हाशिया
जैसे उठाने से पहले कौर
निकालता है कोई अग्रासन
उतारने से पहले बिछावन से पैर
करता है कोई धरती को प्रणाम
तोड़ने से पहले तुलसी का पत्ता
या लेने से पहले गुरु का नाम
पकड़ता है कोई कान
वैसे ही, लिखने के पहले शब्द
तय करता है कोई हाशिये के लिये जगह
जैसे ताखे पर रखी होती है लाल कपड़े में बंधी कोई किताब
गांव की सिवान पर बसा होता है कोई टोला
वैसे ही पृष्ठ पर रहकर भी पृष्ठ पर नहीं होता है हाशिया
मोड़कर या बिना मोड़े
दृश्य या अदृश्य तय की गई सीमा
अलंध्य होती है हाशिये के लिये
रह कर भी प्रवाह के साथ
हाशिया बना रहता है हाशिया ही
तट की तरह
लेकिन होता नहीं है तटस्थ
हाशिया है तो निश्चिंत रहता है कोई
बदल जाये यदि किसी शब्द या विचार का चलन
छोड़ प्रगति की राह यदि पड़ जाये करनी प्रयोग-धर्मिता की वकालत
हाशिये पर बदले जा सकते हैं रोशनाई के रंग
हाशिये पर बदले जा सकते हैं विचार
हाशिये पर किये जा सकते हैं सुधार
इस्तेमाल के लिये ही तो होता है हाशिया
बिना बदले पन्ना
बदल जाता है सब कुछ
बस होती है जरुरत एक संकेत चिह्न की
जैसे बाढ़ में
पानी के साथ आ जाते हैं बालू
जद्दजेहद में बचाने को प्राण आ जाते हैं सांप
मारते सड़ांध पशुओं के शव
कभी-कभी तो आदमियों के भी
और चले जाते हैं लोग छोड़कर घर-बार
किसी टीले या निर्वासित सड़क पर
वैसे ही
झलक जाती है जब रक्ताभ आसमान के बदले गोधूलि की धुंध
हाशिया आ जाता है काम
पर भूल जाते हैं कभी कभी छोड़ने वाले हाशिया
हाशिये पर ही दिये जाते हैं अंक
निर्धारित करता है परिणाम हाशिया ही
हाशिया है तो हुआ जा सकता है सुरक्षित
पहाड़
दरवाजे पर खड़ा है पहाड़
पहाड़ झांक रहा है खिड़की से
बालकनी में पसरा हुआ है पहाड़
पहाड़ मुझे घेर रहा है
पहाड़ है तो पत्थर है
पत्थर है तो अंदेशा है
लुढकते पत्थर आ टिके है मुंडेर पर
मुंडेर दरक गई है
पहाड़ और पत्थर निकलने नहीं दे रहे घर से मुझे
कैद कर खुद को मैं देख रहा हूं पहाड़
देख रहा हूं पत्थर
देख रहा हूं दरार जो होती जा रही है चौड़ी
अंदेशा गहराता जा रहा है
छोड़ नहीं सकता घर-बार, कतर-ब्योंत कर जुटाए जीने के सामान
निकालने की सूरत बची नहीं कोई
सपनों पर पड़ गए हैं पत्थर
चोटी पर खिले हैं फूल
पत्थर पर लगी हुई है काई
दरारों में निकल आई है फिसलन
उंट आ तो गया है पहाड़ के नीचे
पहुंच नहीं पाएगाा फूल तक
किसी की पहुंच में नहीं है पहाड़
पत्थर किसी को पहाड़ तक पहुंचने नहीं देते
(2)
लंबी हुई छाया
मिटने लगी है होकर धुंधली
अंधेरा पसरने वाला है
वक्त हो रहा है अंधेरे के आराम का
सूरज समेट रहा है अपनी आखिरी किरण
जब बचा नहीं तेज, बची नहीं गर्मी
होकर शक्तिहीन रहने से खड़ा अच्छा है हो जाना वानप्रस्थ
फंस गया हूं मैं तलहटी में
हड़बड़ी में चुन रहा हूं गीली में सूखी लकडियां
उठा रहा हूं घास-फूस
लेकिन आग
वह भी तो पत्थरों के पास है
पत्थरों के पास जाना ही होगा मुझे.
