संपादकीय - वागर्थ सितंबर-2022
हिंदी एक गंवारू बोली है, यह अग्रवाल, कायस्थ, खत्री जातियों की भाषा थी, यह एक सांप्रदायिक निर्मिति है- 19 वीं सदी से यूरोपीय विद्वान इस तरह की बातें कहते आए हैं। आमतौर पर यूरोपीय विद्वता ही, जिसका एक हिस्सा औपनिवेशिक मिजाज का है, हिंदी क्षेत्र के कई बुद्धिजीवियों का वैचारिक पोषण करती रही है। इन सबने कभी नहीं खोजा कि अंग्रेजी भाषा में कैसे ईसाइयत और सभ्यता को पर्याय बताया गया या दूसरी भाषाओं में किस प्रकार सांप्रदायिक तत्व हैं। उन्हें हिंदी सांप्रदायिक लगी, जबकि फोर्ट विलियम कॉलेज में गिलक्राइस्ट ने सर्वप्रथम नागरी लिपि में हिंदी ग्रंथ तैयार कराए थे। हिंदी के बारे में बेसिर-पैर की सनसनीखेज बातें इधर पुनरुत्थानवादियों और एलीट सेकुलरवादियों दोनों की तरफ से हो रही हैं, जो इनकी बौद्धिक थकान का लक्षण है।
अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी बौद्धिक उपनिवेशन के शिकार हैं
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अंग्रेजों ने 1857 की घटना के बाद सामाजिक सुधार में हाथ डालना बंद कर दिया था। वे अब धार्मिक कूपमंडूकता और भेदभाव को अपने मुख्य सांस्कृतिक हथियार बनाने में लग गए थे। कूपमंडूकता जितनी ज्यादा होगी, भिन्नता बनाना उतना आसान होगा।
19वीं सदी में उर्दू और हिंदी दो भिन्न सेकुलर भाषाओं के रूप में विकास कर रही थीं। ये स्पष्ट रूप से दो गौरवशाली भाषाएं हैं, भले इनमें एक संबंध हो। उपनिवेशकों ने इनके सह-अस्तित्व को मान्यता न देकर भाषा के आधार पर सांप्रदायिक विभाजन किया। इसकी शुरुआत विलियम याटेस के व्याकरण ‘इंट्रोडक्शन टु हिंदुस्तानी लैंग्वेज’ (1827) से हो चुकी थी, ‘हिंदुस्तानी मुस्लिम लोगों की भाषा है, जबकि हिंदी हिंदुओं की भाषा है।’ यही बात फ्रेंच विद्वान गार्सा-द-तासी (1794-1878) ने कही, ‘हिंदी में हिंदू धर्म का आभास है- वह हिंदू धर्म, जिसके मूल में बुतपरस्ती और इसके आनुषंगिक विधान हैं।... मैं सैयद अहमद खां जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान की तारीफ में और ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता। उर्दू भाषा और मुसलमानों से मेरा जो लगाव है, वह कोई छिपी बात नहीं है।... इस वक्त हिंदी की हैसियत एक बोली की-सी रह गई है जो हर गांव में अलग-अलग बोली जाती है।’ सैयद अहमद खां सुधारवादी होते हुए भी भाषा के मुद्दे पर सांप्रदायिक थे। वे हिंदी को ‘गंवारू बोली’ कहते थे। हिंदी से संबंधित यह औपनिवेशिक सोच आज भी कई अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी ढो रहे हैं। उनकी दृष्टि से हिंदी एक हीन, कृत्रिम और सांप्रदायिक भाषा है।
क्या हिंदी क्षेत्र में हिंदी राष्ट्रवाद जैसी कोई चीज कभी थी या आज है, जिस तरह बांग्ला और तमिल राष्ट्रवाद 19वीं सदी से अस्तित्व में है? देश की कौन-सी भाषा अंध-राष्ट्रवादी और सांप्रदायिक तत्वों से सर्वथा मुक्त रही है? कुछ अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों और उनके पिछलग्गुओं ने हिंदी राष्ट्रवाद की कल्पना करके नागरी लिपि में हिंदी और हिंदी साहित्य को एक अन-ऐतिहासिक और सांप्रदायिक घटना के तौर पर देखना शुरू कर दिया। वे कुछ नया नहीं कहते, बल्कि वे गार्सा-द-तासी और इनके पश्चिमी वंशज क्रिस्टोफर किंग, सैंड्रिया फ्रीटैग आदि अनुसंधानकर्ताओं की ही जेरॉक्स कॉपी हैं। उनपर उस सबाल्टर्नवाद का भी असर है जो हिंदी के संघर्ष से आंखें मूंदकर ‘राष्ट्र’ की तरह खड़ी बोली हिंदी को भी खलनायक के रूप में देखने की दृष्टि देता है। आखिरकार प्रेमचंद उर्दू के साथ हिंदी में क्यों लिखने लगे?
