शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

एक दुर्लभ संवाद




प्रख्यात आलोचक एवं कवि विजय कुमार की वाल से साभार ।

तीन रचनाकारों के बीच एक दुर्लभ संवाद

                     * विजय कुमार

क्या  साहि्त्य की अन्दरूनी राजनीति , गॉसिप , शिविर बंदियां,  छोटी मोटी सफलताएं , उपलब्धियां,  यश , पुरस्कार , सम्मान , आत्म -तुष्टियाँ  , गुरुडम  आदि कभी भी साहित्य का अंतिम सच बन सकते  हैं ? या फिर इनके  बरक्स एक कृतिकार का परिवेश, उसका प्रेरणाएं , उसका  आत्म -संघर्ष  , उसके असंतोष और विकलताएं और इस सबसे होकर गुज़रती उसकी कला के   विकास की चर्चाएं  कोई वास्तविक अर्थ रखती हैं ?     जब भी प्रतिभशाली रचनाकारों के बीच सृजन की दुनिया को लेकर   कोई आपसी ,ईमानदार और अंतरंग बातचीत हुई हैं , उसने  हमें मथा है। बहुत सारे विचार सूत्रों ,  किसी मूलगामी खोज और भटकन  में डूबी हुई ऐसी चर्चाएं ही कोई अर्थ रखती  है। ‘ पल प्रतिपल ‘ का ‘का नया अंक   तीन कथाकारों पर केन्द्रित एक अनूठा विशेषांक है , जिसमें समकालीन कहानी के तीन महत्वपूर्ण हस्ताक्षर मनोज रूपड़ा,  योगेंद्र आहूजा और ओमा शर्मा अपनी एक आपसी लंबी बातचीत में अपने अपने  जिए हुए जीवन ,  अनुभवों के कच्चे माल ,अपने परिवेश  और अपनी  अपनी रचना प्रक्रियाओं   की जो   तफसील  पेश करते हैं , और उसे पढना बेहद दिलचस्प है ।    इस आत्मीय , विचारोत्तेजक और लगभग 150 पृष्ठों में फैली हुई खुली गपशप  में  ये तीन रचनाकार  बेहद निजी और सार्वजनिक , भीतर और बाहर , पास पडोस और समग्र संसार  , अतीत और वर्तमान , उम्मीद और हताशाओं से भरी  सृजन की एक जटिल   दुनिया के तमाम  मुद्दों को खंगाल रहे हैं।  अंतरंग बातचीत का ऐसा मटेरियल अब लघु पत्रिकाओं में लगभग दुर्लभ है । मैं इस लम्बे संवाद को पढता रहा और और उसमें डूबता उतराता रहा । यहां सारे मुद्दों का बखान ज़रूरी  नहीं , स्मृति में जो अटका रह गया , उसके मात्र कुछ बिन्दु पेश  हैं।

