कबीर जीवन परिचय /कबीरदास (1398 – 1518 ई.)
भारतीय धर्म साधना के इतिहास में कबीर ऐसे महान् विचार एवं प्रतिभाशाली महाकवि हैं इनका जन्म 1398 ई. में हुआ कबीर सिकन्दर लोदी के समकालीन लोदी के समकालीन थे।
कबीर की रचनाओं का संकलन ’बीजक’ में है। संकलनकर्ता धर्मदास हैं।
कबीर की भाषा के विषय में विभिन्न मत –
कबीर को भाषा:-
पंचमेल खिचड़ी – श्यामसुंदर दास
सधुक्कडी – शुक्ल, गोविंद त्रिगुणायत
वाणी डिक्टेटर – Hpd
ब्रज भाषा – सुनीति कुमार
संत भाषा – डॉ बच्चन सिंह
अवधी भाषा – बाबू राम सक्सेना
सन्त काव्य के प्रतिनिधि कवि:
कबीर(1398-1518 ईस्वी,सं. 1455-1575)
⇒ कबीर की जन्मतिथि में मतैक्य नहीं है। एक प्रसिद्ध दोहे के अनुसार इनका जन्म सं. 1455 में हुआ था।
चौदह सौ पचपन साल गये,
चन्द्रवार एक ठाठ भये।
जैठ सुदी बरसाइत को, पूरनमासी प्रगट भये।।
इसी प्रकार एक जनश्रुति के अनुसार कबीर का निधन सं. 1575 में हुआ।
कबीर चरित्र बोध के अनुसार –
सवंत पन्द्रह सौ पछत्तरा, कियो मगहर को गौन।
माघ सुदी एकादशी, रलो पौन में पौन।।
जन्म व निधन स्थान ट्रिकः काम (का से काशी म से मगहर)
⇒ इसके अनुसार कबीर का समयकाल (सं. 1455-1575) 1398 ई. से 1518 ई. तक माना जा सकता है। कबीर का जन्म स्थान काशी है।
⇔ सिकन्दर लोदी (1488-1517) द्वारा कबीर के साथ किये गए अत्याचारों का वर्णन अनन्तदास कृत ’कबीर-परिचई’ में है।
⇒ किंवदन्ती के अनुसार स्वामी रामानन्द के वरदानस्वरूप एक विधवा ब्राह्मण कन्या को पुत्र प्राप्ति हुई, लोक-लाज के कारण वह पुत्र को लहरतारा के ताल पर फैंक आयी। अली या नीरू नामक जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया। (भक्तमाल के अनुसार)
⇒ ’कबीर परिचई’ के अनुसार कबीर जन्म से जुलाहे थे। निवास स्थान काशी तथा कबीर के गुरु रामानन्द थे, सिकन्दर लोदी ने अनेक प्रकार की यातनाएँ दी, 120 वर्ष तक पवित्र जीवन पाया।
⇒ जनश्रुतियों में प्रसिद्ध है कि नीरू जुलाहा तथा उसकी पत्नी नीमा ने कबीर का पालन-पोषण किया। कबीर की पत्नी का नाम लोई था। उनकी सन्तान के रूप में पुत्र कमाल और पुत्री कमाली का उल्लेख मिलता है।
⇔ आजकल की उपलब्ध रचनाओं में कबीर के पद, साखियाँ, रमैनियाँ एवं कुछ अन्य प्रकार की रचनाएँ सम्मिलित है। पंचबानी, सर्वंगी आदि ग्रंथों में अन्य कवियों के साथ कबीर की भी रचनाएँ संगृहीत है। कबीर-बीजक, कबीर-बानी तथा सत्य कबीर साखी जैसे स्वतन्त्र काव्य संग्रह भी वर्तमान में उपलब्ध है।
⇒ सिकन्दर लोदी (सं. 1545-1574) के अत्याचारों का वर्णन भक्तमाल की टीका (प्रियादास) में हुुआ है।
⇔ बघेल राजा नाहरसिंह देव कबीर के समकालीन थे। सिकन्दर शाह का काशी आगमन कबीर से संबंधित है
⇒ गुरुग्रंथ साहब (अर्जुन देव, 1661) में कबीर के पदों का ’रागू’ व सलोक शीर्षक से संकलन किया गया है।
⇔ डाॅ. बच्चन सिंह ने लिखा है, ’हिन्दी भक्ति काव्य का प्रथम क्रान्तिकारी पुरस्कर्ता कबीर है।
⇒ मुसलमानों के अनुसार कबीर के गुरु का नाम सूफी फकीर शेख तकी था। ये सिकन्दर लोदी के पीर (गुरु) है।
⇔ कबीर की वाणी का संग्रह उनके शिष्य धर्मदास ने ’बीजक’ नाम से सन् 1464 ई. में किया। बीजक के तीन भाग किए गए हैं- (1) रमैनी (2) सबद और (3) साखी।