(3)
धसक रहे हैं पहाड़
खिसक रहे हैं पहाड़
निर्माण चालू है पहाड़ पर
चिन्तित है पहाड को लेकर
क्या होगा जब नहीं रहेंगे पहाड़
न रोकने-बांधने के लिए मिलेंगी नदियां, न फेंकने के लिए पत्थर
हिल जाएंगी प्रजातंत्र की चूलें
रहेंगे नहीं पहाड़ तो नहीं होंगे जंगल
उगेंगे कहां पेड़
लाठी का वजूद है पेड़ से
तनकर खड़ा होने के लिए जरूरी है लाठी
प्रतिरोध का स्वर हैं पहाड़
आवाज देकर देखो
प्रतिध्वनियों, अनुगूंजों से भर जाएगा परिवेश
पहाड़ अकेला नहीं होने देता हमे.
(4)
पहाड़ को बचाने
निकले थे कुछ लोग
लेकर कंधे पर पहाड़
टांगे पहाड़ की लालटेन
ओढ़े कंबल
उतरते ही बढ़ गई तपिश
मिला नहीं पा रहे थे कदमताल
नियोन लाइट की दुनिया में फालतू थे लालटेन
टिेका दिया पहाड़ को वहीं कहीं
रख दिए उतार कर कंबल
फिर खो गए पता नहीं कहां
इंतजार में टिका में है पहाड़
कंबल जोह रहा है बाट
आ नहीं रहे वे लौटकर
क्रांति की आकांक्षा वाले उस कवि की तरह
जिसे परेशान नहीं करते अब उसे पुराने सवाल
पालतू बना लेती है सत्ता फेंक कर कुछ टुकड़े
पहाड़ की छाती पर चल रही है मशीने
मैं रह गया हूं पहाड़ के साथ
ताकता हूं तो होता है दुख देख हवासगुम पहाड़ को
प्रिय हो गया है पहाड़ मुझे
एक जैसे हैं हम दोनों के दुख
निकलना ही होगा मुझे
लेकर
पत्थर पड़े पहाड़ का संदेश
अम्मा के लिए
(1)
टिमटिमा रहे हैं न जो आकाश में
आंखें है पूर्वजों की
नहीं होता है जब सूरज
तब जाग कर सारी रात
देखती हैं - कुछ गलत तो नहीं कर रहे हम लोग
मैं भी ऐसे ही देखा करूंगी
तुम्हें
जब नहीं रहूंगी तुम्हारे पास
छलछला जाते थे हम
यही बात बताई मैंने
ठठा उठे बच्चे
दादी आपको मूर्ख बनाती थी पापा
ग्रह हैं तारे आंखे नहीं
कैसे कहूं
बात ज्ञान की नहीं
आस्था की थी.
