बुधवार, 31 मार्च 2021

इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है,

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 इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है,

दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है.



बीते मंगलवार को चेन्नई का अधिकतम तापमान 41.3 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया। चेन्नई के लिए यह अधिकतम तापमान ऑल टाइम रिकार्ड है। यानी जब से वेधशाला में तापमान के आंकड़े लिए जा रहे हैं, तब से लेकर आज तक मार्च के महीने का यह सबसे गर्म दिन था। इससे पहले वर्ष 29 मार्च 1953 को अधिकतम तापमान 40.6 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया था, जो कि ऑल टाइम रिकार्ड था। चेन्नई जैसे तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाने के बाद ही हीट वेब या लू की घोषणा की जा सकती है। जबकि, दिल्ली जैसे क्षेत्रों के लिए यह तापमान 40 डिग्री सेल्सियस है। 

इससे पहले, सोमवार 29 मार्च के दिन राजधानी दिल्ली का अधिकतम तापमान 40.1 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया था। मार्च के महीने के लिए यह दूसरा ऑल टाइम रिकार्ड है। इससे पहले 1945 के 31 मार्च को अधिकतम तापमान 40.5 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया था। जो कि ऑल टाइम रिकार्ड है। राजधानी दिल्ली में फरवरी का पिछला महीना भी बेहद गर्म साबित हुआ था। फरवरी महीने का औसत तापमान 27.9 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया था। यह ऐतिहासिक तौर पर दूसरा सबसे गर्म फरवरी का महीना रहा है। इससे पहले वर्ष 2006 के फरवरी महीने का औसत अधिकतम तापमान 29.7 डिग्री सेल्सियस रहा था जो कि ऑलटाइम रिकार्ड है। जबकि, वर्ष 1960 के फरवरी महीने में भी औसत अधिकतम तापमान 27.9 डिग्री सेल्सियस रहा था। 

दिल्ली में इस बार मार्च का महीना बीते 11 सालों में सबसे गर्म साबित हुआ है। मार्च के महीने का औसत अधिकतम तापमान 33.1 डिग्री सेल्सियस रहा। जो कि सामान्य से साढ़े तीन डिग्री ज्यादा है। इससे पहले वर्ष 2010 में औसत अधिकतम तापमान 34.1 डिग्री सेल्सियस रहा था। 29 मार्च का दिन सबसे ज्यादा गरम रहा। इस दिन अधिकतम तापमान सामान्य से आठ डिग्री ज्यादा रहा। होली का दिन होने के चलते लोग खुद को पानी से गीला करते रहे, नहीं तो उन्हें गर्मी का शायद ज्यादा अंदाजा होता।

भारतीय मौसम विभाग ने अगले तीन महीने का भी पूर्वानुमान जारी किया है। इसके मुताबिक अगले तीन महीने के दौरान जम्मू-कश्मीर को छोड़कर उत्तर भारत के पूरे क्षेत्र में तापमान सामान्य से ज्यादा रहेगा। खासतौर पर दिल्ली और हरियाणा में ज्यादा गर्मी रहेगी। यहां का सामान्य 0.62 डिग्री ज्यादा रहने के आसार हैं। 

निश्चित तौर पर कुछ लोगों के लिए उपरोक्त सभी कुछ आंकड़े हैं। लेकिन, ज्यादातर लोगों को इन आंकड़ों की चुभन झेलनी पड़ रही है और झेलनी पड़ेगी। दुनिया भर में ही गर्मी में इजाफा हो रहा है। हिमपात और बरसात के दिन कम हो रहे हैं। ज्यादा पानी कम दिनों में बरस जा रहा है। जो कि अलग मुसीबत पैदा करता है। जबकि, गर्मी वाले दिनों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। 

अगले दस सालों में गर्मी और लू इस दुनिया की बहुत बड़ी समस्याओं में शामिल होने जा रही है। बहुत सारे देश जो लू यानी हीट वेब से नावाकिफ थे, अब वे इसका सामना करने लगे हैं। 

इन सबका कारण क्या है। वही। सिर्फ एक। इंसान की लालच और हवस। 

आप चाहें तो यहां पर इंसान की जगह पर कारपोरेट भी पढ़ सकते हैं...


#जंगलकथा #junglekatha #जंगलमन

केदारनाथ मिश्र प्रभात का खंड-काव्य - कर्ण

 केदारनाथ मिश्र प्रभात का खंड-काव्य कर्ण मैंने लगभग चालीस साल पहले पढ़ा था। पता नहीं क्यों  उसकी ये पंक्तियां पिछले कुछ दिनों से बार-बार याद आ रहीं थीं – 


राजपाट की चाह नहीं है चाह न अपयश पाऊं

जिस पथ पर चलता हूं उसपर आगे बढ़ता जाऊं


मुकेश प्रत्यूष 

 

प्रभातजी की यह कृति जितना हिन्‍दी भाषी प्रदेशों में लोकप्रिय थी उतनी ही अहिन्‍दीभाषी राज्‍यों में  भी । । उनके इस खंड-काव्‍य के नायक महाभारतकालीन पात्र कर्ण  का चरित्र  न जाने कितने  रचनाकारों को लिखने के लिए प्ररित और प्रोत्‍साहित  ही नहीं बल्कि बाध्‍य किया था।  शिवाजी सावंत ने अपनी  औपन्यासिक कृति मृत्‍युंजय में  आभार स्‍वीकार करते हुए  लिखा है - केदारनाथ मिश्र प्रभात का कर्ण खंडकाव्य हिंदी साहित्य का एकमात्र गहना है। मैं कविश्रेष्ठ के एक ही शब्द पर कई-कई महीनों तक विचार करता रहा।  मैंने केदारनाथ जी का कर्ण खंडकाव्य सौ-सौ बार रटा। सुप्त मन में किशोरावस्था से  सोए पड़े अंगराज कर्ण खड़े होकर मेरे जागृत मन पर छा गए थे। बार-बार मेरा अंतर्जगत झकझोरने लगा - तुझे लिखना ही होगा दानवीर, दिग्विजयी, अशरण अंगराज कर्ण पर। 


मैंने सोचा, एक बार फिर से कर्ण  पढूं। प्रभातजी ने यह किताब मुझे दी थी। सभी बुक-सेल्‍फ खंगाल डाले, मिली नहीं।  याद नहीं किसी को दी थी या कई शहरों में सामान लाने-ले जाने के क्रम में कहीं गुम हो गई। नहीं मिली तो पढ़ने की इच्‍छा और भी बलवती हो गई। बाजार में ढूंढा,  नहीं मिली।  कुछ उन दोस्तों, परिचितों  से  चर्चा की जिनके पास इसके होने की संभावना थी।  उन्हीं में से एक ओमप्रकाश जमुआर ने कहा प्रभातजी के बेटे विजयजी, जो प्राय: मुम्‍बई में रहते हैं,  इन दिनों पटना में हैं।  संभव है उनके पास इसकी प्रति हो। उनका मोबाइल नंबर दिया।  विजयजी से मैं कभी मिला नहीं था। जिन दिनों मैं पटना आया प्रभातजी सेवानिवृत्त हो चुके थे। अपने राजेन्द्रनगर वाले घर के बरामदे में बैठे कुछ  लिखते-पढ़ते दिख जाते थे। वहीं मुलाकात-बात हो जाती थी।  फोन करते ही विजयजी ने कहा- हां एक प्रति मेरे पास है,  मैं  आपको पहुंचा दूंगा।  मुझे तुरंत डॉ नंदकिशोर नवल की एक बात याद आई-  जो कोई  ऐसी किताब किसी को दे वह मूर्ख और जो लेकर लौटा दे वह महामूर्ख।  इसके पीछे की घटना यह थी कि  मेरे पास महाकवि निराला  के काव्‍य-संग्रह  अनामिका के प्रथम संस्करण की एक प्रति थी।  हार्ड बाउंड। मैंने उसे बड़ी मुश्किल से एक पुस्तक विक्रेता से प्राप्त किया था   शिवनारायण, जो इन दिनों नई धारा के संपादक हैं, उन दिनों पटना विश्वविद्यालय में विद्यार्थी थे और अक्सर मेरे पास आया करते थे। एक दिन कहा उनके कोर्स में अनामिका है और  उनके पास नहीं है। अगर मैं दे दूं तो वे पढ़कर लौटा देंगे। मैंने सहजता से  उन्हें दे दिया । दूसरे दिन वे उसे  लेकर विश्वविद्यालय गए।  नवलजी निराला पढ़ाते थे।  उन्होंने उनके पास अनामिका की वह प्रति देखी और कहा मुझे एक दिन के लिए दीजिए।  एक विद्यार्थी के लिए अपने प्रोफ़ेसर की बात को ठुकराना थोड़ा मुश्किल होता है। दूसरे दिन नवलजी ने अनामिका के नये संस्‍करण की एक नई प्रति लाकर शिवनारायणजी को दी और कहा वह प्रति आप मेरे पास रहने दें।  शिवनारायणजी दुखी हुए लेकिन कुछ कह नहीं पाए।  मेरे पास आकर यह घटना बताई। नवलजी से मेरे काफी अच्‍छे संबंध  रहे हैं, बाद के दिनों में वे मेरे  शोध-निर्देशक  भी रहे।  मेरी कविता की समझ  काफी हद तक उनके सान्निध्‍य में ही विकसित हुई है मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है।  प्राय: उनके घर आना-जाना रहता था।  मैं उसी दिन नवलजी के घर  गया, पूरी घटना बताई और कहा अनामिका की वह प्रति मेरी है, अनुरोध किया लौटा दें।  नवलजी ने कहा कि जो ऐसी किताबें किसी को दे वह मूर्ख और जो लेकर लौटा दे वह महामूर्ख। मैं आपके पास भी इसे देखता तो किसी तरह ले ही आता। मैं समझ गया  अब यह किताब लौटने से रही। सुदर्शन की कहानी हार की जीत में जो हालत बाबा भारती की हुई थी घोड़ा छीन जाने के बाद लगभग वैसी ही  स्थिति मेरी हो गई।  नवलजी ने बाद के दिनों  में मुझे कई किताबें भेंट की।   शिवनारायणजी ने भी उस वर्ष मेरे जन्मदिन पर नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन भेंट किया लेकिन एक अमूल्य किताब के खोने  का दुख मुझे बराबर रहा। 

खैर,  विजयजी के इस प्रस्ताव पर मुझे लगा यदि किसी कारण से मैं वह इकलौती प्रति नहीं लौटा पाया तो उन्‍हें बहुत पेरशानी हो जाएगी। अरूण कमल ने एक बार कहा था किसी पुस्‍तक की अंतिम प्रति  पंडितजी के शंख की तरह होती है। स्‍वयं से अलग नहीं करना चाहिए। मैंने विजयजी से कहा मूल प्रति  आप किसी भी स्थिति में किसी को नहीं दें,  मुझे भी नहीं।  मैं आकर फोटो-कापी करवा लूंगा।  उनके घर गया उन्होंने फोटो-प्रति करवा ली थी । उसके साथ प्रभात जी की अन्‍य  आधा दर्जन किताबें - कैकयी, प्रलीर ,शुभ्रा,  आदि  जिसकी अतिरिक्‍त प्रतियां उनके पास थी, मुझे दीं। उनके घर के पास रामधारी सिंह दिनकर का घर उदयाचल है। दिनकरजी और प्रभातजी लगभग समकालीन थे। दिनकरजी ने भी अन्‍य कृतियों के अतिरिक्‍त कर्ण के जीवन को आधार बनाकर रश्मिरथी की रचना की थी। पड़ोस में रहने के बावजूद विजयजी को यह नहीं मालूम था कि दिनकरजी के दूसरे पुत्र केदारनाथ सिंह, जो स्‍वयं भी कविताएं लिखते हैं और उनका एक काव्‍य-संग्रह  आंका सूरज बांका सूरज प्रकाशित है, उसमें  रहते हैं । केदार जी मेरे बहुत पुराने अग्रज मित्रों में हैं।  जब मैं राजेंद्र नगर में रहता था तो अक्सर उनसे भेंट हो जाया करती थी।  कोरोना भ्‍य के कारण  पिछले एक  वर्ष से हम दोनों का कहीं आना-जाना नहीं हुआ था।  हम दोनों केदार जी के घर गए।  काफी देर तक बातें होती रहीं।  भाभी (केदार जी की पत्‍नी) ने  चाय पिलाई और हमारी तस्वीर भी उतारी।  


कर्ण लेकर घर आया, पढ़ा।  शिवाजी सामंत की  ये पंक्तियां कहीं दूर नेपथ्‍य में गूंज रही थीं - जब-जब हाड-मांस के जीवित पुतले मृतकों की तरह आचरण करने लगते हैं,  तब-तब मृतकों को जीवित होकर बोलना ही पड़ता है।

पहली सुपर स्टार अभिनेत्री देविका रानी

 30 मार्च को पहली सुपर स्टार अभिनेट्री,पहली पद्मश्री व दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अभिनेत्री/गायिका,दिवंगत देविका रानी जी के 30 मार्च जन्मदिन पर सादर नमन करते है। कुछ दिलचस्प बातें...

1)- *पहली सुपरस्टार अभिनेत्री*

2)- *पहली पद्मश्री से सम्मानित*

3)- *पहला दादासाहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित*

4)- *फ़िल्म इंडस्ट्री का पहला बोल्ड किस 4 मिनट का सीन फ़िल्म कर्मा 1933 में इन्होंने किया था,पति स्व.हिमांशु रॉय के साथ)*

5)- *फ़िल्म इंडस्ट्री की पहली व सबसे सुपरहिट जोड़ी देविका रानी-अशोक कुमार की रही,जिनकी सभी फिल्में सुपर डुपर हिट रही*

6)- *फ़िल्म इंडस्ट्री को दिलीप कुमार जैसे अभिनय सम्राट की प्रतिभा को देखते ही पहचानकर उन्हें पहली फ़िल्म ज्वार भाटा 1944 में काम देने वाली पारखी नज़र की धनी देविका रानी जी ही थी*

7)- *यूसुफ खान को दिलीप कुमार नाम देने वाली अद्भुत देविका रानी ही थी*

८)- *सोवियत रूस से सर्वोच्च सम्मानित अभिनेत्री देविका रानी ही थी*

9)- * शानदार व जानदार अभिनय के साथ साथ सुपरहिट गायिका भी स्व.देविका रानी रही है*

10)- *अनेक राजनेताओं की पहली पसंद देविका रानी रही है*

....देविका रानी जी की फिल्मों से 100+ भूले बिसरे नग़मों की सूची पेश है....


