सप्रेम नमस्ते! प्रस्तुत है आत्म-कथ्य-परक एक गीत :
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रहा विसंगतियों से लड़ता, जीता या हारा
नहीं बहायी किन्तु दीन हो, आंसू की धारा.
तख़्त-ताज को झुका न किंचित
हर पल कष्ट सहा
पकड़ किसी की पूंछ धार के
संग-संग नहीं बहा
रह-रह घिरता रहा राह में यद्यपि अंधियारा.
किसी प्रलोभनवश कोई
समझौता नहीं किया
जैसे भी जी सका
शर्त पर अपनी सिर्फ जिया
यह भी नहीं कि मुझको कोई स्वप्न न था प्यारा.
किसी हाथ ने कभी न
जलता मस्तक सहलाया
एकाकीपन में गीतों को
सुबक-सुबक गाया
जीवन में अंधियार घिरा था, मन में उजियारा .
नहीं किसी ने आकर मन से
मन का हाथ गहा
सदा सहज अभिलाषाओं का
यद्यपि साथ रहा
सबके हित सर्वस्व लुटाकर रहा सर्वहारा.
हर ठोकर ने फिर से उठकर
चलना सिखलाया
किसी किरण को लेकिन
मन का घाव न दिखलाया
बीहड़ पथ पर बढ़ा अकेला, बनकर बंजारा.
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