कितना दिलचस्प है इस बात को जानना कि  मनोज रूपड़ा  जैसा एक कथाकार छत्तीसगढ के दुर्ग शहर  के  एक मिष्ठान विक्रेता  के  परिवार में जन्म लेता है । दुकानदारी के इस परिवेश और  परिवार में पढ़ने लिखने की कोई  परंपरा नहीं। छठी कक्षा के बाद उसकी पढ़ाई भी छूट जाती है । फिर जीवन के कुछ संयोग  ऐसे बनते हैं कि वह किसी रंग शिविर के पोस्टर से आकर्षित होकर उसमें हिस्सा लेता है । और स्कूल के बाहर की एक बड़ी दुनिया उसकी पाठशाला बन जाती है ।  उसका वह जादुई यथार्थ से भरा यह   बहु पर्तीय संसार, उसका संघर्ष और उसकी जिज्ञासाएं, उसकी अन्तदृष्टि  और लगन  ।   वह हिंदी के एक महत्वपूर्ण कथाकार के रूप में विकसित होता जाता है । और वह न अपने उस पैतृक व्यवसाय को त्यागता है न अपना लेखकीय जुनून । अपना सारा महत्वपूर्ण लेखन वह उस मिठाई की दुकान पर बैठकर ही करता है। एक बहुपर्तीय जीवन और एक विलक्षण अनुभव संसार, बहुत सारे चरित्रों  और घटनाओं का सूक्ष्म अध्य्यन ।  ।एकदम नई विषय वस्तु और कुछ  रचने की अदम्य  आकांक्षा । समय के साथ उसके लिये एक नई दुनिया खुलती  जाती है । मिठाई की दुकान में  फालतू पड़े    कागज- पन्नों ,  छोटे-मोटे बिलों , पर्चियों के   पीछे के हिस्से  में  किया गया वह लेखन उस नौजवान  को हिन्दी का एक सफल कथाकार बनाते चले जाते हैं ।  एक लंबी यात्रा।  आज वह अपने समकालीनों के साथ विश्वभर के साहित्य पर अपनी गहरी अंतर्दृष्टि से भरी महत्वपूर्ण राय प्रस्तुत कर रहा है।
80 और 90 के दशक का वह समयजब मध्यप्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ  और हिंदी साहित्य सम्मेलन के वर्कशॉप और शिविर हुआ करते थे ।  कमला प्रसाद ,स्वयं प्रकाश, भाऊ समर्थ , भगवत रावत और हबीब तनवीर  जैसों से उस नवयुवक मनोज रूपड़ा की वह सोहबत और मार्गदर्शन। उस सबसे  जन्मा एक नवोदित लेखक का वह विकसित होता लेखन संसार। मनोज रूपड़ा   बताते हैं के नाट्य शिविर में हबीब तनवीर साहब पाँच -पाँच और छह - छह  घंटों तक लगातार बोलते रहते थे और उन सात  दिनों के शिविर में वे जो कुछ भी कहते थे वह अपने आप में एक महान नाट्यशास्त्र की तरह होता था । लेकिन हिंदी का दुर्भाग्य केवल उसकी कोई रिकॉर्डिंग नहीं हुई । अगर उसे रिकॉर्ड किया जाता तो स्तानिस्लावस्की    के बाद हबीब तनवीर का नाम दुनिया के सबसे बड़े नाटक विशेषज्ञ के रूप में दर्ज हो जाता।
इस बातचीत के दो अन्य सहभागी कथाकार ओमा शर्मा और योगेंद्र आहूजा शिक्षित मध्यमवर्गीय परिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं । ओमा शर्मा ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र की पढाई की  । जे.एन.यू .से अर्थशास्त्र में   एम  फिल. किया।  युनिवसिटी में कुछ समय पढाया फिर भारत सरकार की राजस्व सेवा   में आ गये । आर्थिक विषयों पर लिखते लिखते  संयोग से उनका झुकाव  हिंदी में कथा लेखन की ओर हुआ  । योगेंद्र आहूजा  का परिवार विभाजन की त्रासदी को झेलता हुआ पेशावर से 300 किलोमीटर दूर डेरा इस्माइल खान नामक शहर से भारत आया  था। और उनका जन्म विभाजन के बाद हुआ।  बचपन नैनीताल के काशीपुर में बीता । शिक्षा दीक्षा के बाद बैंक की नौकरी में  रहे।  उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर नौकरी की। बहुत सूक्ष्म स्तरों पर  एक खास तरह के ‘ विस्थापित  ‘  आउटसाइडर का मनोजगत और पिछली पीढियों से जाने महसूस किये गये एक कठिन अतीत की  स्मृतियाँ ।     तीन कथाकारों के तीन विकास क्रम और अपने विशिष्ट अनुभव संसार। उनके बीच की तमाम बातें जिसमें उनके बचपन का समय, साहित्य की ओर झुकाव , आसपास  की दुनिया,  रचना प्रक्रियाएं , विषय वस्तु की प्राथमिकताएं, रुचियां आदि भी  किसी हद तक एक दूसरे से अलग हैं। उनके बीच की सहमति और असहमतियाँ  महत्वपूर्ण हैं। एक दूसरे के प्रति जिज्ञासाएं  महत्वपूर्ण है। और महत्वपूर्ण है वह अंतरंगता जिसमें किसी विषय पर दूर तक कुछ खोजने  का एक ‘ पैशन ‘ को जी रहे हैं वे ।वे  एक दूसरे की कुछ चर्चित कहानियों पर बातचीत कर रहे हैं , उनमें कुछ अंतर सूत्र ढूंढ रहे  हैं , अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों के सृजन संसार का विश्ले्ष्ण कर रहे  हैं  और इस सबसे होते हुए  अपने इस जटिल  और बहुपर्तीय  समय के भीतरी पर्तों  में उतर रहे हैं ।

सबसे महत्वपूर्ण है तीनों के बीच हुए इस संवाद में यह जानना कि एक सतत विकल लेखक के लिये उसकी प्रारम्भिक  सफलता, उसे मिली पाठकीय स्वीकृति , आलोचकों की  प्रशंसा  और पत्र पत्रिकाओं , संपादकओं आदि के दुलार  का कोई अर्थ नहीं होता। उसके लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण वह  विकलता , वह ‘वह दबाव क्षेत्र है जिसने उसे लेखन संसार की ओर प्रवृत किया । आजीवन वह अपनी इस ‘ इनोसेंस ‘ कोहर कीमत पर बरकरार रखना चाहता है ।  हर नयी  रचना में उसे अपनी यात्रा एक ‘ शून्य ‘ से आरम्भ करनी होती है ।

