इस संसार में अनेक भाषाएं अस्तित्व में हैं किंतु कुछ भाषाएं ऐसी है जो वैश्विक हैं, प्रेम की भाषा, नफरत की भाषा, भूख की भाषा और ... मौन की भाषा।
मौन भी मुखरित है और मौन को समझना है तो पहले मौन होना सीखना होगा।
मैं मौन हो गई... वर्षों तक मौन ही रही इस इंतजार में कि कभी कोई मेरे मौन को समझ सकेगा। नदियों , निर्झरों के स्वर में, हवा की अठखेलियों, विभावरी के एकांत सन्नाटों में ,मेरा मौन गुंजित होता रहा और उसकी प्रति ध्वनि मेरे पास लौट कर आती रही मुझे सांत्वना देने के लिए।
मैने मौन को पढ़ना सीखते –सीखते अपनी भाषा विस्मृत कर दी। शिलाओं पर मैने मौन से गीत रच डाले... वे शिलाएं अब मोम सी हो गई हैं।
मैने चंद्रमा के सिरहाने बैठकर आकाश गंगाओं की तूलिका से अपनी मौन की कितनी ही कहानियां चित्रित कर दी गगन की श्यामल बदन पर और वे सभी कहानियां जीवंत हो गई हरश्रृंगार के पादपों पर... अरुणोदय की बेला में मौन वृक्षों तलें केसरिया श्वेत प्रसूनों की चादर में।
.... मेरा मौन महक उठा था। नृत्य करने लगा जब भी घन घिरे, मयूरों के साथ। निस्तब्ध वन प्रांगण में मौन विचरित है... प्रतीक्षा समाप्त नहीं हुई अभी भी मेरी।
मौन से बोझिल मेरी आंखों को देख अब धीरे–धीरे वह मेरी श्वासोँ पर उतरने लगा है। पल–पल विस्तारित मौन की वीणा के स्वर अब मुझे चुभने लगे हैं। यह मौन प्रस्तर प्रतिमा में प्रवर्तित कर रहा है मुझे।
मौन समझने कोई नही आता... यह मैं जान गई हूं। अपने –अपने मौन की भाषा मन के अतिरिक्त कोई नहीं जान पाता क्योंकि इस भाषा को हम अपने आधार पर सृजित करते हैं, आंखों में देखने वाला इस भाषा को स्वयं के अनुसार ही परिभाषित कर लेता है परंतु मौन हमेशा क्रोध या संताप नहीं होता । मन स्वयं से साक्षात्कार कराता है...किसी भी आवरण से परे हम अपने मौन के साथ पूर्णतः सत्य स्वरूप में रहते हैं। मौन की भाषा समझाने के लिए कोई दुभाषिया नहीं होता। मौन की वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर केवल मेरा मन ही जानता है और तुम्हारा मौन भी ऐसा ही है ....मन की गहराई में बैठा मौन क्या चाहता है... क्या अभिव्यक्त कर रहा है.... उस तक पहुंच पाना, समझ पाना प्रत्येक बार संभव नहीं। मेरे मौन की भाषा मेरे साथ ही विलीन हो जाएगी।
उसके पहले मैं स्वयं अपने मौन को त्याग वाचाल बन रही हूं क्योंकि मेरा मौन तुम्हें मुझसे कभी परिचित नहीं होने देगा।
मेघा
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