*देविका रानी की फिल्मों से भूले बिसरे नग़मे*

*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

*फ़िल्म-अछूत कन्या 1936*

१)-

मैं बन की चिड़िया बनके,बन बन डोलू रे- *देविका रानी व अशोक कुमार*

२)-

खेत की मूली,बाग़ को आम- *देविका रानी व अशोक कुमार*

३)-

पीर पीर का करत रे,तेरी पीर न जाने कोय- *अशोक कुमार*

४)-

किसे करना मूरख न्याय,तेरा कौन है- *अशोक कुमार*

५)-

उड़ी हवा में जाती है गाती चिड़िया ये राग- *देविका रानी*

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*फ़िल्म-जीवन नैय्या 1935*

६)-

कोई हमदम न रहा- *अशोक कुमार*

७)-

आओ आशा के फूलों,दिल मिल कर झूला झूलों- *देविका रानी*

८)-

ऐरी दैय्या लचक लचक चलत मोहन आवे- *एस एन त्रिपाठी*

९)-

मैं तुम में हूँ,तुम मुझमे हो- *अशोक कुमार*

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*फ़िल्म-जन्म भूमि 1936*

१०)-

जय जय जन्मभूमि,गई रात,आया प्रभात- *अशोक कुमार*

११)-

जय जय प्यारी जन्मभूमी माता- *सरस्वती देवी*

१२)-

माता ने है जन्म दिया जीने के लिए- *देविका रानी*

१३)-

मैंने इक माला गुंधी है- *देविका रानी*

१४)-

मेरे दिल की दुनिया उजड़ गयी- *अशोक कुमार*

१५)-

गाँव की माटी,मात हमारी- *सरस्वती देवी*

१६)-

तुम जो सो हो,मज़ा आएगा मनाने में- *सुनीता देवी व मुमताज़ अली*

१७)-

दुनिया कहती है मुझको पागल,मैं कहती दुनिया को पागल- *सरस्वती देवी*

१८)-

सेवा के हम व्रतधारी,सेवा से नहीं हटेंगे- *अशोक कुमार*

१९)-

ये प्यारी प्यारी पाती,मालूम है किसकी पाती- *देविका रानी*

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*फ़िल्म-सावित्री 1937*

२०)-

सूर्य वही,चंद्र वही,वही जग है- *अशोक कुमार*

२१)-

उठो उठो,बेगी उठो,सजनवा सखा उठो- *देविका रानी*

२२)-

जल भरन आयी गुज़रिया- *अशोक कुमार*

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*फ़िल्म-दुर्गा 1939*

२३)-

नदी पार है आम की बगिया,हरे खेत है बढ़िया बढ़िया- *देविका रानी

२४)-

अब जागो राधा रानी- *देविका रानी*

२५)-

बचपन के मेरे साथी,थाड़े बुलावे री- *देविका रानी*

----- *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----

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भाग-2

*पहली सुपरस्टार स्व.देविका रानी की फ़िल्मो के भूले बिसरे नग़मे*

*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

*फ़िल्म-कर्मा 1933*

२६)-

मेरे हाथों में तेरा हाथ रहे- *देविका रानी*

२७)-

Now the moon light has shed- *देविका रानी*

२८)-

तू ले चल,ले चल रे,सैय्यां मोरे- *देविका रानी*

२९)-

सब कुछ भूले,झूला झूले- *देविका रानी*

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*फ़िल्म-ज्वार भाटा 1944*

३०)-

भूल जाना चाहती हूँ- *पारुल घोष व चितलकर रामचंद्र*

३१)-

साँझ की बेला- *अरुण कुमार*

३२)-

गाओ कबीर,उड़ाओ अबीर- *अनिल विश्वास*

३३)-

भूला भटका,पथ हरा- *मन्नाडे व पारुल घोष*

३४)-

प्रभू चरणों मे दीप जलाओ- *अमीर बाई कर्नाटकी*

३५)-

जलते जुगनू के समान मेरे प्राण- *पारुल घोष*

३६)-

मोरे आँगन में चिटकी चाँदनी- *पारुल घोष*

३७)-

सरसो पीली,धान सुनहले- *अरुण कुमार व पारुल घोष*

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*फ़िल्म-हमारी बात 1943*

३८)-

ऐ बाद-ए-सबा,इठलाती न आ- *पारुल घोष*

३९)-

करवटे बदल रहा है आज सब जहाँ- *अरुण कुमार व सुरैय्या*

४०)-

मैं उनकी बन जाऊँ रे- *पारुल घोष*

४१)-

इंसान क्या जो ठोकरें नसीब की न सह सके- *अनिल विश्वास*

४२)-

बिस्तर बिछा दिया है,तेरे दर के सामने- *सुरैय्या व अरुण कुमार*

४३)-

बादल जा निकल चला- *अनिल विश्वास*

४४)-

सुखी बगिया हरी हुई- *पारुल घोष*

४५)-

वो दिन में घर किये थे- *पारुल घोष*

४६)-

सखी की निग़ाहें शराब है- *सुरैय्या व अरुण कुमार*

४७)-

जीवन जमुना पार मिलेंगे- *अरुण कुमार व सुरैय्या*

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*फ़िल्म-प्रेम कहानी 1937*

४८)-

अँखिया झंपी मोरी- *सरस्वती देवी*

४९)-

था मन मे इक सँसार बसा आश का- *अशोक कुमार*

५०)-

आजा,ख़याल-ए-यार में जलवा जमा ले प्यार का- *अशोक कुमार*

----- *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----

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भाग-3

*स्व.देविका रानी जी की फिल्मों से भूले बिसरे नग़मे*

*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*


*फ़िल्म-प्रेम कहानी 1937*

५१)-

नदी किनारे,खड़ी सोचती क्या? - *अशोक कुमार व सरस्वती देवी*

५२)-

बरखा आय गयी,चलेंगे चाँदनी काहे- *सरस्वती देवी*

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*फ़िल्म-निर्मला 1938*

५३)-

दुख सुख का है नित का नाता- *अरुण कुमार व देविका रानी*

५४)-

बोलो सजनी बोलो,चँदा को देखूँ क्यूँ- *अशोक कुमार व देविका रानी*

५५)-

चलता रहे सागर भी,भरता रहे पैमाना- *अरुण कुमार*

५६)-

कोई क्या जाने घायल मन की पीर- *देविका रानी*

५७)-

तुम और मैं,और मुन्ना प्यारा- *अरुण कुमार व देविका रानी*

५८)-

आरे निनी आरे निनी,आजा री निंदियाँ- *देविका रानी व मीरा*

५९)-

एक हार,इसलिए कि तुम अनुपम रूपवती हो- *देविका रानी*

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*फ़िल्म-वचन 1938*

६०)-

बन की ये चिड़िया,बनी अब पिंजरे की मैना- *देविका रानी व मीरा*

६१)-

नवल नवेली नारी हम कुँवारी बड़ी- *देविका रानी,मीरा,ललिता व विमला कुमारी*

६२)-

फूलों तुम,आज खुशी से फूलों- *अशोक कुमार*

६३)-

आ रे,पँछी,प्यारे पँछी- *देविका रानी*

६४)-

बैसाख जेठ फ़ागुन- *अशोक कुमार*

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*फ़िल्म-जवानी की हवा 1935*

६५)-

अँखिया मोरी रैन की जागी,गुंध रही अँसुवन के धागे- *देविका रानी*

६६)-

एक बात तुम्हे बताता हूँ,मैं मरने से घबराता हूँ- *अशोक कुमार*

६७)-

इश्क़ की मंज़िल,सरल हरदम नहीं- *अशोक कुमार*

६८)-

जो जोरू तेरी,खूबसूरत,खुश अदा है- *अशोक कुमार*

६९)-

मेरे दिल का कंवल,कमल तुम हो- *अशोक कुमार*

७०)-

क्या कहे तुमसे मियाँ,इश्क़ में क्या होता है- *अशोक कुमार*

७१)-

मैं मिल जाऊँ तुझे,यही जुस्तजू है- *देविका रानी*

७२)-

सखी री मोहे,प्रेम को सार बता दें- *देविका रानी*

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*फ़िल्म-वचन 1938*

७३)-

दोनों परे है,हासिल क्या- *अशोक कुमार*

७४)-

णमो णमो है वीर णमो- *देविका रानी*

७५)-

जानू तोरे साजन का घटिया तौर रे- *देविका रानी व मीरा*

----- *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----

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भाग-4

*स्व.देविका रानी जी के फिल्मो से भूले बिसरे नग़मे*

*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

*फ़िल्म-इज्ज़त 1937*

७६)-

भरते हो मोहे नीर- *अशोक कुमार व देविका रानी*

७७)-

कित जाओगे कन्हैया,मन के बसिया- *देविका रानी*

७८)-

नगरी लागे सुनी सुनी,जब से गये साँवरिया- *देविका रानी*

७९)-

मतवाले नैनो वाली,घुँघराले बालो वाला- *अशोक कुमार व देविका रानी*

८०)-

प्रेम डोर में बांधे हमे,कित चले गए गिरधारी- *मुमताज़ अली व सुनीता देवी*

८१)-

विद्या आवन कह गए जाओ रे- *मुमताज़ अली व सुनीता देवी*

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*फ़िल्म-जीवन प्रभात 1937*

८२)-

होरी आई रे कान्हा,बृज के बसिया- *सरस्वती देवी*

८३)-

मेरे ललना,झूले पालना- *सरस्वती देवी*

८४)-

बने चाँदनी सा पलना,झूले चँदा सा ललना- *देविका रानी*

८५)-

तुम मेरी,तुम मेरे सजना- *देविका रानी व बलवंत सिंघ*

८६)-

चल चलते चल,बाद-ए-सबा  *देविका रानी*

८७)-

चले थे वो दुश्मन-ए-जान,क्या कहने- *देविका रानी व बलवंत सिंह*

८८)-

उन मोटर वालों के यहाँ,म्हारी उमा दीदी,ब्याही जाएगी- *देविका रानी व बलवंत सिंह*

८९)-

मुझे पहचानते हो,हाँ,मुझे जानते हो, हाँ- *देविका रानी व बलवंत सिंह*

९०)-

क्यों जनम दिया भगवान गर ये रोके मरना था मुझे- *देविका रानी*

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*फ़िल्म-अनजान 1941*

९१)-

प्यारे प्यारे सपने हमारे- *देविका रानी*

९२)-

खींचो कमान खींचो- *अशोक कुमार,सुरेश व रेवाशंकर*

९३)-

आयी पश्चिम से घटा- *देविका रानी*

९४)-

छलके छलके ना रस की गगरिया- *राजकुमारी*

९५)-

मैं तो तुमसे बंधी रहूँ- *देविका रानी*

९६)-

मेरे जीवन पथ पर,पूनम की चाँदनी- *देविका रानी व अशोक कुमार*

९७)-

साँवरिया साँवरिया- *अरुण कुमार व सुशीला*

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*फ़िल्म-ममता और मियाँ बीवी 1936*

९८)-

का जानू,काहू की घात सखी- *सरस्वती देवी*

९९)-

नहीं बीवी से कह छुपाया- *सरस्वती देवी*

१००)-

मैं रसिया रस चोर- *सरस्वती देवी*

१०१)-

प्यारी मैं भँवरा तू फूल- *सरस्वती देवी*

१०२)-

कहो जिंदा हूँ मैं या कि मर गयी- *सरस्वती देवी*

१०३)-

प्यारी तोरी प्रीत मधुर- *सरस्वती देवी*

----- *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----

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सोनल 1975

 " सोनल (1973)" -भूली बिसरी/ अनजानी सी फिल्म


कई ऐसी फिल्म्स बनती है, तैयार होकर बाजार में आ जाती हैं , फ़िल्म वितरण संस्थाएं प्रदर्शन हेतु क्रय कर लेती है । किन्तु थिएटर में प्रदर्शित न हो पाती है ।

चाहे कितनी भी प्रतिष्ठित वितरण संस्था क्यों न हो ,फ़िल्म प्रदर्शक अपने आर्थिक व थिएटर की प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखता है ।सम्मानीय फ़िल्म प्रदर्शक तो क्या रिपीट रन फ़िल्म प्रदर्शित करने वाले सिनेमा हॉल के प्रबंधक भी इन्हें डेट्स नहीं देते ।

सो दर्शक वंचित रह जाते हैं इन फिल्मों को देखने से ।

ऐसी ही फिल्मों में मेरी स्मृति में बासु भट्टाचार्य की अपने निर्माण संस्था की पहली  फ़िल्म 'उसकी कहानी'('66) अभिनय किया अंजू महेंद्रू और तरुण घोष । इन दोनों कलाकारों की यह प्रथम कृति भी थी ।इस फ़िल्म में दो गीत थे संगीत कनु रॉय और गीत लिखे कैफ़ी आज़मी ।इसका गीता दत्त का गाया गीत  ' आज की काली घटा मस्त मतवाली घटा ', लोकप्रिय हुआ मित्रों ने अवश्य सुना होगा।

किशोर साहू की फ़िल्म धुएं की लकीर('74) जो परवीन बॉबी की पहली फ़िल्म थी और नितिन मुकेश व वाणी जयराम की आवाज़ वाला मधुर गीत 'तेरी झील सी गहरी आंखों में' बहुत बजा ,  फ़िल्म सोनल('73) भी इसी श्रेणी में रहीं।

इसके अलावा कई चलचित्र हैं ही ।


आज मित्रों के साथ अनजानी सी फ़िल्म 'सोनल' की चर्चा । यह फ़िल्म वर्ष 1973 में प्रदर्शित हुई ।

ए के प्रोडक्शन की इस फ़िल्म के निर्माता अमृत शाह व कांति पटेल ।निर्देशक प्रभात मुखर्जी।

अभिनय किया मल्लिका साराभाई, जतीन, इफ्तिखार, जागीरदार,गुरनाम और सोना ।


विशेष बात है कि महान गायक 

मन्ना डे ने इसका संगीत तैयार किया ।पूर्व में श्री गणेश जन्म('51),चमकी

('52), शुक रंभा('53),गौरी पूजा('56),नाग चंपा('58) जैसी फिल्मों में संगीत दे चुके थे ।इस फ़िल्म में मन्ना डे ने एक लंबे अंतराल पश्चात संगीत दिया ।संगीत भी पिछली फिल्मों में दिए गए संगीत से अलग । नए युग की पहचान वाला ।

फ़िल्म में चार गीत हैं ।आवाजें हैं स्वयं मन्ना डे के अलावा लता मंगेशकर, उषा मंगेशकर व उषा रेगे की। गीत योगेश के ।

फ़िल्म में आधुनिक संगीत का प्रयोग  किया।

लाता मंगेशकर की आवाज़ में ताज़गी भरा गीत'ये महका मौसम और ये तन्हाई' की लय में आकर्षण है । अपने समय ये गीत रेडियो में बजा भी । 'हल्का हल्का छलका छलका' (लता) में गिटार की कॉर्ड्स(Chords) व बांसुरी का प्रयोग किया, जो गीत को गुनगुनाने, के लिए मजबूर कर देता है। दो और गीत भी हैं जो साधारण हैं। गीतों पर सलिल चौधरी की शैली का प्रभाव स्पष्ट झलकता है । 

सभी गीत यूट्यूब पर उपलब्ध है, कम से कम आज के उबाऊ गीतों से ठीक ही नहीं सुपीरियर हैं ।

निर्देशन प्रभात मुख़र्जी बांग्ला फिल्मों के प्रसिद्ध निर्देशक रहे ।हिंदी में उनके द्वारा निर्देशित फिल्म रत्नदीप(1979) उल्लेखनीय रही जिनमें अभिनय किया हेमा मालिनी, गिरीश कर्नाड में ।

शास्त्रीय नृत्यांगना व पद्मविभूषण प्राप्त मल्लिका साराभाई की यह प्रथम फ़िल्म थी ।इसके पश्चात हिमालय से ऊंचा('86) और शीशा ('86) में भी मुख्य अभिनेत्री रहीं ।


कई गीत मधुर होने के बाद भी लोकप्रिय न हो पाते हैं । शायद संगीत कम्पनियों द्वारा समुचित प्रोत्साहन न मिलना भी कारण रहता हो। इस फ़िल्म के साथ भी ऐसा ही हुआ ।

खैर कोई भी कारण रहे हो किन्तु यदि इन गीतों को फुरसत में सुना जाए तो आनंद देंगे ।

फ़िल्म की बुकलेट स्कैन कर लगा रहा हूँ।

कोमेडियन वी. गोपाल

 वी. गोपाल...

