विजय प्रकाश
किस तरह चुप रहूँ घुटता जा रहा दम;
मुक्ति का नवगीत गाने दो मुझे, भाई!
एक संक्रामक बीमारी फैलती उद्यान में,
टूटता सम्बन्ध, साथी! सुमन और सुगंध का,
वीथियों में एक अकथनीय भय परिव्याप्त है,
मान कैसे रह सकेगा अनलिखे अनुबंध का?
निरा बेचारा बने हैं प्रेम के पथ के पथिक,
मदद उनकी करूँ जाने दो मुझे, भाई!
हर गली में, हर डगर, हर शहर-क़स्बा-गाँव में
अनुगूंजित बिना शब्दों का भयानक शोर है,
क्या हुआ है इस जगह कोई बता पाता नहीं,
किन्तु बेचैनी निरंकुश एक चारोंओर है;
बुझे दीपक-से मलिन इन चेहरों के दर्द का
युक्ति से कुछ थाह पाने दो मुझे, भाई!
फिर खिलें कचनार-से कंचन सरीखे दिन,
सुभग संध्या हो सुहानी स्वप्न-सी सुन्दर,
फिर तितिलियाँ छींट की साड़ी पहन निकलें,
प्रेम का सन्देश बाँचें फिर मधुर मधुकर;
आदमी औ' आदमी के बीच की दूरी घटे,
इस तरह से पास आने दो उन्हें, भाई!
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