⇒ कबीर की रचनाओं में प्रयुक्त छन्द एवं भाषा निम्न है –
रचना अर्थ प्रयुक्त छंद भाषा
रमैनी रामायण चौपाई + दोहा ब्रजभाषा और पूर्वी बोली
सबद शब्द गेय पद ब्रजभाषा और पूर्वी बोली
साखी साक्षी दोहा राजस्थानी, पंजाबी मिली खङी बोली
विशेषः
(1) साखी- इस भाग में कबीर द्वारा रचित दोहों को शामिल किया गया है।इसमें साम्प्रदायिक शिक्षा और सिद्धान्त के उपदेश है। इसकी भाषा सधुक्कङी है। इसका विभाजन 59 अंगो में किया गया है।
प्रथम अंग- गुरुदेव को अंग
अन्तिम अंग- अबिहङ को अंग
(2) सबद- इस भाग द्वारा रचित पदों का शामिल किया गया है।इसकी भाषा ब्रज या पूर्वी बोली है। इस भाग में कबीर के माया सम्बन्धी विचारों की अभिव्यक्ति हुई है।
(3) रमैणी- इस भाग में कबीर द्वारा रचित राम संबंधी पदों व चौपाईयों को शामिल किया गया है। इसकी भाषा ब्रज या पूर्वी बोली है।
⇒ कबीरदास की भाषा को ’पंचमेल खिचङी’, सधुक्कङी आदि नाम से अभिहित किया जाता है।
⇔ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ’भाषा का डिक्टेटर’ कहा है।
⇒ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ’’कबीर की वचनावली की सबसे प्राचीन प्रति सन् 1512 ई. की लिखी है।’’
⇔ कबीरदास के भाषा के सम्बन्ध में विद्वानों ने निम्नलिखित मत प्रस्तुत किये –
विद्वान कबीर की भाषा
श्याम सुन्दर दास पंचमेल खिचङी
रामचन्द्र शुक्ल सधुक्कङी
हजारी प्रसाद द्विवेदी भाषा के डिक्टेटर
⇒ कबीर की बानियों का सबसे पुराना नमूना ’गुरु ग्रन्थ साहिब’ में मिलता है।
⇒ कबीर के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण कथन अग्रांकित हैं –
रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार –
’’इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बङे भाग को सँभाला जो नाथ पंथियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्ति रस से शून्य शुष्क पङता जा रहा था।’’
रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार –
’’उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खङा किया।’’
रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार –
’’भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमें बङी प्रखर थी इसमें सन्देह नहीं है।’’
लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय लिखते है कि –
’’कबीर की रचनाओं में भारतीय निर्गुण ब्रह्मवाद, सूफियों का रहस्यवाद, योगियों की साधना, अहिंसा आदि की बातें होते हुए भी स्वामी की दृष्टि से सगुण ब्रह्म का उल्लेख हो गया है।
डाॅ. श्यामसुन्दर दास के अनुसार –
’’जहाँ कबीर की राख को समाधिस्थ किया गया था वह स्थान बनारस में अब तक कबीर चैरा के नाम से प्रसिद्ध है।’’
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार –
’’हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है तुलसीदास।’’
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
’’कबीर ने ऐसी बहुत बाते कही है जिनसे समाज सुधार में सहायता मिलती है पर, इसलिए उनको समाज सुधारक समझना गलती है।’’
