रविवार, 17 अप्रैल 2022

श्री “हनुमान बाहुक

 *_श्री गोस्वामी तुलसीदास जी कृत श्री “हनुमान बाहुक” टीका सहित (पद्य १)_*

*_॥छप्पय॥_*

_सिंधु-तरन, सिय-सोच हरन, रवि-बालबरन-तनु।_

_भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको कालजनु॥_

_गहन-दहन-निरदहन-लंक निःसंक, बंक-भुव।_

_जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव॥_

_कह तुलसिदास सेवत सुलभ, सेवक हित सन्तत निकट।_

_गुनगनत, नमत, सुमिरत, जपत, समन, सकल-संकट-बिकट ॥१॥_

*_पद्यार्थ_*

_हे पवनकुमार श्रीहनुमान जी! आप समुद्र को लांघकर श्री सीताजी के शोक का शमन करने वाले हैं, आपका शरीर उदयकाल के सूर्य के समान लाल रंग का है, आपकी भुजाएँ विशाल हैं, रुद्रावेश में आपकी मूर्ति काल के भी काल जैसी भयंकर है, आपने अभेद्य लंका को मात्र भौंहे टेढ़ी करके निःसंकोच भस्म कर डाला तथा समस्त राक्षसों के अभिमान और गर्व का नाश कर दिया। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हे श्री हनुमान जी! आपकी जो सेवा करता है उसे आप सुगमता से प्राप्त हो जाते हैं और उसका हित करने के लिए उसके निकट सर्वदा रहते हैं।आपका स्मरण करने से और सदा आपका नाम जपने से सारे भयानक संकटादि का नाश हो जाता है।_

*_टिप्पणी_*

_यहां उत्तरोत्तर उत्कृष्ट पुरुषार्थो का वर्णन है- समुद्रलंघन की दुष्करता ( ४०० कोश पाट था, बीच में सुरसा छायाग्रहणी सिंहिका और अन्त मे लंकनी द्वारा विघ्न)। श्रीसीताजी को रावण ने ऐसे गुप्त कुंज में रक्खा था कि उनका पता लगाना कठिन था। विभीषणजी की बताई युक्ति से प्रभु वहाँ पहुँचे। *'सिय सोच हरन'* जिस प्रकार किया, यह *भुज-विसाल* से लेकर *'मान-मद-दवन पवनसुव'* तक कहा । यह सबसे दुष्कर कार्य है। -रावण, मेघनाद और अकंपन आदि के रहते उनकी आँखों के सामने सारी लंका को जला डाला । प्रथम *'भुज विशाल'* से अशोक वन उजाड़ा, रक्षको को मारा, अक्ष-कुमार को मारा, इत्यादि । पूँछ में आग लगाई-जाने पर फिर कराल स्वरूप धारणकर, क्रोध में भरकर (भौंह टेढ़ी करके) लंका जलाई।_

_*'मूरति कराल कालहु को काल जनु'* - काल बड़ा कराल है, यथा *काल सदा दुरतिक्रम भारी। तुम्हहि न व्यापत काल, अति कराल कारन कवन ।। ७ । ६४।'* काल के भी काल कहकर काल से अधिक विकराल स्वरूप जनाया। रावण ने स्वयं इनकी निपट निःशंकता और यह करालता स्वीकार की है। *'देखउँ अति असंक सठ तोही।५।२१।२।', कालऊ करालता बड़ाई जीतो बावनो ।क०५६।'*_

_शोचहरण के प्रसंगबसे यहां *'रविबाल वर्ण'* की उपमा दी, क्योंकि प्रातःकाल के सूर्य सुखदायक हैं, यथा *'सुखद भानु भोर को' (पद६)* । श्रीजानकीजी के भय (शोक ) रूप अंधकार को हरण करने में सूर्य के समान कहे भी गए हैं । *'सीतातंक-महान्धकारहरण प्रद्योतनोऽयं हरिः । ह० न० १३ । ३३ ।'* (यह श्रीराम-सुग्रीवादि के वाक्य हैं)।_

_*'सोच हरन'* - वियोग का सोच तो था ही, सबसे बड़ा सोच यह था कि नीच राक्षस के हाथ मरण होगा - *'सीता कर मन सोच । मास दिवस बीते मोहि मारिहि निसिचर पोच ।।*_

_यह शोच दूर किया-- *'जनकसुतहि समुझाइ करि बहु विधि धीरज दीन्ह'*_ 

_वे बराबर उच्च स्वर से घोषणा करते थे- *'जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः । राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः ॥ दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्ट-कर्मणः । हनूमाशत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः ॥ न रावण-सहस्रं मे युद्धे प्रतिवलं भवेत् । शिलाभिश्च प्रहरतः पादपैश्च सहस्रशः।। अर्दीयत्वा पुरीं लङ्कामभिवाद्य च मैथिलीम्। समृद्धार्थो गमिप्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम ॥' (वा०२४२।३३-३६)-* 'अत्यंत बलवान् श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मण जी की जय हो। श्रीरघुनाथ जीके द्वारा सुरक्षित राजा सुग्रीव की जय हो । मैं अनायास ही महान् पराक्रम करनेवाले कोसलेन्द्र श्रीराम का दूत हूँ। मेरा नाम *हनुमान* है । मैं पवनपुत्र तथा शत्रु सेना का संहार करनेवाला हूँ । हजारों वृक्षों और पत्थरों से प्रहार करने पर सहस्रों रावण मिलकर भी मेरा सामना नहीं कर सकते । मैं लंकापुरी को तहस-नहस कर मिथिलेशनन्दिनी को प्रणाम करके सब राक्षसों के देखते-देखते अपना कार्य सिद्ध करके जाऊँगा।' स्वयं रावण के समस्त महलों मे आग लगा-लगाकर वे प्रलयकाल के मेघ के समान गर्जना करते थे।– *'ननाद हनुमान वीरो युगान्तजलदो यथा । वा० ५/५४२०'* घोषणा करके ललकार-ललकार कर उन्होंने सुभटों को मारा, रावण के पुत्र को मार डाला और रावण-मेघनाद-अकंपन आदि के देखते-देखते लंका-पुरी को भस्मसात कर दिया; कोई कुछ न कर सका । यह *'मान-मद'* का मर्दन है। मंदोदरी और प्रहस्त ने रावण-मेघनाद-आदि से यही प्रमाण देकर कहा था- *'कहाँ रहा बल गर्व तुम्हारा'(६॥३५॥४-६)। 'छुधा न रही तुम्हहि तव काहू । जारत नगर कसन धरि खाहू । ६।६।३।' 'तुलसी बढ़ाई बादि साल तें विसाल बाहैं, याही बल बालिसो विरोध रघुनाथ सों। क० ५॥१३॥'* ( यहलंकादाह के समय मंदोदरी ने मेघनाद, महोदर, अतिकाय और अकम्पन से कहा है)_

_*'जातुधान मान-मद दवन* से जनाया कि इस स्वरूप से रावणादि के मान मद को दलन किया था । आगे *'सेवत सुलभ सेवक हित...'* कहकर जनाया कि शत्रुओं के लिये वे भयदायक हैं और अपने भक्तों का हित करने के लिए, इस रूप से सदा उनके निकट रहते हैं।- *'अमित्राणां भयकरो मित्राणामभयंकरः।वा०७३६।२३।'*_


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