(5 सितंबर, शिक्षक दिवस)
सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन की 134 वीं जयंती पर विशेष
विजय केसरी
भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक, एक आस्थावान हिंदू विचारक, देश के प्रथम उपराष्ट्रपति, द्वितीय राष्ट्रपति और 'भारत रत्न' से अलंकृत सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन का जीवन सदा लोगों को अपनी ओर प्रेरित करते रहेगा। उनका संपूर्ण जीवन स्वाध्याय, शिक्षा दान और भारतीय राजनीति को समर्पित रहा। उन्होंने भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उनका जन्म गुलामी के कालखंड में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा क्रिश्चियन स्कूल और कॉलेज में हुई थी। इन क्रिश्चियन शिक्षण संस्थानों में पढ़कर वे यह समझा पाए कि किस तरह क्रिश्चियन धर्म गुरु हिंदू जनों से निम्न स्तर का व्यवहार करते थे। हिंदुओं के साथ क्रिश्चियन शिक्षकों का बदला हुआ व्यवहार उन्हें कभी पसंद नहीं आया। इसलिए उन्होंने भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का बहुत ही गहराई से अध्ययन किया। अध्ययन के बाद उन्हें यह ज्ञात हो गया कि क्रिश्चियनों का हिंदुओं के प्रति जो भेदभाव है, बिल्कुल पूरी तरह गलत है। उनका प्रारंभ से ही हिंदू धर्म पर गहरी आस्था थी। उन्हें गर्व था कि हिंदू धर्म दर्शन संपूर्ण विश्व को सत्य, अहिंसा और मानवता का शिक्षा प्रदान करता है। उन्हें गर्व था कि मेरा जन्म एक हिंदू कुल में हुआ । उनका जीवन स्वाध्याय,शिक्षा दान और राजनीति को समर्पित रहा था। राजनीति में उनकी कभी रुचि नहीं रही कि मैं राजनीति में जाऊं। लेकिन जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नजर सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन पर पड़ी और उन्होंने जब राधाकृष्णन जी का भाषण सुना तो अचंभित रह गए। भारतीय वांग्मय और भारतीय दर्शन पर इतना जबरदस्त कमांड और धाराप्रवाह बोलते हुए आज तक नेहरू जी ने किसी को नहीं सुना था । तभी से नेहरू जी उनके मुरीद हो गए थे। नेहरू जी ने राधाकृष्णन की विलक्षण प्रतिभा को देखकर मन में यह इरादा कर लिया था कि देश की आजादी के बाद उन्हें कहां स्थान दिया जाए। डॉ० राधाकृष्णन जी को इस बात का पता ही नहीं चला था कि नेहरू जी से उनकी यह मुलाकात उन्हें देश की राजनीति के सबसे ऊंचे ओहदे पर विराजमान कराएगा। भारतीय राजनीति में उनकी ओर से प्रवेश की कोई जानकारी नहीं मिलती है। 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हो रहा था। तब सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन ने आजादी का प्रथम भाषण प्रस्तुत किया था। उन्होंने अपना भाषण निश्चित समय पर बारह बजे रात्रि को समाप्त किया था। उसके बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भाषण दिया था। यह बात भी सिर्फ दोनों को ही पता था। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक गैर राजनीतिक व्यक्ति थे। दर्शनशास्त्र के महान विद्वान थे। भारतीय राजनीति का भी उन्हें बहुत ही अच्छा। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राधाकृष्णन जी की अंदर की विलक्षण प्रतिभा को पहचान कर ही उन्हें देश के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन किया था । राधाकृष्णन जी जब मंच से अपनी बातों को रखा करते, तो लोग बिल्कुल शांत होकर उनकी बातों को सुनते थे। उनके हर एक वाक्य में जीवन का गुढ़ दर्शन छुपा रहता था। वे कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात को कह गुजरते थे। उनकी बातों को काटने की हैसियत बड़े से बड़े विद्वानों तक को ना थी । जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संविधान सभा की निर्मात्री सभा का उन्हें सदस्य बनाया। जबकि सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति थे। कांग्रेस जनों में इस बात की चर्चा हुई थी कि उन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य क्यों बनाया गया ? इस सभा में वे क्या योगदान दे पाएंगे ?