुण्डलिया*
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(१)
साली से मिलने चले,जीजा जी ससुराल।
पहली पहली बार था,लेकर हाथ गुलाल।।
लेकर हाथ गुलाल,हुई फिर वहाँ खिंचाई।
सलहज साली साथ,हुई फिर रंग रँगाई।।
होली का त्योहार,मधुर लगती है गाली।
सूनी है ससुराल,नहीं होती जब साली।।
(२)
गाली साली की मिले, या सलहज का प्यार।
शीघ्र अदा कर दीजिए,रहे न कभी उधार।।
रहे न कभी उधार, कर्ज बढ़ता ही जाता।
इतना गहरा राज,नहीं कोई बतलाता।।
है अनुभवी 'दिनेश',पास है सलहज साली।
मिलती जिसको रोज,मधुर साली की गाली।।
(३)
जाए होली जल मगर, रहे न कुछ भी शेष।
वैर भाव संताप सब,छद्म कुटिलता द्वेष।।
छद्म कुटिलता द्वेष, सभी निर्मल हो जाए।
मन से हटे विकार, न कोई कभी सताए।।
करता विनय'दिनेश',भाग्य सब पर इठलाए।
भारत मे हर वर्ष,होलिका जलती जाए।।
(४)
गुझिया पापड़ देखकर,मन मे हुआ मलाल।
मधु पीड़ित मैं हो गया,होली में इस साल।।
होली में इस साल,मिठाई खाऊँ कैसे।?
तरह तरह पकवान,शत्रु सा लगते जैसे।।
अबकी रोटी दाल,बनाऊँ सब्जी भुजिया।
होली का त्योहार,मगर खाऊँ ना गुझिया।।
(५)
घरवाली ने आज फिर, हमे पढ़ाया पाठ।
गुझिया को छूना नहीं,उम्र हो गयी साठ।
उम्र ही गयी साठ,मिठाई अब मत खाना।
होली में इस साल,नहीं कुछ करो बहाना।।
कोई भी हो चीज़, अगर वो बाहरवाली।
खाने में परहेज,बताती है घरवाली।।
(६)
खाऊँ अबकी बार क्या,वैद्य पढ़ाता पाठ।
बिगड़ गया सबकुछ यहाँ, होली का जो ठाट।।
होली का जो ठाट,बनाया उसने फीका।
केवल रंग गुलाल,लगाया हमने टीका।।
लेने गंध सुगंध,रसोई घर में जाऊँ।
बार बार मैं डाँट, वहाँ पर जाकर खाऊँ।।
*होली*
हास और परिहास के,साथ हुआ हुड़दंग।
प्रणय बाद होली प्रथम,हुआ सजन के संग।।
नहीं-नहीं ना नुकुर में,हुआ पुनः स्वीकार।
प्रियतम का अनुनय विनय,होली को तैयार।।
आम्र मंजरी देख कर,महुआ अबकी बार।
होली में मदमस्त हो,चूने को तैयार।।
मतवाला भौंरा हुआ,होली में इस बार।
पुष्प छोड़ करने लगा,कलियों से मनुहार।।
होली खेलन के लिए,बुढ़ऊ भी तैयार।
बुढ़ऊ की हरकत मगर, बुढ़िया रही निहार।
सहमे सहमे से लगे,बुढ़ऊ अबकी बार।
पिछली होली की तरह,पड़े न फिर से मार।।
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कैसे खेलूँ फाग
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देश जला अपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।
प्रेम हुआ सपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
नष्ट हुआ पर्यावरण,धुआँ-धुआँ चहुओर,
बंद हुआ दिखना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
मंदिर तो अब बन गए,पर मुश्किल में आज,
राम-नाम जपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
भाई-भाई लड़ रहे,लहु- लुहान है देश,
मुश्किल है रहना यहाँ, कैसे खेलूँ फ़ाग।।
नफ़रत के परिवेश में,कौन सुनेगा गीत,
छोड़ दिया लिखना यहाँ,कैसे खेलूँ फाग।।
नहीं बचा है अब यहाँ, प्रेम और सौहार्द,
किसे कहूँ अपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
