ग़ज़ल के बारे में कुछ कहने से पूर्व मैं बता दूँ कि मैं कोशिश करूँगी कि सरलतम और संक्षिप्त ढंग से ग़ज़ल विधा की जानकारी दूँ ताकि हमारे नव रचनाकारों को ग़ज़ल समझने में आसानी रहे और मैं भारीभरकम शब्दों का प्रयोग ( जैसा कि उस्ताद प्रायः करते हैं ) नहीं करके सरल और छोटे-छोटे वाक्यों द्वारा अपनी बात कहूँगी ।
आप सभी को निम्नलिखित सामान्य बातें ज्ञात हैं परंतु नव रचनाकार जो अपने समूह हैं, उनके लिए एक बार दुहरा देती हूँ ।
ग़ज़ल क्या है ?
ग़ज़ल उर्दू की अत्यंत लोकप्रिय विधा है । नायिका के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति ( सुख़न गुफ़्तगू बाज़नान वा इश्क़बाजी कर्दन ) को प्रांरभिक रूप में ग़ज़ल कहा गया पर आज ग़ज़ल का फ़लक बहुत विस्तृत है, व्यापक है । संसार की पीड़ा, विसंगतियों और.सामयिक समस्याओं से लेकर हर विषय पर ग़ज़ल कही जा रही है ।
1-तकनीकी तौर पर ग़ज़ल क़ाफ़िया, रदीफ़,के नियमों से आबद्ध निश्चित लय खंड में रचे हुए शेरों की माला के समान है । जहाँ पहले शेर को मत्ला और अंतिम शेर को मक्त़ा कहते हैं।
2-ग़ज़ल का हर शेर एक स्वतंत्र इकाई है।
3-सभी शेर किसी निश्चित लय ( बह्र ) में बंधे होते हैं।
4-शेरों में रदीफ़ और क़ाफ़िया नियमानुसार होते हैं ।
-5-अंतिम शेर मक़ता होता है जिसमें शायर का नाम आता है परंतु यदि शायर अपने नाम का प्रयोग नहीं करता है तो फिर उसे मक़ता नहीं कहते।
-6- शेर का कथ्य या कथावस्तु इस तरह हो कि दोनों पंक्तियों को पढ़ने से अर्थ पूरा हो।
- संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ग़ज़ल.कविता का वह स्वरूप है जो भाषा विशेष का गुलाम नहीं ।
- जब किसी ग़ज़ल में रदीफ़ नहीं होता तो उसे 'ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहा जाता है।
- आमतौर पर ग़ज़ल का हर शेर स्वतंत्र होता है पर कभी कभी एक ही भाव पर पूरी ग़ज़ल कह दी जाती है ।
ग़ज़ल कहने के विधान ( व्याकरण ) को अरूज़ कहा जाता है ।
अब हम ग़ज़ल कहने में प्रयुक्त चीजों को समझते हैं -
1- शेर --
शेर का अर्थ है दो मिसरों ( पंक्तियों ) का समाहार ।परंतु अपने आप में पूर्ण कविता है । यानी शेर वह काव्य रूप है जिसके द्वारा हमें किसी बात का भाव या विचार पता चलता है।
शेर किसी एक वज़न या बहर में होना चाहिए , क़ाफ़िए की बंदिश में होना चाहिए और भाव, विचार संतुलित, उपयुक्त और रुचिकर होना चाहिए।
मिसरा = पंक्ति
1-मिसरा-ए-ऊला -
शेर की पहली पंक्ति को कहते हैं।
2- मिसरा- ए- सानी
शेर की दूसरी पंक्ति को कहते हैं।
उदाहरण -
मुरझाया फूल नज़र में नहीं रहता -
( मिसरा-ए-ऊला )
बेवज़ह कोई ख़बर में नहीं रहता -
( मिसरा- ए- सानी )
( गज़ल का पहला शेर हमेशा तुकांत होता है । )
शब्दों या पंक्तियों की लंबाई के आधार पर हम
शेर को तीन तरह का कह सकते हैं ।
1- छोटा
उदाहरण
जिससे तेरा बयान सुनते हैं।
नित नयी दास्तान सुनते हैं ।
2- मध्यम
अपनी मंज़िल पर पहुँचना भी, खड़े रहना भी।
कितना मुश्किल हे बड़े होके बड़े रहना भी ।
3-- लंबा
