गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

यह हिन्दी की हार है या देश की ?*/ डॉ. सदानंद साही

 मेरा डाॅ साही से बाल प्रश्न था, " *सर मैं साइंस वर्ग से हूं और पाता हूं कि कबीर या उन जैसे बड़े कवियों पर विमर्श सिर्फ हिन्दी फैकल्टी तक सिमट कर रह गया है । यह हिन्दी की हार है या देश की ?*


सर का मार्गदर्शन --

 

सदानंद जी : " कानपुर से योगेश जी ने जो पूछा है वह बहुत महत्वपूर्ण है । ....... मैं कहना चाहता हूं कि कबीर सिर्फ हिन्दी अकेडेमिया के नहीं हैं । हां हिंदी अकैडेमिया ने कबीर को अपना बना लिया होता तो हिंदी अकैडेमिया की दुनिया थोड़ी उदात्त होती, थोड़ी विराट होती, थोड़ी व्यापक होती और व्यापक समाज के साथ उसका एक ऐसा नाता बना होता कि यह सवाल उठाने की जरूरत नहीं पड़ती । वैसे हिंदी अकैडेमिया एक अलग कोठरी में रह गई है । उसकी आवाज, उसकी बात व्यापक समाज तक पहुंच ही नहीं रही । 


क्यों नहीं पहुंच रही है ? क्योंकि हिंदी अकैडेमिया ने कबीर हमारे हैं और हम कबीर के हैं , यह तादात्म्य स्थापित ही नहीं किया और बिल्कुल कबीर केवल हिंदुस्तान के नहीं हैं, कबीर सारी दुनिया के हैं । और  दुनिया में जहां जहां भेदबुद्धि है और भेद  के आधार पर होने वाले अन्याय हैं, ऊंच और नीच है, इस तरह की तमाम कोठियां हैं, हर उस व्यक्ति के कबीर हैं । कबीर हर डरे हुए व्यक्ति के काम के हैं, कि उनके डर को दूर करके और उसे वह निर्भयता मिल सके जिस निर्भयता में वह ईश्वर से कह सके - ईश्वर के साथ -  " *हरि मोरे पिउ मैं पीव की बहुरिया, राम बड़े मैं छुटक लहुरिया । " राम बड़े हैं बेशक, लेकिन हम भी उनसे कोई बहुत गए गुजरे नहीं हैं, थोड़े छोटे हैं,और राम के साथ, परमात्म तत्व के साथ बराबरी से बात कर सके, ऐसी निर्भयता देने वाले कबीर सारी दुनिया के हैं ।*


धन्यवाद !


( डाॅ सदानंद साही )

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