डाॅ. बच्चन सिंह के अनुसार –
’’कबीर की भाषा संत भाषा है। भाषा की यह स्वाभाविकता आगे चलकर प्रेमचन्द में ही मिलती है।’’
डाॅ. श्यामसुन्दर दास के अनुसार –
’कबीर’ की भाषा का निर्णय करना टेढी खीर है, क्योंकि वह खिचङी है।’’
लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय लिखते है कि –
’’कबीर प्रधानतः उपदेशक और समाज सुधारक थे।’’
डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार –
’’भारतीय धर्मसाधना के इतिहास में कबीरदास ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली महाकवि है।’’
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
’’वे सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कङ फकीर थे।
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
’’भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था वे वाणी के डिक्टेटर थे।’’
आचार्य शुक्ल के अनुसार-
’’साम्प्रदायिक शिक्षा और सिद्धान्त के उपदेश मुख्यतः ’साखी’ के भीतर है, जो दोहों में है। इसकी भाषा सधुक्कङी अर्थात् राजस्थानी पंजाबी मिली खङी बोली है।’’
आचार्य शुक्ल के अनुसार –
’’निर्गुण पंथ में जो थोङा बहुत ज्ञान पक्ष है वह वेदान्त से लिया हुआ है। जो प्रेत तत्त्व है वह सूफीयों का है। अहिंसा, और प्रप्रति के अतिरिक्त वैष्णवता का और कोई अंश उसमें नहीं है। उसके सुरति और निरति शब्द बौद्ध सिद्धों के है।’’
डाॅ. चन्द्रबली पाण्डेय के अनुसार –
’’कबीर का रहस्यवाद प्रायः शुष्क और नीरस है।’’
डाॅ. बच्चन सिंह लिखते है कि –
’’यह कहना कि वे समाज-सुधारक थे गलत है। यह कहना कि वे धर्म-सुधारक थे, और भी गलत है। यदि सुधारक थे तो रैडिकल सुधारक। वे धर्म के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे।’’
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार –
’’वे (कबीर) भगवान के नृसिंहावतार के मानो प्रतिमूर्ति थे।’’
डाॅ. गणपतिचन्द्र गुप्त लिखते है –
’’कबीर की सैद्धांतिक या दार्शनिक मान्यताएँ अद्वैतवाद के अनुकूल है। व्यावहारिक क्षेत्र में कबीर पूर्णतः प्रगतिशील दिखाई पङते है।’’
बनारस की भाषा –
उदय नारायण तिवारी बाबू श्यामसुन्दर दास जी ने ’कबीर ग्रन्थावली’ में कबीर की रचनाओं का संकलन किया है। कबीर का जन्म उच्च कुल की विधवा के गर्भ से हुआ था। जिसने लोकापवाद के भय से इन्हें लहरतारा नामक तालाब के किनारे डाल दिया। भाग्यवश उधर से नीरू नामक जुलाहा अपनी पत्नी नीमा के साथ निकला, जो इन्हें उठाकर घर ले गया एवं पालन-पोषण किया। ये गुरु रामानन्द के शिष्य थे। इनकी दो सन्तानें थीं।
इनकी पत्नी का नाम लोई तथा पुत्र व पुत्री का नाम कमाल व कमाली था। इनका प्रारम्भिक जीवन काशी व अन्तिम जीवन मगहर में बीता। निरक्षर होने के बावजूद भी कबीर बङे-बङे दार्शनिकों, विद्वानों के कथन को कागज की लेखी कहकर ठुकरा देते थे। तार्किकता के क्षेत्र में अत्यन्त शुष्क, हृदयहीन, तीक्ष्ण प्रतीत होने वाले कबीर भक्ति की भावधारा में बहते समय सबसे आगे दिखाई देते हैं। निरक्षता को कबीर ने स्वयं स्वीकार किया है
यथा
मसि कागद छूयौं नहीं कलम गह्यौ नहिं हाथ।
