शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

प्रेमचंद : आज का किसान और यथार्थ


आज जबकि देशभक्ति और राष्ट्रवाद की विभाजक रेखा को मिटाने की महीन साजिश हो रही है और तमाम तरह के प्रतिरोध को सोख लेने का नापाक उपक्रम किया जा रहा है। खुशियों की वजहें कम होती जा रही हैं और आशाएँ अवसाद में बदलती जा रही हैं। 

बहुमूल्य के नष्ट होने की बेचैनी है।


गरीबी से ग्रस्त इस देश में खतरनाक रफ्तार से अरबपति पैदा हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर इस देश के अन्नदाता किसान अपनी माँगों के समर्थन में आठ महीने से दिल्ली के विभिन्न बार्डर पर धरने पर बैठे हैं, आन्दोलनरत हैं।

ऐसे समय में डेढ़ दर्जन उपन्यास और लगभग तीन सौ कहानियों के रचनाकार 'प्रेमचंद' को उनके 141वीं जयंती पर याद करते हुए उनके साहित्यिक अवदान के साथ सामाजिक अवदान की चर्चा  आज मौंजू है। 

प्रेमचंद निरूद्देश्य कहानीकार नहीं हैं, वे 'कला कला के लिए' के सिद्धांत के विरोधी हैं। वे कला को उपयोगी मानते हैं। कहानी को सामाजिक परिवर्तन का हथियार मानते हैं। उनकी कहानियाँ अमूर्त विचार को मूर्त करने के लिए उदाहरण के रूप में नहीं लिखी गई है बल्कि जीवन के ज्ञान और अनुभव की जिन्दा जमीन से निर्मित होती है।

भारतीय साहित्य में प्रेमचंद पहले रचनाकार हैं जिन्होंने साहित्य में किसानों को प्रवेश दिलाया। किसान-मजदूरों को कहानी का मुख्य पात्र बनाया। प्रेमचंद गरीब किसानों के लेखक हैं, वे धनी किसानों के समर्थक नहीं हैं। उनका किसान वह है जिनके पास पाँच-छ: बीघा जमीन है, न उतरने वाला ऋण है,न चुकाया जा सकने वाला लगान है, वह धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों से जकड़ा हुआ है, निरक्षर है, देश दुनियाँ की बड़ी-बड़ी बातें नहीं जानता। अस्तित्व - रक्षा की लड़ाई लड़ता रहता है और असंगठित है। ये किसान खेत-मजदूर बनने की प्रक्रिया में है। ऐसा किसान 'गोदान' का 'होरी' है, 'सवा सेर गेहूं' का 'शंकर' है, 'पूस की रात' का 'हल्कू' है।इस किसान के पक्षधर होने के कारण ही प्रेमचंद सामंतवाद के विरोधी हैं और इसीलिए साम्राज्यवाद विरोधी भी हैं।आज प्रेमचंद के विचारों का साहित्य ही हमारे लिए प्रकाश - पुंज है, मार्ग-द्रष्टा है, जिनके बारे में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन (1936) में अध्यक्षीय संबोधन में कहा था-" हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे,सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।

आज भी स्थितियां जस की तस है। हमें अपनी भूमिका तलाशने होंगे।

हम संकल्पित हैं ,सच्चाई के लिए उठते नारों की बँधी मुट्ठियों में हमारी मुट्ठी भी लहराती रहेगी।


अन्त में 'रणेन्द्र' की इन पंँक्तियों के साथ-


"कैसे समझाएँ साहब,ये खतियान में दर्ज

जमीन के टुकड़े भर नहीं हैं, हमारे खेत

हमारी भूख का विस्तार है,

हमारे होने का सबूत।

यहाँ की हवा में

हमारे पूर्वजों की साँसे घुली हैं

उनकी देह का ताप शेष है

इस पीली धूप में अब भी।"


महान साहित्यकार प्रेमचंद को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।


              नूतन देव आनन्द

             प्रगतिशील लेखक संघ, पूर्णियाँ

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