१९५९ में प्रदर्शित बिमल रॉय की फ़िल्म "सुजाता" एक हरिजन बस्ती से शुरू होती है जहां बीमारी फैल जाती है. लोग मर रहे होते हैं, वहां एक नन्ही बच्ची बिलख रही होती है, उसे उपेंद्रनाथ चौधरी और उनकी पत्नी चारू पालते हैं, नाम रखते हैं सुजाता। उनकी एक बेटी और होती है रमा। दोनों बच्चियां खेलते-कूदते बड़ी होती हैं। बाद में सुजाता (नूतन) और ऊंची जाति के अधीर (सुनील दत्त) में प्रेम होता है जिसे रमा के वर के तौर पर देखा जा रहा था।
इससे मां चारू बहुत नाराज हो जाती है, वो खुलासा कर देती है कि सुजाता नीची जाति में पैदा हुई है, अपने इन माता-पिता का दुख देख सुजाता घर छोड़ने का फैसला लेती है, लेकिन फ़िल्म के अंत तक ये साबित हो जाता है कि जाति जैसी चीजें मायने नहीं रखतीं।
फिल्म में जाति व्यवस्था के खिलाफ टिप्पणी के अलावा सुजाता और अधीर के रिश्ते का चित्रण इतना निर्मल और मासूमियत भरा है कि सौ साल बाद यकीन नहीं होगा कि प्रेम यूं भी होता था। सुजाता अपने दौर में एक बहुत सशक्त टिप्पणी थी, आज ऐसी फिल्में मुख्यधारा में बननी बंद हो चुकी हैं।
इस फिल्म को लेकर प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने १९५९ में बिमल रॉय को लिखा था।
ऐसी फिल्में जिनका नैतिक इरादा बहुत ज़ाहिर होता है, उनके साथ सुस्त बन जाने का खतरा हमेशा होता है, लेकिन मैं पाता हूं कि सुजाता में इस त्रुटि को टाल दिया गया है, और इस विषय से बर्ताव करते हुए बहुत संयम रखा गया है।
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