भारतिय फिल्मों मे  बहुत सारे कोमेडियन दिखाइ दिये...इस मे  एक कम सुना नाम  वी. गोपाल का भी हे..


होशियारपुर कोलेज मे वी. गोपाल पढते थे..उसे पढाइ से ज्यादा राग रंग और  तबला बजाने का शौक था.. पढाइ के वकत कोलेज के कलास रूम मे डेस्क को तबला  समजकर बजाते थे और प़ोफेसर  उसे कलास रूम से निकाल भी देते थे..!!


बाद मे वी.गोपाल सन 1953 मे बंबई  आये और एक फिल्म कंपनी मे उसे प़ोडकशन कंटो़लर का काम मिल गया..

उस वकत एक फिल्म बन रही थी...शाही महेमान...! फिल्म के हिरो थे  रंजन...फिल्म  की शुटिंग हो  रही थी..एक कलाकार शाही ओहदेदार का रोल कर रहा था...वह ठीक तरह से डायलोग बोल नहि पा रहे थे.  संजोग से.उस कलाकार को हटाकर वी. गोपाल   को रोल दिया गया...और वी. गोपाल ने एक ही शोट मे पुरे डायलोग   बोल दिये.. !!


लेकिन बाद मे वी. गोपाल को कोइ फिल्मे मिली नहि...


काफी अरसे के बाद वी. गोपाल को अहम भुमिका वाली एक पंजाबी फिल्म जीजा जी  मिली..बाद मे वी. गोपाल ने अनेक पंजाबी फिल्मो मे काम किया.. एक पंजाबी फिल्म नीम हकीम का निर्माण भी किया.  फिल्म सफल नहि हुइ..!


सुना हे दिलीपकुमार साहब ने वी. गोपाल को फिल्म  बैराग  के लिये एक खास रोल  देकर बुलाया था..!

फि ल्म दो जासुस मे  वी. गोपाल ने  राज कपुर के साथ भी काम किया  था. 

वी. गोपाल ने करिब 95 फिल्मों मे काम किया.. जहोनी मेरा नाम...विकटोरिया नं.203 जीवन मृत्यु ..हमजोली. संजोग   रूप तेरा मस्ताना  आखों आखो मे तेरे मेरे सपने  नया जमानाजैसी फिल्मो मे वह दिखाइ दिये थे.


पिछली सालों मे  वी. गोपाल को फिल्मो बहुत   सारा काम मिल रहा था..  लेकिन  18 फरबरी 1976 के रोज दिल का दोरा पडने से  वी. गोपाल का देहांत  हो गया..!!

मंगलवार, 30 मार्च 2021

लॉक डाउन का चेहरा

 लॉक डाउन के साइड इफेक्ट्स- 2 /:डा.. मधुकर तिवारी


कोरोना का हर दिन रूप डरावना होता जा रहा है। दिल दहल जा रहा है। क्या होगा अभी भारत मे। सरकार के कदम संतोष जनक है। 21 दिन में दो दिन बीत गए । पूरा देश कैद है। यह कैद देशहित के लिए है। हर कोई टीवी चैनलों पर नजर गड़ाए बैठा है। कितने कोरोना के केश आज देश मे बढ़े ? बढ़ती हुई संख्या से हर कोई भविष्य के संकट को लेकर भयभीत है। अब क्या होगा इस देश का?


कोरोना महामारी ने जो कुछ किया वह भारत की गरीब मध्यम और अमीर वर्ग  के जनता के जेहन में हमेशा के लिए जिंदा रहेगा। देश भर से एक दुखद तस्वीर सामने आ रही है। हर बड़े महानगर से पलायन की। मुंबई दिल्ली कोलकाता जैसे  महानगरों से लाखों गरीब दिहाड़ी मजदूर वर्ग अपने अपने परिवार व मित्रों के साथ पैदल पलायन कर चुका है। लाकडाउन ने हर आवागमन को बाधित कर दिया है। छोटे छोटे बच्चों को गोद मे लिए माँ बाप कामभर के समान का बोझा लिए अपने अपने गाँव को पैदल ही चल दिये है। भूखे प्यासे यह वर्ग शरीर में बची ऊर्जा भर कई किलोमीटर हर रोज चल रहे हैं। हाईवे रोड वीरान है। पर पैदल चलने वाले ये लोग ही दिख रहे हैं। उनके साथ चले बच्चे कभी माँ के तो कभी बाप के गोद में तो कभी पैदल कदमताल मिला कर साथ दे रहे। कोरोना के प्रकोप के बाद देश की यह एक बेहद ही मार्मिक तस्वीर सामने आई है। इन मासूम बच्चों को कोरोना की भयानक रूप का अंदाजा नही है। बस अपने माँ बाप के चेहरे पर व्याप्त भय और परेशानी  को देख कुछ अनहोनी की आशंका का अंदाजा लगा ले रहे हैं। रास्ते मे हर बाजार दुकान ढाबा बंद मिल रहा है। माहौल में व्याप्त सन्नाटा भी उनके भय को बढ़ाने में सहयोग कर देता है। रास्ते की रिहायशी बस्तियों के बाशिंदे अदृश्य वायरस कोरोना के फैलने के भय से इन सब के सहयोग से पल्ला झाड़ते नजर आ रहे हैं। ये बाशिन्दे बस झुंड के झुंड सड़को पर पैदल भागते लोगों को दूर से देख रहे हैं। 


यह गजब का भयावह नजारा देखने को मिल रहा है। इस बात की कल्पना शायद कभी भी न रही होगी कि यह दिन भी यह विकासशील देश देखेगा। जिस देश ने अरबों के राफेल की डील पर आरोप प्रत्यारोप का नजारा देखा। चंद्रयान भेजने की वैज्ञानिकता को इस देश के लोग अनुभव किये। बुलेट ट्रेन चलाने का संकल्प इसी देश ने लिया है। आज राफेल बुलेट ट्रेन चंद्रयान जैसे विषय को एक सूक्ष्म वायरस की विभीषिका ने नेपथ्य में फेंक दिया है। उस वायरस को राफेल से भी नही मार सकते। उसके डर से भागने के बुलेट ट्रेन भी काम नही आएगी। चंद्रयान उसका कुछ विगाड़ भी नही पायेगा। 


आज उस देश का नागरिक खतरनाक वैश्विक वायरस के चलते सड़को पर पैदल यात्रा करने को मजबूर हैं। करोड़ो नागरिक घर मे कैद है। इन पैदल चल रहे लोगो को कही प्रशासन तो कही पुलिस के जवान कुछ संस्था स्वयंसेवक खाने का पैकेट देकर एक सुखद मानवीय संवेदना का परिचय दे रहे है। बड़े महानगरों से यह पलायन जारी है। कुछ अनहोनी हो जाने के डर को दिल मे लिए यह मजदूर अपने घर देहरी तक हर हाल में पैदल ही पहुँच जाना चाहते है। उन्हें विश्वास है कि अपने घर पहुंच कर ही वो सुरक्षित रह सकते हैं। 


सरकार और प्रशासन कर भी क्या सकता है। उसे देश के करोड़ों नागरिकों को बचाने के लिये लागू लाकडाउन का पालन कराने की मजबूरी है। महानगरों से पलायन किये ये मजदूर सड़क पर अभी भी पैदल चल रहे हैं। अभी शायद कोई अपने मंजिल तक पहुंचा भी नही होगा। ये जहाँ जगह पा रहे हैं सुस्ता ले रहे हैं। रात काट लें रहे हैं। फिर सुबह अपने मंजिल को निकल ले रहे हैं। कुछ मीडिया के लोग इस तस्वीरों को कैमरे में कैद कर कवरेज भी दे रहे हैं।


महानगरों से पलायन करने की इनकी अपनी मजबूरी है। फर्म फैक्ट्री जहाँ ये काम करते थे। वो बन्द हो गए है। मजदूरी वेतन के नाम पर जो रुपए मिले होंगे वो इनके रास्ते मे ही खर्च हो जाएंगे। मालिकों ने इस कठिन दौर में इनको जो कुछ दिया होगा वह इनके लिए नाकाफी साबित होगा। दुखद तो यह है कि ये इस कठिन समय मे अपने परिवार से कट गए है। मोबाइल डिस्चार्ज हो गए है। चार्जिंग के सारे विकल्प बन्द है। कुछ के बीबी बच्चे गाँव मे उनके आने का इंतजार कर रहे हैं। लाखों गाँवो में चूल्हे नही जल रहे। इन मजदूरों के परिवार के लोग पैदल चलने की सूचना पाकर अनहोनी की चिंता में खाना पीना छोड़कर पहुच जाने का इंतजार कर रहे हैं। सड़कों पर चल रहे ये मजदूर अपने जिला जवार गाँव पड़ोसी का झुंड बना चुके है। चलते जा रहे हैं कब कैसे कितने दिन में ये पहुचेंगे यह भविष्य के गर्भ में है।


अभी तो इन मजदूरों को दूसरी लड़ाई अपने गाँव कस्बे में भी लड़नी होगी। जब खबर आग की तरह फैलेगी की मुंबई से दिल्ली से और सूरत से कई और शहर से झुंड में लोग गाँव आये है। इनके पास न जाओ कही कोरोना का वायरस न लेकर आये हो। इनके ऊपर गाँव का दबाव बनेगा कि कोरोना का टेस्ट कराओ। उसकी तो शामत आ जायेगी जिसे जरा से मौसम बदलने के चलते बुखार सर्दी होगी। लोग उसे तो प्रशासन के हवाले भी कर देंगे। ये बेचारे मजदूर अभी तो एक लड़ाई गाँव तक पहुंचने की लड़ रहे हैं। दूसरी लड़ाई इनको गाँव के कोरोना का निगेटिव साबित करने की लड़ना होगा।


हमारे देश के तेजस्वी नेतृत्व को इस बारे कुछ फैसला लेना चाहिए। सब कुछ रुका हुआ है। जब हम अपने विदेश में रह रहे उन नागरिकों को कोरोना प्रभावित देशों से  हवाई जहाज से लाद कर अपने वतन ला सकते हैं। तो जो बेचारे अपने देश मे एक जगह से दूसरे जगह जाने की चाह रखते है। उनको कोरोना के बचाव के सुरक्षित उपाय कर उनके गांव घर तक पहुंचने की व्यवस्था तो कर ही सकते है। क्यो उनको सड़कों पर बिलबिलाते हुए छोड़कर एक तमाशबीन बने है। विकट संकट का दौर है यह मजदूर वर्ग हमारे देश के विकास में एक बड़ी भूमिका रखता है। आज वह सड़क पर पैदल सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा के लिए भूखे प्यासे चलते हुए जा रहा है। उसके लिए कुछ नही किया जा सकता क्या ?


चलते चलते एक सुखद खबर, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ट्वीटर से मिली है कि वह उत्तराखंड और बिहार के रोड पर फंसे मजदूरों को सुरक्षित घर पहुचाने के लिए मदद करने का काम करेंगे। धन्यवाद प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसने दुनिया का ध्यान इस विषय पर दिलाया।

नवरत्न : क्या सच क्या झूठ

🙏👌 अकबर के नवरत्नों की कहानी का सच */ प्रस्तुति -:कृष्ण मेहता 


अकबर के नौरत्नों से इतिहास भर दिया, पर महाराजा विक्रमादित्य के नवरत्नों की कोई चर्चा पाठ्यपुस्तकों में नहीं है !

जबकि सत्य यह है कि अकबर को महान सिद्ध करने के लिए महाराजा विक्रमादित्य की नकल करके कुछ धूर्तों ने इतिहास में लिख दिया कि अकबर के भी नौ रत्न थे ।


राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों को जानने का प्रयास करते हैं ...


राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों के विषय में बहुत कुछ पढ़ा-देखा जाता है। लेकिन बहुत ही कम लोग ये जानते हैं कि आखिर ये नवरत्न थे कौन-कौन।


राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था। चलिए जानते हैं कौन थे।


ये हैं नवरत्न –


1–धन्वन्तरि-

नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है।


2–क्षपणक-

जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे।

इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।

इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।


3–अमरसिंह-

ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।


4–शंकु –

इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है।


5–वेतालभट्ट –

विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।


6–घटखर्पर –

जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है। मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया।


इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है।

इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।


7–कालिदास –

ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया।


जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।


8–वराहमिहिर –

भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘, सुर्यसिद्धांत, ‘बृहस्पति संहिता’, ‘पंचसिद्धान्ती’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’, ‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’, आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है।


9–वररुचि-


कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।

इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-

1.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,

2.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि

3.सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि

सोमवार, 29 मार्च 2021

होली का अपना कोई रंग नहीं होता/ सुरेंद्र सिंघल

 होली का अपना कोई रंग नहीं होता/ सुरेन्द्र सिंघल 


😃🙃😝😝😇😀😃😃😃😃😄😁🙂🙃🙃

होली का अपना कोई रंग नहीं होता

 हवा में लटकी हुई 

बादलों की बूंदों से

 होकर गुजरती है जब रोशनी

 खिलखिलाने लगता है आकाश में

 सतरंगा फूल रोशनी का 

रोशनी का अपना कोई रंग नहीं होता

 यूं तो

जिंदगी का भी नहीं होता है कोई रंग

 आंसू और मुस्कान बना देते हैं उसे विविध रंगी

वैसे होली का भी कोई रंग नहीं होता

सराबोर हो जाती है होली 

रंगों से 

गले मिलते हैं जब 

पंडित राधेश्याम 

लाला अमीर चंद 

दीनू मोची

 जान मेसी 

फखरुद्दीन 

कसकर

 इतना कसकर

 नहीं गुजर पाती इनके बीच से

 जहरीली हवा 

जाति मजहब या पैसे की

रंग छिटकने लगते हैं होली में 

आंखें करने लगती है बातें 

आंखों से 

उंगलियां सुनने लगती हैं

संगीत जिस्मो का 

कुलांचे भरने लगता है पैरों में 

फागुन का हिरन 

थिरकने लगती है होठों पर

 बांसुरी मोहब्बत की 

खिलने लगते हैं देह पर 

टेसू के फूल 

गालों पर उग आते हैं 

पीले , काले, लाल गुलाब 

होली भीज जाती है 

सर से पैर तक

 अनगिनत रंगों से 

होली का अपना कोई रंग नहीं होता


                                सुरेंद्र सिंघल


             अब कि जब


अब कि जब रंग बन चुके हैं जिंस 

और मंडी में उतर आए हैं 

बोलियां खुद लगा रहे अपनी 

अब कि जब रंग हो चुके अश्लील

 और बेशर्म मॉडलों की तरह

 रैंप पर कैटवॉक करते हैं 

अब कि जब रंग बन चुके खूनी

और मजहब का ओढ़कर चोला

खौफ की ही जुबान बोलते हैं 

आज होली है 

अपने गालों पर 

मेरे हाथों को रंग मलने दे 

रंग मंडी से निकल आएंगे

 रंग हो जाएंगे पवित्र बहुत 

तेरी आंखों में हया है जैसे 

रंग हाथों से छोड़कर हथियार

 अपने होठों से करेंगे बौछार 

चुम्बनो की 

चिपक जो जाएंगे तेरे होठों पर

 मोहब्बत बन कर

और रंगीन मिजाज ये रंग

 तेरा चेहरा गुलाब कर देंगे


सभी को होली की रंगीन शुभकामनाएं

                                 सुरेंद्र सिंघल

रविवार, 28 मार्च 2021

होली का नाम मन में आते ही,

 जीवन में उल्लास भरती होली 


होली का नाम मन में आते ही,

मन प्रफुल्लित हो जाता है,

होली मिलने - मिलाने का त्यौहार है, 

बिछुड़े को फिर से मिला देती  है ।


होली दिल में उमंग पैदा करती है ,

होली जीने की कला बताती है,

आनंद की नई राह दिखाती है,

जीवन को बहार लाती है ।


होली रंग के महत्व को बताती है ,

गिले शिकवे को दूर भगाती है,

नफरत को मिटाती है,

प्रेम का पाठ पढ़ाती है।


होली रिश्ते में नया रंग भरती है,

होली दिलो-दिमाग को फ्रेश बना देती है, 

होली देवर भाभी को करीब लाती है,

जीवन में उल्लास भरती है।


होली दुश्मनी को दोस्ती में बदल देती है,

मिलजुल कर रहने का पाठ पढ़ाती है,

सद्भावना का संदेश देती है,

भेदभाव को मिटाती है ।


प्रेमी प्रेमिकाओं को मिलने का अवसर देती है,

ठिठोली करने का सौगात लाती है,

रिश्ते को गाढ़ा बनती है,

दिलों के भेद को मिटाती है ।


होली शत्रुता को खत्म कर,

मित्रता की राह दिखाती है,

वसंत की महक भी संग लाती है,

जीवन को खुशियों से भर देती है।


 मां - बाप के पैर छूने का,

 एक अवसर देती है ,

 घर के कुल देवी - देवताओं के,

 पूजन का एक अवसर प्रदान करती है।

 

