सौन्दर्य बनाम सौन्दर्य का बोध
हिन्दी के भाववाचक विशेष्य (संज्ञा), ‘सौन्दर्य’ अथवा 'चातुर्य' के स्थान पर ‘सौन्दर्यता’ या 'चातुर्यता' का प्रयोग देखकर आप कैसा अनुभव करेंगे? सहज अनुमेय है, अच्छा नहीं। मैं भी बुरा अनुभव करता हूँ। मेरा यह आलेख उसी अनुभव का प्रकट परिणाम है।
कहानी ‘उसने कहा था’ के यशोधन लेखक चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का नाम आपमें से अधिकांश लोगों ने सुना होगा। उन्हीं की पुस्तक है ‘पुरानी हिन्दी’ (साहित्यागार, चौड़ा रास्ता, जयपुर; नवीन संस्करणः 2005) इसकी पृष्ठ-संख्या :23 पर उन्होंने जयमंगल सूरि का अग्रांकित वाक्यांश उद्धृत किया है-‘पौरवनिताचातुर्यतानिर्जिता’। इसमें सूरि जी ने ‘चातुर्य’ के स्थान पर ‘चातुर्यता’ का आपत्तिकर प्रयोग कर रखा है। गुलेरी जी ने इस पर उपहास करते हुए लिखा- ‘‘जयमंगल सूरि ‘चातुर्यता’ लिखकर हिन्दी के डबल भाववाचक का बीज बोते हैं। यही बात ‘सौन्दर्यता’-प्रेमी लोगों के बारे में कही जा सकती है।
‘सौन्दर्य’ हिन्दी का पुंलिंग भाववाचक विशेष्य (संज्ञा) है, जिसका विकास गुणवाचक विशेषण ‘सुन्दर’ से हुआ है। सु (उपसर्ग)+उन्दी->उन्द् (क्लेदने) + अरः (प्रत्यय) = सुन्दरः का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है- सुष्ठ उनत्ति-आर्द्रीकरोति-- द्रवीकरोति चित्तमिति सुन्दरः, अर्थात् जो कोई व्यक्ति, पशु, स्थान या पदार्थ मनुष्य के चित्त को अच्छी तरह आर्द्र कर दे- द्रवीभूत कर दे- पिघला दे, वह ‘सुन्दर’ कहलाता है। संस्कृत/हिन्दी में इसके कई समानार्थी शब्द प्रचलित हैं; यथा- मनोहर, रुचिर, चारु, साधु, शोभन, मनोरम, रुच्य, रुचिकर, मनोज्ञ, मंजु, मंजुल, भद्रक, रमणीय, पेशल, अभिराम, सुमन, सुभग इत्यादि। ‘अमरकोषः में इसके लिए ग्यारह शब्द मिलते हैं। देखिए-
‘‘सुन्दर रुचिरं चारु सुषमं साधु शोभनम्।
कान्तं मनोरमं रुच्यं मनोज्ञं मंजु मंजुलम्।।
(तृतीय काण्डम् विशेष्यनिघ्नवर्गः)
सुन्दरस्य भावः सौन्दर्यम् (एकवचन नपुंसक लिंग), अर्थात् सुन्दर होने का भाव सौन्दर्य कहलाता है। हिन्दी में यह भाववाचक विशेष्य है, जिसका प्रयोग एकवचन पुंलिंग में होता है। संस्कृत में इसकी निर्माण-प्रक्रिया थोड़ी लम्बी है। षष्ठ्यन्त गुणवाचक प्रातिपदिक ‘सुन्दर’ में ‘ष्यञ्’/(य) प्रत्यय के योग से ‘सुन्दरस्य य’ बनता है। पुनः, पूर्ववत् सुप-लोप, अजादि वृद्धि तथा अन्त्य-लोप होकर प्रथमा विभक्ति एकवचन नपुंसक लिंग में ‘सौन्दर्यम्’ का रूप ग्रहण कर लेता है। आगे चलकर ध्वनिलोप-नियम के अन्तर्गत ‘म्’ का लोप होने से वही हिन्दी में ‘सौन्दर्य’ का रूप ले लेता है।
