बुधवार, 14 सितंबर 2022

न बहुरे लोक के दिन’/ अनामिका सिंह

 कृति चर्चा में आज आदरणीय विनय भदौरिया जी की दृष्टि से गुजरते हुये नवगीत कृति ' न बहुरे लोक के दिन ' 


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   ‘न बहुरे लोक के दिन’ युवा कवयित्री अनामिका सिंह का प्रकाशित प्रथम नवगीत संग्रह है वैसे नवगीत जगत के लिए यह नाम अपरिचित नहीं है। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, आभासी दुनिया के फेसबुक व व्हाट्सएप समूह में प्रकाशित उनके नवगीत हम सब पढ़ते रहे हैं तथा प्रशंसा भी करते रहे हैं। उनके सशक्त नवगीतों ने अल्प समय में ही उन्हें प्रतिष्ठित नवगीत कवियों की सूची में सूची बद्ध कर दिया है। अद्यतन नवगीत बहुत मात्रा में लिखे जा रहे हैं तथा नवगीत संग्रह भी प्रचुर मात्रा में प्राकशित हो रहे हैं किन्तु स्वतंत्र समीक्षकों का नितांत अभाव है। स्वतंत्र समीक्षक न होने के कारण नई कविता के कवियों की तरह नवगीतकार भी एक दूसरे की समीक्षा लिखने के लिए बाध्य हैं। हिंदी गीत साहित्य में समीक्षा जगत के समक्ष यह यक्ष प्रश्न है।

    आज समीक्षा के सिद्धांत भी बदल चुके हैं। इस संदर्भ में नए-पुराने गीत अंक 5 के सम्पादकीय में उल्लिखित दिनेश सिंह का यह कहना प्रासंगिक प्रतीत होता है कि “गीत की समीक्षा में द्वंद्वबद्धता की शर्त से अधिक समीक्ष्य कृति की किसी शास्त्रीयता से टकराने का सवाल ही नहीं उठाता बल्कि निसृत सामाजिकता तथा उससे सांस्कृतिक सन्दर्भों का ही विश्लेषण अंतर्वस्तु की बिना पर किया जाए कि जिससे मनोलय के साथ रचनात्मकता का मंतव्य पूरी तौर पर साफ़ हो सके। गीत रचना की प्रासंगिकता कारगर ढंग से उसकी समीक्षा के इसी सिद्धांत पर सिद्ध की जा सकेगी। सामाजिकता चूँकि समय से निबद्ध रहती है इसलिए किसी भी शास्त्रीयता से अधिक सामाजिक चेतना का विश्लेषण ही समीक्षा पद्धति से आज के गीत में हो सकता है।


     उपर्युक्त कथन के सापेक्ष यदि समीक्ष्य कृति के गीतों को जांचा परखा जाए तो इन गीतों में लोक की समस्याओं की ही अभिव्यक्ति टटके बिम्बों, ताज़े कथ्यों नई लयों के साथ सहज भाषा में हुई है जिसके कारण सम्प्रेषणीयता निर्बाध रूप से विद्यमान है। संग्रह के शीर्षक से तो नैराश्य बोध का ही भान होता है किन्तु अन्तःसामग्री में आक्रोश और खीझ निकालने के साथ व्यवस्था से जूझने का हौसला भी है। शीर्षक का शुभारम्भ ही ‘न’ अक्षर से है। लोक शब्द का अर्थ वैसे तो बहुत व्यापक है लेकिन यहाँ “दिन बहुरने” के सम्बन्ध में प्रयुक्त हुआ है इसलिए सीधे तौर पर समाज के लिए या यह कहा जाय कि शोषित और दलित समाज के लिए तो अधिक उपयुक्त  होगा। यूँ भी देखा जाए तो वर्तमान में नवगीत का प्रमुख स्वर व्यवस्था के प्रति आक्रोश जो विभिन्न रूपों में यथा गरीबी, महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, राज नेताओं का चारित्रिक पतन आदि हैं साथ ही वैश्विक स्तर पर आए हुए पारिवारिक और सामजिक ढाँचे में बदलाव का है। और हो भी क्यों न? क्योंकि आजादी के 75 वर्ष व्यतीत होने के बाद भी पचास प्रतिशत दलित और शोषित वर्ग की कमोवेश स्थिति जस की तस है। जिसकी बानगी संग्रह के पहले और दूसरे नवगीत में ही मिल जाति है जिसमें सर्वहारा वर्ग को रूपायित किया गया है :-