 होली नए-नए पकवानों के साथ,

 जीवन में खुशियों का रंग भर देती है,

 पति पत्नी के रिश्ते को मधुर बना देती है,

 दोस्तों को और करीब ला देती है ।

 

 होली रंगों के बहाने,

 एक दूसरे के दिल में प्रवेश कर जाती है ,

 होली बीते साल को विदाई देती है ,

 नए साल में प्रवेश का दस्तक देती है ।

 

होली सबके चेहरों पर,

मुस्कान ला देती है ,

लोग साल भर कहीं भी रहे ,

होली गांव - घर पहुंचा देती है।


होली पीने - पिलाने का अवसर देती है,

सड़कों पर नाचने का  अवसर देती है,

मित्रों के संग इधर-उधर ,

मटरगश्ती का भी अवसर देती है ।


फटे - पुराने कपड़ों की बहार आ जाती है,

होली बुढ़ो को भी देवर बना देती है,

भांग अपने विभिन्न रूपों में,

सर चढ़कर बोलती है।


होली पर मिलन समारोह के आयोजन होते हैैं,

चारों ओर रंगों की बहार होती है,

काव्य सम्मेलनों में ,

गीत और कविताओं की बहार होती है।


होली पर भांग धतूरों की बाहर होती है,

होली साल संवत सुखमय होने की,

आशीर्वाद देती है,

मिलजुल कर रहने की सीख देती है।


होली नए पुराने दोस्तों को  मिलाती है,

होली बचपन की  याद दिला देती है,

होली मुस्कुराहट की राज बताती है,

नेक और एक बनो की सीख देती है।


होली अपनों की याद दिला देती है,

होली मर्म को छूती है,

होली संवेदना से भरपूर होती है,

आंखों में मिलन के आंसू ला देती है ।


 होली गीत संगीत और रंगो को,

 एक नया अर्थ देती है ,

 अमीर -गरीब , छोटे- बड़े को ,

 एक बना देती है।


होली समरसता का दीप जलाती है ,

अखंड भारत की राह दिखाती है ,

जाति ,धर्म से मुक्त,

एक भारत की राह दिखाती है ।


एक बनो, नेक बनो की बात बताती है ,

मिलजुल कर रहने की सीख देती है,

होली  हर साल होली आती है ,

कुछ ना कुछ नई सौगात लाती है।


विजय केसरी,

(कथाकार / स्तंभकार).

पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301.

मोबाइल नंबर - 92347 99550.

शनिवार, 27 मार्च 2021

अर्चना श्रीवास्तव की कुछ कविताएं

भारतीय होने के बावजूद पिछले एक दशक से मलेशिया मे रह रही अर्चना साहित्य सृजन कर रही है. वहां के भारतीय और मलेशिया के लेखकों के बीच सक्रिय है. हिंदी साहित्य के प्रति इनके प्रेम उत्साह का ही नतीजा है की इनलोगो ने एक साहित्यिक संगठन बनाकर हर महीने सब मिलते है और अपने लेखन को आपस मे साझा करते है.. मेरे निवेदन पर आरा बिहार की रहने वाली अर्चना ने अपनी कविताएं भेजी है. उन्होंने वहां के सक्रिय सभी लेखकों कवियों की रचनाएँ भी लगातार भेजते रहने का वादा भी किया है.🙏✌️👌



कविता----  (१)


---'तपस्या'


●•••●•••●••••●•••●


तपस्या से तपस्वी, साधना से साधक


है ऊंच कोटि के मुहावरे जो 


आज भी प्रासंगिक है


कल भी दैत्य-दानवों के विरुद्ध


 अडिग-शाश्वत होने का छिडा


 एकल अभियान था


आज  भी अंत-बाह्य उपस्थित, 


संकट एकसमान है


सांस्कृतिक अतिक्रमण का 


मौजूद अभेद्य-घातक हथियार हैं


लालच, भय,दबाव के डंक मारता बाजारवाद है


भीड से तन्हाई तक


वैमनस्य से प्रेम तक


स्वार्थ से परमार्थ तक


प्रगतिशीलता से पारंपारिकता तक


सत्य-मिथ्या और न्याय-अन्याय के बीच मचा


निरंतर अंदरुनी कोहराम है


गली-मुहल्ले मे ठनी प्रतिस्पर्धा का गलाफांस है


 है चुनौती अति गंभीर तमाम 


द्वंद-हामला के मध्य 


 संकल्पित रह अचल-अटल ,


एकाग्र कर्मयोगी हो ....


---------------------------------------------------



((2))



--"'इतिहास"'


*°°°°°°°’°°°°°°°°°°°°°°°°°*



कबतक ढोयेंगे अतीत के काले-कलंकित खंडों को

छल-प्रपंच के भ्रामक तथ्यों और निरर्थक दांवों को

आओ मिलकर पुनः पडताल करें

अपने कुंठा और ग्लानि की आहूति देकर

स्वाभिमान की उज्ज्वल अवधारणा वरण कर

स्वर्णिम इतिहास का पुनुरूत्थान-नवनिर्माण करें....।


•••••••••••••••••••••••••••

 कहानियां-जीवनियाँ वहीं ग्राह्य-माननीय हैं

जो देशप्रेम-मातृभूमि के लिए समर्पण सीखाये

अपने विरासत और धरोहर का संरक्षक बनाये

सनातनी संस्कृति-परंपरा और मानकों पर टिककर

देश के उपलब्धियों के नित्य नये कीर्तिमान सजायें

•••••••••••••••••••••••••••••

 

जिन पन्नों से क्रुरता-वहशीपन का विवरण पडा 

तानाशाही के रक्तरंजित विभत्स चित्रण भरा

प्रण करें उन्हें मिटाने के अपने स्मृतियों से

मानवता के मुख के कालिख ,शर्मनाक तारीखों कों

जिन्हें पुनः दुहराने की न कोई साजिश करे..

•••••••••••••••••••••••••••••


वेद-पुराण, रामायण-उपनिषद का ज्ञान

सृष्टि के संपूर्ण जन-जीवन का कल्याण भाव

बुद्ध, कृष्ण, राम,नानक, तुलसी की अमृत वाणी

मानवीय गरीमा-अस्मिता को पुनर्जीवित दान

वीर योद्धाओं-विभूतियों की अमरगाथाएँ मात्र

अनुकरणीय और अनुसरणीय बने... निर्धारित हो...


$*******************************$


         ((3))


#कविता


-दर्द की एक नदी थमी है


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'दर्द की एक नदी थमी है'...इससे बेहतर

 क्या परिभाषित होगी

 एक स्त्री ..नदी ही तो है ...


जिसकी मंजिल बस सफर है

औरों के लिए निरंतर क्रियाशील

  हरपल  प्रवाहित....


ईश्वर ने स्वयं नदियाँ  नारी-स्वरूप में रची

गंगा,जमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी 

उतंग शिखर से उतरकर नीचे सबके लिए...


निर्झर, भव्य, आक्रामक तंरंगित-बौछारों को

खुबसूरती से ,सलीके से धाराओं मे  समेटकर...

संपूर्ण बिडम्बनाओं से बेपरवाह


जिस ओर  संपूर्ण, भव्यता से,एकनिष्ठ  बही..

स्नेह, करूणा की अतुल्य जलराशि से सींचित किया कण-प्राण अपने अहं की आहुति देकर..


खुद स्वेच्छा से हर्षित छोटी धाराओं को जनमीं

फिर हरबार लोग अपने दंभ,

क्षुद्र स्वार्थ और सुविधा से

इसकी धाराओं को कांटा-मोडा

बांधा मनमाने रूप में

दर्द-चुभन के अपमानित

चट्टानों से पाटा-रोका अभिसप्त कर

ओजस-स्वयंभू  बहावों को....


●••••••••••••••••••••••••••••••••••●


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((3))


 "जिन्दगी"


*•••••••••••••••••••••••••••••••••*


कुछ कही, कुछ अनकही  दास्तां 

है ---ये जीवन-डगर

टुकडों में बटे एहसास, कुछ वहां पनपे ,

कुछ घटे यही

चाहतों की बेजोड़ उधेडबुन 

मजबूरियों की अपनी सियासत

हर वक्त एक नजर की तलाश जारी

जिन्दगी का अक्स उभर आये जिसमें...


उम्र की आडी-तिरछी पगडंडियों पर

कभी मासूमियत से खुद को तैनात किया राहों में

तब इसके वहशी अधरों ने

निचोड लिया मेरी निश्छलता-भोलापन

लडखडाती आवाक्.. 

मैं खडी रही  

  पथराई ..स्तब्ध--


गुजरती गई मेरे सामने

उलटी-पलटी दुनिया की अजीब तसवीरें

सहसा गुजरती हवा की कहानी ,बदलते फिजा की जुबानी

आविष्कार, खोजो का विस्मयकारी सिलसिला

अनायास ही मुझे आंदोलित कर गया

सहजता से मैने ठंडी सांसे भर ,सजग हो

नयनों में माधुर्य भर चाही इसकी दोस्ती...


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 ((4)


#कविता


-किसकी मुट्ठी में है


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        हाँ भिन्न-भिन्न इंसान

         देश से परदेश तक

         अनगिनत बेहिसाब                  समुची धरती में

         अनंत आसमान तक

          फैले-सिमटे/    सुषुप्त-स्फूर्त...  

              कैसी-कैसी रस्मे /कायदे  हजार

              जीवन है–----रंग-रुप बेशुमार

            पर जीने के सलीके

            निधार्रित है सारे


              वो निर्मित करेंगे--------

              या फिर संशोधित करेंंगे

             प्रायोजित/प्रायोगिक रास्ते..

             पर चलने के ढ़ग /बढ़ाने को कदम 

             निर्देशों मे अंकित है..

          यूं तो भाषाएँ अनगिनत हैं

        यकीनन ..

            विषय-वस्तु /बोलने का लहजा

            लगभग तयकर रखा है

            पूछो तो जरा---

           सत्ता, पैसा, कौशल, तकनीक

          किसकी मुट्ठी मे है सारे...

           क्या राजतंत्र ,क्या प्रजातंत्र ..

           नहीं गुजांइश के पुल शेष ...  भ्रमण कर सके जहाँ

           स्वतंत्र सोच-इरादों के कदम


         सभी अधीन-पराधीन हुए

            किसी-न-किसी मदारी के..

      जो क्षुद्र-छद्म /मक्कार प्रपंचोंं से

          नैसर्गिक मान्यताओं-वृत्तियों  को pl

         प्रश्न चिन्ह के बाणों से बेधते

         तेरे आत्मबोध-आत्मसत्ता को

        हिचकोलों मे डूबोते

         तेरा इति क्या/अंत कब

          सब मापदंड वहीं तय करते

          वो उत्पादित करेंगें सामान 

         हमारी जरूरतों को जज्बातों मे पिरोके

          नयी चाहतो को

           इश्तहारों का सुर देकर

            पर कीमत लगाते

             अपने कायदे-कानून को

   अमिट- अकाट्य सुनिश्चित कर

      अपने अदृश्य एकछत्र सत्ता 

        स्थापित करते

              खुद के स्वार्थ मे

             परमार्थ विर्सजित कर...!!!!!

    †★******************************★†


        


        



    


            .


               


              


               


               


             ((5))



-मिलकर आसां हुआ है'


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#"मिलकर आसां हुआ है " ऐ जिन्दगी


जबसे तेरा दामन संभाला है


पहले थी नितांत अकेली ,सहमी-सिमटी सी


भीड. की नजरों से बचकर..  खुद के उधेड़बुन में


उम्मीदों से लदी...राह पर हांफती हुई..


शब्दों का एक पुल जबसे आया 


एक अदम्य चाहत-सा जागृत हो आया


भ्रमों के चंगुल से उबरकर


सहारो की आस झटककर


तमाम अवरोधों मे...


सब्र और उत्कंठा साथ लेकर


हरशैय आशंका को रौंदकर 


चलते जाने का अद्भूत सुकून..!!


जैसे जन्म हो नये एक पथिक का..