(2)
टेक आफ से लेकर लैंडिंग तक
खब्तुलहवास रहता हूं
अक्सर बताते हैं सहयात्री
बच्चे दिखते रहे कब तक दर्शक-दीर्घा में
एयर-होस्टेस ने की कितनी देर प्रतीक्षा
ले लूं इअर फोन
या बता दूं कि शाकाहारी या मांसाहारी हूं मैं
कुछ पता नहीं
बस खिड़की से मुंह सटाए आक्षितिज तलाशता रहा किसी को
इन्हीं बादलों को दिखाकर बचपन में बताया था मां ने
ज्यादा दूर नहीं बस जा रही हूं इन्हीं के पार
खाली न हो जाए स्वर्ग-लोक
इस डर से दिए नहीं जाएंगे मां को आने की इजाजत
लेकिन देखूंगी तुम्हे हर रोज
क्या कहूं मैं किसी को
लाख समझाउं खुद को
मानने को जी नहीं करता
कि झूठ कहे थे मां ने
सेवक
(1)
कतारबद्ध हो जाओ शासकों
करबद्ध भी रहना
झुका लो नजरें
किसी भी हाल में उठाना नहीं सिर
ऐडियां रखो चटखाने की मुद्रा में
पंजे रहें तैयार रेंगने के लिए
आ रहे हैं तुम्हारे सेवक
करना नहीं कोई सवाल
पूछें तो कहना ठीक है सब
हो गई है दुगुनी-तीगुनी आय
जब से आये हैं आप बह रही है दूध की नदी
उसी में भिगोंकर खा लेता हूं खाजा
गर्म घी के कुंड में तल लेता हूं मशरूम
वर्षों से हो खानदानी शासक तुम
अच्छा नहीं लगेगा रोना तुम्हारा दुखड़ा
सेवक को होगा दुख
चौबीसो घंटे खटता है वह तुम्हारे बेहतर दिन के लिए
त्याग दिया है घर-परिवार
कर देना न्योछावर तुम भी
जो कुछ है तुम्हारे पास
(2)
कैसे शासक हो तुम
आया नहीं अब तक तुमको पालना सेवक
रखते हैं कैसे ख्याल
करते हैं क्या–क्या जतन कि टिका रहे सेवक
सेवक की करते हैं कैसे अगवानी
कुछ मालूम नहीं तुम्हे
राख पड़े तुम्हारी शासकी पर
नामुराद शासकों
हो तुम गुलाम बनने के ही लायक
फुर्सत कहां है तुम्हारे सेवक को सोचने और भटकने से पूरी दुनिया तुम्हारे हित में
रक्षा सर्वोपरि है तुम्हारी मूर्ख शासकों
कब समझोगे यह बात महज मिलने से आजादी
आजाद नहीं हो गये हो
याद होगा तुम्हे
जब सेवक था नहीं तुम्हारी सेवा में
बहने भर से तुम्हारे किसी रक्षक का खून
उबाल आ जाता था उसकी रगों में
चिंघाड़ उठता था वह
उसकी आंसुओं से आ जाती थी गंगा चिनाब में बाढ़
दोष तुम्हारा है
मूर्ख शासकों
तुम ने रखा उसे काम पर तब
जब पथरा गया उसका दिल
बचा रह नहीं गया आंखों में पानी
फिर भी चिन्तीत है वह
देख ही रहे हो घूम-घूम कर जुटा रहा है असलहे
प्यादे टांग रहे हैं नींबू मिरची
कुछ तो करो शर्म
बंद करो चिल्लाना रोटी-रोटी
खाने के लिए जरूरी है रहना जिंदा
और जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं असलहें
ऐसा मानता है सेवक
मान लो तुम भी
विकल्प है क्या तुम्हारे पास
खाकर मत मरो
बर्वाद होगा देश का संसाधन
(3)
कहने भर से कैसे मान ले सेवक कि निरापद हो तुम
भावी सेवकों से चतुर्दिक घिरे हो
सेवक को रखनी पड़ती है इसीलिए हर पल तुम पर निगाह
खाते-पकाते हो क्या
बोलते-तियाते हो किससे
आते-जाते हो कहां-कहां
सबका रखना पड़ता है हिसाब सेवक को
नादान हो तुम शासकों बरगला सकता है कोई भी तुम्हे
सोचना भी नहीं बदलने को सेवक
पसंद नहीं सेवक को कि कोई निकालने खोट उसके काम में
रोजी के लिए खूंखार हो सकता है सेवक
सावधान शासकों
करना मत फरामोशी एहसान
शासकों
मिल गया है एक भला सेवक तुम्हे
