रविवार, 7 मार्च 2021

पत्रकार लेखक कवि क्या नहीं (थे ) हैं अज्ञेय/ मुकेश प्रत्यूष

सम्‍प्रेषण माध्‍यमों के अन्‍वेषी अज्ञेय का आज जन्‍मदिन है।


सारा संसार और आज का ही नहीं कल का संसार भी मेरी रचनाओं को पढ़े  लेकिन आज के या  सामने के सामाजिक की उपेक्षा करके यह संभव ही नहीं। क्‍योंकि लेखक अपने को अभिव्‍यक्‍त करता है लेकिन हमेशा दूसरे पर अभिव्‍यक्‍त करता है। लेखक के लिए दूसरे तक पहुचंना अनिवार्य है और इसलिए वह दूसरा कौन है, कब का है इसकी पहचान आवश्‍यक है। लेखक जो भी लिखता है उसकी पहली कसौटी यह है कि उसका लिखा हुआ उस व्‍यक्ति  तक पहुंचना  चाहिए  जिसके संस्‍कार लेखक को पहचानते हैं या  जिसके संस्‍कार को लेखक जानता है । अगर उस तक नहीं  पहुंच सका तो उसे यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि एक बड़े संसार  तक वह पहुंच जाएगा। 


अज्ञेय अपनी इस कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरते थे। सुदूर गांव-देहात के लोगों में उन्‍हें देखने और सुनने का आकर्षण था।  इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण मुझे मिला था  वाल्‍मीकिनगर में। 


लगभग आधी रात होने को आ गयी थी | चारो और से आदिम जंगल से घिरा छोटा-सा कस्‍बा वाल्मीकिनगर के नारायणी नदी का वह तट नीरवता का मौन साधक बना बैठा था | कही कोई कोलाहल नहीं | जैसे वन पशु उच्चारण भूल गए हों,  नदी का प्रवाह थम गया हो, और मंद समीर के संग लोगों का अस्तित्व तिरोहित हो गया हो | 


बाहर शीत गिर रही थी और पंडाल में तिल रखने को जगह नहीं थी | फिर भी लोग खड़े थे |  सब की आँखें एक पचहत्तर वर्षीय व्यक्ति पर टिकी थी जिसके  मुख से असाध्य वीणा के साधक से  प्रस्फुटित होते और मंत्रोचार से गूंजते शब्द तैर रहे थे - .. साहित्यकार के लिए कोई आम आदमी नहीं होता | साहित्य की, कला की दृष्टि से जिसे देखा जाये  वह खास है, अद्वितीय है |  जिसके देखने से आम आदमी खास हो जाये वही तो कला दृष्टि है .. जैसे आस्थावान के लिए  ईश्वर आम नहीं होता वैसे ही कलाकार के लिए आदमी आम नहीं होता । ऐसे ही भाषा आम नहीं होती .साधारण हो सकती है। साधारण इस अर्थ में कि वह सब की जानी-पहचानी होती है लेकिन कवि के प्रयोग में आते ही वह खास हो जाती है। सवाल आम या खास का नहीं है सवाल यह है कि आप जहाँ  पहुंचे वहाँ क्या लेकर पहुंचे | और, ऐसी ही न जाने कितनी बातें | उसके बाद नाच, जरा व्‍याध, क्‍या यही है नियति  सहित  लगभग दर्जन भर कविताओं का पाठ । फिर भी लोग न उठने को तैयार न हिलने को | उनकी  कविता असाध्‍य वीणा की पंक्तियां उन्हीं पर साकार हो रही थी - आ गए प्रियम्बद/ केश कम्बली/गुफागेह …… सब मंत्रमुगध। इस  घटना की याद मुझे आज भी उसी परिवेश में पहुंचा देती है।    


जब से मैंने लिखना शुरू किया था हमेशा यही इच्‍छा रहती थी कि काश मैं इसे अज्ञेय को दिखा पाता। 1986 में जब वत्‍सल निधि के सातवे लेखक शिविर में भाग लेने का निमंत्रण मिला तो सच कहूं रोमांचित हो गया था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि उनके  साथ सात दिनों तक 

 रहने का अवसर मिलेगा।


इस कवि-सम्‍मेलन में अज्ञेय के  पाठ से पहले आमंत्रित कवियों, जिनमें मैं भी एक था , ने काव्‍य पाठ किया था। मेरी कविता में एक शबद आया था गलबात। दूसरे दिन शाम को उन्‍होंने पूछा कल रात आपकी कविता में गलबात शब्‍द था, उसका प्रयोग होता है क्‍या बिहार में। यह तो पंजाबी का शब्‍द है। मैंने कहा हां यहां की क्षेत्रीय भाषा में आपसी बातचीत को गलबात कहते हैं । इलाजी हंसते हुए कहती हैं लोगों को शिकायत रहती है कि ये दूसरों को ध्‍यान से नहीं सुनते लेकिन हकीकत में ये शब्‍द-शब्‍द सुनते हैं। 