शाम सबेरे

शगुन मनाती

अम्मा की सुधि आयी।


बड़े सिदौसे उठी बुहारे

कचरा कोने कोने

पलक झपकते भर देती थी

नित्य भूख को दोने।


जिसने बचे

खुचे से अक्सर

अपणी भूख मिटाई

xxxxxxxxxxxxxxx

रिक्त उदर में

जले अंगीठी

आंत करे उत्पात

हर कातर स्वर

करे अनसुना

विकट पूष की रात।


    नवगीत अपने उद्गम काल से नवता बनाये रखने की ओर निरंतर गतिशील रहा है। जागरूक कवियों द्वारा कथ्य, शिल्प, भाषा, बिम्ब और मुहावरों के माध्यम से नूतनता लाने का प्रयास होता रहा है। लोकोन्मुख्ता सदैव से स्वभाव में रही है। जब-जब गीत लोक से असंपृक्त हुआ है वह अग्राह्य रहा है। यह भी स्थापित सत्य है कि जब भी गीत में बासीपन महसूस किया गया है तो ताजगी लोक तत्व के माध्यम से ही आई है। छायावादी या हालावादी गीतों का आम आदमी से कोई सरोकार नहीं रहा। वायवीय कल्पना का छायावादी व लिजलिजी भावुकता और माँसलता का आरोप लगाकर तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा गीत को खारिज करने का प्रयास किया गया था तब सजग कवियों द्वारा गीत को जन मानस के निकट लाने का उपक्रम लोक तत्वों के माध्यम से किया गया था। उन गीतों को पहले नए गीत तथा बाद में नवगीत की संज्ञा से विभूषित किया गया जो आज केन्द्रीय भूमिका में हैं।  गीत में पहले-पहल जो बदलाव आया वह देशज शब्दों व लोक गीतों की धुनों के प्रयोग से था जिसकी प्रासंगिकता आज भी है  जिसकी महसूसियत अनामिका के गीतों में भरपूर है। यहाँ कहना आवश्यक समझता हूँ कि अनामिका के नवगीतों में देशज शब्दों का प्रयोग बड़े करीने से हुआ है जबरदस्ती ठूँसे हुए नहीं प्रतीत होते इसलिए अर्थ भावन में कहीं कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता।


    उदाहरणार्थ पृष्ठ 118 पर कलमकारों कको अल्पने दायित्व का बोध कराते हुए नवगीत में सत्यम-शिवम् सुन्दरम तीओं तत्वों की उपस्थिति श्लाघनीय है :-


कवि कुल की

मर्यादा रखना

क़लम कर अनुरोध सुनो।

उन गीतों

को प्रश्रय देना

जो जन मंगल गायें।

उनसे निश्चित

दूरी रखना

जो बस धोक लगाये।


पँक्ति-पँक्ति की

अन्तर्लय में

रखना सच का बोध सुनो।


    प्रस्तुत नवगीत में देशज शब्द ‘धोक’ (जानवरों से खेतों की सुरक्षा के लिए आदमी का पुतला) का प्रयोग अपनी सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ प्रयुक्त हुआ है जो सौन्दर्य को भी द्विगुणित कर रहा  और भावन में भी सहायक है।

    इस संग्रह के परायण से यही निष्कर्ष निकलता है कि अनामिका का सृजन बहु आयामी है। कहीं गरीबी और भुखमरी से जूझने की व्यथा-कथा है तो कहीं व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, लोक मंगल की कामना है, दायित्वों के प्रति जागरूकता के भाव के साथ ही प्रेम और आध्यात्मिक विषयक नव्गेत भी हैं जो सीमित दायरे में कैद रहने वाले तथा कथित नवगीतकारों की सोच के विल्परीत भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए कुछ गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत है। सब से पहले वह गीत जिसकी चुनौती पूर्ण सशक्त पँक्ति गीत और संग्रह दोनों का शीर्षक है। यह छोटा सा गीत बहुत बड़ा कैनवास समेटे है जिसमें प्रजातंत्र के चारों खम्भों को कटघरे में खड़ाकर दिया गया है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष व्यतीत होने के बाद भी भरोसा v आश्वासन के मध्य पेंडुलम की तरह आम आदमी झूल रहा है।


मूँद कर आँखें 

भरोसा था किया 

 न बहुरे लोक के दिन।


“खेत चल कर आ गए चक रोड पर”

“रेंगती मुंसिफ के जू 

न कान पर”

“हर क़लम का जो असल दायित्व है”


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“इसी प्रकार रोटी का भूगोल *

“गंगी खडी उदास” आदि गीतों में गरीबों,शोषितों की पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। उत्तर आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य सभ्यता की आंधी ने हमारी सर्वोपरि संस्कृति को लहूलुहान कर दिया है ; अर्थ की धुरी पर समस्त सम्बन्ध नृत्य कर रहे हैं। पारिवारिक, सामाजिक रिश्तों में स्वार्थ की वजह से टिकाऊ पन नहीं है चौगिर्द बिखराव ही बिखराव दृष्टिगत है। व्यक्ति,व्यक्ति के बीच की दूरी बढ़ गयी है। जिन माँ बाप को हम देवता समझते रहे जो कल तक पूजनीय थे आज वही वर्जनीय हो गये। घर के किसी कोने में या वृद्धाश्रम में एकाकी जीने के लिए मजबूर हैं। उन्नति के जिस शिखर पर हम हैं वही मानवता की अवनति का रसातल है। इसे अनामिका जी ने बड़ी मार्मिकता के साथ व्यंजित किया है :-


क्या खोया क्या पाया हमने

होकर अधुनातन।

उन्नति के हित नित्य चढ़े हम

अवनति की सीढ़ी

संवादी स्वर मूक हुए हैं

पीढ़ी दर पीढ़ी।

रिश्तों में अनवरत बढ़ा है

धातक विस्थापन।


    संग्रह में कुछ गीत प्रेम परक यथा 

“तरी-तरी मन घाट”

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*नयन बांचते पत्र वासंती*


    तथा कुछ गीत आध्यात्मिक और जीवन दर्शन की सफलतम अभिव्यक्ति हैं जिनमें 


अनसुलझी 

जीवन की पटरी 

कौन पा सका थाह। प्रमुख हैं।


    अंत में संग्रह के गीतों के सन्दर्भ यह कहना चाहूँगा कि नवगीत के लिए जिन पुर्जों की जरूरत होती है ये गीत उन सबसे लैस हैं और हर पुर्जा अपनी अपनी जगह खूब टाईट हैं। अंग्रेजी, फ़ारसी व देशज शब्दों का इस्तेमाल कर भाषा के मामले में तो ये गीत अति प्रयोग शील हैं। पूरा विश्वास है कि ये नवगीत गीत प्रेमियों के हृदय में स्थान बनाने में समर्थ हैं तथा यह संग्रह हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि के रूप में पहचान बनायेगा ।


विनय भदौरिया 

साकेत नगर, लाल गंज, राय बरेली 

9450060729

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