शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

आलमशाह‌ खान का भूत / आलोक यात्री

 तराना परवीन जी की 

फेसबुक वॉल से पता चला कि आज 

सुप्रसिद्ध कहानीकार श्री आलमशाह‌ खान जी का जन्मदिन है


पराई प्यास का सफर उनकी एक यादगार रचना है

जिसे स्कूली दिनों में कई बार पढ़ा था

वह कहानी आज भी दिमाग में जस की तस बसी हुई है

यह कहानी पढ़ते हुए मंटो की -खोल दो भी याद आई थी

वह दौर भी क्या दौर था...

आलमशाह खान, पानू खोलिया, गुलशेर खान शानी, ब्रजेश्वर मदान, सुदीप, नवीन सागर, चित्रा मुद्गल, रमेश बतरा, महेश दर्पण, बलराम, प्रियंवद, हरि भटनागर और भी न जाने कितने लेखकों की एक से एक बेहतरीन रचनाएं पाठकों के सामने आ रहीं थीं

यहां एक वाकया आप लोगों से शेयर करना चाहुंगा 

पिताश्री से. रा. यात्री जी से

आलमशाह खान जी की कहानियों पर लंबा विमर्श होता था

यह वह दौर था जब हम जैसे न जाने कितने पाठक आलमशाह खान की रचनाओं को ओढ़ते-बिछाते थे

तो हुआ यूं कि...

एक सुबह आलमशाह खान जी की कहानी पर

पिताश्री से कुछ लंबा विमर्श हो गया

मेरी बी.ए. की परिक्षाएं चल रहीं थीं

पिताश्री ने नसीहत दी कि दो-चार दिन कोर्स की किताबें पढ़ लो फिर आलमशाह खान को फुर्सत से पढ़ लेना

जून की तपती दुपहरी में मैं ड्राइंग रूम की खिड़की में दीवान पर टिका कोर्स की किताब में लीन था

अचानक सड़क पर एक व्यक्ति सफेद बुशर्ट और सफ़ेद पतलून में किसी की तलाश में भटकता हुआ दिखाई दिया

मैंने उस व्यक्ति को गौर से देखा

मुझे लगा वह आलमशाह खान हैं

मैंने तत्काल भीतर के कमरे में सो रहे पिताश्री को जगाकर कर कहा कि लगता है आलमशाह खान आए हैं

कच्ची नींद से जागे पिताश्री ने चौंकते हुए कहा

-कहां हैं आलमशाह खान

मैंने बताया कि मैंने उन्हें सड़क से जाते हुए देखा है

मेरे इतना कहते ही पिताश्री ने जरा रोष से कहा

"आलमशाह खान... आलमशाह खान... आलमशाह खान दिमाग में घुस गया है तुम्हारे... वह क्या तुम्हारी तरह सिरफिरा है जो इस तपती दुपहर में भटकेगा... ध्यान किताबों में लगाओ..." कहते हुए उन्होंने चद्दर तान ली

मैंने मन में सोचा लग तो आलमशाह खान ही रहे थे... 

दूसरा ख्याल यह आया कि भले ही कोई भी हो दोपहर के ढ़ाई तीन बजे किसी का पता तलाशते व्यक्ति की मदद जरूर की जानी चाहिए

यह सोच कर मैं सड़क पर उतर आया

लेकिन सुनसान सड़क पर आदमजात तो क्या चिड़ी का बच्चा तक दिखाई नहीं दे रहा था

एक दो सड़क पर तलाशने के बाद मुझे वह सज्जन नज़र आ गए

उनके निकट जाकर मैंने अभिवादन कर उनसे पूछा -आलमशाह खान...

-वही तो... हाथ में थामे रूमाल से पसीना पोंछते हुए उन्होंने कहा

-आइए

वह मेरे साथ घर आ गए, मैंने उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाया, पानी पिलाया और ड्राइंग रूम और पिताश्री के बैडरूम का पर्दा हटा दिया

पिताश्री को हिलाते हुए मैंने कहा -आलमशाह खान आए हैं

-आलमशाह खान... आलमशाह खान... आलमशाह खान का भूत उतरेगा सर से कि नहीं... पिताश्री झुंझलाते हुए बोले

मैंने कहा -वह बैठे सोफे पर...

पिताश्री ने चादर में से चेहरा निकाल कर ड्राइंग रूम में झांका और यह कहते हुए चादर फेंक कर उठ बैठे -यार न कोई खबर न इत्तिला...


अब मसला यह कि... आलमशाह खान को पहचाना कैसे?

इस सवाल का ज़वाब तो मुझे भी आजतक नहीं मिला

शायद पाठक के मन में अपने चहेते रचनाकार की छवि बन ही जाती है...

आलमशाह खान जी को नमन

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