बुधवार, 28 सितंबर 2022

एक कवि के भीतर झांकने का अवसर / आलोक यात्री

 


(पिछले दिनों कवि उद्भ्रांत जी की आत्मकथा 'जो मैंने जिया...' का दूसरा खंड पढ़ने का सौभाग्य हासिल हुआ। यह पुस्तक समीक्षार्थ मुझे मिली थी। पुस्तक की समीक्षा दैनिक ट्रिब्यून के चंडीगढ़ संस्करण में रविवार 18 सितंबर को प्रकाशित भी हो गई। (जो संलग्न है)। मेरे लिखे को कुछ जायज ठहरा रहे हैं, कुछ ओछी टिप्पणी पर उतर आए हैं। आप साथियों से उम्मीद करता हूं आप सार्थक प्रतिक्रिया दे कर अनुगृहित करें)


उद्भ्रांत को जानना इतना आसान नहीं है जितना वह अपनी किताब 'जो मैंने जिया...' में कहते हैं। व्यक्ति और कवि के रूप में वह दो अलग अलग शख्सियत के तौर पर नजर आते हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से यह आंकलन कर पाना मुश्किल है कि बतौर कवि वह बड़े हैं या शख्सियत के तौर पर उनका बड़ा मुकाम है।

  'मैंने जो जिया...' उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड है। जो उनकी रहगुजर का बयान अधिक प्रतीत होता है। इस पुस्तक में उनका बयान यह साबित करने में सफल है कि उद्भ्रांत उन कुछ गिने चुने लोगों में से हैं जो सच को सच के तौर पर कहने का साहस रखते हैं। इस बात का यकीन जरूर हुआ कि हर समय हर कालखंड में एक उद्भ्रांत आवश्यक है। जो सच को जिंदा रखने, परोसने का साहस अपने भीतर रख सके। 

हम सब प्रेमचंद को पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। हमारे प्रतिमान निसंदेह उद्भ्रांत से मेल नहीं खाते। लेकिन उनके द्वारा कई तरह का सच जब आम आदमी की जिंदगी के फ्रेम की तस्वीर में ज्यों का त्यों सामने खड़ा मिलता है तो हमें सोचना पड़ता है कि यह कौन शख्स है जो बजिद हमें आईना दिखा रहा है।

'जो मैंने जिया...' का दूसरा खंड पढ़ते हुए मैं यह कह सकता हूं कि उद्भ्रांत को लेकर कई तरह की अफवाहें उड़ी होंगी। लेकिन बतौर एक लेखक, एक कवि आप उन्हें खारिज नहीं कर सकते। 'मैंने जो जिया...' उद्भ्रांत की आत्ममुग्धता का ही जयघोष है, लेकिन यह किताब यह सोचने पर भी मजबूर करती है कि दूसरा उद्भ्रांत हमारे पास है कहां? होता तो सच कहने का कोई और सरोकार उसके पास होता क्या? मुझे लगता है कि एक कवि जो चंद पंक्तियों में अपनी बात कह सकता है, वह खंडकाव्य रूपी रचना हमारे समक्ष प्रस्तुत क्यों करता? मैं तो यहीं कहुंगा कि किसी बहाने उद्भ्रांत के भीतर झांकने का अवसर मिल जाए तो चूकिएगा नहीं। 'मैंने जो जिया...' निसंदेह एक श्रमसाध्य प्रयास है।

रमाकांत शर्मा 'उद्भ्रांत' हिंदी के उन चंद साहित्यकारों में शामिल हैं जिन्होंने गीत, कविता, नवगीत, ग़ज़ल, कहानी के अलावा समीक्षा, अनुवाद से लेकर बाल साहित्य के क्षेत्र में भरपूर कार्य किया है। यूं तो उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा नव गीतकार के रूप में शुरू की थी। लेकिन हाल ही में आए उनके आत्मकथात्मक ग्रंथ 'मैंने जो जिया-2' ने साहित्य के क्षेत्र में काफी हलचल मचा रखी है। आत्मकथा को लेकर यह मान्यता है कि वह सच का बयान भी है, लेकिन सच कहने की एक मर्यादा है। अपनी आत्मकथा में वह कहीं-कहीं बहुत अधिक मोहग्रस्त और आत्ममुग्धता से भरे दिखाई देते हैं। कई नामचीन हस्तियों का ज़िक्र वह बहुत हल्के तौर पर करते हैं।

पुस्तक में अपना चरित्र चित्रण वह कई जगह करते हैं। एक जगह वह कहते हैं 'उद्भ्रांत का व्यक्तित्व तमाम तरह की उचित-अनुचित भावदशाओं का प्रतिबिंब था। वह रोमैंटिक था, प्रेमी था। रुढ़ियों के विद्रोह, नवीनता के प्रति आकर्षण। अराजकता की सीमा तक दुस्साहसी...। कहा जा सकता है कि  उद्भ्रांत ने सत्य को अनावृत ही रखा है। लेकिन यह पुस्तक स्वयं के जयघोष के तौर पर अपनी पहचान बनाएगी। इसे उत्कृष्ट आत्मकथा के तौर पर पहचान बनाने में लंबा समय लग सकता है



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