नेहरु जी चुप रहे। भरतीय संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य के रूप में उन्होंने दो वर्षों तक जो कार्य किया, निर्मात्री सभा के सभी सदस्य देखकर हतप्रभ रह गए। कांग्रेसियों ने नेहरू जी के चयन को लोहा माना था। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को देश के प्रथम राष्ट्रपति बनाए जाने के बाद उपराष्ट्रपति के रूप में सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन को इसकी जवाबदेही दी गई थी। इस पर भी कई कांग्रेसियों ने अंदर ही अंदर कई सवालों खड़ा किया था। उपराष्ट्रपति उन्होंने जो कार्य किया। प्रश्न उठाने वालों का मुंह बंद हो गया था। उप राष्ट्रपति के रूप में वे 1952 से 1962 तक रहे। उसके बाद उन्हें देश का द्वितीय राष्ट्रपति बनाया गया। इस पद पर वे 1962 से 1967 तक रहे। 1954 में उन्हें भारत सरकार ने दर्शनशास्त्र पर उनकी उल्लेखनीय सेवा के लिए 'भारत रत्न' सम्मान से अलंकृत किया था ।
सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन का जन्म एक गरीब हिंदू ब्राह्मण परिवार में जरूर हुआ था। लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई में गरीबी को आने नहीं दिया। वे बचपन से ही ट्यूशन पढ़ाकर अपनी शिक्षा खर्च का भार उठाते रहे थे। जबकि उनके पिता भी उन्हें काफी सहयोग करते थे। एक शिक्षक का क्या दायित्व होना चाहिए? एक शिक्षक का अपने छात्रों के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए ?सबों को शिक्षित करने वाला यह शिक्षक समुदाय इतना गरीब और असहाय क्यों है? यह बात उन्हें बहुत कचोटती थी। जिस कालखंड में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। उस समय शिक्षकों की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। उस समय वे चाह कर भी कुछ कर नहीं सकते थे। क्योंकि वे स्वयं उतने सामर्थ्यवान नहीं थे। जब वे राष्ट्रपति बने तो अपने जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में घोषित कर दिया था।
आगे चलकर जब उन्होंने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व पटल पर भारतीय दर्शन शास्त्र की पोटली खोली तो संपूर्ण विश्व भारतीय दर्शन को जानकर दंग रह गया। विश्व धर्म सभा शिकागो में जब पहली बार स्वामी विवेकानंद ने जीरो पर बोलना प्रारंभ किया और भारतीय जीवन दर्शन, नैतिक मूल्य, हिंदू धर्म की बात रखी तो धर्म सभा में बैठे तमाम विद्वानों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। ठीक उसी प्रकार अपने लेखों के माध्यम से पहचान बनाने वाले सर्वपल्ली डॉ ० राधाकृष्णन ने ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में अपने भाषण में कहा था कि 'मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। यह तभी संभव है, जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शांति स्थापना का हो।' इतने वर्ष पूर्व कही गई उनकी बात आज भी प्रासंगिक है। राधाकृष्णन जी का मत था कि संपूर्ण विश्व एक है। सबों को एक प्रकार की शिक्षा मिलनी चाहिए। मनुष्य न छोटा है, ना बड़ा है। मनुष्य को एक ही समान जन्म लेना है और एक ही समान मृत्यु को प्राप्त करना है। फिर मनुष्य छोटा और बड़ा कैसे हो सकता है? मनुष्य का जन्म इस धरा पर मुक्ति के लिए होता है। जिंदगी उसके लिए एक अवसर होता है। मनुष्य अच्छे कर्म कर मुक्ति को प्राप्त करता है। अथवा बुरे कर्म कर इस अवसर को खो देता है। उनका मत था कि सच्चा ज्ञान वही है, जो आपके अंदर के अज्ञान को समाप्त करता हो। उनका मत था कि सादगी पूर्ण संतोष युक्त जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है । आज भी उनके विचारों पर चलकर हम सब अपने जीवन को सफल बना सकते हैं । उन्होंने जितने भी लेख लिखें अथवा भाषण दिए। सब में कहीं ना कहीं भारतीय दर्शन का पुट मिलता है।
विजय केसरी,
कथाकार स्तंभकार,
पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301,
मोबाइल नंबर - 92347 99550,
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