शनिवार, 27 मार्च 2021

साहित्यिक गोष्ठी के बहाने मूल्यांकन / मुकेश प्रत्यूष

 विष्णुपद मंदिर से बाहर निकलने के बाद गया की कविता शहर की सीमाओं की तरह तेजी से फैली।  काफी दिनों तक इसका स्वर शहर की प्राचीन मान्यताओं की तरह धार्मिक बना रहा । कविता  शगल के लिए लिखी जाती रही।

 वक्त के साथ जब शहर ने करवटें बदलना शुरू किया और समकालीन मूल्यों पर अपनी परंपराओं को परखना शुरू किया तो यहां की कविता के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ और स्वर में भी।  एक शहर के सच को दुनिया के अन्य हिस्सों के सच के साथ जोड़कर देखने की कोशिश शुरू हुई। 

गया जिला हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  पुराना गया जिला (वर्तमान में गया, जहानाबाद, अरवल जिला) की साहित्यिक गतिविधियों का केन्‍द्र बन गया ।

 नियमित साहित्यिक आयोजनों के अतिरिक्‍त इस जिले की रचनाशीलता को उजागर करने हेतु समय-समय पर महत्‍वपूर्ण पुस्‍तकों का प्रकाशन भी किया है। 

लगभग तीन दशक पूर्व आदि काल से लेकर बीसवीं सदी के नवें दशक तक के उन कवियों, जिनकी जन्‍म-भूमि या कर्म-भूमि  यह रही है, की प्रतिनिधि कविताओं के तीन संकलन शहर से गुजरते हुए, अश्‍वत्‍थ खड़ा है आज भी, यह रेत चंदन है, का प्रकाशन  किया गया था। इन संग्रहों का  संपादन मैंने नवगीतकार रामनरेश पाठक के साथ किया था। 


राधानंदन सिंह गया जिला हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन से लंबे समय से जुड़े हैं। सेवानिवृति ‍ के  बाद ‍इन दिनों पूणे में रहते हैं। हाल ही में  इनकी एक किताब आई है – गया का साहित्‍य: परंपरा, प्रवृत्‍त‍ि   और प्रयोग। इसमें गया जिले के साहित्‍येतिहास का विस्‍तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

 साथ ही, आदिकाल से लेकर आद्यावधि तक के साढ़े चार सौ साहित्‍यकारों के व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व के संबध में व्‍यक्ति, कृति और शक्ति शीर्षक से विचार किया  गया है । 

गया के संदर्भ में राधानंदनजी ने दो अन्‍य किताबें भी लिखीं  हैं – पितृतीर्थ गया का पौराणिक और धर्मशास्‍त्रीय संदर्भ तथा विष्‍णुपदी पितृतीर्थ गया परंपरा, प्रवृत्ति और संस्‍कृति। एक शहर के प्रति राधानंदनजी का यह अनुराग स्‍पृहणीय है। 

मिथक  मानव के संपूर्ण अनुभवों की अभिव्‍यक्ति हैं इसे आधार मानकर इन्होंने एक शोध-प्रबंध मिथकीय अवधारणा और तुलसी साहित्‍य भी लिखा है। 

अपने काव्‍य-संग्रह सोने का मृग मारता छलांग के साथ राधानंदनजी ने ये पांचों पुस्‍तकें मुझे भेजी हैं। 

मुझे उनदिनों की याद आ गई जब लगभग हर शनिवार को सुरेन्‍द्र चौधरी, रामनरेश पाठक, बैजनाथ प्रसाद खेतान, अवधेन्‍द्र देव नारायण, गोपाललाल सिजुआर, राधाकृष्‍ण राय, रामपुकार सिंह राठौर, रामकृष्‍ण मिश्र,मिश्र, राधानंदन सिंह, प्रवीण परिमल, रूपक आदि प्राय: तीन पीढि़यों के रचनाकार गया जिला हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन में बैठते थे।  नई रचनाएं सुनते-सुनाते थे। टीका-टिप्‍पणी होती थी। नई योजनाएं बनती और कार्यान्‍वित होती थीं।


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