सभी लोग नदी किनारे बैठे थे अचानक उन्‍होंने कहा क्‍यों नहीं एक सामूहिक कविता लिखी जाए। कविता को सामूहिक संवेदना का इतिहास बनाने का इससे अच्‍छा अवसर क्‍या हो सकता था। सभी लोग सहर्ष तैयार हो गए। पहली और आखिरी पंक्ति अज्ञेय ने लिखी। उसके बाद उन्‍होंने प्रस्‍ताव रखा अब छह लोग मिलकर एक कविता लिखें। अज्ञेय ने अपने अतिरिक्‍त जिन पांच कवियों का चयन किया था उसमें मैं भी एक था।  तय हुआ पूरी कविता चौदह पंक्तियों की होगी। पहले क्रम से सभी एक-एक पंक्ति लिखेंगे फिर क्रम बदल कर एक-एक पंक्ति। अंतिम दो पंक्तियां अज्ञेय की होंगी। अंत में उन्‍होंने कहा  ये दोनों कविताएं वत्‍सल निधि  द्वारा प्राकशित की जाने वाली किताब में प्रकाशित की जाए्रगी। उसकी प्रतिलिपि रखने का उन दिनों हमारे पास कोई साधन नहीं था।  


शिविर के समापन से पहले सभी सहभाागियों को मानदेय और मार्गव्‍यय दिए गए। मुझे तीन सौ पचास रूपये मिले । शाम को  त्रिवेणी  बाजार , जहां  अच्‍छे  कैमरे, घडि़यां, टेपरिकार्डर  आदि वाजिब दाम पर मिल जाते थे, जाने का कार्यक्रम बना। पूर्व सांसद और रचनाकार शंकर दयाल सिंह ने साठ रूपये में अपने लिए कैमरे का एक बैग खरीदा और मुझसे कहा अच्‍छा है आप भी ले लीजिए । मेरे यह कहने पर कि मेरे पास कैमरा है नहीं तो बैग लेकर क्‍या करुंगा।  उन्‍होंने कहा तो कैमरा भी ले लीजिए। मेरा संकोच वह समझ गए कहा  पसंद करके मुझे बता दीजिएगा। 


मैं उन दिनों शकरदयालजी की पत्रिका मुक्‍तकंठ का संपादन करता था। पारिश्रमिक तय नहीं था अंक आने के बाद वे एक लिफाफा मुझे देते थे ।  अधिकांश मैं उसी दिन उनके किताबों की दुकान पारिजात प्रकाशन के प्रबंधक सुदामा मिश्रजी को देकर इस बीच खरीदी गई किताबों  का हिसाब कर लेता था। प्राय: लेखन से मिले पैसों से मैंने अबतक किताबें हीं खरीदी हैं ।  

अज्ञेयजी निकोन का एक एसएलआर कम्‍मरा खरीदा, जो काफी महंगा था। उन्‍हीं  से पूछ कर विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी (पूर्व अघ्‍यक्ष साहित्‍य अकादमी) ने यासिका का एक कैमरा खरीदा, मैंने भी ज्‍यादा दिमाग लगाने की बजाए उसी को लेना ठीक समझा। सच कहूं तो मुझे कैमरे के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी ।  सुबह मिली राशि को मिलाकर मेरे पास चार सौ रूपये थे उसे मैंने शंकरदयालजी को दे दिया।  उन्‍होंने  भुगतान कर दिया।  मुक्‍तकंठ का अगला अंक आने के बाद मुझे जो लिफाफा मिला  उससे मैं खरीदी गई किताबों का पूरा भुगतान नहीं कर पाया।


शिविर में आकर मैंने और विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने-अपने कैमरों से अज्ञेयजी के साथ फोटो ली । दूसरे दिन सुबह तिवारीजी ने उसी कैमरे से सुबह की सैर के बाद चाय पीते समय अज्ञेयजी के साथ मेरी एक तस्‍वीर ली और बाद में मुझे भेजा भी । कुछ तस्‍वीरें इलाजी ने भी भेजीं एक राइ‍टिंग पैड के साथ। इसकी भी एक अलग कहानी है शिविर के दौरान एक दिन  जंगल में घूमते हुए हम एक छोटे से मंदिर नरदेवी के प्रांगण में  बैठ गए थे । थोड़ी देर बाद अज्ञेयजी ने जेब से अपनी कलम निकाली और अपने  थैले में हाथ डाला फिर इलाजी की ओर देखा। इला समझ गईं क्या चाहिए।  मुझसे पूछा आपके थैले में राइटिंग पैड है क्‍या मैंने निकालकर उन्हे  दे दिया और उन्‍होंने अज्ञेयजी को। लेकर वे लिखने लगे। बात आई-गई हो गई। थोड़े दिनों के बाद मुझे एक रजिस्‍टर्ड पैकेट मिला उसमें पैड था। 


शिविर में एक दिन अज्ञेयजी ने कहा था सत्‍य केवल उतना नहीं जितने की खोज विज्ञान करता है । साहित्‍य भी  सत्‍य का  अन्वेषी  है।

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