एक अनूठी यात्रा के अभियान पर 


मौसम-दर-मौसम चलना


अंतर के नब्ज टटोलते


चांद-सूरज की आंख-मिचौली मे


हवाओं का साक्षी,नदियों का हमराही


अंधेरे-उजाले के बहुरंगी सवालों में


उम्र की पगडंडियों के चहुंओर


सत्य का आलोक बिखेरने..।



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@अर्चना श्रीवास्तव, मलेशिया

साहित्यिक गोष्ठी के बहाने मूल्यांकन / मुकेश प्रत्यूष

 विष्णुपद मंदिर से बाहर निकलने के बाद गया की कविता शहर की सीमाओं की तरह तेजी से फैली।  काफी दिनों तक इसका स्वर शहर की प्राचीन मान्यताओं की तरह धार्मिक बना रहा । कविता  शगल के लिए लिखी जाती रही।

 वक्त के साथ जब शहर ने करवटें बदलना शुरू किया और समकालीन मूल्यों पर अपनी परंपराओं को परखना शुरू किया तो यहां की कविता के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ और स्वर में भी।  एक शहर के सच को दुनिया के अन्य हिस्सों के सच के साथ जोड़कर देखने की कोशिश शुरू हुई। 

गया जिला हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  पुराना गया जिला (वर्तमान में गया, जहानाबाद, अरवल जिला) की साहित्यिक गतिविधियों का केन्‍द्र बन गया ।

 नियमित साहित्यिक आयोजनों के अतिरिक्‍त इस जिले की रचनाशीलता को उजागर करने हेतु समय-समय पर महत्‍वपूर्ण पुस्‍तकों का प्रकाशन भी किया है। 

लगभग तीन दशक पूर्व आदि काल से लेकर बीसवीं सदी के नवें दशक तक के उन कवियों, जिनकी जन्‍म-भूमि या कर्म-भूमि  यह रही है, की प्रतिनिधि कविताओं के तीन संकलन शहर से गुजरते हुए, अश्‍वत्‍थ खड़ा है आज भी, यह रेत चंदन है, का प्रकाशन  किया गया था। इन संग्रहों का  संपादन मैंने नवगीतकार रामनरेश पाठक के साथ किया था। 


राधानंदन सिंह गया जिला हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन से लंबे समय से जुड़े हैं। सेवानिवृति ‍ के  बाद ‍इन दिनों पूणे में रहते हैं। हाल ही में  इनकी एक किताब आई है – गया का साहित्‍य: परंपरा, प्रवृत्‍त‍ि   और प्रयोग। इसमें गया जिले के साहित्‍येतिहास का विस्‍तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

 साथ ही, आदिकाल से लेकर आद्यावधि तक के साढ़े चार सौ साहित्‍यकारों के व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व के संबध में व्‍यक्ति, कृति और शक्ति शीर्षक से विचार किया  गया है । 

गया के संदर्भ में राधानंदनजी ने दो अन्‍य किताबें भी लिखीं  हैं – पितृतीर्थ गया का पौराणिक और धर्मशास्‍त्रीय संदर्भ तथा विष्‍णुपदी पितृतीर्थ गया परंपरा, प्रवृत्ति और संस्‍कृति। एक शहर के प्रति राधानंदनजी का यह अनुराग स्‍पृहणीय है। 

मिथक  मानव के संपूर्ण अनुभवों की अभिव्‍यक्ति हैं इसे आधार मानकर इन्होंने एक शोध-प्रबंध मिथकीय अवधारणा और तुलसी साहित्‍य भी लिखा है। 

अपने काव्‍य-संग्रह सोने का मृग मारता छलांग के साथ राधानंदनजी ने ये पांचों पुस्‍तकें मुझे भेजी हैं। 

मुझे उनदिनों की याद आ गई जब लगभग हर शनिवार को सुरेन्‍द्र चौधरी, रामनरेश पाठक, बैजनाथ प्रसाद खेतान, अवधेन्‍द्र देव नारायण, गोपाललाल सिजुआर, राधाकृष्‍ण राय, रामपुकार सिंह राठौर, रामकृष्‍ण मिश्र,मिश्र, राधानंदन सिंह, प्रवीण परिमल, रूपक आदि प्राय: तीन पीढि़यों के रचनाकार गया जिला हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन में बैठते थे।  नई रचनाएं सुनते-सुनाते थे। टीका-टिप्‍पणी होती थी। नई योजनाएं बनती और कार्यान्‍वित होती थीं।


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दिनेश चंद्र श्रीवास्तव की नजर मे रंग बिरंगी होली

✌️ पाठकों के लिए खासतौर पर इस बार पेश हैं दिनेश श्रीवास्तव का होली (पुराण ) साहित्य 👌🙏✌️


 गीतिका

                 

   

                कैसे खेलूँ फाग

               ----------------------


देश जला अपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।

प्रेम हुआ सपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


नष्ट हुआ पर्यावरण,धुआँ-धुआँ चहुओर,

बंद हुआ दिखना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


मंदिर तो अब बन गए,पर मुश्किल में आज,

राम-नाम जपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


भाई-भाई लड़ रहे,लहु- लुहान है देश,

 मुश्किल है रहना यहाँ, कैसे खेलूँ फ़ाग।।


नफ़रत के परिवेश में,कौन सुनेगा गीत,

छोड़ दिया लिखना यहाँ,कैसे खेलूँ फाग।।


नहीं बचा है अब यहाँ, प्रेम और सौहार्द,

किसे कहूँ अपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


बदरंगी दुनियाँ बनी, फैला पापाचार,

सब कुछ है सहना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


मंत्री संत्री सब यहाँ, लूट रहे सबओर।

महाराष्ट्र पटना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


कोरोना बढ़ने लगा,पुनः यहाँ पर आज।

मुश्किल है बचना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


                        

             --------------


                  होली है

                ------------


सज गए सब फागुनी बाजार ,होली है।

पर नहीं कोई यहाँ खरीदार,होली है।।-१


रो रही हैं किस्मतें अब तो किसानों की,

पड़ रही है जो फ़सल पर मार, होली है।-२


मिल नहीं सकता गले पर,दिल मिला  लूँगा,

अब 'कोरोना' ने किया बेज़ार, होली है।-३


होना नहीं नाराज़, अब हालात  ऐसे हैं,

कर रहा  मनुहार सौ-सौ बार,होली है।-४


लड़ रहा है देश अपने दुश्मनों से रात दिन,

कुछ भेज दो उनके लिए उपहार, होली है।-५


चलकर करें विनती वहाँ बैठे किसानों से,

उठकर करें वे देश से अब प्यार, होली है-६


कौन जाने कल कहाँ होंगे, नहीं होंगे,

नफरतों की गिर पड़े दीवार, होली है।-७


                        

                         *ग़ज़ल*


फागुन फिर से आया है।

पुरवा शोर मचाया है।।


मन-तरंग अब आंदोलित,

किसने  रंग  लगाया है।


 शर्माती है  कोयल रानी

किसने  गीत सुनाया है।


इंतजार अब है किसका,

बंदनवार  सजाया  है।


पलकें उनकी झुकीं-झुकीं,

कुछ तो राज छिपाया है।


पायल को है पता कहाँ,

बोझिल पाँव बनाया है।


मन-मयूर में कौन समाया,

बादल समझ न पाया है।


              


                *होलिका जलती जाए*

                      

                         (१)


जाए होली जल यहाँ, रहे न कुछ भी शेष।

वैर,भाव,संताप सब,छद्म,कुटिलता,द्वेष।।

छद्म,कुटिलता,द्वेष,भाव निर्मल हो जाए।

मन से हटे विकार,न कोई कभी सताए।।

करता विनय दिनेश,भाग्य सब पर इठलाए।

भारत में हर वर्ष,होलिका जलती जाए।।


                           (२)


आया फागुन झूम के,चढ़ा फागुनी रंग।

मदिरा का सेवन कहीं, कहीं चढ़ा है भंग।।

कहीं चढ़ा है भंग, अंग सब डगमग डोले।

समझ रहे सब लोग,स्वयं को बम-बम भोले।।

कहता सत्य दिनेश,नहीं मुझको है भाया।

होली का यह रूप,कहाँ से ऐसा आया।।


              * कुण्डलिया-

                      ( १)


महके इत्र गुलाल की,खुशबू अब चहुँओर।

ढोलक झाँझ मृदंग का,होता चहुँ-दिशि शोर।।

होता चहुँ-दिशि शोर,नाचती सभी दिशाएँ।

गुल-पराग मदमस्त,भ्रमर होकर इठलाएँ।

कहता सत्य दिनेश,आज मन सबका बहके।

फागुन सुखद सुगंध,दिशाएँ लेकर महके।।

                          

                         (२)


होली के हुड़दंग में,भूल न जाना आप।

नहीं मिटा है आज तक,कोरोना का शाप।।

कोरोना का शाप,अभी बचकर है रहना।

कुछ दिन की है बात,कष्ट हमको है सहना।।

दो गज दूरी मास्क,लगा हो हँसी- ठिठोली।

करता विनय दिनेश,सँभल कर खेलो होली।।


     -


                     *भाँग*

                        

                        (१)

करिए सेवन भाँग का,होली की यह रीत।

कभी जोगिड़ा भाँगड़ा,कभी फागुनी गीत।।

कभी फागुनी गीत,मगर यह बात समझना।

कभी नशे में चूर,न इतना खुद को करना।।

करता विनय दिनेश,ध्यान इतना तो धरिए।

पावन यह त्योहार,रंग में भंग न करिए।।


                     (२)


पी ली हमने भाँग को,होली का त्योहार।

अंतर अब लगता नहीं,कौन पुरुष या नार।।

कौन पुरुष या नार,नशा ऐसा है छाया।

धन्य धन्य हे! भाँग,तुम्हारी अद्भुत माया।।

पता नहीं है आज,हुई क्यों चड्ढी गीली।

होली के दिन 'चंद्र', भाँग क्यों इतनी पी ली।

दिनेश श्रीवास्तव:

रंग विरंगी कुण्डलिया*

------------------------                

                      (१)


साली से मिलने चले,जीजा जी ससुराल।

पहली पहली बार था,लेकर हाथ गुलाल।।

लेकर हाथ गुलाल,हुई फिर वहाँ खिंचाई।

सलहज साली साथ,हुई फिर रंग रँगाई।।

होली का त्योहार,मधुर लगती है गाली।

सूनी है ससुराल,नहीं होती जब साली।।

                    

                      (२)


गाली साली की मिले, या सलहज का प्यार।

शीघ्र अदा कर दीजिए,रहे न कभी उधार।।

रहे न कभी उधार, कर्ज बढ़ता ही जाता।

इतना गहरा राज,नहीं कोई बतलाता।।

है अनुभवी 'दिनेश',पास है सलहज साली।

मिलती जिसको रोज,मधुर साली की गाली।।                    

                   (३)


जाए होली जल मगर, रहे न कुछ भी शेष।

वैर भाव संताप सब,छद्म कुटिलता द्वेष।।

छद्म कुटिलता द्वेष, सभी निर्मल हो जाए।

मन से हटे विकार, न कोई कभी सताए।।

करता विनय'दिनेश',भाग्य सब पर इठलाए।

भारत मे हर वर्ष,होलिका जलती जाए।।

                 

                          (४)               

                       

गुझिया पापड़ देखकर,मन मे हुआ मलाल।

मधु पीड़ित मैं हो गया,होली में इस साल।।

होली में इस साल,मिठाई खाऊँ कैसे।?

तरह तरह पकवान,शत्रु सा लगते जैसे।।

अबकी रोटी दाल,बनाऊँ सब्जी भुजिया।

होली का त्योहार,मगर खाऊँ ना गुझिया।।


                       (५)


घरवाली ने आज फिर, हमे पढ़ाया पाठ।

गुझिया को छूना नहीं,उम्र हो गयी साठ।

उम्र ही गयी साठ,मिठाई अब मत खाना।

होली में इस साल,नहीं कुछ करो बहाना।।

कोई भी हो चीज़, अगर वो बाहरवाली।

खाने में परहेज,बताती है घरवाली।।


                           (६)


खाऊँ अबकी बार क्या,वैद्य पढ़ाता पाठ।

बिगड़ गया सबकुछ यहाँ, होली का जो ठाट।।

होली का जो ठाट,बनाया उसने फीका।

केवल रंग गुलाल,लगाया हमने टीका।।

लेने गंध सुगंध,रसोई घर में जाऊँ।

बार बार मैं डाँट, वहाँ पर जाकर खाऊँ।।


                      *होली*


हास और परिहास के,साथ हुआ हुड़दंग।

प्रणय बाद होली प्रथम,हुआ सजन के संग।।


नहीं-नहीं ना नुकुर में,हुआ पुनः स्वीकार।

प्रियतम का अनुनय विनय,होली को तैयार।।


आम्र मंजरी देख कर,महुआ अबकी बार।

होली में मदमस्त हो,चूने को तैयार।।


मतवाला भौंरा हुआ,होली में इस बार।

पुष्प छोड़ करने लगा,कलियों से मनुहार।।


होली खेलन के लिए,बुढ़ऊ भी तैयार।

बुढ़ऊ की हरकत मगर, बुढ़िया रही निहार।


सहमे सहमे से लगे,बुढ़ऊ अबकी बार।

पिछली होली की तरह,पड़े न फिर से मार।।


                 

                 -----///---

   

                कैसे खेलूँ फाग

               ----------------------


देश जला अपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।

प्रेम हुआ सपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


नष्ट हुआ पर्यावरण,धुआँ-धुआँ चहुओर,

बंद हुआ दिखना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


मंदिर तो अब बन गए,पर मुश्किल में आज,

राम-नाम जपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


भाई-भाई लड़ रहे,लहु- लुहान है देश,

 मुश्किल है रहना यहाँ, कैसे खेलूँ फ़ाग।।


नफ़रत के परिवेश में,कौन सुनेगा गीत,

छोड़ दिया लिखना यहाँ,कैसे खेलूँ फाग।।


नहीं बचा है अब यहाँ, प्रेम और सौहार्द,

किसे कहूँ अपना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


बदरंगी दुनियाँ बनी, फैला पापाचार,

सब कुछ है सहना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


मंत्री संत्री सब यहाँ, लूट रहे सबओर।

महाराष्ट्र पटना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


कोरोना बढ़ने लगा,पुनः यहाँ पर आज।

मुश्किल है बचना यहाँ, कैसे खेलूँ फाग।।


                       

             --------------


                  होली है

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सज गए सब फागुनी बाजार ,होली है।

पर नहीं कोई यहाँ खरीदार,होली है।।-१


रो रही हैं किस्मतें अब तो किसानों की,

पड़ रही है जो फ़सल पर मार, होली है।-२


मिल नहीं सकता गले पर,दिल मिला  लूँगा,

अब 'कोरोना' ने किया बेज़ार, होली है।-३


होना नहीं नाराज़, अब हालात  ऐसे हैं,

कर रहा  मनुहार सौ-सौ बार,होली है।-४


लड़ रहा है देश अपने दुश्मनों से रात दिन,

कुछ भेज दो उनके लिए उपहार, होली है।-५


चलकर करें विनती वहाँ बैठे किसानों से,

उठकर करें वे देश से अब प्यार, होली है-६


कौन जाने कल कहाँ होंगे, नहीं होंगे,

नफरतों की गिर पड़े दीवार, होली है।-७


                       

                      ग़ज़ल*


फागुन फिर से आया है।

पुरवा शोर मचाया है।।


मन-तरंग अब आंदोलित,

किसने  रंग  लगाया है।


 शर्माती है  कोयल रानी

किसने  गीत सुनाया है।


इंतजार अब है किसका,

बंदनवार  सजाया  है।


पलकें उनकी झुकीं-झुकीं,

कुछ तो राज छिपाया है।


पायल को है पता कहाँ,

बोझिल पाँव बनाया है।


मन-मयूर में कौन समाया,

बादल समझ न पाया है।


              : कुण्डलिया-

                      ( १)


महके इत्र गुलाल की,खुशबू अब चहुँओर।

ढोलक झाँझ मृदंग का,होता चहुँ-दिशि शोर।।

होता चहुँ-दिशि शोर,नाचती सभी दिशाएँ।

गुल-पराग मदमस्त,भ्रमर होकर इठलाएँ।

कहता सत्य दिनेश,आज मन सबका बहके।

फागुन सुखद सुगंध,दिशाएँ लेकर महके।।

                          

                         (२)


होली के हुड़दंग में,भूल न जाना आप।

नहीं मिटा है आज तक,कोरोना का शाप।।

कोरोना का शाप,अभी बचकर है रहना।

कुछ दिन की है बात,कष्ट हमको है सहना।।

दो गज दूरी मास्क,लगा हो हँसी- ठिठोली।

करता विनय दिनेश,सँभल कर खेलो होली।।


                *रंग विरंगी कुण्डलिया*

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                      (१)


साली से मिलने चले,जीजा जी ससुराल।

पहली पहली बार था,लेकर हाथ गुलाल।।

लेकर हाथ गुलाल,हुई फिर वहाँ खिंचाई।

सलहज साली साथ,हुई फिर रंग रँगाई।।

होली का त्योहार,मधुर लगती है गाली।

सूनी है ससुराल,नहीं होती जब साली।।

                    

                      (२)


गाली साली की मिले, या सलहज का प्यार।

शीघ्र अदा कर दीजिए,रहे न कभी उधार।।

रहे न कभी उधार, कर्ज बढ़ता ही जाता।

इतना गहरा राज,नहीं कोई बतलाता।।

है अनुभवी 'दिनेश',पास है सलहज साली।

मिलती जिसको रोज,मधुर साली की गाली।।                    

                   (३)


जाए होली जल मगर, रहे न कुछ भी शेष।

वैर भाव संताप सब,छद्म कुटिलता द्वेष।।

छद्म कुटिलता द्वेष, सभी निर्मल हो जाए।

मन से हटे विकार, न कोई कभी सताए।।

करता विनय'दिनेश',भाग्य सब पर इठलाए।

भारत मे हर वर्ष,होलिका जलती जाए।।

                 

                          (४)               

                       

गुझिया पापड़ देखकर,मन मे हुआ मलाल।

मधु पीड़ित मैं हो गया,होली में इस साल।।

होली में इस साल,मिठाई खाऊँ कैसे।?