कबीरदास जी के नाम पर हिन्दी में लगभग 65 रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें से 43 प्रकाशित हो चुकी है। गुरु ग्रन्थ साहिब में भी कबीर के दोहे संकलित हैं।
कबीर की विचारधारा को मुख्यतः दो पक्षों में बाँटा जा सकता है
सैद्धान्तिक
व्यावहारिक
सैद्धान्तिक दृश्टि से कबीर को किसी एक मत से सम्बन्धित नहीं किया जा सकता। उन्होंने अपने गुरु रामानन्द से रामभक्ति का मन्त्र प्राप्त किया था। उनके राम ’दुष्ट दलन रघुनाथ’ नहीं थे। राम से उनका अभिप्राय निर्गुण राम से था।
उनके शब्दों में –
दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।
उन्होंने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया है, तथा निर्गुण राम की उपासना का सन्देश देते हैं। ’निर्गुण राम जपहुँ रे भाई!’ उनकी रामभावना ब्रह्म भावना से सर्वथा मिलती है। उनके राम निर्गुण राम के ही पर्यायवाची हैं। ब्रह्म, जीव, जगत्, माया आदि तत्त्वों का निरूपण उन्होंने भारतीय अद्वैतवाद के अनुसार किया है। उनके अनुसार जगत् में जो कुछ भी है वह ब्रह्म ही है। अन्त में सब ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है
पाणी ही ते हिम भया, हिम हव्ै गया बिलाय।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाई।
संसार को मिथ्या व माया को भ्रम का आख्यान भी कबीर ने अद्वैतवादी विचारधारा के अनुरूप किया है
कबीर माया पापणी हरि सूँ करै हराम।
मुखि कइियाली कुमति की कहण न देई राम।।
कबीर भक्त थे। भक्ति के प्रसार के क्रम में ही उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा, हिंसा, माया, जाति-पाँति, छुआछूत आदि का उग्र विरोध किया।
तीर्थाटन का विरोध
गंगा नहाए कहो को नर तरिंगे
मछरी न तरी जाको पानी में घर है।
मूर्तिपुजा का विरोध
पाहन पूजे हरि मिलैं ता मैं पूजू पहार।
ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार।।
हिंसा का विरोध
दिन भर रोजा रखत है रात हनत है गाय।
यह तो खून वह बन्दगी कैसी खुशी खुदाय।।
बकरी पाती खात है ताको काढ़ी खाल।
जे नर बकरी खात है ताको कौन हवाल।।
जाति-पाँति छुआछूत का विरोध
एक बूँद ते विश्व रच्यो है को बाम्हन को शुद्रा।
एकै बूँद, एकै मलमूतर, एकै चाम एक गूदा।
एक जोति थै बिस्व उत्पन्ना को बामन को सूदा।।
साम्प्रदायिकता का विरोध
हिन्दू कहे मोहे राम पियारा और तुरक रहमाना।
आपस में दोऊ लरि मुए मरम न काहू न जाना।।
हिन्दू साम्प्रदायिकता का विरोध
वैष्णो की छपरी भली न साकत को गाँव।
भया तो क्या भया जाना नहीं बमेक।
छापा तिलक लगाई के दह्या लोक अनेक।।
कबीर की अखण्डता भक्ति और मानवतावादी प्रसंगों में आत्मदया का भी रूप लेती दिखती है। कबीर की सहज साधना पर कई धर्म दर्शनों के उदार तत्त्वों का प्रभाव था। ऐसे में वैष्णव भक्ति के प्रपत्ति वाद तथा समर्पण के आग्रह के कारण कबीर ईश्वर के सामने अपनी निरीहता को उद्घाटित करते दिखे।
पण्डित और मसालची दोनों सूझे नाहिं।
औरन को करे चाँदना आप अँधेरे माहिं।।
जिस प्रकार सिद्धों ने अपनी साधना में गुरु की महत्ता पर बल दिया कबीर भी सद्गुरु को ईश्वर से बढ़कर मानते हैं।