खुशी की खातिर तुम्हारी
दिखाता है तुम्हे कितने सब्जबाग
और मान लेते हो तुम हकीकत उनको
शुक्र मनाओ
शुक्र मनाओ परवरदिगार
मसीहा तुम भी
और यदि अब तक बढ़ी न हो आबादी
तो तैंतीस करोड़ देवी देवता लोग तुम भी
शुक्र मनाओं की तुम हो और सुरक्षित हो
शुक्र मनाओ कि हो गई शाम और तुम ले रहे हो आरती-भोग का आनंद
सब शुभ का संकेत करती बजी हैं घंटियां तुम्हारे घर
शुक्र मनाओ कि तुम अब भी दे लेते हो दर्शन
कर दिए जाओगे कब परदे की ओट में
रोक दिया जाएगा कब आने से किसी को तुम तक
बता नहीं सकता यह तो कोई नजूमी भी
शुक्र मनाओ कि अब भी टेर लेते हैं लोग तुम्हे
तुम भी कर बना देते हो किसी किसी का काम
सब का तो संभव भी नहीं
शुक्र मनाओ कि अब तक पीटी नहीं गई है मुनादी
कि जिसे भी लेना हो तुम्हारा नाम
पहले ले अनुमति, चुकाए कर
कम लाभ का ध्ंधा थोड़े ही है खोलना तुम्हारे नाम की दुकान
शुक्र मनाओ कि तुम्हारे पास भी है जर-जमीन
भक्तों को छोड़ डाली नहीं है किसी और ने निगाह
शुक्र मनाओ कि नहीं लगाने पड़ रहे हैं तुम्हे थाने - कचहरी के चक्कर
वरना ताकते रहते तुम भी सूने आकाश में
और बेवशी में मलते रहते हाथ
शुक्र मनाओ -
चाहते हुए भी खुद को जब्त कर रखा है
अबतक
राजा ने
नंगा दिख कर भी दिखना नहीं चाहता है राजा नंगा
रह-रह कर बार-बार ठोक रहा है कपार
राज-पाट के आनंद में बाधक बन रहा है कपड़ा
कफन है बेदाग सफेदी राजा के लिए
शुक्र मनाता हूं
(1)
शुक्र मनाता हूं हर शाम
लौट आया हूं घर सकुशल
शुक्र मनाता हूं कि लगा हूं जिस पेशे से
बाढ़ हो या सूखा
नहीं बटती है वहां से कोई राहत न होती है कोई खरीद
होता नहीं है शहरी या ग्रामीण विकास
सड़का या पूल निर्माण का काम भी नहीं
शुक्र है कि बच्चे जाते हैं जिस साइकिल से स्कूल
गूंजती है उसकी आवाज अगले-पिछले चौराहे तक
शुक्र मनाता हूं कि पत्नी ले आती है सौदा-सुलुफ बाजार से
वरना क्या क्या करता मैं
दौड़ता कहां कहां
शुक्र मनाता हूं कि रहता हूं जिस मुहल्ले में
रहते हैं कुछ शोहदे, एक कुली, दो कबाड़ी, चार फेरीवाले और कुछ बेरोजगार आस-पास
पूरा मुहल्ला सो लेता हैं अब भी बेखटके सारी रात
शुक्र मनाता हूं
(2)
शुक्र मनाता हूं कि राजा को नहीं मिलती है दंड
राजा की दया से होता है
हाथों में न्याय दंड
हां बदल जाए राजा तो दूसरी है बात
आंखों में नहीं भी रह सकता है पानी
रह जाए तो भी नया राजा करता नहीं है बहुत हाय तौबा
छोड़कर रखनी ही पड़ती है कुछ संभावनाएं
राजा से हुई गलती, गलती ही होती है
लेना ही पड़ता है निर्णय कुर्बानी का
कभी-कभी देश हित में
अब राजा दे तो नहीं सकता कुर्बानी अपनी
तख्त की भी नहीं
जानता है राजा तख्त से उतरने का मतलब
बेवजह पेरशान नहीं होता है राजा कुर्बानी देने वालों के लिए
कितनेां का रखा जा सकता है ख्याल
कर लेता है राजा चिन्ता अपनी
कम है क्या यही
राजा को किया नहीं जा सकता है परेशान
राजा से पूछे नहीं जा सकते हैं सवाल
गवाह है दुनिया
जब कभी मिली है दंड किसी राजा को
बंटना पड़ा है इसे हिस्सों में
अच्छा नहीं होता है बंट जाना दुनिया का
उससे तो अच्छा है मुक्त कर देना किसी राजा को
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