सोमवार, 22 मार्च 2021

चालीस पार की औरतें / कलावंती सिंह

 आवारगी का अपने आकर्षण है ! 

कभी कभी स्त्री सोचती है 

अपने घर गृहस्थी से ऊबकर 

अपनी उम्र के चालीसवें पड़ाव पर 

अतृप्त कामनाओं के प्रेत उसे डराते हैं 

लिखी जो चिट्ठी उसने बीसवें बरस में 


पोस्ट कर दी थी गुमनाम पत्ते पर 

उस चिट्ठी की याद सताती है 

कभी कभी वह सोचती है फिर से 

लिखेगी एक चिट्ठी ठीक मृत्यु से पहले 

अबकी भेजेगी सही पते पर !! 


-कलावंती सिंह 


कवि -आलोचक कलावंती सिंह का पहला कविता संग्रह इस तरह की अनेक ज़ोरदार कविताओं का मोहक संकलन है. 

कलावंती जी की कई कविताएँ पढी है मैंने. संग्रह में ज़्यादातर छोटी कविताएँ हैं. कवि की ही पंक्ति उधार लेकर कहूँ तो ये कविताएँ अपनी चोंच में जिंदगी समेटने का दावा करती हुई कविताएँ हैं जो ज़िंदगी के छंद बचा कर रखना चाहती हैं. तमाम विरोधों के बीच, स्त्री विद्वेषी माहौल में जीते हुए आस्था और उम्मीद का राग गाती हैं. उजास को कभी फीका नहीं पड़ने देती हैं. 

यह किताब अपनी एक लंबी शीर्षक कविता “ चालीस पार की औरत “ जो तीन भागों में है, उसके लिए याद की जाएगी. 

कुछ वर्ष पहले जब यह कविता प्रकाशित हुई थी तब ख़ूब चर्चा बटोरी थी. आज भी इसकी धमक कम नहीं हुई है. मेरी प्रिय कविताओं में से एक है ये कविता. 

इसका एक पैरा सुनाती हूँ - 


“ कलावंती जी !!

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