आज पटना से श्रीराम तिवारी का का फोन मिला। उन्हें 'वागर्थ' के अप्रील अंक में 'आधुनिकीकरण और आदिवासी विमर्श' पर प्रकाशित परिचर्चा में शामिल मेरे आलेख के कई अंश अच्छे लगे। उस आलेख की मूल प्रति आपसे साझा करते हुए यह बताना जरूरी है कि पत्रिका में इसकी कुछेक पंक्तियां नहीं आ पाई हैं :-
आदिवासी जीवन और साहित्य
( परिचर्चा की अग्रसारित प्रश्नावली के संदर्भ में विमर्शमूलक एक टिप्पणी )
1. कभी न कभी हर जाति का जीवन कबीलाई रहा होगा और इस अर्थ में हर जाति के इतिहास का आदिम चरण विकास क्रम के उसी प्रस्थान बिन्दु पर खड़ा होगा जहां आज आदिवासी कही जाने वाली जातियां दिखलायी पड़ रही हैं। इसी तरह प्रायः हर आदिम समुदाय में, गद्यभाषा और लिपि के विकास से पहले तक, पीढ़ी दर पीढ़़ी छंदबद्ध गीतों और लोककथाओं के माध्यम से ही जातीय जीवन के अनुभवों और ज्ञान का अटूट अन्तरण होता रहा है। यह वाचिक परम्परा हजारों वर्षों से लोक जीवन के नियामक सूत्रों को संरक्षित करती आ रही है। सर्वविदित है कि संस्कृत में गणित और ज्योतिष के सूत्र भी छन्दबद्ध पद्धति से ही संचित हुए हैं। समग्रता में देखें तो हर समुदाय में लिखित साहित्य का अभ्युदय एक परवर्ती विकास है। लोकगीतों और लोककथाओं का उद्भव और संरक्षण इसी सामूहिक सहभागिता की उपज है। आज उनके मूल रचनाकारों की नामतः खोज की कोशिश को एक निरर्थक उद्यम माना जा सकता है। वैसे देवेन्द्र सत्यार्थी, जगदीश त्रिगुणायत और नारायण जहानाबादी जैसे अनेक श्रमसाधकों ने लोककथाओं-लोकगीतों के संग्रह और प्रकाशन का शुभारम्भ बहुत पहले कर दिया था। आज इस अध्याय में नये पन्ने भी जोड़े जा रहे हैं। विश्वविद्यालयों के भाषा विभागों में और निजी प्रयत्नों के जरिए। पिछले दिनों केन्द्रीय विश्वविद्यालय, झारखंड के तत्वावधान में लुप्त होती आदिवासी भाषाओं के अस्तित्व पर केन्द्रित एक लंबे विचार सत्र का संयोजन किया गया था।
2. सच है कि साहित्य में आदिवासी अभिव्यक्ति की केन्द्रीय विधाएं हैं कविता और कथा। विमर्श प्रधान लेखन को मैं महत्वपूर्ण मान देते हुए भी सृजनात्मक साहित्य के दायरे से बाहर रखता हूं। जहां तक आत्मकथा, यात्रावृत्त, संस्मरण, नाटक जैसी विधाओं में आदिवासी कलम की क्रियाशीलता का सवाल है, यह मान लेना चाहिए कि हर भाषा में रचनाकार के अनुभवों के मेल में उपयुक्त विधाओं का चयन एक निजी मामला है। ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी जैसे तमाम बड़े साहित्यिक सम्मानों और पुरस्कारों की तालिका देखी जाये तो इन्हीं विधाओं में रचनात्मकता के शिखर की खोज के बहुसंख्यक नतीजे सामने होंगे। लघुकथा और गजल जैसे साहित्य रूपों की जो प्रतिष्ठा आज सुलभ है, वह पिछले दशकों से पहले अप्राप्त थी। निष्कर्षतः, श्रेष्ठ रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए किसी खास विधा के शिल्प-सांचे का निर्देश अर्थहीन है।