सतगुरु हम सौं रीझि कर एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का भीग गया सब अंग।।
सिद्धों, नाथों ने जिस प्रकार हठयोग साधना पर बल दिया। कबीर द्वारा नाद बिन्दु की साधना षटचक्रभेदन का प्रभाव दिखाई देता है। सिद्धों, नाथों ने तीनों नाङियों इङा, पिंगला व सुषुम्ना को ललना, रसना व अवघूतिका नाम दिया जबकि कबीर ने उन्हें गंगा, जमुना और सरस्वती नाम दिया।
कबीर ने योगियों के एकांगी दृष्टिकोण की आलोचना भी की
सून्न मरे अजपा मरे अनहद हूँ भरि जाय।
राम स्नेही न मरे राम पे बारा जाय।।
गगना पबना दोनों बिनसै, कहँ गया जोग तुम्हारा।
प्रतीकों के प्रयोग को लेकर कबीर बङे माहिर थे। उनकी उलटबाँसिया सिद्धों से प्रभावित हैं, जो विपरीत कथन के कारण लोगों को अचम्भित व चमत्कृत करती हैं।
समुन्दर लागी आग नदियाँ जलि कोइया भई।
देख कबीरा जाग मंछि रुखा चढ़ि गई।
उपर्युक्त दोहे में समुद्र मूलाधार चक्र का प्रतीक, नदियाँ चित्त वृत्तियों तथा मछली कुण्डलिनी के लिए प्रयुक्त है। जीवात्मा माया के आवेश के कारण ही ब्रह्म से अलग-अलग दिखाई पङती है। इस माया को कबीर ने अविद्या नाम दिया। माया के आवेश में ही जीवात्मा सांसारिक भोग विलास में कसी रहती है। कबीर ने कहा है कि सतगुरु की कृपा से ही जीवात्मा का आध्यात्मिक जागरण सम्भव हैं।
〉〉महावीर प्रसाद द्विवेदी जीवन परिचय देखें
यहाँ आध्यात्मिक जागरण जीवात्मा को निरती से सुरति की ओर उन्मुख करता है। साधक को पता चलता है कि जीव व परमात्मा के बीच माया बन्धन का काम कर रही है। गुरु की कृपा से ही जीव व ब्रह्म के बीच अभेद सम्बन्ध का उद्घाटन सम्भव है।
जल में कुम्भ कुम्भ में जल बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तथ्य कह्यो ज्ञानी।।
उपरोक्त दोहे में घङा माया का प्रतीक है, घङे का जल (जीवात्मा), बाहर का जल (परमात्मा) का प्रतीक है। कबीर का काव्य रमणीय है। अलंकार, प्रतीक, भाषा, छन्द आदि की दृष्टियों से उच्चकोटि का है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को सधुक्कङी, डाॅ. श्याम सुन्दर दास ने पंचमेल खिचङी, आचार्य विश्वनाथ प्रताप ने पूर्वी हिन्दी तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा।
कवि के रूप में भी कबीर का महत्त्व कम नहीं है। यद्यपि वे मूलतः भक्त, विचारक एवं समाज सुधारक थे, किन्तु उन्होंने जो कुछ अनुभव एवं चिन्तन किया उसे कविता के माध्यम से प्रस्तुत कर दिया गया तथा समाज सुधारक कार्य भी अपनी काव्यमय उक्तियों के माध्यम से किया। वे शुष्क से शुष्क तथ्य को भी अपनी कल्पनाशक्ति के बल पर अत्यन्त आकर्षक रूप प्रदान कर देते थे।
अस्तु कबीर के पास न केवल उदात्त विचार, पवित्र भावनाएँ एवं गम्भीर अनुभूतियाँ थी बल्कि उनमें कल्पना की वह शक्ति थी जिसके बल पर वे अपने विचार भाव अनुभूति को रूपान्तरित करते हुए उसकी शक्ति को पूर्णतः उद्दीप्त कर सके। अतः कबीर का काव्य एक महान् व्यक्ति के महान् विचारों एवं भावों की सफल अभिव्यक्ति है। उनका काव्य शान्ति प्रदान करता है। उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं।
क्या कबीर की भाषा सधुक्कङी थी ?
