बुधवार, 31 मार्च 2021

केदारनाथ मिश्र प्रभात का खंड-काव्य - कर्ण

 केदारनाथ मिश्र प्रभात का खंड-काव्य कर्ण मैंने लगभग चालीस साल पहले पढ़ा था। पता नहीं क्यों  उसकी ये पंक्तियां पिछले कुछ दिनों से बार-बार याद आ रहीं थीं – 


राजपाट की चाह नहीं है चाह न अपयश पाऊं

जिस पथ पर चलता हूं उसपर आगे बढ़ता जाऊं


मुकेश प्रत्यूष 

 

प्रभातजी की यह कृति जितना हिन्‍दी भाषी प्रदेशों में लोकप्रिय थी उतनी ही अहिन्‍दीभाषी राज्‍यों में  भी । । उनके इस खंड-काव्‍य के नायक महाभारतकालीन पात्र कर्ण  का चरित्र  न जाने कितने  रचनाकारों को लिखने के लिए प्ररित और प्रोत्‍साहित  ही नहीं बल्कि बाध्‍य किया था।  शिवाजी सावंत ने अपनी  औपन्यासिक कृति मृत्‍युंजय में  आभार स्‍वीकार करते हुए  लिखा है - केदारनाथ मिश्र प्रभात का कर्ण खंडकाव्य हिंदी साहित्य का एकमात्र गहना है। मैं कविश्रेष्ठ के एक ही शब्द पर कई-कई महीनों तक विचार करता रहा।  मैंने केदारनाथ जी का कर्ण खंडकाव्य सौ-सौ बार रटा। सुप्त मन में किशोरावस्था से  सोए पड़े अंगराज कर्ण खड़े होकर मेरे जागृत मन पर छा गए थे। बार-बार मेरा अंतर्जगत झकझोरने लगा - तुझे लिखना ही होगा दानवीर, दिग्विजयी, अशरण अंगराज कर्ण पर। 


मैंने सोचा, एक बार फिर से कर्ण  पढूं। प्रभातजी ने यह किताब मुझे दी थी। सभी बुक-सेल्‍फ खंगाल डाले, मिली नहीं।  याद नहीं किसी को दी थी या कई शहरों में सामान लाने-ले जाने के क्रम में कहीं गुम हो गई। नहीं मिली तो पढ़ने की इच्‍छा और भी बलवती हो गई। बाजार में ढूंढा,  नहीं मिली।  कुछ उन दोस्तों, परिचितों  से  चर्चा की जिनके पास इसके होने की संभावना थी।  उन्हीं में से एक ओमप्रकाश जमुआर ने कहा प्रभातजी के बेटे विजयजी, जो प्राय: मुम्‍बई में रहते हैं,  इन दिनों पटना में हैं।  संभव है उनके पास इसकी प्रति हो। उनका मोबाइल नंबर दिया।  विजयजी से मैं कभी मिला नहीं था। जिन दिनों मैं पटना आया प्रभातजी सेवानिवृत्त हो चुके थे। अपने राजेन्द्रनगर वाले घर के बरामदे में बैठे कुछ  लिखते-पढ़ते दिख जाते थे। वहीं मुलाकात-बात हो जाती थी।  फोन करते ही विजयजी ने कहा- हां एक प्रति मेरे पास है,  मैं  आपको पहुंचा दूंगा।  मुझे तुरंत डॉ नंदकिशोर नवल की एक बात याद आई-  जो कोई  ऐसी किताब किसी को दे वह मूर्ख और जो लेकर लौटा दे वह महामूर्ख।  इसके पीछे की घटना यह थी कि  मेरे पास महाकवि निराला  के काव्‍य-संग्रह  अनामिका के प्रथम संस्करण की एक प्रति थी।  हार्ड बाउंड। मैंने उसे बड़ी मुश्किल से एक पुस्तक विक्रेता से प्राप्त किया था   शिवनारायण, जो इन दिनों नई धारा के संपादक हैं, उन दिनों पटना विश्वविद्यालय में विद्यार्थी थे और अक्सर मेरे पास आया करते थे। एक दिन कहा उनके कोर्स में अनामिका है और  उनके पास नहीं है। अगर मैं दे दूं तो वे पढ़कर लौटा देंगे। मैंने सहजता से  उन्हें दे दिया । दूसरे दिन वे उसे  लेकर विश्वविद्यालय गए।  नवलजी निराला पढ़ाते थे।  उन्होंने उनके पास अनामिका की वह प्रति देखी और कहा मुझे एक दिन के लिए दीजिए।  एक विद्यार्थी के लिए अपने प्रोफ़ेसर की बात को ठुकराना थोड़ा मुश्किल होता है। दूसरे दिन नवलजी ने अनामिका के नये संस्‍करण की एक नई प्रति लाकर शिवनारायणजी को दी और कहा वह प्रति आप मेरे पास रहने दें।  शिवनारायणजी दुखी हुए लेकिन कुछ कह नहीं पाए।  मेरे पास आकर यह घटना बताई। नवलजी से मेरे काफी अच्‍छे संबंध  रहे हैं, बाद के दिनों में वे मेरे  शोध-निर्देशक  भी रहे।  मेरी कविता की समझ  काफी हद तक उनके सान्निध्‍य में ही विकसित हुई है मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है।  प्राय: उनके घर आना-जाना रहता था।  मैं उसी दिन नवलजी के घर  गया, पूरी घटना बताई और कहा अनामिका की वह प्रति मेरी है, अनुरोध किया लौटा दें।  नवलजी ने कहा कि जो ऐसी किताबें किसी को दे वह मूर्ख और जो लेकर लौटा दे वह महामूर्ख। मैं आपके पास भी इसे देखता तो किसी तरह ले ही आता। मैं समझ गया  अब यह किताब लौटने से रही। सुदर्शन की कहानी हार की जीत में जो हालत बाबा भारती की हुई थी घोड़ा छीन जाने के बाद लगभग वैसी ही  स्थिति मेरी हो गई।  नवलजी ने बाद के दिनों  में मुझे कई किताबें भेंट की।   शिवनारायणजी ने भी उस वर्ष मेरे जन्मदिन पर नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन भेंट किया लेकिन एक अमूल्य किताब के खोने  का दुख मुझे बराबर रहा। 