बदरंगी दुनियाँ बनी, फैला पापाचार,
सब कुछ है सहना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
मंत्री संत्री सब यहाँ, लूट रहे सबओर।
महाराष्ट्र पटना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
कोरोना बढ़ने लगा,पुनः यहाँ पर आज।
मुश्किल है बचना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।
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होली है
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सज गए सब फागुनी बाजार ,होली है।
पर नहीं कोई यहाँ खरीदार,होली है।।-१
रो रही हैं किस्मतें अब तो किसानों की,
पड़ रही है जो फ़सल पर मार, होली है।-२
मिल नहीं सकता गले पर,दिल मिला लूँगा,
अब 'कोरोना' ने किया बेज़ार, होली है।-३
होना नहीं नाराज़, अब हालात ऐसे हैं,
कर रहा मनुहार सौ-सौ बार,होली है।-४
लड़ रहा है देश अपने दुश्मनों से रात दिन,
कुछ भेज दो उनके लिए उपहार, होली है।-५
चलकर करें विनती वहाँ बैठे किसानों से,
उठकर करें वे देश से अब प्यार, होली है-६
कौन जाने कल कहाँ होंगे, नहीं होंगे,
नफरतों की गिर पड़े दीवार, होली है।-७
ग़ज़ल*
फागुन फिर से आया है।
पुरवा शोर मचाया है।।
मन-तरंग अब आंदोलित,
किसने रंग लगाया है।
शर्माती है कोयल रानी
किसने गीत सुनाया है।
इंतजार अब है किसका,
बंदनवार सजाया है।
पलकें उनकी झुकीं-झुकीं,
कुछ तो राज छिपाया है।
पायल को है पता कहाँ,
बोझिल पाँव बनाया है।
मन-मयूर में कौन समाया,
बादल समझ न पाया है।
: कुण्डलिया-
( १)
महके इत्र गुलाल की,खुशबू अब चहुँओर।
ढोलक झाँझ मृदंग का,होता चहुँ-दिशि शोर।।
होता चहुँ-दिशि शोर,नाचती सभी दिशाएँ।
गुल-पराग मदमस्त,भ्रमर होकर इठलाएँ।
कहता सत्य दिनेश,आज मन सबका बहके।
फागुन सुखद सुगंध,दिशाएँ लेकर महके।।
(२)
होली के हुड़दंग में,भूल न जाना आप।
नहीं मिटा है आज तक,कोरोना का शाप।।
कोरोना का शाप,अभी बचकर है रहना।
कुछ दिन की है बात,कष्ट हमको है सहना।।
दो गज दूरी मास्क,लगा हो हँसी- ठिठोली।
करता विनय दिनेश,सँभल कर खेलो होली।।
*रंग विरंगी कुण्डलिया*
------------------------
(१)
साली से मिलने चले,जीजा जी ससुराल।
पहली पहली बार था,लेकर हाथ गुलाल।।
लेकर हाथ गुलाल,हुई फिर वहाँ खिंचाई।
सलहज साली साथ,हुई फिर रंग रँगाई।।
होली का त्योहार,मधुर लगती है गाली।
सूनी है ससुराल,नहीं होती जब साली।।
(२)
गाली साली की मिले, या सलहज का प्यार।
शीघ्र अदा कर दीजिए,रहे न कभी उधार।।
रहे न कभी उधार, कर्ज बढ़ता ही जाता।
इतना गहरा राज,नहीं कोई बतलाता।।
है अनुभवी 'दिनेश',पास है सलहज साली।
मिलती जिसको रोज,मधुर साली की गाली।।
(३)
जाए होली जल मगर, रहे न कुछ भी शेष।
वैर भाव संताप सब,छद्म कुटिलता द्वेष।।
छद्म कुटिलता द्वेष, सभी निर्मल हो जाए।
मन से हटे विकार, न कोई कभी सताए।।
करता विनय'दिनेश',भाग्य सब पर इठलाए।
भारत मे हर वर्ष,होलिका जलती जाए।।
(४)
गुझिया पापड़ देखकर,मन मे हुआ मलाल।
मधु पीड़ित मैं हो गया,होली में इस साल।।
होली में इस साल,मिठाई खाऊँ कैसे।?