प्रश्न . ’’कबीर की भाषा सधुक्कङी थी’’- इस कथन के औचित्य पर सौदाहरण विचार कीजिए।
उत्तर- कबीर की भाषा को लेकर हिन्दी साहित्य के आलोचकों के बीच एक विवाद की स्थिति है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनकी भाषा को सधुक्कङी भाषा कहा है। डाॅ. गोविन्द त्रिगुणायत का मानना है कि कबीर की भाषा का निर्माण अनेक बोलियों के शब्दों के मिलने से हुआ है। डाॅ. श्यामसुन्दर दास ने उनकी भाषा को पंचमेल की खिचङी कहा है, जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनके भोषिक वैविध्य एवं समाहार शाब्दिक क्षमता के कारण उन्हें वाणी का डिक्टेटर घोषित किया।
कबीर की भाषा को लेकर आलोचकों ने जो विचार व्यक्त किए हैं, उसके मूल में स्वयं कबीर के भाषा की प्रकृति एवं संत कवियों का अभिग्राही व्यक्तित्व काफी हद तक जिम्मेदार है। मूलतः संत होने के कारण उन्होंने अपने संप्रदाय से संबंधित मान्यताओं का प्रचार करना अपना उद्देश्य माना। फलतः जगह-जगह घूमकर उन्होंने अपने संप्रदाय की मान्यताओं का प्रचार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि स्थान-स्थान की बोलियों के शब्दों का उनकी भाषाओं में समावेशन हुआ।
उनकी बोलियों का भाषिक वैविध्य बढ़ता गया और उनकी बोलियों में उस समय के प्रचलित भाषा रूपों जैसे राजस्थानी, ब्रजी, अवधी, भोजपुरी, पूर्वी तथा पंजाबी सभी का समावेश हुआ। डाॅ. गोविन्द त्रिगुणायत ने ’कबीर ग्रंथावली’ एवं ’संत कबीर’ नामक कबीर के दो संग्रहों के आधार पर उनके भाषा के बारे में निम्नलिखित विचार व्यक्त किए हैंः
कबीर की काव्य भाषा :
✔️ कबीर की भाषा में भोजपुरी अधिक है, यथा-पहरवा, मनवा, खटोलवा आदि।
⇒ कबीर की भाषा में पंजाबीपन भी है, जो उनके पंजाब से गुजरने का प्रमाण है।
✔️ बंगाली, मैथिली, राजस्थानी आदि सभी प्रांतों की प्रभावात्मक शब्दावली कबीर की वाणी में मिलती है।
वस्तुतः कबीर सहित सभी संत कवियों की भाषा मूल आधार तो खङी बोली का ही है, किन्तु उसमें संस्कृत, अरबी, देशज शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। इसे हम निम्नलिखित रूप में देख सकते हैं-
✔️ संस्कृतः गगनमंडल, अमृत, कुटुंब इत्यादि।
⇒ अरबीः हक, जुलुम, मस्ताना, इश्क इत्यादि।
✔️ देशजः मुंडारा।
⇒ पंजाबीः अंखडिया, बिच इत्यादि।
कबीर की भाषा के सर्वग्राही होने का एक बङा कारण उनका संत होना एवं अपने सम्प्रदाय की मान्यताओं के प्रचार के लिए स्थान-स्थान पर घूमना है तो दूसरा कारण कबीर का अभिग्राही व्यक्तित्व रहा है। कबीर ने अपने दार्शनिक मान्यताओं, साधन पद्धतियों एवं वैचारिक आधारों को विभिन्न अन्य साम्प्रदायों में प्रचलित प्रतीक विधान एवं मूल शब्द थे, वे भी उनकी भाषा में शामिल हो गए। उदाहरण के लिए संत कवियों ने अपने साधनात्मक रहस्यवाद से संबंधित प्रतीकों को नाथ परम्परा से ग्रहण किया था।
कबीर की काव्य भाषा :
फलतः नाथों के साहित्य में जो उलटवासियां दिखतीं है, वे सब के सब हमें कबीर की कविताओं में भी दिखती है। जैसे- इदा, पिगला, सुसुम्ना इत्यादि के लिए सूर्य, चन्द्र इत्यादि का प्रतीक देना।