तरह तरह पकवान,शत्रु सा लगते जैसे।।

अबकी रोटी दाल,बनाऊँ सब्जी भुजिया।

होली का त्योहार,मगर खाऊँ ना गुझिया।।


                       (५)


घरवाली ने आज फिर, हमे पढ़ाया पाठ।

गुझिया को छूना नहीं,उम्र हो गयी साठ।

उम्र ही गयी साठ,मिठाई अब मत खाना।

होली में इस साल,नहीं कुछ करो बहाना।।

कोई भी हो चीज़, अगर वो बाहरवाली।

खाने में परहेज,बताती है घरवाली।।


                           (६)


खाऊँ अबकी बार क्या,वैद्य पढ़ाता पाठ।

बिगड़ गया सबकुछ यहाँ, होली का जो ठाट।।

होली का जो ठाट,बनाया उसने फीका।

केवल रंग गुलाल,लगाया हमने टीका।।

लेने गंध सुगंध,रसोई घर में जाऊँ।

बार बार मैं डाँट, वहाँ पर जाकर खाऊँ।।


                    दिनेश श्रीवास्तव

[3/25, 06:54] DS दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया-


                     *भाँग*

                        

                        (१)

करिए सेवन भाँग का,होली की यह रीत।

कभी जोगिड़ा भाँगड़ा,कभी फागुनी गीत।।

कभी फागुनी गीत,मगर यह बात समझना।

कभी नशे में चूर,न इतना खुद को करना।।

करता विनय दिनेश,ध्यान इतना तो धरिए।

पावन यह त्योहार,रंग में भंग न करिए।।


                     (२)


पी ली हमने भाँग को,होली का त्योहार।

अंतर अब लगता नहीं,कौन पुरुष या नार।।

कौन पुरुष या नार,नशा ऐसा है छाया।

धन्य धन्य हे! भाँग,तुम्हारी अद्भुत माया।।



                *होलिका जलती जाए*

                      

                         (१)


जाए होली जल यहाँ, रहे न कुछ भी शेष।

वैर,भाव,संताप सब,छद्म,कुटिलता,द्वेष।।

छद्म,कुटिलता,द्वेष,भाव निर्मल हो जाए।

मन से हटे विकार,न कोई कभी सताए।।

करता विनय दिनेश,भाग्य सब पर इठलाए।

भारत में हर वर्ष,होलिका जलती जाए।।


                           (२)


आया फागुन झूम के,चढ़ा फागुनी रंग।

मदिरा का सेवन कहीं, कहीं चढ़ा है भंग।।

कहीं चढ़ा है भंग, अंग सब डगमग डोले।

समझ रहे सब लोग,स्वयं को बम-बम भोले।।

कहता स   

त्य दिनेश,नहीं मुझको है भाया।

होली  हे-       *होली*


हास और परिहास के,साथ हुआ हुड़दंग।

प्रणय बाद होली प्रथम,हुआ सजन के संग।।


नहीं-नहीं ना नुकुर में,हुआ पुनः स्वीकार।

प्रियतम का अनुनय विनय,होली को तैयार।।


आम्र मंजरी देख कर,महुआ अबकी बार।

होली में मदमस्त हो,चूने को तैयार।।


मतवाला भौंरा हुआ,होली में इस बार।

पुष्प छोड़ करने लगा,कलियों से मनुहार।।


होली खेलन के लिए,बुढ़ऊ भी तैयार।

बुढ़ऊ की हरकत मगर, बुढ़िया रही निहार।


सहमे सहमे से लगे,बुढ़ऊ अबकी बार।

पिछली होली की तरह,पड़े न फिर से मार।।


                 दिनेश श्रीवास्तव

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

पहली बोलती फिल्मआलम आरा 1931

 🌹#आलमआरा (1931 फ़िल्म )


आलमआरा 1931 में बनी हिन्दी भाषा और भारत की पहली सवाक (बोलती) फिल्म है। 

इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी हैं।

 ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुये, आलमआरा को और कई समकालीन सवाक फिल्मों से पहले पूरा किया। आलम आरा का प्रथम प्रदर्शन मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में 14 मार्च 1931 को हुआ था।

 यह पहली भारतीय सवाक इतनी लोकप्रिय हुई कि "पुलिस को भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए सहायता बुलानी पड़ी थी ।

💐निर्देशक  अर्देशिर ईरानी

💐लेखक  जोसेफ डेविड- मुंशी जहीर 

🌺अभिनेता

💐मास्टर विट्ठल

💐जुबैदा

💐पृथ्वीराज कपूर


🎼संगीतकार

💐फ़िरोज़शाह मिस्त्री

💐बहराम ईरानी


आलमआरा एक राजकुमार और बंजारन लड़की की प्रेम कथा है। यह जोसफ डेविड द्वारा लिखित एक पारसी नाटक पर आधारित है। जोसफ डेविड ने बाद में ईरानी की फिल्म कम्पनी में लेखक का काम किया।। फिल्म में एक राजा और उसकी दो झगड़ालू पत्नियां दिलबहार और नवबहार है। दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फकीर भविष्यवाणी करता है कि राजा के उत्तराधिकारी को नवबहार जन्म देगी। गुस्साई दिलबहार बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख मंत्री आदिल से प्यार की गुहार करती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। गुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलमआरा को देशनिकाला दे देती है। आलमआरा को बंजारे पालते हैं। युवा होने पर आलमआरा महल में वापस लौटती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। अंत में दिलबहार को उसके किए की सजा मिलती है, राजकुमार और आलमआरा की शादी होती है और आदिल की रिहाई ।

फिल्म और इसका संगीत दोनों को ही व्यापक रूप से सफलता प्राप्त हुई, फिल्म का गीत "दे दे खुदा के नाम पर" जो भारतीय सिनेमा का भी पहला गीत था और इसे अभिनेता वज़ीर मोहम्मद खान ने गाया था, जिन्होने फिल्म में एक फकीर का चरित्र निभाया था, बहुत प्रसिद्ध हुआ।

 उस समय भारतीय फिल्मों में पार्श्व गायन शुरु नहीं हुआ था, इसलिए इस गीत को हारमोनियम और तबले के संगीत की संगत के साथ सजीव रिकॉर्ड किया गया था।


फिल्म ने भारतीय फिल्मों में फिल्मी संगीत की नींव भी रखी, फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने कहा फिल्म की चर्चा करते हुए कहा है, "यह सिर्फ एक सवाक फिल्म नहीं थी बल्कि यह बोलने और गाने वाली फिल्म थी जिसमें बोलना कम और गाना अधिक था। इस फिल्म में कई गीत थे और इसने फिल्मों में गाने के द्वारा कहानी को कहे जाने या बढा़ये जाने की परम्परा का सूत्रपात किया।"

तरन ध्वनि प्रणाली का उपयोग कर, अर्देशिर ईरानी ने ध्वनि रिकॉर्डिंग विभाग स्वंय संभाला था। फिल्म का छायांकन टनर एकल-प्रणाली कैमरे द्वारा किया गया था जो ध्वनि को सीधे फिल्म पर दर्ज करते थे। क्योंकि उस समय साउंडप्रूफ स्टूडियो उपलब्ध नहीं थे इसलिए दिन के शोरशराबे से बचने के लिए इसकी शूटिंग ज्यादातर रात में की गयी थी। शूटिंग के समय माइक्रोफ़ोन को अभिनेताओं के पास छिपा कर रखा जाता था।

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गुरुवार, 25 मार्च 2021

साहित्य, संस्कृति और भाषा की विवेचना करती एक किताब


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साहित्य, संस्कृति और भाषा की विवेचना करती एक किताब

#गुर्रमकोंडा_नीरजा  

 

साहित्य, संस्कृति और भाषा – इन तीनों का परस्पर संबंध अटूट है क्योंकि देश-दुनिया की संस्कृति की जितनी प्रभावी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से संभव है, उतनी किसी अन्य माध्यम से नहीं; तथा यह अभिव्यक्ति भाषा पर निर्भर है। साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण है कि ये तीनों सतत प्रवाहशील है, जड़ नहीं। साहित्य का मूल भाव ‘सहित’ है जो उसे संस्कृति का वाहक बनाता है। साहित्यकार अपने आस-पास के परिवेश से तथा अपने अनुभूत संसार से ही कथ्य ग्रहण करता है और उसे भाषाबद्ध करता है। वह अपनी संस्कृति और परिवेश को अपने अनुभवों के माध्यम से इस तरह शब्दों में पिरोता है कि पाठक को रोचक लगे। इसलिए जब हम किसी रचना को पढ़ते हैं तो उस देश-काल की स्थितियों एवं वहाँ की संस्कृति को आत्मसात करते चलते हैं। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्य मनुष्य की संवेदनात्मक क्षमता का परिणाम है।


इसी प्रकार संस्कृति मानव जीवन को संस्कारित करने में सहायक सिद्ध होती है। संस्कृति जीवन के मानवीय मूल्यों का पुंज है। और समय के साथ-साथ इन मूल्यों को संस्कारित करना पड़ता है और यह देखना पड़ता है कि वे आज के युग में कहाँ ठहरते हैं। महादेवी के शब्दों में कहें तो संस्कृति के मूल में मानवीय तत्व हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि हम इन तत्वों का कहाँ तक उपयोग कर पा रहे हैं? इन सब बातों को रचनाकार किसी न किसी साहित्यिक माध्यम के द्वारा अभिव्यक्त करता है।


प्रतिष्ठित हिंदी सेवी, कवि और समीक्षक प्रो. ऋषभदेव शर्मा (1957) ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘साहित्य, संस्कृति और भाषा’ (2021) में बड़े रोचक ढंग से इन तीनों के विविध आयामों एवं चुनौतियों को कुल चार खंडों में सम्मिलित 18 आलोचनात्मक आलेखों में बखूबी उजागर किया है।  


‘भारतीय संस्कृति : आज की चुनौतियाँ’, ‘बदलती चुनौतियाँ और हिंदी की आवश्यकता’, ‘हिंदी की दुनिया : दुनिया में हिंदी’, ‘देश और उसकी भाषा’, ‘विश्वशांति और हिंदी’ तथा ‘हिंदी भाषा की विश्वव्यापकता’ शीर्षक छह आलेख प्रथम खंड में सम्मिलित हैं। इन आलेखों से पता चलता है कि लेखक की दृष्टि वैश्विक है। उनका मानना है कि “भारतीय संस्कृति मनुष्य के भीतर छिपी हुई उसकी दिव्यता को प्रकाशित करने के प्रयत्नों का सामूहिक नाम है।“ (पृ.11)। भारतीय संस्कृति का केंद्रीय मूल्य ‘भारतीयता’ है। लेखक ने इसे ‘अविरोधी भाव’ कहा है। हमारी संस्कृति बहुत ही प्राचीन संस्कृति है। इसके अपने मूल्य हैं। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि भारतीय मूल्य दृष्टि के दो लक्ष्य हैं – अभ्युदय और निःश्रेयस। जहाँ धर्म, अर्थ और काम अभ्युदय से जुड़े हैं वहीं मोक्ष निःश्रेयस से जुड़ा हुआ है। लेखक ने यह चिंता व्यक्त की है कि “किसी एक साहित्यिक कृति का खो जाना या विकृत हो जाना संस्कृति के किसी पक्ष का खो जाना या विकृत हो जाना है। इसी प्रकार एक मातृभाषा का लुप्त हो जाना भी उसके साथ जुड़ी हुई समूची सांस्कृतिक विरासत का लुप्त हो जाना है। नित नएपन की झोंक में यदि हम अपने साहित्य को विकृत करते हैं या भाषा के एक भी प्रतीक को मर जाने देते हैं, शब्दों को प्रचलन के बाहर चला जाने देते हैं, साहित्यिक धाराओं को लुप्त हो जाने देते हैं तो वस्तुतः हम संस्कृति की हत्या कर रहे होते हैं।“ (पृ.14)। इस समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करते हुए प्रो. शर्मा कहते हैं कि हजारों मातृभाषाओं और जनभाषाओं से लेकर अनेक क्लासिक भाषाओं तक की विराट भाषिक और साहित्यिक संपत्ति को सँभालकर रखना होगा और साथ ही उसमें निहित उच्च मानवीय मूल्यों तथा उदात्त भारतीय संस्कृति को विश्व के समक्ष रखना होगा।


किसी देश की संस्कृति और इतिहास को जानने और पहचानने का माध्यम या कहे साधन भाषा ही होती है। लंबे समय से हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रयास जारी है। सितंबर का महीना आते ही हिंदी पर्व की गहमागहमी शुरू हो जाती है। 1918 में महात्मा गांधी ने हिंदी को भारतीय स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रस्तावित किया था और स्वीकृत भी। लेकिन संविधान के अंतर्गत हिंदी को ‘राजभाषा’ ही कहा जा सका। वह भी अभी तक केवल सिद्धांत रूप में ही है, व्यवहार में नहीं। भाषा के नाम पर यह देश टुकड़ों में बँटता जा रहा है। लेखक को इसकी चिंता सालती है। अतः वे स्पष्ट स्वर में घोषित करते हैं कि “बदली हुई परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ जैसी नारेबाजी से दूर रखकर, ‘भाषा’ के रूप में प्रचारित-प्रसारित किए जाने की जरूरत है – जिसे मनुष्य सूचनाओं के आदान-प्रदान, जिज्ञासाओं की शांति, आत्मा की अभिव्यक्ति और संप्रेषण की सिद्धि के निमित्त सीखा करते हैं।“ (पृ.17)। प्रो. शर्मा यह मानते हैं कि ग्लोबल विस्तार तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में हिंदी की दावेदारी बेहद मजबूत है।