खैर,  विजयजी के इस प्रस्ताव पर मुझे लगा यदि किसी कारण से मैं वह इकलौती प्रति नहीं लौटा पाया तो उन्‍हें बहुत पेरशानी हो जाएगी। अरूण कमल ने एक बार कहा था किसी पुस्‍तक की अंतिम प्रति  पंडितजी के शंख की तरह होती है। स्‍वयं से अलग नहीं करना चाहिए। मैंने विजयजी से कहा मूल प्रति  आप किसी भी स्थिति में किसी को नहीं दें,  मुझे भी नहीं।  मैं आकर फोटो-कापी करवा लूंगा।  उनके घर गया उन्होंने फोटो-प्रति करवा ली थी । उसके साथ प्रभात जी की अन्‍य  आधा दर्जन किताबें - कैकयी, प्रलीर ,शुभ्रा,  आदि  जिसकी अतिरिक्‍त प्रतियां उनके पास थी, मुझे दीं। उनके घर के पास रामधारी सिंह दिनकर का घर उदयाचल है। दिनकरजी और प्रभातजी लगभग समकालीन थे। दिनकरजी ने भी अन्‍य कृतियों के अतिरिक्‍त कर्ण के जीवन को आधार बनाकर रश्मिरथी की रचना की थी। पड़ोस में रहने के बावजूद विजयजी को यह नहीं मालूम था कि दिनकरजी के दूसरे पुत्र केदारनाथ सिंह, जो स्‍वयं भी कविताएं लिखते हैं और उनका एक काव्‍य-संग्रह  आंका सूरज बांका सूरज प्रकाशित है, उसमें  रहते हैं । केदार जी मेरे बहुत पुराने अग्रज मित्रों में हैं।  जब मैं राजेंद्र नगर में रहता था तो अक्सर उनसे भेंट हो जाया करती थी।  कोरोना भ्‍य के कारण  पिछले एक  वर्ष से हम दोनों का कहीं आना-जाना नहीं हुआ था।  हम दोनों केदार जी के घर गए।  काफी देर तक बातें होती रहीं।  भाभी (केदार जी की पत्‍नी) ने  चाय पिलाई और हमारी तस्वीर भी उतारी।  


कर्ण लेकर घर आया, पढ़ा।  शिवाजी सामंत की  ये पंक्तियां कहीं दूर नेपथ्‍य में गूंज रही थीं - जब-जब हाड-मांस के जीवित पुतले मृतकों की तरह आचरण करने लगते हैं,  तब-तब मृतकों को जीवित होकर बोलना ही पड़ता है।

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