मनोज रूपड़ा  कहते हैं साहित्य में स्वीकृति और सफलता  का जो मामला है वह कई बार आपको बहुत आत्ममुग्ध भी कर देता है । बुनियादी रूप में लेखक के भीतर एक आत्म संशय होना चाहिए। इसमें कुछ भी नया लिखते हुए डर का होना बहुत जरूरी है अगली हर रचना के समय भीतर की आशंकाएं और अनिश्चितताएं अपनी बहुत बड़ी भूमिका अदा कर रही होती  हैं। अगर आप ख्याति को ध्यान में रखकर आगे बढ़ेंगे तो वह बहुत आपको आगे नहीं ले जाएगी । कोई भी मुकाम किसी लेखक को मिलता है तो वह सिर्फ उसके लेखन से मिलता है।  बाकी सारी जितनी भी गतिविधियां है वह साहित्य से हटकर है । मूल रूप से साहित्य से आपका जो लगाव है ,लिखने का जो मामला है वह वहीं तक होना चाहिए।
ओमा शर्मा कहते हैं कि ‘ हंस ‘ में छपी अपनी एक कहानी पर प्रारंभिक प्रशंसा और थोड़ी सी मान्यता हासिल कर लेने के बाद अचानक वे विश्व स्तर के कुछ   रचनाकारों की कालजयी कृतियों से परिचित हुए और उन्हें यह लगा के छोटी मोटी सफलताओं का कोई अर्थ नहीं है। वे कहते हैं जब मैंने जर्मन लेखक स्टीफन स्वाइग  और विश्व के दूसरे कुछ बड़े लेखकों को पढ़ा तो मुझे लगा कि मुझे जो थोड़ी बहुत कामयाबी मिली थी उसका तो कोई अर्थ ही नहीं था । मैं तो साहित्य के उस विश्वविद्यालय में प्राइमरी के विद्यार्थी जैसा था । और मुझे अपनी मान्यता और सफलता का जो थोड़ा सा मुगालता हुआ था उसे वक्त ने ऐन वक्त बेरहमी से पंछीट  दिया और मेरी उस लेखकीय आत्म मुग्धता  की लबादे के चिथड़े उड़ गए ।
योगेंद्र आहूजा कहते हैं साहित्य में लेखक की शिद्दत और समूची चेतना के नियोजन के अलावा से सब कुछ अवांतर है । स्वीकृति मिल रही है या नहीं आपकी कहानियों पर रिसर्च  हो रही है या नहीं , कितनी समीक्षाएं आ गईं  यह हिसाब रखना  बेहद अश्लील है।

 बहुत दिलचस्प बातें इन तीनों के संवाद में उभरी हैं। यह तीनों रचनाकार शीत युद्ध के बाद की दुनिया में विकसित हुए है। योगेंद्र आहूजा का यह कथन बहुत दिलचस्प है कि  बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में  शीत युद्ध की राजनीति का  जो भी पक्ष रहा  हो हमारे लिए यह उसका सकारात्मक पहलू था कि हमें अपने शुरुआती दौर में महान रूसी साहित्य की कृतियां  नाम मात्र के मूल्य  पर उपलब्ध हुई।  गोगोल तुर्गनेव , दॉस्तोयव्स्की  , टॉलस्टॉय , गोर्की , चेखव , मायकोव्स्की  हमें  सहज ही पढ़ने को उपलब्ध  हो गए । यह हमारे विकास क्रम का एक महत्वपूर्ण्पहलू था और आज की युवा पीढी संसार में उस समय के महौल से लगभग अनजान है ।