विशेष्य बनाने के लिए कई अन्य प्रत्यय हैं; यथा-
1. त्वम् (त्व); उदाहरण - गुरु+त्वम् = गुरुत्वम् (हिन्दी में गुरुत्व)
2. तल् (ता) ; उदाहरण - गुरु+तल् = गुरुता (हिन्दी में यही रूप)
3. इमनिच् (इमा); उदाहरण- गुरु+इमनिच् = गरिमा (हिन्दी में यही रूप)
4. अण् (अवम्); उदाहरण - गुरु+अण्= गौरवम् (हिन्दी में गौरव)
5. यत् (य); उदाहरण: मूलम्+यत् = मूल्यम् (हिन्दी में मूल्य)
इसीतरह, सुन्दरः+ष्यम् = सौन्दर्यम् (हिन्दी में सौन्दर्य)-रूप सिद्ध होता है। इसी नियम का अनुसरण करते हुए हम अन्य रूप भी साधते हैं; जैसे - ईश्वरः+ष्यञ् = ऐश्वर्यम् (ऐश्वर्य), चपलः+ ष्यञ् = चापल्यम् (चापल्य), मनुष्यः+ष्यञ् = मानुष्यम् (मानुष्य), मन्थरः +ष्यञ् = मान्थर्यम् (मान्थर्य), कुमारः+ष्यञ् = कौमार्यम् (कौमार्यम् (कौमार्य), मित्र + ष्यञ् = मैत्र्यम् (मैत्र्य), शुक्लः+ष्यञ् = शौक्ल्यम् (शौक्ल्य), निपुणः +ष्यञ् = नैपुण्यम् (नैपुण्य), दूतः + ष्यञ् = दौत्यम् (दौत्य), मूर्खः + ष्यञ् = मौर्ख्यम् (मौर्ख्य), सदृश: + ष्यञ् = सादृश्यम् (सादृश्य) इत्यादि। जहाँ तक ‘सौन्दर्यता’ का प्रश्न है, यह व्याकरणिक दृष्टि से सर्वथा असाधु प्रयोग है। जब ‘सुन्दर’ में ‘ष्यञ्’ प्रत्यय (तद्धित) लगाकर भाववाचक विशेष्य (एब्सट्रैक्ट नाउन) ‘सौन्दर्य’ बना ही लिया, तब स्त्रीलिंग प्रत्यय ‘तल्’ (ता) जोड़कर भाववाचक का भाववाचक विशेष्य ‘सौन्दर्यता’ (सुन्दरः + ष्यञ् +तल् (ता)) बनाना कहाँ की बुद्धिमत्ता है?
इससे न केवल शब्द का अपव्यय होता है, वरन् समय और ऊर्जा का भी। ऐसा करके हम स्वयं को उपहास का पात्र भी बना लेते हैं, जैसा कि जयमंगल सूरि ने चतुरः + ष्यञ् + तल् = चातुर्यता का प्रयोग कर स्वयं को उपहासास्पद बना लिया। उन्हें चतुरः का भाववाचक विशेष्य बनाने के लिए ‘ष्यञ्’ और ‘तल्’ में से किसी एक तद्धित प्रत्यय का ही प्रयोग करना चाहिए था; यथा- चतुरः + ष्यञ् = चातुर्यम् अथवा चतुरः + तल् (ता) = चतुरता।
अतएव, आप सौन्दर्य, सुन्दरता, सुन्दरत्व और सुन्दरिमा में से किसी एक का ही प्रयोग करें। किन्तु, ध्यान रखिए कि इनमें से प्रथम दो ‘सौन्दर्य’ और ‘सुन्दरता’ ही प्रचलन में हैं। ‘सुन्दरत्व’ और सुन्दरिमा’ व्याकरणिक दृष्टिकोण से शुद्ध होते हुए भी प्रचलन में नहीं हैं या फिर विरल रूप में हैं।
बहादुर मिश्र
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