98 वर्ष के सर्वाधिक वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार रामदरश मिश्र जी को 2021 का सरस्वती सम्मान देने की घोषणा के. के. बिरला फाउंडेशन ने की है। पूर्व लोकसभा सचिव सुभाष कश्यप के नेतृत्व में सम्मान-समिति ने पिछले दस वर्ष की किसी भी भारतीय भाषा की कृति में से रामदरश मिश्र के काव्य-संग्रह 'मैं तो यहाँ हूँ' को चुना है। इस संग्रह की भूमिका में वे लिखते हैं – "मैंने कई शैलियों में लिखा है। पाठ के जिस भी रूप से मैं प्रभावित हुआ, मैंने अपनी यात्रा जारी रखी. यात्रा कभी छोटी तो कभी लंबी भी होती थी लेकिन अब मेरे पास लंबी पटरियों को पार करने के लिए ज्यादा ऊर्जा नहीं बची है। इसलिए अब मेरे भाव या तो एक छोटी कविता हैं या एक डायरी लिख रहे हैं, जो अंततः इस पुस्तक को आकार दे रहे हैं।"
इस अवसर पर रामदरश जी का यह शेर बारहां याद आता है -
''जहां आप पहुंचे छलाँगे लगाकर
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे धीरे।''
रेणु की आंचलिक-परंपरा को वे बराबर अपनी कहानियों, उपन्यासों, निबन्धों, यात्रा-संस्मरणों आदि विभिन्न विधाओं में समृद्ध करते रहे। गोरखपुर के डुमरी गाँव मे जन्मे रामदरश जी की रचनाओं में पानी, नदी, बाढ़, गाँव, अंधाधुंध शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन, वंचितों के प्रति बढ़ते अन्याय आदि की विविध छवियाँ अंकित होती रही हैं।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शिष्य रामदरश जी को खुलकर हँसने का अंदाज़ शायद उन्हीं से मिला है। स्पष्टवादिता और सच के प्रति दृढ़तापूर्वक खड़े रहने के गुण उन्हें तमाम संतुलनवादियों से अलग जमात में खड़ा करते हैं। इसीलिए वे लिखते हैं –
"हमारे हाथ में सोने की नहीं
सरकंडे की कलम है।
सरकंडे की कलम
खूबसूरत नहीं, सही लिखती है
वह विरोध के मंच लिखती है
प्रशस्ति-पत्र नहीं लिखती है
हम कठघरे में खड़े हैं, खड़े रहेंगे
और कठघरे में खड़े हर उठे हुए हाथ को
अपने हाथ मे ले लेंगे।"
रामदरश जी ‘बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ’, ‘पक गयी है धूप’, ‘कंधे पर सूरज’, ‘दिन एक नदी बन गया’, ‘जुलूस कहां जा रहा है’, ‘आग कुछ नहीं बोलती’, ‘बारिश में भीगते बच्चे' और ‘हंसी ओठ पर आँखें नम हैं’ आदि काव्य-संग्रहों के साथ 'जल टूटता हुआ' और 'पानी के प्राचीर' जैसे उपन्यास, 'सहचर है समय' आत्मकथा आदि सौ से अधिक पुस्तकों की रचना कर चुके हैं। हम उनके स्वस्थ, सृजनशील और शतायु होने की कामना करते हैं। इस अवसर पर ओम निश्चल जी का एक सुंदर आलेख साझा किया जा रहा है, ज़रूर पढ़ें...
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