इस पुस्तक के दूसरे खंड में तीन आलेख सम्मिलित हैं जिनका अपना महत्व है। नीना पाले की एनीमेशन फिल्म ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज’ को आधार बनाकर लेखक ने ‘रामकथा आधारित एनीमेशन ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज’ : एक अध्ययन’ शीर्षक आलेख में यह स्पष्ट किया है कि यह फिल्म “स्त्री-प्रश्नों के अलावा सत्य और न्याय के भी शाश्वत प्रश्नों पर सोचने के लिए अपने ग्लोबल दर्शक समुदाय को प्रेरित करती है और राम-संस्कृति की विश्वयात्रा को आगे बढ़ाती है।“ (पृ.51)


‘प्रवासी हिंदी कवियों की संवेदना : सरोकार के धरातल’ शीर्षक आलेख में प्रो. शर्मा ने 10 प्रतिनिधि प्रवासी हिंदी कवियों की कविताओं का विश्लेषण करते हुए यह निरूपित किया है कि “अलग-अलग देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों द्वारा रची जा रही हिंदी कविता में सामाजिक न्याय, मानव अधिकार, जीवन मूल्य, सांस्कृतिक बोध, इतिहास बोध, लोकतत्व, प्रेम और सौंदर्य समान रूप से मुख्य कथ्य बनते दिखाई देते हैं।“ (पृ. 63)। एक और आलेख में प्रवासी साहित्यकार अभिमन्यु अनत के साहित्य में निहित समाजार्थिक  चेतना को उजागर किया गया है।


तीसरे खंड में भारतीय साहित्य के विविध आयामों पर प्रकाश डाला गया है। ‘तुलनात्मक भारतीय साहित्य : अवधारणा और मूल्य’ शीर्षक आलेख में लेखक ने सामान्य साहित्य, राष्ट्रीय साहत्य और विश्व साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा है कि राष्ट्रीय साहित्य द्वारा तुलनात्मक साहित्य का आधार तैयार होता है तथा तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ही राष्ट्रीय साहित्य और उसमें निहित राष्ट्रीयता के तत्वों की पहचान की जा सकती है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि भारतीय साहित्य की पहचान का मूल आधार भारतीयता है। इस आलेख में लेखक ने भारतीय साहित्य के पारंपरिक महत्व पर भी प्रकाश डाला है।


‘भारतीय साहित्य का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य : विविध आयाम’ शीर्षक आलेख में प्रो. शर्मा ने कुछ प्रमुख एवं गौण आयामों पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार मनुष्यता, संस्कृति, लोकतांत्रिक चेतना, जिजीविषा प्रमुख आयाम हैं तो भारतीय साहित्य का भौगोलिक विस्तार गौण आयाम। उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया है कि अनुवाद तथा अनुसृजन के माध्यम से इसका निरंतर प्रसार हो रहा है। ‘भारतीय साहित्य में दलित विमर्श : मणिपुरी समाज का संदर्भ’ शीर्षक आलेख में लेखक ने यह चौंकाने वाला तथ्य उजागर किया है कि मणिपुर के साहित्य में दलित विमर्श है ही नहीं क्योंकि मणिपुरी समाज में वर्ण और जाति की प्रथा कभी नहीं रही। उन्होंने यह निरूपित किया है कि वहाँ “जनजाति की व्यवस्था अभी भी सभ्यता की आदिम अवस्था में सुरक्षित है और उनकी अपनी जनजातीय संस्थाएँ हैं जिनमें वर्ण या जातिगत सामाजिक अन्याय और भेदभाव की कोई अवधारणा ही नहीं है।“ (पृ. 97)                                                                 


‘आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता’ शीर्षक आलेख में लेखक ने दोनों तेलुगु भाषी प्रांतों की पत्रकारिता के ऐतिहासिक विकास क्रम को उजागर किया है। प्रामाणिक रूप से उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि तेलुगु पत्रकारिता 19वीं सदी के दूसरे दशक से ही आरंभ हो गई थी। “इसके बाद उर्दू पत्रकारिता का उदय 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हुआ जबकि हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए हिंदी अभियान के दौर में और खास तौर से ब्रिटिश और निजाम शासन के विरुद्ध आर्य समाज की राष्ट्रीय गतिविधियों के साथ बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के आरंभिक वर्षों में उदित हुई।“ (पृ. 99-100)।  निश्चित रूप से यह आलेख दस्तावेजी महत्व का है।


पुस्तक के अंतिम खंड में कुल पाँच आलेख शामिल हैं। इस खंड के पहले आलेख में हिंदी साहित्य के वैश्विक परिप्रेक्ष्य को उजागर किया गया है। पहले भी कहा जा चुका है कि लेखक की दृष्टि वैश्विक है। उन्होंने यह निरूपित किया है कि “हिंदी का चरित्र मूलतः समाज-सांस्कृतिक चरित्र है और इसकी समाज-सांस्कृतिकता दूसरे देशों से आयातित समाज-सांस्कृतिकता नहीं है बल्कि यह अपनी भाषाओं से, अपने देश की स्थितियों से, अपने देश के सामाजिक विकास से, अपने देश के सभ्यतागत विकास से, अपने देश के परंपरागत ज्ञान की बड़ी बृहत परंपराओं से ग्रहण की हुई समाज-सांस्कृतिकता है, इसलिए हिंदी साहित्य वैश्विक परिप्रेक्षय के संदर्भ में जो चीज ग्रहण कर रहा है वह अपनी समाज-सांस्कृतिकता के परिप्रेक्ष्य में ही ग्रहण कर रहा है।“ (पृ. 120)। इके पश्चात लेखक ने कुल 43 पृष्ठों में आदिकाल से लेकर रीतिकाल पर्यंत हिंदी साहित्य के ऐतिहासिक परिप्रेक्षय को सरल एवं सुबोध भाषा शैली में समेटा है।


तेलुगु भाषी हिंदी साहित्यकार आलूरि बैरागी चौधरी के बारे में हिंदी पाठक बहुत कम जानते हैं। आंध्र प्रदेश में जन्मे आलूरि बैरागी की स्कूली शिक्षा कक्षा 3 तक ही हो सकी लेकिन स्वाध्याय द्वारा उन्होंने तेलुगु, हिंदी और अंग्रेजी पर अधिकार प्राप्त करने के साथ-साथ इन तीनों भाषाओं में काव्य-सृजन भी किया। लेखक ने हिंदी पाठकों को उनके कविकर्म से परिचित करवाया है। जहाँ एक ओर उन्होंने तेलुगुभाषी हिंदी साहित्यकार का परिचय दिया है वहीं दूसरी ओर समकालीन हिंदी कविता की राष्ट्रीय चेतना को उकेरा है। यह महज एक आलेख नहीं बल्कि एक संपूर्ण शोध की रूपरेखा है।


ऋषभदेव शर्मा सकारात्मक सोच रखने वाले संवेदनशील साहित्यकार हैं। उनका संवेदनशील हृदय समाज की विसंगतियों को देखकर उद्वेलित हो उठता है। उनकी निष्पक्षता इस बात से प्रमाणित होती है कि उनके लेखन में कहीं भी गुटबाजी नहीं दीखती। हर बात पर वे बहुत स्पष्ट विचार प्रस्तुत करते हैं। नकारात्मक पक्ष को भी सकारात्मक दृष्टि से ही आँकते हैं। समाज के निचले स्तर के लोगों तथा हाशिये पर ढकेले गए लोगों के प्रति उनके मन में सहानुभूति है। उनके अनुसार कोई भी वर्ग निम्नतर नहीं है। इस समाज में वेश्याओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी स्थिति में उन पर लिखने के लिए कोई भी सौ बार सोचता है। डॉ. शर्मा ने चार उपन्यासों (सेवासदन, अप्सरा, तिनका तिनके पास और दस द्वारे का पिंजरा) के हवाले से वेश्याओं के पुनर्वास की बात उठाई है क्योंकि वे यह मानते हैं कि मनुष्य को रहने के लिए बेहतर व्यवस्था, बेहतर धरती और बेहतर भविष्य की आवश्यकता है। वे तुलसी की भाँति लोकमंगल की कामना करने वाले साहित्यकार हैं- ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई,

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।‘  000              

"""""""""""""""""""''''''

#साहित्य_संस्कृति_और_भाषा (2021)/ #ऋषभदेव_शर्मा/ अमन प्रकशन, कानपुर/ पृष्ठ 200/ मूल्य : रु 495

"""""'''''''""""""""""""""""'

समीक्षक : गुर्रमकोंडा नीरजा, सह संपादक ‘स्रवंति’, सहायक आचार्य, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500004. <neerajagkonda@gmail.com>

मुकेश प्रत्यूष की कुछ कविताएँ

 हाशिया

                             

जैसे उठाने से पहले कौर

निकालता है कोई अग्रासन

उतारने   से पहले बिछावन से  पैर 

करता है कोई धरती को प्रणाम

तोड़ने से पहले तुलसी का पत्ता 

या लेने से पहले गुरु का नाम

पकड़ता है कोई कान

    

वैसे ही, लिखने के पहले शब्द

तय करता है कोई हाशिये के लिये जगह


जैसे ताखे पर रखी होती है लाल कपड़े में बंधी कोई किताब

गांव की सिवान पर बसा होता है कोई टोला 

वैसे ही पृष्ठ पर रहकर भी पृष्ठ पर नहीं होता है हाशिया


मोड़कर या बिना मोड़े

दृश्य या अदृश्‍य तय की गई सीमा 

अलंध्य होती है हाशिये के लिये

रह कर भी प्रवाह  के साथ 

हाशिया बना रहता है हाशिया ही

तट की तरह 

लेकिन होता नहीं है तटस्थ 


हाशिया है तो निश्चिंत रहता है कोई

बदल जाये यदि किसी शब्द या विचार का चलन 

छोड़ प्रगति की राह यदि पड़ जाये करनी प्रयोग-धर्मिता की वकालत  


हाशिये पर बदले जा सकते हैं रोशनाई के रंग

हाशिये पर बदले जा सकते हैं विचार

हाशिये पर किये जा सकते हैं सुधार 

इस्तेमाल के लिये ही तो होता है हाशिया 


बिना बदले पन्ना 

बदल जाता है सब कुछ

बस होती है जरुरत एक संकेत चिह्न की 


जैसे बाढ़ में 

पानी के साथ आ जाते हैं बालू

जद्दजेहद में बचाने को प्राण आ जाते हैं सांप

मारते सड़ांध  पशुओं के शव

कभी-कभी तो आदमियों के भी 

और चले जाते हैं लोग छोड़कर घर-बार 

किसी टीले या निर्वासित सड़क पर 

वैसे ही 

झलक जाती है जब रक्ताभ आसमान के बदले गोधूलि‍ की धुंध 

हाशिया आ जाता है काम


पर भूल जाते हैं कभी कभी छोड़ने वाले हाशिया 

हाशिये पर ही दिये जाते हैं अंक

निर्धारित करता है परिणाम हाशिया ही


हाशिया है तो हुआ जा सकता है सुरक्षित

 


पहाड़

 

दरवाजे पर खड़ा है पहाड़

पहाड़ झांक रहा है खिड़की से

बालकनी में पसरा हुआ  है पहाड़

पहाड़ मुझे घेर रहा है

 

पहाड़ है तो पत्‍थर  है

पत्‍थर है तो अंदेशा है

लुढकते पत्‍थर आ टिके है मुंडेर पर

मुंडेर दरक गई है

पहाड़ और पत्‍थर निकलने नहीं दे रहे घर से मुझे

 

कैद कर खुद को मैं देख रहा हूं पहाड़

देख रहा हूं पत्‍थर

देख  रहा हूं दरार जो होती जा रही है चौड़ी

 

अंदेशा गहराता जा रहा है

 

छोड़ नहीं सकता घर-बार, कतर-ब्‍योंत कर जुटाए जीने के सामान

निकालने की सूरत बची नहीं कोई

सपनों पर पड़ गए हैं पत्‍थर

 

चोटी पर खिले हैं फूल

पत्‍थर पर लगी हुई है काई

दरारों में निकल आई है फिसलन

उंट आ तो गया है पहाड़ के नीचे

पहुंच नहीं पाएगाा फूल तक

 

किसी की पहुंच में नहीं है पहाड़

पत्‍थर किसी को पहाड़ तक पहुंचने  नहीं  देते

 

 (2)

लंबी हुई छाया

मिटने लगी है होकर धुंधली

अंधेरा पसरने वाला है

 

वक्‍त हो रहा है अंधेरे के आराम का

सूरज समेट रहा है अपनी आखिरी किरण

जब बचा नहीं तेज, बची नहीं गर्मी

होकर शक्तिहीन रहने से खड़ा  अच्‍छा है हो जाना वानप्रस्‍थ

 

फंस गया हूं मैं तलहटी में

हड़बड़ी में चुन रहा हूं गीली में सूखी लकडियां

उठा रहा हूं घास-फूस

लेकिन आग

वह भी तो पत्‍थरों के पास है

 

पत्‍थरों के पास जाना ही होगा मुझे.

 

(3)

धसक रहे हैं पहाड़

खिसक रहे हैं पहाड़

निर्माण चालू है पहाड़ पर

 

चिन्तित है पहाड  को लेकर

क्‍या होगा जब नहीं रहेंगे पहाड़

न रोकने-बांधने के लिए मिलेंगी नदियां, न फेंकने के लिए पत्‍थर

हिल  जाएंगी प्रजातंत्र की चूलें

 

रहेंगे नहीं पहाड़ तो नहीं होंगे जंगल

उगेंगे कहां पेड़

लाठी का वजूद है पेड़ से

तनकर खड़ा होने के लिए जरूरी है लाठी

प्रतिरोध का स्‍वर हैं पहाड़

आवाज देकर देखो

प्रतिध्‍वनियों, अनुगूंजों से भर जाएगा परिवेश

पहाड़ अकेला नहीं होने देता हमे.

 

(4)

पहाड़ को बचाने

निकले  थे कुछ लोग

 

लेकर कंधे पर पहाड़

टांगे पहाड़ की लालटेन  

ओढ़े कंबल

उतरते ही बढ़ गई तपि‍श

मिला नहीं पा रहे थे कदमताल

नियोन लाइट की दुनिया  में फालतू थे लालटेन  

टिेका दिया पहाड़ को वहीं कहीं

रख दिए उतार कर कंबल

फिर खो गए पता नहीं कहां

इंतजार में टिका में है पहाड़

कंबल जोह रहा है बाट

आ नहीं रहे वे लौटकर

क्रांति की आकांक्षा वाले उस  कवि की तरह

जिसे परेशान नहीं करते अब उसे पुराने सवाल

 

पालतू बना लेती है सत्‍ता फेंक कर कुछ टुकड़े

 

पहाड़ की छाती पर चल रही है मशीने

 

मैं रह गया हूं पहाड़ के साथ

ताकता हूं तो होता है दुख देख हवासगुम पहाड़ को  

प्रिय हो गया है पहाड़ मुझे

एक जैसे हैं हम दोनों के दुख

निकलना ही होगा मुझे

लेकर

पत्‍थर पड़े पहाड़ का संदेश

 


अम्मा के लिए


(1)

टिमटिमा रहे हैं न जो आकाश में

आंखें है पूर्वजों की 

नहीं होता है जब  सूरज 

तब जाग कर सारी रात 

देखती हैं - कुछ गलत तो नहीं कर रहे हम लोग


मैं भी ऐसे ही देखा करूंगी 

तुम्हें 

जब नहीं रहूंगी तुम्हारे पास


छलछला जाते थे हम


यही बात बताई मैंने

ठठा उठे बच्चे

दादी आपको मूर्ख बनाती थी पापा

ग्रह हैं तारे आंखे नहीं 


कैसे कहूं 

बात ज्ञान की नहीं

    आस्था की थी.