इस सवाल के औचित्य को अगर झारखंड के संदर्भ में परखा जाये तो याद रखना होगा कि इसके लिए आदिवासी रचनाकारों के अनुभव संसार की कोई सीमा नहीं बतायी जा सकती। कई आदिवासी हिन्दी लेखकों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का परिपार्श्व अधिकतर हिन्दी लेखकों से अधिक फैला हुआ है। रामदयाल मुंडा की जीवन यात्रा देश-विदेश की सरहदों से बहुत ऊपर थी। रोज केरकेट्टा गृह मंत्रालय द्वारा गठित झारखंड विषयक समिति में अकेली महिला प्रतिनिधि रहीं, वन्दना टेटे देश की राजधानी समेत सीमान्त राज्यों-क्षेत्रों तक अपने विचार और कार्यक्रमों के लिए निरन्तर गतिशील हैं, जसिन्ता केरकेट्टा की विदेश यात्राओं और अनेक भाषाओं में कृतियों के अनुवाद उनके अनुभवों के व्यापक होने की तस्दीक करते हैं, अनुज लुगुन बिहार के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं, वाल्टर भेंगरा तरुण पटना में रहते हुए कई दशक पहले आठ वर्षों तक कृत संकल्प नाम की मासिक पत्रिका का संपादन करते रहे और दूरदर्शन में वर्षों तक फोटो जर्नलिस्ट के बतौर काम करते रहे, एक समय दिल्ली के जानेमाने हिन्दी लेखकों के निकट संपर्क में रहीं रांची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की पूर्वअध्यक्ष मंजु ज्योत्स्ना, महादेव टोप्पो सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया के हिन्दी अधिकारी के बतौर अपने सेवा काल में बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम तक यायावरी करते रहे, और ग्रेस कुजूर आकाशवाणी के कई केन्द्रों में निदेशक रहने के बाद दिल्ली में कई साल तक उपमहाप्रबंधक का दायित्व निभाती रहीं। ये कुछ ऐसे दृष्टान्त हैं जो यह बताने के लिए यथेष्ट हैं कि आदिवासी कलमकार देश-देशान्तर के भरपूर अनुभवों से लैस रहे हैं। उन सबकी रचनाओं की अन्तर्वस्तु अगर उनकी आंचलिक जमीन से जुड़ी है और शिल्प उसके मेल में गढ़ा हुआ है तो बेशक यह उनके कथन-चयन की प्राथमिकता है, न कि देश-दुनिया के बारे में उनकी समझ की सीमा।
3. विकास की अवधारणा अपने आप में घनघोर मतान्तर का मुद्दा है। आदिवासी इलाकों में सड़कों-इमारतों के निर्माण की मार्फत कस्बों-शहरों की संरचनाओं को कुछ लोग विकास का मानक मानते हैं और होंगे। लेकिन आबादी को उजाड़ कर भूखंड के विकास को विनाश का वाहक भी माना जा सकता है। यही स्थिति भूमंडलीकरण की अवधारणा की भी है। आर्थिक उपनिवेशवाद का स्वागत किया जाये या आत्मनिर्भर और विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था को स्वीकार किया जाये? आज का भारतीय नागरिक, आदिवासी भारत भी उसका एकअनिवार्य अंग है, इसी द्विधाग्रस्त मानसिकता के दोराहे पर खड़ा है। क्या चुनें या किसे छोड़ दें?
