विरले #सांगी प. #सुल्तान #चौरासिया
संक्षिप्त जीवन परिचय:-
गंधर्व कवि प. लख्मीचंद की आँखों का तारा व उनके सांगीत बेड़े में उम्रभर #आहुति देने वाले सांग-#सम्राट *पं. सुल्तान* का जन्म 1918 ई0 को गांव- #रोहद, जिला- झज्जर (हरियाणा) के एक मध्यम वर्गीय 'चौरासिया #ब्राह्मण’ परिवार मे हुआ। इनके पिता का नाम पं. जोखिराम शर्मा व माता का नाम हंसकौर था और वे #कस्तूरी #देवी के साथ गाँव #सरूरपुर कलां, बागपत-उ.प. मे #वैवाहिक बंधन मे बंधे थे। #पंडित #सुल्तान #शैक्षिक तौर पर बिल्कुल ही अनपढ़ थे, परन्तु गीत-संगीत की लालसा तो उनमे बचपन से ही थी क्यूंकि वे अन्य लोगो की तरह #मित्र-दोस्तों के साथ चलते-फिरते #भजनों-गीतों की पंक्तियों को गुन-गुनाते रहते थे। उसके बाद बाल्यकाल पूर्ण होते-होते, उन्हें कर्णरस एवं गीत श्रवण की ऐसी ललक लगी कि अपने गाँव से भी वे #कोसों-मीलों दूर जाकर #सांगी-#भजनियों के #काव्य सार को अपने अन्दर समाहित करते रहे। फिर किशोरावस्था के दिनों मे पंडित सुल्तान जी के जीवन मे एक नए संगीत अध्याय के अंकुर फूटने लगे। फिर #सौभाग्य से उन दिनो किशोरायु सुल्तान के गाँव रोहद मे प. लख्मीचंद के सांगो का कार्यक्रम शुरू था और एक दिन #बालक सुल्तान शाम को प. लख्मीचंद का सांग सुनकर अगले दिन जब सुबह खेतों की ओर उसी सांग की रचनाओं को ऊँची #आवाज मे गा रहे थे तो संयोगवश प. लख्मीचंद भी उसी तरफ सुबह सुबह घुमने निकले हुए थे। इसलिए जब प. लख्मीचंद ने बालक सुल्तान की मनमोहक आवाज सुनी तो #आकर्षण के कारण बालक सुल्तान के पास ही पहुँच गए और प. लख्मीचंद जी ने दोबारा से बालक सुल्तान से वही भजन सुनाने को कहा, जो सुल्तान उस समय गा रहे थे। फिर सुल्तान ने जब वही #भजन दोबारा प. लख्मीचंद वाली #लयदारी में गाया तो उनकी लय और स्मरण शक्ति को देखकर प. लख्मीचंद #अचंभित रह गए। फिर प. लख्मीचंद जी ने उस बालक से परिचय पूछने लगे। फिर बालक सुल्तान द्वारा अपना #परिचय देने पर प. लख्मीचंद उसी समय सुल्तान के साथ उसके घर जाकर उनके पिता #जोखिराम से मिले और कहाँ कि आज से आपका ये लड़का मेरे सांगीत बेड़े मे शामिल करने हेतु मुझको सौंपदो। फिर सुल्तान के पिता जोखिराम जी ने कहा कि ये लड़का मेरा क्या, आपका ही है, जब चाहे इसे अपने साथ ले जाओ। उसके बाद प. लख्मीचंद जी ने बालक सुल्तान को उसी दिन से अपने बेड़े मे शामिल कर लिया, क्यूंकि उस समय प. लख्मीचंद जी बालक सुल्तान के #गाँव मे ही #सांग कर रहे थे। फिर उसी दिन से प. लख्मीचंद जी ने बालक सुल्तान को अपना शिष्य बना लिया और अपने बेड़े मे शामिल कर उसको पारंगत कर दिया। फिर प. लख्मीचंद जी ने गुरु मन्त्र के रूप मे सुल्तान से कहा कि बेटा आज से अपने गाँव की बहन-बेटी को सम्मान देना और साधू-संतो व गौओ एवं गुरुओं के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित रहना। उसके बाद प. सुल्तान ने गुरु मंत्र द्वारा पूरी निष्ठां एवं श्रद्धा से गुरु की सेवा करके गायन-कला मे प्रवीण होकर ही अपनी इस सतत साधना और संगीत की आत्मीय पिपासा को पूरा किया। इस प्रकार फिर गुरु लख्मीचंद के सत्संग से शिष्य सुल्तान अपनी संगीत, #गायन, वादन और अभिनय कला मे बहुत जल्द ही पारंगत हो गए। इस प्रकार प. सुल्तान शुरू से आखीर तक हमेशा गुरु लख्मीचंद के संगीत-बेड़े में रहे और अपनी गायन-उर्जा से गुरु के सांगीत बेड़े को जीवनभर प्रकाशमय करते रहे।
