पुराने लेखक-नए लेखक
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(पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अजीत कौर की रेखा-चित्रों की किताब ‘तकिये का पीर’ से एक छोटा-सा अंश। इसमें अजीत कौर पंजाबी के प्रसिद्ध प्रकाशक भापा प्रीतम सिंह से बात कर रही हैं जिनके नवयुग पब्लिशर्ज को दर्जनभर से ज्यादा नेशनल अवार्ड मिले)
(पढ़ें और बताएँ कि ऐसी स्थिति क्या हिंदी या अन्य भारतीय भाषा के लेखकों में भी है? –सुभाष नीरव)
“भापा जी, आपका वास्ता तो पिछली आधी सदी से लेखकों के साथ पड़ता आ रहा है। पहले पै्रसों में अक्षर के साथ अक्षर जोड़कर आप उन्हें छापते रहे, अब आप ‘तकिये’ पर बैठे बैठे माथा टिकवाते हो, साथ ही उनकी किताबें छापते हो। लेखकों की एक पूरी की पूरी पुरानी पीढ़ी आपके सामने धीरे-धीरे ख़त्म हुई है। लेखकों की एक बिलकुल नई पीढ़ी आपके हाथों में पलकर जवान हुई है। अब तो उस पीढ़ी के भी बाल सफ़ेद हो गए हैं और अब तीसरी पीढ़ी की नई-नरम पौध को आप सींच रहे हों। लेखकों की इन तीनों पीढ़ियों में कोई बड़ा अंतर आपको नज़र आता है? इसी से हवा का रुख पता चलेगा कि पंजाबी साहित्य किधर को जा रहा है।“
वह कुछ देर चुप बैठे सोचते रहे। समाधि में लीन! मैं जानती थी, उनकी आँखों के आगे उस समय के पंजाबी अदब का पूरा कारवां गुज़र रहा था : सरदार नानक सिंह, चरन सिंह ‘शहीद’, प्रिंसीपल जोध सिंह, धनीराम ‘चात्रिक’, भाई वीर सिंह, सरदार गुरबख़्श सिंह, प्रोफेसर मोहन सिंह, अमृता प्रीतम, करतार सिंह दुग्गल, बलवंत गार्गी, कुलवंत सिंह विर्क, डॉ. हरभजन सिंह, गुलजार सिंह संधू, मोहन सिंह जोश, देवेन्द्र सत्यार्थी, रंधावा साहब, नवतेज, सहिराई जी, तारा सिंह कामल, और अन्य सैकड़ों लेखक जिनके साथ भापा जी का पिछले पचास-पचपन सालों में वास्ता रहा है।
वह कुछ देर ख़ामोश रहे, फिर कहने लगे, “यह बात तो बहुत लंबी हो जाएगी। मुख़्तसर-सी बात सिर्फ़ इतनी कह सकता हूँ कि पुरानी पीढ़ी के लेखक अलमस्त फ़कीरी के आलम में रहते थे। मेहनत करके, रियाज़ करके लिखते थे। लिखे हुए को काटते-छाँटते रहते थे। और सुच्ची-सच्ची मेहनत के बाद जब उनकी कोई किताब छपती थी, वे सिर्फ़ सयाने पाठकों की राय जानने के लिए उत्सुक रहते थे। कभी धनीराम ‘चात्रिक’ ने, या सरदार नानक सिंह ने, या गुरबख़्श सिंह ने किसी आलोचक को अपनी कोई किताब रिव्यू करने के लिए नहीं दी थी। और न ही कहा था। कभी आवश्यकता ही महसूस नहीं होती थी उन्हें। आज का लेखक समीक्षाओं के लिए उतावला पड़ा रहता है। विशेष रूप से टेलीफोन करता है, चिट्ठियाँ लिखता रहता है। दो शब्द कोई तारीफ़ के लिख दे तो सोचता है, एवरेस्ट पर चढ़ गए। दो शब्द किसी ने खिलाफ़ लिख दिए तो इसी बात का रोना रोये जाता है कि फलांने ने कोई व्यक्तिगत दुश्मनी निकाली है उसके साथ और फिर जहाँ भी दाँव लगे, उसकी टाँग तोड़ने के लिए तत्पर रहता है।“
“इसका परिणाम यह हुआ कि आज मोगे से लेकर दिल्ली तक आलोचक ही आलोचक पैदा हो गए हैं। हर लड़का-लड़की जो पंजाबी में एम.ए. कर लेता है, वह समझता है कि मैं तो आलोचक बना ही बना। और हर लड़की-लड़का जो अपने महबूब को पंजाबी में ख़त लिख लेता है, या उसके हुस्न की तारीफ़ में या बेवफ़ाई के दर्द में एक-आधी कविता लिख लेता है, वह अपने आप को वारिस शाह बना समझ लेता है। नतीजा यह है कि मशरूमों की तरह हज़ारों लेखक उठ खड़े हुए हैं। तू हैरान होगी कि ‘पंजाबी केन्द्रीय लेखक सभा’ के आज हज़ार से ऊपर सदस्य हैं, सब के सब लेखक!“
“हज़ार से ऊपर लेखक? पंजाबी के लेखक?“
“हाँ! तू बेशक खुद पता कर लेना।“
“हज़ार यदि पंजाबी के पाठक ही हो जाते...।“
“पाठकों को कौन पूछता है! परवाह किसे है पाठकों की! लेखक को आलोचक चाहिए और आलोचक को उसका पानी भरने वाला लेखक। बस, बन गई बात।“
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