सन 2000 में अलग राज्य के गठन से पहल, झारखंड आन्दोलन के दौर में, केन्द्र और बिहार सरकार की विकास योजनाओं और बजट आबंटन को इस अंचल में उपनिवेशवादी करार दिया जाता था। राजनीतिक हलकों में कहा जाता था कि इस प्रदेश की हरियाली प्रवासी लोगों के लिए चारागाह बन गयी है। वह बहस जनवादी विकास बनाम धनवादी विकास के फलक पर जारी रही। झारखंडी अस्मिता को सबसे बड़ी चुभन इस अनुभव से होती रही है कि नगरीकरण, औद्योगीकरण, बड़ी बांध परियोजनाएं, वन संपदा का विनाश और खनिज संपदा के अनियोजित दोहन के कारण बड़े पैमाने पर स्थानीय आबादी को विस्थापन का त्रास झेलना पड़ा है। अपनी बुनियाद सेे, गांव-घर, खेत-खलिहान, आजीविका, समाज और संस्कृति से उजड़ने की पीड़ा इतने रूपों और स्तरों पर पसरी रही है कि विकास की सरकारी अवधारणा और उसके क्रियान्वयन को विनाश का वाहक मान लिया गया। उपनिवेशी विकास की यह संरचना इस इलाके में अस्तित्व और अस्मिता के लिए गंभीर संकट बन कर लंबे समय तक हावी रही। आज भी यह स्थिति कमोबेश जारी है। शहरों, कस्बों और औद्योगिक क्षेत्रों में जितनी चमक-दमक दिखती है, उससे दूर व अनजान है ग्रामीण अंचलों का अंधेरा। आबादी के बीहड़ में नये पैरों की बढ़ती हलचलों की ताजा मिसाल है झारखंड में क्षेत्रीय भाषा और स्थानीय/रोजगार नीति पर भारी विरोध-प्रदर्शन और आबादी के मान्य घटकों में दावों-प्रतिदावों की होड़।
4. इस प्रश्न को परम्परा और आधुनिकीकरण के टकराव से जोड़ कर भी देखा जा सकता है। आजादी के बाद भारतीय अर्थतंत्र को कृषि आधारित व्यवस्था से निकाल कर औद्योगिक विकास के रास्ते पर ले जाने का फैसला आदिवासी अंचलों के लिए खास असर डालने वाला साबित हुआ। उद्योगों के लिए कच्चा माल और खनिज इन्हीं क्षेत्रों में अकूत सुलभ थे। लिहाजा जंगलों और पहाड़ों का सन्नाटा टूटा और कल तक उपेक्षित रहे दुर्गम क्षेत्र नयी आर्थिक-औद्योगिक हलचलों के केन्द्र बनते गये। इस तरह इन इलाकों में कथित आधुनिकीकरण का राजमार्ग खुला। नये नगर और कस्बे बनने लगे, ढेर सारी खनन परियोजनाएं चालू हुईं, सुगम यातायात के लिए सड़कें और रेल मार्ग तैयार हुए। उद्योगों और परियोजनाओं को संचालित करने वाला तकनीकी और प्रशासनिक ढांचा बना। अफसरों और कामगारों का संजाल क्रियाशील हुआ। पंचायती राज कायम हुआ और प्रखंड विकास कार्यालय नयी व्यवस्था लादने लगे। उन्हीं दिनों अनेक सरकारी-गैरसरकारी संस्थान और संगठन भी सक्रिय हुए।
इन तमाम गतिविधियों के चलते नयी आबादी के आने-बसने की रफ्तार तेज हुई और एक अजनबी कार्यसंस्कृति से आदिवासियों का परिचय हुआ। नतीजतन शिक्षा और रोजगार के आरक्षण-अवसरों का लाभ उठाते हुए जनजातीय समुदायों में एक नया मध्यवर्ग उठ खड़ा हुआ। इसी दौर में स्थानीय आबादी को विस्थापन के दंश का अपूर्व अनुभव मिला। परम्परा की विरासत से जुड़े आदिवासी जन इस नयी व्यवस्था में अपने को मिसफिट पाने लगे। परिणामतः विकास की पूरी अवधारणा तीखे सवालों के घेरेे में आ गयी। झारखंड आन्दोलन की पृष्ठभूमि में इस ऐतिहासिक बदलाव के असरदार निशान खोजे जा सकते हैं।
