गुलज़ार साहब ने फिल्मों के समानांतर साहित्य में भी खूब काम किया है। विविध विधाओं में किया है। उन्होंने कहानियां, कविताएं, संस्मरण, नाटक तो लिखे ही हैं, प्रचुर संख्या में बाल साहित्य भी लिखा है। गौरतलब यह भी कि उनका काम सबसे अलग है। उनकी दृष्टि नायाब है। उनका अपना अंदाज है। उनकी सृजनात्मकता चकित करती है। यही वजह है कि फिल्मों से इतर साहित्य में भी उनके चाहने वालों की संख्या अपरिमित है। वह हिंदी और उर्दू में समान रूप से पढ़े जाते हैं। दुनियाभर की भाषाओं में उनके लिखे का अनुवाद हुआ है। इस बार का 'आमची मुंबई' गुलजार साहब की एक कविता के बहाने :
गुलजार की एक 'पाजी नज्म'
0 हरि मृदुल
गुलजार साहब की एक नज्म है - 'चलो अच्छा हुआ आखिर गई बारिश'। इस नज्म की विशेषता यह है कि इसमें मुंबई की जाती हुई बारिश के दिलचस्प दृश्य हैं। मुंबई की धारासार बरसातों पर लगभग हर भारतीय भाषा में कई उल्लेखनीय कविताएं, कहानियां और संस्मरण दर्ज हैं, लेकिन जाती हुई बरसात पर शायद ही कोई रचना हो। यही तो गुलजार की खासियत है कि वह वहां जाते हैं, जहां अमूमन दूसरा कोई गया ही न हो।
उपरोक्त नज्म बड़ी ही दिलचस्प है। इसमें बारिश के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की गई है कि जिन झीलों के एकत्रित जल से पूरे साल अक्खी मुंबई अपनी प्यास बुझाती है, वे अब भर चुकी हैं। हर साल ही मुंबई को इस बात की टेंशन रहती है कि बस ये झीलें किसी तरह भर जाएं। तो जाते-जाते यह टेंशन बारिश अपने साथ ले गई है। बारिश ने इस बड़े काम के अलावा भी कुछ छोटे-छोटे और भी मानीखेज काम किए हैं- जैसे कि वह धूल से सने पेड़ की टहनियों और पत्तों को अच्छी तरह धोकर गई है। यही वजह है कि गली के पेड़ों का हरा रंग और भी चटकीला हो चुका है। पेड़ बड़े प्रसन्न हैं और मस्ती से डोल रहे हैं। इतना ही नहीं, सड़क का जो कचरा शिकायत करने पर भी नहीं उठता था, बारिश ने उसे बहाकर पता नहीं कहां पहुंचा दिया है। हां, चार महीने की अनवरत बारिश में सड़कें जरूर ऐसी लग रही हैं कि जैसे सीवन उधेड़ दी गई हो। वे जगह-जगह उखड़ गई हैं, लेकिन कोई हर्ज नहीं। ये नई बन जाएंगी, क्योंकि जल्द ही असेंबली इलेक्शन जो आने वाले हैं! बारिश के दौरान मच्छर खून पनपे हैं, शायद अब उनसे भी छुटकारा मिल जाए। गड्ढों में भरा पानी सूखना शुरू हो चुका है। देखिए कि मुंबई में सभी जन टॉवर में तो रहते नहीं, सो चॉल और झोपड़ों में रहनेवाले खुश हैं कि अब न उनकी छत टपकेगी और न ही रातभर बर्तन बजेंगे। रिपेयरिंग का काम भी अब अगली बरसात के पहले ही कराएंगे, सो एक मोटा खर्चा टल गया। इस बरसात में छतरी भी बड़ी बेहाल थी। उसमें छत्तीस छेद हो चुके थे, लेकिन नको टेंशन! अब नई छतरी खरीदने की जरूरत अगले साल ही तो पड़ेगी। अच्छा हुआ कि बारिश चली गई!!
गुलजार ने 'चलो अच्छा हुआ आखिर गई बारिश' नज्म में इतने अनूठे दृश्यों का सृजन किया है कि आप बरबस मुस्करा पड़ते हैं और आपके भीतर भी बारिश के प्रति कृतज्ञता का भाव आ जाता है। यह कृतज्ञता कुदरत के प्रति है। कुदरत की जीवनदायी गतिविधियों के प्रति है। लेकिन पता नहीं क्यों, गुलजार साहब ने अपनी ऐसी कितनी ही नायाब रचनाओं को 'पाजी नज्में' कहा है। कहा क्या है, उनकी इस तेवर की रचनाओं का एक संकलन ही है- 'पाजी नज्में'। मुंबई के कई और भी नायाब दृश्य इस संकलन की ‘पाजी नज्मों’ में आप बखूबी देख सकते हैं।
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