(2)

टेक आफ से लेकर लैंडिंग  तक 

खब्तुलहवास रहता हूं 

अक्सर बताते हैं सहयात्री


बच्चे दिखते रहे कब तक दर्शक-दीर्घा में

एयर-होस्टेस ने की कितनी देर प्रतीक्षा 

ले लूं इअर फोन

या  बता दूं कि शाकाहारी या मांसाहारी हूं मैं

कुछ पता नहीं 


बस खिड़की से मुंह सटाए आक्षितिज तलाशता रहा किसी को 


इन्हीं बादलों को दिखाकर बचपन में बताया था मां ने 

ज्यादा दूर नहीं बस जा रही हूं इन्हीं के पार    

खाली न हो जाए स्वर्ग-लोक 

इस डर से दिए नहीं जाएंगे मां को आने की इजाजत 

लेकिन देखूंगी तुम्हे हर रोज


क्या कहूं मैं किसी को

लाख समझाउं  खुद को

मानने को जी नहीं करता 

कि झूठ कहे थे मां ने 

 


सेवक 


(1)

कतारबद्ध हो जाओ शासकों

करबद्ध भी रहना 

झुका लो नजरें

किसी भी हाल में उठाना नहीं सिर

ऐडियां रखो चटखाने की मुद्रा में

पंजे रहें तैयार रेंगने के लिए 

आ रहे हैं तुम्‍हारे सेवक 


करना नहीं कोई सवाल

पूछें तो कहना ठीक है सब 

हो गई है दुगुनी-तीगुनी आय 

जब से आये हैं आप बह रही है दूध की नदी 

उसी में भिगोंकर खा लेता हूं खाजा

गर्म घी के कुंड में तल लेता हूं मशरूम


वर्षों से हो खानदानी शासक तुम

अच्‍छा नहीं लगेगा  रोना तुम्‍हारा दुखड़ा

सेवक को होगा दुख 

चौबीसो घंटे खटता है वह तुम्‍हारे बेहतर दिन के लिए

त्‍याग दिया है घर-परिवार

कर देना न्‍योछावर तुम भी 

जो कुछ है तुम्‍हारे पास


(2)

कैसे शासक हो तुम 

आया नहीं अब तक तुमको पालना सेवक

रखते हैं कैसे ख्‍याल

करते हैं क्‍या–क्‍या जतन कि टिका रहे सेवक

सेवक की करते हैं कैसे अगवानी 

कुछ मालूम नहीं तुम्‍हे 

राख पड़े तुम्‍हारी शासकी पर 

नामुराद शासकों 

हो तुम गुलाम बनने के ही लायक

फुर्सत कहां है तुम्‍हारे सेवक को सोचने और भटकने से  पूरी दुनिया तुम्‍हारे हित में 

रक्षा सर्वोपरि है तुम्‍हारी मूर्ख शासकों 

कब समझोगे यह बात महज मिलने से आजादी 

आजाद नहीं हो गये हो

याद होगा तुम्‍हे 

जब सेवक था नहीं तुम्‍हारी सेवा में

बहने भर से तुम्‍हारे किसी रक्षक का खून 

उबाल आ जाता था उसकी रगों में 

चिंघाड़ उठता था वह

उसकी आंसुओं से आ जाती थी गंगा चिनाब में बाढ़

दोष तुम्‍हारा है

मूर्ख शासकों 

तुम ने रखा उसे काम पर तब 

जब पथरा गया उसका दिल 

बचा रह नहीं गया आंखों में पानी 

फिर भी चिन्‍तीत है वह 

देख ही रहे हो घूम-घूम कर जुटा रहा है असलहे

प्‍यादे टांग रहे हैं नींबू मिरची

कुछ तो करो शर्म 

बंद करो चिल्‍लाना रोटी-रोटी

खाने के लिए जरूरी है रहना जिंदा 

और जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं असलहें

ऐसा मानता है सेवक 

मान लो तुम भी 

विकल्‍प  है क्‍या तुम्‍हारे पास

खाकर मत मरो 

बर्वाद होगा देश का संसाधन 


(3)

कहने भर से कैसे मान ले सेवक कि निरापद हो तुम

भावी सेवकों से चतुर्दिक घिरे हो 

सेवक को रखनी पड़ती है इसीलिए हर पल तुम पर निगाह 

खाते-पकाते हो क्‍या 

बोलते-तियाते हो किससे

आते-जाते हो कहां-कहां

सबका रखना पड़ता है हिसाब सेवक को 


नादान हो तुम शासकों बरगला सकता है  कोई भी तुम्‍हे

सोचना भी नहीं बदलने को सेवक

पसंद नहीं सेवक को कि कोई निकालने खोट उसके काम में 

रोजी के लिए खूंखार हो सकता है सेवक

सावधान शासकों

करना मत फरामोशी एहसान


शासकों 

मिल गया है एक भला सेवक तुम्‍हे

खुशी की खातिर तुम्‍हारी 

दिखाता है तुम्‍हे कितने सब्‍जबाग 

और मान लेते हो तुम हकीकत उनको


शुक्र मनाओ


शुक्र मनाओ परवरदिगार

मसीहा तुम भी

और यदि अब तक  बढ़ी न हो आबादी

तो तैंतीस करोड़ देवी देवता लोग तुम भी


शुक्र मनाओं की तुम हो और सुरक्षित हो 


शुक्र मनाओ कि हो गई शाम और तुम ले रहे हो आरती-भोग का आनंद

सब शुभ का संकेत करती बजी हैं  घंटियां तुम्हारे घर


शुक्र मनाओ कि तुम अब भी दे लेते हो दर्शन

कर दिए जाओगे कब परदे की ओट में 

रोक दिया जाएगा कब आने से किसी को तुम तक 

बता नहीं सकता यह तो कोई नजूमी भी


शुक्र मनाओ कि अब भी टेर लेते हैं लोग तुम्हे 

तुम भी कर बना देते हो किसी किसी का काम

सब का तो संभव भी नहीं


शुक्र मनाओ कि अब तक पीटी नहीं गई है  मुनादी 

कि जिसे भी लेना हो तुम्हारा नाम 

पहले ले अनुमति, चुकाए कर

कम लाभ का ध्ंधा थोड़े ही है खोलना तुम्हारे नाम की दुकान


शुक्र मनाओ कि तुम्हारे पास भी है जर-जमीन 

भक्तों को छोड़ डाली नहीं है किसी और ने निगाह  


शुक्र मनाओ कि नहीं लगाने पड़ रहे हैं तुम्हे थाने - कचहरी के चक्कर

वरना ताकते रहते  तुम भी सूने आकाश में

और बेवशी में मलते रहते हाथ


शुक्र मनाओ -

चाहते हुए भी खुद को जब्त कर रखा है 

अबतक 

राजा ने 


नंगा दिख कर भी दिखना नहीं चाहता है राजा नंगा 

रह-रह कर बार-बार ठोक रहा है कपार 

राज-पाट के आनंद में बाधक बन रहा है कपड़ा 

कफन है बेदाग सफेदी राजा के लिए 













शुक्र मनाता हूं

 

(1)

शुक्र मनाता हूं हर शाम 

लौट आया हूं घर सकुशल


शुक्र मनाता हूं कि लगा हूं जिस पेशे से 

बाढ़ हो या सूखा 

नहीं बटती है वहां से कोई राहत न होती है कोई खरीद

होता नहीं  है शहरी या ग्रामीण विकास

सड़का या पूल निर्माण का काम भी नहीं 


शुक्र है कि बच्चे जाते हैं जिस साइकिल से स्कूल 

गूंजती  है उसकी आवाज अगले-पिछले चौराहे तक


शुक्र मनाता हूं कि  पत्नी ले आती है सौदा-सुलुफ बाजार से 

वरना क्या क्या करता मैं 

दौड़ता कहां कहां


शुक्र मनाता हूं कि रहता हूं जिस मुहल्ले में 

रहते हैं कुछ शोहदे, एक कुली, दो कबाड़ी, चार फेरीवाले और कुछ बेरोजगार आस-पास 

पूरा मुहल्ला सो लेता   हैं अब भी बेखटके सारी रात 

शुक्र मनाता हूं


(2)

शुक्र मनाता हूं कि राजा को नहीं मिलती है दंड

राजा की दया से होता है 

हाथों में न्याय दंड 

हां बदल जाए राजा तो दूसरी है बात

आंखों में नहीं भी रह सकता है पानी

रह जाए तो भी नया राजा करता नहीं है बहुत  हाय तौबा

छोड़कर रखनी ही पड़ती है कुछ संभावनाएं


राजा से हुई गलती, गलती ही होती है 

लेना ही पड़ता   है निर्णय कुर्बानी का 

कभी-कभी देश हित में

अब राजा दे तो नहीं सकता कुर्बानी अपनी

तख्त की भी नहीं 

जानता है राजा तख्त से उतरने का मतलब 


बेवजह पेरशान नहीं होता है राजा कुर्बानी देने वालों के लिए

कितनेां का रखा जा सकता है ख्याल

कर लेता है राजा चिन्ता अपनी 

कम है क्या यही


राजा को  किया नहीं जा सकता है परेशान

राजा से  पूछे नहीं जा सकते हैं सवाल


गवाह है दुनिया 

जब कभी मिली है दंड किसी राजा को 

बंटना पड़ा है इसे हिस्सों में


अच्छा नहीं होता है बंट जाना दुनिया का 

उससे तो अच्छा है मुक्त कर देना किसी राजा को

मंगलवार, 23 मार्च 2021

ममता कालिया और ब्लाइंड स्ट्रीट

 सुप्रसिद्ध कथाकार ममता कालिया ने हाल में प्रकाशित मेरे दृष्टिबाधितों की दुनिया पर केंद्रित उपन्यास ब्लाइंड स्ट्रीट को एक रात में पढ़ने के बाद ये टिप्पणी की है...

   

जब प्रदीप सौरभ जैसा हरफनमौला, जांबाज़ पत्रकार,छायाकार रचनासंसार में उतरता है तो पूरी तैयारी के साथ ऐसा करता है।"ब्लाइंड स्ट्रीट" प्रदीप का पांचवां उपन्यास है।आप कह सकते हैं कि यह एक दृष्टिसम्पन्न लेखक का दृष्टिबाधितों के संसार में आत्मीय प्रवेश है।मैंने खुद देखा है कि पिछले दो वर्षों में प्रदीप सौरभ की इस सूर-संसार में अच्छी खासी मित्र मंडली बन गयी है।

जो लेखक पत्रकारिता के ऊबड़ खाबड़ जगत से रचनात्मक दुनिया में आता है,उसके पास हमेशा बेहतर बहादुरी और तैयारी होती है।वह अपना कैमरा और कलम हर मोर्चे पर तैनात रखता है,चाहे वह  अंधेरी दुनिया के उजाले दिखाए या उजली दुनिया के अंधेरे।कभी वह हमें झुग्गी माफिया की कारस्तानियां दिखाता है तो कभी जामिया मिलिया का परिसर।

प्रायः समाज दृष्टिबाधितों को दयनीय,परनिर्भर और परास्त समझते हैं।सौरभ ने उनकी प्रतिभा,पराक्रम और आत्मनिर्भरता,विस्तार से बयान की है।महेश,नितिन त्यागी, राजेश ठाकुर सबकी अलग,मार्मिक परिस्थितियां हैं।खास बात यह कि सभी दृष्टिबाधितों में पढ़ने और आगे बढ़ने की अदम्य आकांक्षा है।

प्रदीप ने गहरे उतर कर अपनी कथा भूमि का संधान किया है।तरुण भटनागर के उपन्यास,"बेदावा" के बाद यह दूसरा उपन्यास है जो सिखाता है कि हर दृष्टिहीन व्यक्ति भिक्षुक नही होता।उसकी समझ और संवेदनशीलता हम आंखवालों से ज़्यादा सचेत और सजग होती है।"ध्वनियां उनके सामने दृश्य पैदा करती हैं और स्पर्श उसको उनका 

 एहसास"दिला देता है।ब्रेल लिपि में ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ना ,अनुसन्धान करना,और अध्यापन करना इनके लिए सहज व संभव कार्य हो गए हैं।प्रखर,प्रसिद्ध आलोचक  सुधीश पचौरी ने इसीलिए "ब्लाइंड स्ट्रीट" के लिए कहा है"प्रदीप सौरभ का यह उपन्यास,उनके अन्य उपन्यासों की तरह,हिंदी के चालू उपन्यास जगत के बीच अनूठी चमक रखता है"।पच्चीस अध्यायों में एक भी क्षण आप इस रचना से विमुख नहीं होते।

मेरे लिए तो यह दुगना अचम्भा है कि इलाहाबाद के अक्खड़,फक्कड़,मुंहफट पत्रकार ने इतना महत्वपूर्ण उपन्यास वर्षों के परिश्रम से लिख दिया।नयी किताब प्रकाशन की इस प्रस्तुति का स्वागत होना चाहिए..


अमेज़न लिंक :-

गब्बर सिंह का चरित्र चित्रण

 #p1 / परीक्षा में #गब्बरसिंह का चरित्र चित्रण करने के लिए कहा गया-😀😁


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दसवीं के एक छात्र ने लिखा-😉


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1. सादगी भरा जीवन-


:- शहर की भीड़ से दूर जंगल में रहते थे,


एक ही कपड़े में कई दिन गुजारा करते थे,


खैनी के बड़े शौकीन थे.😂


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2. अनुशासनप्रिय-


:- कालिया और उसके साथी को प्रोजेक्ट ठीक से न करने पर सीधा गोली मार दिये थे.😂


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3. दयालु प्रकृति-


:- ठाकुर को कब्जे में लेने के बाद ठाकुर के सिर्फ हाथ काटकर छोड़ दिया था, चाहते तो गला भी काट सकते थे😂


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4. नृत्य संगीत प्रेमी-


;- उनके मुख्यालय में नृत्य संगीत के कार्यक्रम चलते रहते थे..


'महबूबा महबूबा',😂


'जब तक है जां जाने जहां'.


बसंती को देखते ही परख गये थे कि कुशल नृत्यांगना है.😂😂


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5. हास्य रस के प्रेमी-


:- कालिया और उसके साथियों को हंसा हंसा कर ही मारे थे. खुद भी ठहाका मारकर हंसते थे, वो इस युग के 'लाफिंग पर्सन' थे.😂


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6. नारी सम्मान-


:- बंसती के अपहरण के बाद सिर्फ उसका नृत्य देखने का अनुरोध किया था,😀😂


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7. भिक्षुक जीवन-


:- उनके आदमी गुजारे के लिए बस  अनाज मांगते थे,


कभी बिरयानी या चिकन टिक्का की मांग नहीं की.. .😂


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8. समाज सेवक-


:- रात को बच्चों को सुलाने का काम भी करते थे ..


सो जा नही तो गब्बर सिंह आ जायेगा


 टीचर ने पढा तो आँख भर आई और बोली सारी गलती जय और वीरू की है!!


 😁😂😂😂😂

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

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