क्या इसे आधुनिकता के अभ्युदय का मान दिया जा सकता है? क्या आदिवासी आबादी के एक छोटे से तबके को सरकारी कार्यालयों और औद्यागिक प्रतिष्ठानों में तीसरे व चौथे दर्जे की नौकरियों में जगह पा लेने को आधुनिकीकरण की आधारभूूमि के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? बेशक इस ऐतिहासिक मोड़ के बाद आदिवासियों के बीच शिक्षा और रोजगार की पात्रता धीरे-धीरे विकसित होती गयी। परिवर्तन के इस दौर ने आदिवासी समाज को नये विचारों और संस्कारों से जुड़ने के अवसर भी दिये। लेकिन परम्परा और आधुनिकता के बीच टकराव की स्थितियां आज भी प्रभावी हैं। इस दिशान्तर के विवेचन और व्याख्या के लिए संस्कृति के समाजशास्त्र की एक पूरी परिक्रमा जरूरी है। सिर्फ इस बुनियाद पर आदिवासियों के मानसिक बदलाव की पहचान किसी संक्षिप्त चर्चा से परिभाषित नहीं हो सकती।
5. जब इस बड़े देश में, अरुणाचल से केरल तक और झारखंड से गुजरात तक, मूल्य परम्परा, आस्था और आहार से आचार तक की कसौटियों पर आदिवासी जीवन शैली एक समान नहीं है, तो इस वि-सम सांस्कृतिक धरातल पर उनके साहित्य का स्वर एक कैसे हो सकता है! जब सिर्फ झारखंड प्रदेश में कथाकार हांसदा सोवेन्द्र शेखर और पीटर पॉल एक्का की समाज दृष्टि एक दूसरे से अलहदा है तो समग्र आदिवासी लेखन को एक ही लय में कैसे समेटा जा सकता है? रमणिका गुप्ता द्वारा संपादित संकलन-पुस्तक ‘आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी‘ (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित) में विविध विधाओं में आदिवासी लेखन की वैविध्यपूर्ण बानगी को मानक मान लेने में किसी को एतराज नहीं हो सकता। इसी तरह समकालीन आदिवासी रचनाशीलता के व्यापक रुझानों को प्रस्तुत करने के लिहाज से वंदना टेटे की पत्रिका ‘अखड़ा‘ के दर्जनों अंक धरोहर की तरह याद आते हैं।
वर्तमान समय में आदिवासी साहित्य की प्रवृत्तियों और उपलब्धियों के बारे में कहने योग्य बातें कई हैं। बात यहां से भी शुरू हो सकती है कि आदिवासी साहित्य किसे कहा जाये? क्या आदिवासी समाज जीवन पर केन्द्रित गैरआदिवासी लेखकों के साहित्य को भी इस दायरे में रखा जाये या सिर्फ आदिवासी लेखकों द्वारा लिखा जा रहा साहित्य ही यहां प्रासंगिक है? महाश्वेता या संजीव जैसे अनेक लेखकों को किस शिविर में बिठाया जाये? एक और मुद्दा भी फिलहाल चर्चा में है। जैस,े आदिवासी साहित्य वही है जिसमें आदिवासी जीवन दर्शन है। अभिप्राय यह कि वही आदिवासी लेखन मान्य है जो आदिवासी दर्शन की कसौटी पर खरा उतरे और उसमें विजातीय दृष्टि का हस्तक्षेप नहीं हो। इस मान्यता के अपने पक्ष हो सकते हैं, लेकिन जरूरी सवाल यह भी है कि क्या देशज सृजन का रिमोट अब जीवन दर्शन के नियामक सूत्रों से अनुशासित होगा ? फिर इस ‘दर्शन‘ का दायरा कहां से कहां तक फैला होगा? राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक ? ईसाई, सरना या हिन्दू अवधारणाओं के विवादित परिदृश्य में उसका पहचान योग्य चेहरा कैसा होगा? अभिव्यक्ति की सार्थकता की कसौटी अरस्तू के आचार-विचार के आसपास होगी या मार्क्स, गांधी और बिरसा या फ्रायड-युंग की मान्यताओं के अनुरूप होने की छूट भी मिलेगी? सभी जानते हैं कि इतिहास की प्रयोगशाला में ऐसी कसौटियां कालजीवी नहीं होतीं। अगर इस नजरिए से सिर्फ झारखंड की आदिवासी कविता-कलम को परखा जाये तो रामदयाल मुंडा, ग्रेस कुजूर, रोज केरकेट्टा, मंजु ज्योत्स्ना, निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, जसिन्ता केरकेट्टा, सरिता सिंह बड़ाइक, ज्योति लकड़ा, महादेव टोप्पो, अनुज लुगुन और सावित्री बड़ाइक की रचनाओं की जमीन तलाशने के लिए एक से अधिक कसौटियों की जरूरत होगी।