ऐ मेरे हमनशीं , चल कहीं और चल,इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं।
बात होती गुलों की तो सह लेते हम,अब तो कांटों पे भी हक़ हमारा नहीं ।
शायर ( कवि जो मौज़ू- कलाम कहने की सलाहियत रखता है, वही शायर है )
अब हम ग़ज़ल के अन्य पारिभाषिक शब्द समझेंगे
1- फ़र्द
हर शायर के साथ प्रायः ऐसा होता है कि जब वह कोई ग़ज़ल कहने बैठता है तो उसे पूरी ग़ज़ल में मात्र एक शेर ही बेहतरीन नज़र आता है तो वह उस शेर को अकेला ही रहने देता है , उसे फ़र्द का शेर कहते हैं।
2- रदीफ़
ग़ज़ल या क़सीदे के शेरों के अंत में, क़ाफ़िए के बाद जो भी अक्षर-समूह, शब्द या शब्द-समूह स्थायी रूप से आता है अथवा बार बार दोहराया जाता है, उसे रदीफ़ कहते हैं ।
उदाहरण
देख तो दिल की जां से उठता है।
ये धुआँ कहाँ से उठता है।
बैठने कौन दे है फिर उसको
जो तिरे आस्तां से उठता है।
यूँ उठे, आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है।
( मीर तकी मीर )
मीर साहब की इस ग़ज़ल में पहले शेर ( मतला ) के दोनों मिसरों के अंत में और दूसरे मिसरों के अंत में ' 'से उठता है' - बार बार आए हैं तो इन्हें ग़ज़ल की रदीफ़ कहा जाएगा।
यहाँ यह बात बताना आवश्यक है कि क़ाफ़िए की तरह रदीफ़ कोई अनिवार्य चीज नहीं क्योंकि बिना रदीफ़ के भी ग़ज़लें कही जातीं हैं।
3--क़ाफ़िया
ग़ज़ल के शेरों के अंत में, रदीफ़ के पहले जो अन्त्यानुप्रास शब्द आते हैं,उन्हें क़ाफ़िया कहा जाता है। जैसे ग़ालिब की एक ग़ज़ल में
कोई उम्मीद बर नहीं आती।
कोई सूरत नज़र नहीं आती ।
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती।
आगे आती थी हाले-दिल पर हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती ।
बर,नज़र,भर,पर क़ाफ़िए हैं।
नहीं आती रदीफ़ है।
4--
मिसरए-तरह
जब तरही मुशायरे या किसी लेखन समूह में किसी प्रसिद्ध शायर का शेर ( रदीफ़ क़ाफ़िए का उल्लेख करते हुए ) औरों को लिखने के लिए दिया जाता है और इस तरह लिखने वालों को ग़ज़ल की ज़मीन मालूम पड़ जाती है - उस मिसरे को मिसरए- तरह कहा जाता है।
5-- गिरह
तरही मुशायरों में या किसी ग्रुप में जब कवि अपनी तरफ से मिसरए-तरह में मिसर-ए- ऊला लगाकर एक ख़ूबसूरत शेर पेश करते हैं तो इसे गिरह लगाना कहते हैं ।
6- मतला ( मत्ला )
मतला का अर्थ है उदय । ग़ज़ल के पहले शेर को कहते हैं जिनमें रदीफ़ क़ाफ़िया एक ही होता है। ( सम तुकांत )
मतला और साधारण शेर में अंतर सिर्फ इतना है कि मतला के दोनों मिसरों या पंक्तियों में रदीफ़ और क़ाफ़िया का इस्तेमाल होता है लेकिन अन्य शेरों की दूसरी पंक्ति में ही रदीफ़ और क़ाफ़िया का प्रयोग होता है ( अन्य शेरों की पहली पंक्ति अतुकांत रहती है)
7- मक़ता
ग़ज़ल के अंतिम शेर को कहते हैं जिसमें प्रायः कवि का उपनाम या तख़ल्लुस रहता है। कवि ने उपनाम अगर नहीं डाला तो सामान्य रूप से आख़िरी शेर ही कहलाता है।
ग़ज़ल मेंं अक्सर विषम संख्या में शेर होते हैं जैसे 3,5,7,9,11 आदि ।
ग़ज़ल को लिखना नहीं कहना कहा जाता है।
Nice Article, Thank you for sharing a wonderful blog post
जवाब देंहटाएंएलन मस्क की जीवनी