इस संवाद में ये तीनों लेखक विभिन्न सहवर्ती कलाओं के आपसी रिश्तों  , संसार की महत्वपूर्ण फिल्मों,   देसी विदेशी संगीत,  लोक संगीत और चित्रकला आदि के बारे में बहुत दिलचस्प बातें कर रहे हैं । इस बातचीत में न तो कला रुचियों के किसी अभिजात्य  का प्रदर्शन है  , न ही जानकारियों का कोई बड़बोलापन ।  इस बात को जानना भी कितना दिलचस्प हैकि  एक लेखक को  यदि बड़े गुलाम अली खां , आमिर खां  , भीमसेन जोशी , गंगूबाई हंगल, मल्लिकार्जुन मंसूर  पसंद हैं   और यदि वह पश्चिमी संगीत की बारीकियों पर बात कर रहा है तो साथ ही उसे गजलें,  कजरी , चैती,  दादरा , ठुमरी या कव्वालियां भी पसंद करता है । वह अनिल विश्वास,  पंकज मलिक, एसडी बर्मन से लेकर नौशाद , सी.  रामचंद्र , ओपी नैयर , मोहम्मद रफी ,तलत महमूद और हेमंत कुमार आदि के बारे में  भी उतनी ही पैशन के साथ बातें कर रहा है । ओमा शर्मा का चित्रकार एम. एफ. हुसैन से सम्पर्क रहा । वे कला में मौलिकता , प्रसिद्धि  और   बाजार के रिश्तो पर कुछ बेहद महत्वपूर्ण बातों  को रखते हैं ।
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तीनों प्रबुद्ध कथा कारों की इस बातचीत में  लेखक की पक्षधरता  , किसी उपलब्ध संसार के सम्मुख लेखक के  किसी प्रति-संसार  या ‘ काउंटर वर्ल्ड को रचने की बातें,  जेनुइन  और संवेदनशील कलाकार के इस समाज में  ‘ आउटसाइडर ‘ होने की एक अनिवार्य स्थिति,  कला के सवाल,  कृति की संरचनागत विशिष्टताओं , शिल्प और कथ्य के सम्बन्धों ,विचारधाराओं और सर्जना के द्वन्द्वात्मक  रिश्तों  , प्रतिबद्धता के आशय और कला में उसके रूपायन की  जटिलताएं , कला में स्वायत्त्तता का सवाल   , आत्म संघर्ष के  सवाल  ,ईमानदारी, अवसाद , अकेले होते जाने की पीड़ा और आत्म हनन की स्थितियों से जुड़े तमाम ऐसे मुद्दे उभरे हैं  जो हमारे आज के   तथाकथित ‘ सफल’  लेखकों की बातचीत में प्राय सुनने नहीं मिलते। कहना ना होगा की  हमारे इस बाजार उन्मुख सफलता कामी लेखकीय  संसार में  कलाकार के भीतर की किसी  वास्तविक  विकलता  का एक बड़ी हद तक क्षरण भी हुआ है।  योगेंद्र आहूजा मनोज रूपड़ा  और ओमा शर्मा की इस बातचीत में  स्टीफन स्वाइग, काफ्का, मुक्तिबोध , निर्मल वर्मा आदि के संदर्भ कलाकार के आत्म संशय से जुड़े विमर्श का केंद्रीय तत्व बनकर उभरते हैं ।

लॉक डाउन में इधर वेब सेमिनारों का प्रचंड तूफान आया हुआ है । वाचिक ज्ञान की ‘ स्मार्ट ‘ सुनामी में सारे कूल किनारे प्रतिदिन टूट रहे  हैं । श्रोता बेचारा क्या करे ? मोबाइल को ‘ स्विच ऑफ ‘ कर कुछ देर  के लिये त्राण  पाये ।  ऐसे में ‘ कोरोना पूर्व युग’  की एक पत्रिका में यह छपी हुई बातचीत बेहद बेहद महत्वपूर्ण है और लम्बे समय तक हमारी स्मृतियों में रहेगी ।  कुल मिलाकर यह बातचीत इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि वह विश्विद्यालयीन ‘ साहित्यवाद ‘ से मुक्त है और न उसमें  पत्रकारिता के लोकप्रिय लटके – झटके हैं । यह इस  बात का भरोसा दिलाती है कि मुक्त विचार यात्राएं अभी भी संभव हैं ।    इसमें समाज,  राजनीति , अर्थ  जगत,दर्शन , संस्कृति , मनोविज्ञान , साहित्य आदि  के एक दूसरे से जुड़े हुए वे तमाम सूत्र  दिखाई देते हैं जिनका एक विस्तृत और  अनिवार्य संदर्भ आज हमारे बीच उपस्थित है। नई-नई शक्लों में ।

तीनों कथाकार लगभग एक ही पीढ़ी के हैं, किसी भी अकादमिक संस्थान के बंधे बंधाए ढर्रे के बाहर है।  इसलिये द्बाव मुक्त  हैं।  इसलिये  उनके भीतर एक सख्य भाव है। मुद्रा, जेस्चर , सिनिसिज़्म , आत्म तुष्टि   और  अपने स्व के आरोपण का उनके लिए कोई मतलब नहीं है। यहाँ जिज्ञासाएं  हैं और प्रति- प्रश्न भी । बहस है और आत्मीयता भी। वे एक दूसरे से सहमत है और एक दूसरे से विनम्र असहमत भी।

क्या कोरोना काल का आक्रामक ‘ वेब कल्चर ‘ बाकी सारी संभाव्यताओं को लील जायेगा ?

या

 शायद ‘कोरोनोत्तर काल’  में    हमारी लघु पत्रिकाएं रचनाकारों के बीच इस तरह के आत्मीय विचारोत्तेजक संवाद की ओर लौटेंगी  ।
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2 टिप्‍पणियां:


  1. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    26/07/2020 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......

    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

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