सच है कि वैचारिकता के इन विवादी सुरों के पीछे चिन्ताओं का लंबा काफिला है। अगर खोजी नजर से देखा जाये तो कई सांस्कृतिक चुनौतियों के बीच से गुजरना एक अनिवार्य विवशता है। सच यह भी है कि सांस्कृतिक संदर्भों में इन प्रतिप्रश्नों की अनदेखी नहीं हो सकती। पिछले सौ-सवा सौ वर्षों से देश के आदिवासी अंचलों में औद्योगिक विकास के जो मॉडल लागू हुए हैं, और आज भी कमोबेश जारी हैं, अगर उनके साथ बड़े बांधों और खनन परियोजनाओं को भी जोड़ दें तो कहना होगा कि उनके चौतरफा असर से इन क्षेत्रों के जनजीवन में उजाड़ का मौसम सदाबहार बन गया है। केद्रीय एजेंसियों की ओर से उपभोग और मुनाफे के लिए देशज संसाधनों का बेहिसाब इस्तेमाल आन्तरिक उपनिवेश जैसा ट्रीटमेंट लगे तो अचरज नहीं।
सनद रहे कि हम संस्कृति को रूपंकर कलाओं यानी परफॉर्मिंग आर्ट का संग्रहालय समझने की गलती नहीं करंे चूंकि वह लोकजीवन का मूल्यमान भी है और नैसर्गिक प्रवाह का गतिमान भी। ध्यान दीजिये कि आज सत्ता संस्कृति सभागारों में है जबकि प्रतिरोध की संस्कृति सड़कों पर। इनदिनों जन संस्कृति को अपसंस्कृति के रास्ते पर मोड़ा जा रहा है और मूल संदेशों को छोड़ा जा रहा है। अब मूल प्रश्न की ओर एक बार फिर लौटें। समग्रता में अगर विस्तृत दृष्टि से देखें तो आदिवासी पृष्ठभूमि के साहित्य लेखन के सौ साल अब पूरे हो चुके हैं। निजी और सामाजिक मनोभावों की तमाम विभिन्नताओं के बीच वह आज भी प्रकृति और मनुष्य के आत्मीय लगाव से जुड़ी है। खिलाफ हवाओं से संघर्ष, आक्रोश और प्रतिरोध उसके मिजाज पर तारी हैं।
6. नयी सदी के पिछले दो दशकों में आदिवासी जीवन और साहित्य में युगान्तरकारी परिवर्तन सामने आये हैं। रामदयाल मुंडा की कविता पुस्तकें ‘नदी और उसके संबंधी और अन्य नगीत‘ और ‘वापसी, पुर्नमिलन और अन्य नगीत‘ की अन्तर्वस्तु से लेकर ट्रीटमेंट तक में जमीन से लेकर आसमान जैसा अन्तर दिखता है। इस दिशान्तर को अगर कोई नाम देना हो तो कहेंगे कि मुंडा जी ने सदाबहार रूमानी रुझान की बिदाई के बाद सामयिक चुनौतियों के दबाव में देशकाल से यथार्थपरक नाता जोड़ा था। बाद के समय में जसिन्ता केरकेट्टा के कविकर्म में परिपार्श्व से अन्तःक्रिया के समान्तर राजनीतिक विवेक का उद्घोष भी सामने आया। विवेक और संवेदना की यह कौंध अनुज लुगुन की रचनाशीलता में मुखर होती दिखी। अगर पीढ़ियों के अन्तराल की ओर मुखातिब होना चाहें तो दिखेगा कि कविता की अन्तर्वस्तु के स्तर पर निर्मला पुतुल से लेकर सरिता सिंह बड़ाइक तक बरास्त ग्रेस कुजूर, वंदना टेटे और महादेव टोप्पो में प्रकृति, परिवेश और परिवार से सहज मानवीय जुड़ाव के साथ बाहरी दखलंदाजी के प्रति आक्रोश और प्रतिरोध की मनःस्थितियां भी बारबार आवाजाही कर रही हैं। इसी तरह, बदलाव की दृष्टि से समग्रता में देखें तो हिन्दी संसार में आदिवासी कलम की धार समय की शिला पर घिसते हुए बहुत नुकीली हो चुकी है। बेशक अबतक कविता की विधा आदिवासी मानस की सर्वाधिक मुखर अभिव्यक्ति बनी हुई है, शेष प्रतिपूर्ति के लिए अनवरत हो रहे विमर्शपरक लेखन की टेक अनिवार्य है। इस निष्कर्ष की प्रासंगिक विवेचना के लिए न सामग्री की कमी है, न उद्धरणों की।
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