कबीर की भाषा की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि उसका रूप अधिकतर विषय व्यक्ति और भाव के अनुरूप है। जब वे किसी तरह के व्यक्ति या मत के संबंध में अपनी राय देते हैं, तब तद्नुकूल भाषा का प्रयोग करते है। यही कारण है कि जब वे हिन्दुओं, पंडितों एवं वैष्णवों को संबोधित करते हैं, तब उनकी भाषा खङी बोली के अनुकूल होती हैः
अरे इन दोनों राह न पाई
हिन्दु की हिन्दुआई देखे
तुरकन की तुरकाई।
पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाङ
तातै यह चांकि भली पीस खाये संसार।
इसी प्रकार जब वे मुल्लाओं पर हमला करते हैं, तब उनकी भाषा में उर्दूपन आ जाता है।
’’दिन में रोजा रखत हो
रात को नत हो गाय।’’
कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि कबीर की भाषा में जो शब्दों की समाजिक क्षमता है, उसका कारण संत कवियों की घुमक्कङी प्रवृति जो उनके द्वारा स्थान-स्थान पर उपदेश देने का स्वभाविक परिणाम तथा उनके व्यक्तित्व की अभिग्राही क्षमता है, किन्तु इनके कारण उनकी भाषा का सधुक्कङी एवं पंचमेल होना लगभग तय ही था। इन प्रवृतियों से उनकी भाषा की भावात्मक अभिव्यक्ति एवं अनुभव सांचा का जो गुण है, उसने उन्हें वाणी का डिक्टेटर के रूप में स्थापित कर दिया है।
लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु भार।।
कहौं संतो क्यूँ पाइये, दुलर्भ हरि-दीदार।।
कबीर की काव्य भाषा :
प्रस्तुत पद्यांश भक्त कवि संत कबीर द्वारा विरचित कबीर ग्रंथावली के ’सुमिरन के अंग’ पाठ से उद्धृत है। इस साखी में कबीर ने एक सुन्दर रूपक के द्वारा अपने भाव को व्यक्त किया है। पथिक का घर बहुत दूर है और मार्ग केवल लंबा ही नहीं है, दुस्तर भी है। मार्ग में बहुत से बटभार भी मिलते है। ऐसे में अपने निर्दिष्ट स्थान तक पहुंचना अत्यंत दुर्लभ है। घर पहुंचने के समान प्रभु की प्राप्ति अपना लक्ष्य है। अनेक योनियांे में भ्रमण करने पर कहीं जीव को यह अवसर मिलता है कि वह प्रभु की ओर अग्रसर हो।
इसलिए मार्ग को लम्बा कहा गया है। माया के कारण यह मार्ग अत्यंत दुस्तर भी है। राग-द्वेष, लोभ, मोह आदि बटभार हैं, जो साधक-पथिक की आध्यात्मिक यात्रा में अनेक विघ्न उपस्थित करते है। ऐसी दशा में प्रभु का दर्शन अत्यंत दुर्लभ है। इसलिए कबीर कहते हैं, चेत जाओ और गुरु की सहायता से सरल मार्ग से विघ्नों से बचते हुए अपने लक्ष्यों को प्राप्त करो।
विशेषः
1. विभावना अंलकार
2. एक रूपक के द्वारा स्पष्टीकरण
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साई कै चित्त।।
प्रस्तुत साखी भक्त कवि कबीरदास द्वारा विरचित कबीर ग्रंथावली के ’बिरह के अंग’ से उद्धृत है।
बिरही का शरीर रबाब वाद्य जैसा होता है और उसकी सारी रगें तन्त्रियों जैसी होती है। बिरह उसको नित्य बजाता रहता है। परन्तु उस धुन को दूसरा कोई नहीं सुन सकता। उसे प्रभु सुनते हैं, जिसे विरह में विरही व्याकुल होता है।
भाव यह है कि जीव को जब यह अनुभव होता है कि वह तत्व से पृथक हो गया है, तब उसके हृदय में मिलन की एक विचित्र व्यग्रता उत्पन्न होती है। इस व्यग्रता से उसके सारे शरीर में एक वेदना स्पन्दन होता रहता है, जिसका अनुभव केवल वह विरही कर सकता है अथवा जिसके लिए वेदना होती है वह जानता है।
विशेष-
⇒ रबाब-रबाब आधुनिक सरोद और सारंगी के माध्य का एक वाद्ययंत्र है, जो भारत में मध्यकाल में ईरान से आया।
✔️ सांगरूपक एवं विशेषोक्ति अलंकार।
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