आन हूँ शान हूँ
देश की पहचान हूँ
फिर भी अपने ही घर में
अंग्रेजी से परेशान हूँ
भाषा का संस्कृति से चोली-दामन जैसा साथ है। एक तरह से भाषा ही संस्कृति की संवाहक होती है। मातृभाषा की यह भी परिभाषा दी जाती रही है कि जिस भाषा में कोई व्यक्ति सपने देखे, जिस भाषा में उसकी चिंतन- प्रक्रिया शुरू होती हो, जिस भाषा में उसके विचार जन्मते-पनपते हों, वही उसकी मातृभाषा होती है। शायद इसीलिए मानव की मातृभाषा उसकी संस्कृति की समर्थ संवाहक सिद्ध होती है।
हमारे देश में जहाँ एक तरफ लोक-भाषाएं (बोलियाँ) नदी हैं, तो हिंदी नहर के सामान है। नहर का निर्माण किया जाता है परन्तु नदियों का स्वतः निर्माण होता है। भोजपुरी, अवधी, गढ़वाली, राजस्थानी.... इत्यादि बोलियों में हिंदी के शब्द नहीं आए हैं, बल्कि इन बोलियों से शब्द हिंदी में गए हैं यानी हिंदी का निर्माण हुआ है। बोलियों का निर्माण नहीं हुआ है।
भारत की जो मूल आत्मा है वो लोक-भाषाओँ में बसी है। विभिन्न प्रकार के पेशों के शब्द जैसे लोहारों के शब्द, बढ़इयों के, किसानों के या चरवाहों के शब्द आपको स्थानीय बोलियों में ही मिलेंगे। संस्कृत, अंग्रेजी या दूसरी विदेशी भाषाओं में ये शब्द नहीं मिलेंगे। ऐसे में अगर लोक- बोलियाँ/भाषाएँ मरेंगीं तो हिंदी भी मरेगी। विभिन्न बोलियां- हिंदी शब्द भंडार की अक्षय स्रोत हैं। हिंदी भाषा में शब्द बोलियों से ही आ रहे हैं।
नहर में पानी नदियों से ही आती है। यदि नदियां ही सूख जाएंगी तो नहर भी सुख जायेंगे। इसलिए यदि नहर को बचाना है तो नदियों को बचाना ही होगा। यदि हमें हिंदी को बचाना है तो बोलियों को बचाना होगा। लोक बोलियों के विकसित होने से हिंदी का विकास होगा।
1947 में जब भारत आजाद हुआ तो उसके सामने भाषा को लेकर सबसे बड़ा सवाल था, क्योंकि भारत में सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। भारत की कौन सी राष्ट्रभाषा चुनी जाएगी, यह मुद्दा काफी अहम था। काफी सोच-विचार के बाद हिन्दी और अंग्रेजी को नए राष्ट्र की भाषा चुना गया। संविधान सभा ने देवनागरी लिपी में लिखी हिन्दी को अंग्रजी के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया। 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी।
हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में 14 सितम्बर सन् 1949 को स्वीकार किया गया। इसके बाद संविधान में अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा के सम्बन्ध में व्यवस्था की गई। इसकी स्मृति को ताजा रखने के लिए ही 14 सितम्बर का दिन प्रतिवर्ष 'हिन्दी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। केंद्रीय स्तर पर भारत में दूसरी सह राजभाषा अंग्रेजी है। धारा 343 (1) के अनुसार, भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देवनागरी है।
हिन्दी के साथ विडम्बना यह है कि वह 'राजभाषा' और 'सम्पर्क भाषा' होने के बावजूद आज तक देश की 'राष्ट्रभाषा' नहीं बन सकी। यही नहीं, यह देश के विभिन्न राज्यों के साथ-साथ दुनिया के कई देशों में भी बोली जाती है। भारत के अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिन्दी बोलते-समझते हैं। हिन्दी की बोली भोजपुरी तो मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देशों के लोगों की मातृभाषा- जैसी है। एक आंकड़े के मुताबिक, पूरी दुनिया में हिन्दी बोलने वालों की संख्या लगभग सौ करोड़ है।
आजादी के बाद हिन्दी को 'राष्ट्रभाषा' बनाए जाने के समर्थक महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भी थे। संविधान सभा में चर्चा के दौरान हिन्दी को 'राष्ट्रभाषा' बनाए जाने का विरोध भी हुआ। विरोधी गुट हिन्दी का विरोध करने के साथ अंग्रेजी को 'राज्य' की भाषा बनाए रखने के पक्ष में था। अंततः वर्ष 1949 में हिन्दी को 'राजभाषा' घोषित कर दिया गया।
आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हमारा समाज भाषा, संस्कृति, वेश-भूषा सभी कुछ भूल चुका है हमारे यहाँ बड़े बड़े नेता, आधिकारीगण, व्यापारी हिन्दी के नाम पर लम्बे चौड़े भाषण देते है किन्तु अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ाते हैं उन स्कूलों को बढ़ावा देते हैं। अंग्रेजी में बात करना या बीच बीच में अंग्रेजी शब्द प्रयोग करना अपनी शान समझते हैं। हिन्दी के उपेक्षित होने के अनेक कारण हैं सरकार उन विद्यालयों की सुधी नहीं लेती जहाँ गरीब बच्चे पढ़ते हैं।
हिन्दी भाषा का प्रयोग केवल राष्ट्र के नाम रह गयी। भारत में जितनी भी किताबें हैं हिन्दी भाषा के नाम पर एक चौथाई भी उसके पाठक नहीं दिखते। हिन्दी के बारे में कुतर्कों के ऐसे जाल लगातार फैलाए जाते रहे हैं कि उन्हीं का परिणाम है कि हिन्दी आज तक ऐतिहासिक स्थान नहीं पा सकी।
जब तक हिंदी शिक्षित लोगों की अभिव्यक्ति का ताकतवर जरिया नहीं बन जाती, तब तक सत्ता की भाषा के रूप में वह अंग्रेजी की जगह नहीं ले सकती। -(के. एम. मुंशी - ' नोट ऑन हिंदी') ।
दरअसल, हिन्दी की दुर्गति के लिए इसे लेकर दोहरा आचरण करने वाले ऐसे हिन्दी-प्रेमी ही जिम्मेदार हैं, जो यह समझते हैं कि अंग्रेजी बोलने वाला ज्यादा ज्ञानी और बुद्धिजीवी होता है। चूंकि मातृभाषा में ही मौलिक विचार आते हैं, इसलिए शिक्षा का माध्यम भी मातृभाषा ही होना चाहिए। हिन्दी किसी भाषा से कमजोर नहीं है, जरूरत है तो बस इसके प्रति आत्मविश्वास प्रदर्शित करने की, न कि मजबूरी दिखाने की। अंग्रेजी का बहिष्कार और विरोध न कर हिन्दी का परिष्कार, संस्कार और प्रयोग की सम्प्रति की आवश्यकता है। राष्ट्र भाषा का धरातल बहुत व्यापक और विशाल है।
हिंदी दिवस की शुभकामनाएं
पुनर्प्रेशन २०१९, २०, २१, २२
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