वैसे तो पंडित सुल्तान भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके घनिष्ठ प्रेमीयों एवं कला के कायल जन साधारण ने पंडित सुल्तान के संबंध मे कितना ही उचित कहा है कि जो पंडित सुल्तान को एक साधारण सांगी समझते है, वे अल्पबुद्धि जीव ही है। वे केवल एक सशक्त सांगी ही नहीं, अपितु एक सर्वश्रेष्ठ गुरुभक्त के साथ-साथ प्रभावी कवि भी थे। वे एक बहुत ही साधारण व्यक्तित्व के साथ-साथ एक अदभुत साहित्य एवं संगीत कला के, इस हरियाणवी लोक-साहित्य मे बहुत बड़े सहयोगी भी है, जो इस आधुनिक युग के सांगियों व कवियों के लिए एक बहुत बड़ी मिशाल है। पंडित सुल्तान गोरे रंग के साथ-साथ एक मध्यम कद-काठी के धनी थे और दूसरी तरफ इनकी वेशभूषा धोती-कुर्ता व साफा सुहावनी होने के साथ इनकी प्रतिभा को और भी प्रभावशली बनाती थी। इनका सादा जीवन व रहन-सहन ही बेशकीमती आभूषण था, जो इतने प्रतिभावान होते हुए भी साधुवाद की तरह जरा-सा भी अहम भाव नहीं था। उनका यह साधुवाद चरित्र उनके सांग मंचन मे हमेशा ही झलकता था। उन्होंने कभी सांगो का लेखन तो नहीं किया परन्तु गुरु प्रभाव के कारण बहुत सी फुटकड़ रचनाएँ जरुर की, जिनकी संख्या 50 से 100 के आसपास है। अब साक्ष्य के तौर पर उन्ही रचनाओं मे से प. सुल्तान की कुछ साहित्यिक झलक निम्न है –
*कहै सुल्तान मौज कर घर मै, मन-तन की ले काढ सेठाणी,*
*भाईयाँ की सू समझ रही सै, तेरी पर्वत जितनी आड़ सेठाणी,*
*तेरे हंस-हंस करल्यु लाड सेठाणी, मेरा सोया निमत फेर तै जाग्या,*
*पिया जी की शान देखके, जणू सूखे धाना म्य पाणी आग्या,*
-(सांग-सेठ ताराचंद)-
*बात कहूँगी वाहे शुरू आली, भक्ति पार होई ध्रुव आली,*
*कहै सुल्तान म्हारे गुरु आली तूं वाहे चाल राखिये रे बेटा,*
*मतन्या काल राखिये रे बेटा, सासू क ख्याल रखिये रे बेटा,*
*बेटा सुणता जा*
-(सांग-सेठ ताराचंद)-
*लख्मीचंद का दास मनै, सुल्तान ज्यान तै प्यारा सै,*
*झूली-गाई नहीं मनै दुःख, तेरी ओड़ का भारया सै,*
*जिसकी मारी फिरै भटकती, वो चाल बाग म्य आरया सै,*
-(सांग-पद्मावत)-
उसके बाद फिर उन्होंने प. लख्मीचंद के बेड़े मे रहकर बहुत से सामाजिक कार्य किये, जैसे -जोहड़ खुदवाने, धर्मशाला बनवाने, #गौशाला बनवाने, #स्कुल बनवाने आदि हेतु अनगिनित चंदा इकठ्ठा करके उनको सम्पूर्ण करवाके उम्रभर अपने संरक्षण मे रखना और प. लख्मीचंद जी ने अपने सांगो द्वारा #उम्रभर जितना चंदा इकठ्ठा किया, उसमे सबसे बड़ा हाथ किसी का था तो वो था शिष्य सुल्तान का। इसके अलावा साधू-संतो की सेवा मे उम्रभर जुटे रहे, जैसे- अपने हाथों से उनके #कपडे धोना, उनकी #जटाओं को निर्मल करना और आश्रमों मे गौ माताओ के लिए #परिश्रम करना।
फिर सन 1945 के बाद गुरु #लख्मीचंद के पंचतत्व मे विलीन होने के समय से स्वयं के स्वर्ग सिधारने तक, उन्होंने उसी गुरु बेड़े के साथ सन् 1945 ई0 से 12 जुलाई, 1969 तक ताउम्र पंडित लख्मीचंद के सांगो का ही मंचन किया। प. सुल्तान ने अपने गुरु लख्मीचंद जी के जिन-जिन सांगो का उम्रभर ज्यादातर मंचन किया, वे निम्न मे इस प्रकार है- पूर्णमल, पद्मावत, राजा नल, शाही लकड़हारा, मीरा बाई, सेठ ताराचंद, राजा हरिश्चंद्र, चापसिंह-सोमवती, फूलसिंह-नौटंकी आदि।
संदीप कौशिक
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