शनिवार, 2 अप्रैल 2022

डबराल डंगवाल और खरे का काव्यात्मक त्रिकोण / पंकज़ चतुर्वेदी

 कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी जी ने वरिष्ठ हिन्दी कवि आलोक धन्वा के हवाले से समकालीन हिन्दी कविता के सबसे बड़े कवियों में शुमार मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल और विष्णु खरे को लेकर कुछ महत्त्वपूर्ण बातें अपनी हालिया फ़ेसबुक पोस्ट में प्रस्तुत की हैं :


"जिन अख़बारों से मंगलेश जुड़े, वे उनके संपादन के कारण मशहूर हो गये--जिस स्तर के वह कवि हैं, उसी स्तर के पत्रकार और संपादक थे। उनका एक बहुत बड़ा संसार था, जिसमें कोई भी जाना पसंद करता। नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, राजेन्द्र यादव, विष्णु खरे, वीरेन डंगवाल या मैं। मंगलेश किसी से शास्त्रीय बहस नहीं करते थे, लेकिन उनका लिखा हुआ ख़ुद एक 'क्लासिक' है। पहाड़ से महानगर आए हुए एक इनसान का संघर्ष उन्होंने दिखाया और वह अनवरत 'ग्रो' करनेवाले कवि थे। उनके पास जो 'डायवर्सिटी' थी कविता की, वह बहुत बड़ी बात है। 


मंगलेश अपनी रचना से कभी संतुष्ट नहीं होते थे। कविता का कोई एक साँचा नहीं था उनके पास। उन पर रघुवीर सहाय का आम तौर पर और ख़ासकर इस बात का प्रभाव था :


'अपनी एक मूर्ति बनाता हूँ और ढहाता हूँ

और आप कहते हैं कि कविता की है'


वाक्य-रचना को मंगलेश अपने समय के किसी कवि से ज़्यादा समझते थे। जिस सामाजिक अनुभव या आलोचनात्मक यथार्थ को वह लिखते, उसकी बहुत समर्थ काव्य-भाषा उनके पास थी। वह दुर्लभ है। बहुत ही दुर्लभ। बेहद जटिल और संश्लिष्ट अनुभवों को उन्होंने सर्वथा नयी भाषा दी। उनके यहाँ अंतर्वस्तु और भाषा, दोनों का बहुत प्रसार और विविधता है। वह कहीं-कहीं स्वतःस्फूर्त कवि हैं, मगर ज़्यादातर कविता को रचते थे।


मंगलेश के यहाँ चिंतन का गद्य बहुत ज़्यादा है--नयी चीज़ों को समझने, उनकी सचाई तक पहुँचने का सौंदर्य। वह अपनी कविता को लेकर इतने 'कमांडिंग' थे कि जो शब्द इस्तेमाल करते, उन्हें बिलकुल बदला नहीं जा सकता, उनके अलावा किन्हीं और शब्दों से उतनी बात नहीं कही जा सकती। 


उनके समय की अच्छी कवयित्रियों-लेखिकाओं ने मिलकर--उनकी विदाई से विचलित होकर--एक पूरी किताब ही लिखी, जिसमें उनका यह मंतव्य मूल्यवान है कि 'मंगलेश स्त्री-हृदय के कवि हैं।'


विष्णु खरे और वीरेन डंगवाल की कविता को मंगलेश ने एक चुनौती की तरह लिया।"


मैंने पूछा : 'कुछ लोग यह मानते हैं कि विष्णु खरे की बनिस्बत मंगलेश जी में कविता ज़्यादा है ?'


आलोक जी जवाब देते हैं : "कविता बचे या न बचे, लेकिन जो सामाजिक विडम्बनाएँ और 'क्राइसिस' है, उसे विष्णु खरे बराबर 'कैरी' करते थे। एक 'कैथार्सिस' है, जो उनके यहाँ ही मिलेगी। इसलिए वह चुनौती हैं सब कवियों के लिए।


महत्त्वपूर्ण कवि जो संवेदनाएँ लाते हैं, हम उनसे पहले से परिचित नहीं होते। जैसे :


'तरु गिरा जो

झुक गया था

गहन छायाएँ लिये'


शमशेर की इन पंक्तियों में जो घनीभूत बोध है, वह कल्पना से तो नहीं आ सकता। वस्तु की सत्ता या उसका जो असर पड़ रहा है कवि पर--उससे यह भाषा तय होती है। 'रामदास' को मार दिये जाने की परिस्थितियों में रघुवीर सहाय ने कितनी सरल भाषा में कविता लिखकर कितनी पीड़ा पैदा की और एक बहुत बड़े सत्य को सामने रखा--उस भयावह यथार्थ को, जो आज और नृशंसता से घटित हो रहा है।


'संगतकार' और 'गुजरात के मृतक का बयान'--मंगलेश डबराल की दो कविताएँ ऐसी थीं, जिन्होंने पूरे देश को झकझोर दिया। उन्होंने 'पागलों का एक वर्णन' शीर्षक कविता लिखी, जिसमें वह पूछते हैं कि पागल जो दिन-भर भटकते हैं, रात में कहाँ शरण पाते होंगे और उन्हें 'रोज़मर्रा के काम पर निकलने से पहले सिर्फ़ एक कप चाय' कहाँ नसीब होती होगी ?' कल्पना यहाँ आती है, मगर बहुत कम आती है। ऐसे अनुभव को व्यक्त करने के लिए उस भयावहता तक आपको जाना होता है, जैसे अमरकांत की 'डिप्टी-कलक्टरी' और 'ज़िन्दगी और जोंक' कहानियाँ दिखाती हैं कि हम कैसे नरक में जी रहे हैं !"


(समकालीन कविता के इन तीनों स्तम्भों ने पिछले 7 सालों में एक-एक कर हिन्दी जगत् को अलविदा कह दिया।)

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