रविवार, 24 अप्रैल 2022

दोहरा दूं, ताकि तुम्हें भूल न जाए। / ओशो


प्रेम के संबंध में तुम्हारी धारणा गलत है, उसे छोड़ दो।


प्रेम का अर्थ वासना नहीं है। प्रेम का अर्थ सबके लिए सदभावना है।


गौतम बुद्ध के जीवन में यह उल्लेख है कि वह अपने हर भिक्षु को यह कहते कि जब तुम ध्यान करो और जब आनंद से भर जाओ तो एक काम करना मत भूलना। जब तुम आनंद से भर जाओ, तो अपने आनंद को सारे जगत को बांट देना। तभी उठना ध्यान से। ऐसा न हो कि ध्यान भी कंजूसी बन जाए। ऐसा न हो कि ध्यान को भी तुम तिजोड़ी में बंद करने लगो। जो पाओ, उसे लुटा देना। फिर कल और आएगा, उसे भी लुटा देना। और जितना तुम लुटाओगे, उतना ज्यादा आएगा।


एक आदमी खड़ा हुआ। उसने कहा और सब ठीक है, आपकी आज्ञा शिरोधार्य लेकिन एक अपवाद मांगना चाहता हूं।


बुद्ध ने कहा, क्या अपवाद?


उसने कहा कि मैं ध्यान करता हूं, ध्यान करूंगा। और आप जैसा कहते हैं, वैसा ही ध्यान के बाद जो आनंद की अनुभूति होती है—प्रार्थना करूंगा कि है विश्व, इस अनुभूति को संभाल ले। लेकिन इसमें मैं एक छोटा सा अपवाद चाहता हूं। वह यह कि मैं अपने पड़ोसी को इसके बाहर छोड़ना चाहता हूं, क्योंकि वह कम्बख्त मेरे ध्यान का लाभ उठाए, यह मैं नहीं देख सकता। बस इतनी सी स्वीकृति…एक पड़ोसी। सारी दुनिया को ध्यान बांटने को राजी हूं। दूर से दूर तारों पर कोई रहता हो, मुझे कोई चिंता नहीं। मगर इस हरामखोर को…


बुद्ध ने कहा, तब मुश्किल है। तब तुम बात समझे ही नहीं। सवाल यह नहीं था कि इसको देना है या उसको देना है। सवाल यह नहीं था कि अपने को देना है और पराए को नहीं देना है। सवाल यह नहीं था कि दोस्त को जरा ज्यादा दे देंगे, दुश्मन को जरा कम दे देंगे। सवाल यह था कि देंगे, बेशर्त देंगे। और यह न पूछेंगे कि लेने वाला कौन है। और तुम वहीं अटक गए हो। तुम्हारा ध्यान आगे न बढ़ सकेगा। ये चांदत्तारे तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं रखते; इसलिए तुम तैयार हो इनको प्रेम देने को, ध्यान देने को, आनंद देने को। मगर वह पड़ोसी…


तो बुद्ध ने कहा, मैं तुमसे यह कहता हूं कि तुम सबकी फिकर छोड़ो—चांद की और तारों की। तुम इतनी ही प्रार्थना करो रोज ध्यान के बाद कि मेरा सारा आनंद मेरे पड़ोसी को मिल जाए। बस, तुम्हारे लिए इतना काफी है। दूसरों के लिए पूरी दुनिया भी छोटी है, तुम्हारे लिए तुम्हारा पड़ोसी भी सारी दुनिया से बड़ा मालूम होता है।


प्रेम का इतना ही अर्थ है कि मेरा आनंद, मेरे जीवन की खुशी, मेरे जीवन की खुशबू बेशर्त, बिना किसी कारण के सब तक पहुंच जो।


तो पहली तो बात यह याद कर लो कि प्रेम तुम्हारी पुरानी धारणा गलत है। और दूसरी बात कि वह जो क्षण आता है ध्यान में, घबराकर छोड़ मत देना। क्योंकि वही क्षण…जैसे गंगा गंगोत्री में छोटी सी होती है। इतनी छोटी होती है कि हिंदुओं ने वहां एक गौमुख बना रखा है। पत्थर के गौमुख से गंगोत्री निकलती है। और वही गंगोत्री हजारों मिल की यात्रा करके इतनी बड़ी हो जाती है कि जब वह सागर से मिलती है तो उसका नाम गंगासागर है। उसको एक पार से दूसरे पार तक देखना मुश्किल हो जाता है।


वह जो छोटा सा क्षण है, वह अभी गंगोत्री है। अगर तुम प्रेम के संबंध में सुधार कर लिया तो उस गंगोत्री को गंगा—सागर बनने मग देर न लगेगी। उसका गंगा—सागर बनना निश्चित है। इस अस्तित्व के नियम बदलते नहीं;: वे सदा से वही हैं। अगर कभी कोई भूल—चूक हमारी है। जगत के नियमों का कोई पक्षपात नहीं है।


ओशो

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