तरह तरह पकवान,शत्रु सा लगते जैसे।।
अबकी रोटी दाल,बनाऊँ सब्जी भुजिया।
होली का त्योहार,मगर खाऊँ ना गुझिया।।
(५)
घरवाली ने आज फिर, हमे पढ़ाया पाठ।
गुझिया को छूना नहीं,उम्र हो गयी साठ।
उम्र ही गयी साठ,मिठाई अब मत खाना।
होली में इस साल,नहीं कुछ करो बहाना।।
कोई भी हो चीज़, अगर वो बाहरवाली।
खाने में परहेज,बताती है घरवाली।।
(६)
खाऊँ अबकी बार क्या,वैद्य पढ़ाता पाठ।
बिगड़ गया सबकुछ यहाँ, होली का जो ठाट।।
होली का जो ठाट,बनाया उसने फीका।
केवल रंग गुलाल,लगाया हमने टीका।।
लेने गंध सुगंध,रसोई घर में जाऊँ।
बार बार मैं डाँट, वहाँ पर जाकर खाऊँ।।
दिनेश श्रीवास्तव
[3/25, 06:54] DS दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया-
*भाँग*
(१)
करिए सेवन भाँग का,होली की यह रीत।
कभी जोगिड़ा भाँगड़ा,कभी फागुनी गीत।।
कभी फागुनी गीत,मगर यह बात समझना।
कभी नशे में चूर,न इतना खुद को करना।।
करता विनय दिनेश,ध्यान इतना तो धरिए।
पावन यह त्योहार,रंग में भंग न करिए।।
(२)
पी ली हमने भाँग को,होली का त्योहार।
अंतर अब लगता नहीं,कौन पुरुष या नार।।
कौन पुरुष या नार,नशा ऐसा है छाया।
धन्य धन्य हे! भाँग,तुम्हारी अद्भुत माया।।
*होलिका जलती जाए*
(१)
जाए होली जल यहाँ, रहे न कुछ भी शेष।
वैर,भाव,संताप सब,छद्म,कुटिलता,द्वेष।।
छद्म,कुटिलता,द्वेष,भाव निर्मल हो जाए।
मन से हटे विकार,न कोई कभी सताए।।
करता विनय दिनेश,भाग्य सब पर इठलाए।
भारत में हर वर्ष,होलिका जलती जाए।।
(२)
आया फागुन झूम के,चढ़ा फागुनी रंग।
मदिरा का सेवन कहीं, कहीं चढ़ा है भंग।।
कहीं चढ़ा है भंग, अंग सब डगमग डोले।
समझ रहे सब लोग,स्वयं को बम-बम भोले।।
कहता स
त्य दिनेश,नहीं मुझको है भाया।
होली हे- *होली*
हास और परिहास के,साथ हुआ हुड़दंग।
प्रणय बाद होली प्रथम,हुआ सजन के संग।।
नहीं-नहीं ना नुकुर में,हुआ पुनः स्वीकार।
प्रियतम का अनुनय विनय,होली को तैयार।।
आम्र मंजरी देख कर,महुआ अबकी बार।
होली में मदमस्त हो,चूने को तैयार।।
मतवाला भौंरा हुआ,होली में इस बार।
पुष्प छोड़ करने लगा,कलियों से मनुहार।।
होली खेलन के लिए,बुढ़ऊ भी तैयार।
बुढ़ऊ की हरकत मगर, बुढ़िया रही निहार।
सहमे सहमे से लगे,बुढ़ऊ अबकी बार।
पिछली होली की तरह,पड़े न फिर से मार।।
दिनेश श्रीवास्तव