कहा जा सकता है कि हिंदी को ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ कहनेवाले प्रेमचंद के पोते आलोक राय और ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ कहने वाले भारतेंदुयुगीन प्रताप नारायण मिश्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। फर्क सिर्फ यह है कि एक का मुंह पश्चिम की तरफ है, जबकि दूसरे का अतीत की तरफ था।
भारतेंदु (1850-1885) ने खड़ी बोली हिंदी को शहर में रहने वालों की मातृभाषा और आधुनिक साहित्य की भाषा बनते देखा था, ‘घर की बोलचाल की भाषा हिंदी है, यह तो हम नहीं कह सकते, पर हां यह कह सकते हैं कि इसी पश्चिमोत्तर देश में कई नगर ऐसे हैं जहां यही खड़ी बोली मातृभाषा है।’ उन्होंने नई चाल में ढली हिंदी को उसी प्रकार विकसित किया, जिस तरह 19वीं सदी में बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, मलयालम आदि भाषाएं भी नई राष्ट्रीय चाल में ढल रही थीं। भारतेंदु के चित्त की समावेशिकता देखिए, ‘मैं संस्कृत, हिंदी और उर्दू कवि हूँ।’ उन्होंने हंटर कमीशन की गवाही (1882) में बेधड़क अपना यह परिचय दिया था। यह हिंदी उदारवाद है या सांप्रदायिकता? हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों में सबसे पहले सुधीरचंद्र, फिर वसुधा डालमिया ने भारतेंदु को सांप्रदायिक कहना शुरू किया जो एक ट्रेंड बन गया। इसे समाज विज्ञान का बौद्धिक उपनिवेशन कहा जाएगा।
हिंदी उदारवाद के कुछ उदाहरण
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हिंदी उदारवाद का एक लक्षण धार्मिक होते हुए भी धार्मिक पाखंडों की बुद्धिपरक आलोचना है। भारतेंदु मंडल के एक प्रमुख लेखक राधाचरण गोस्वामी (1859-1925) को संस्कृत की शिक्षा मिली थी। उन्होंने अपने प्रहसनों ‘तन मन धन श्री गोसाईं जी को अर्पण’ तथा ‘बूढ़े मुँह मुहासे’ में मथुरा-वृंदावन के धार्मिक पाखंडों पर निर्मम प्रहार किया। वे विधवा पुनर्विवाह के समर्थक थे। उन्होंने हिंदी क्षेत्र के रूढ़िवादी सामाजिक बंधनों के साथ-साथ साम्राज्यवाद पर भी प्रहार किया, ‘न विलायत जाने की रोक उठी। न जाति-पांति का झगड़ा मिटा। न हमारे जीते जी प्रेस एक्ट उठा। न लाइसेंस-टैक्स का मुंह काला हुआ।’ अपनी एक फैंटेसी ‘यमलोक की यात्रा’ में यह पूछने पर कि ‘गोदान किया है’, वे लिखते हैं,‘यदि गौ की पूंछ पकड़ कर पार उतर जाते हैं तो क्या बैल से नहीं उतर सकते। जब बैल से उतर सकते हैं तो कुत्ते ने क्या चोरी की?’ फिर राधाचरण टिप्पणी करते हैं, ‘यहां अंधेर नगरी और हिंदुस्तानी घिसघिस है, विवेक-विचार कुछ नहीं।’ वे हिंदू-मुसलमान के बारे में कहते हैं, ‘ऐसा न हो कि दोनों ट्रेनें लड़ जाएं या दोनों कुएं में गिरें।’ (‘भारतेंदु’ पत्र)। वे हिंदू धर्म में कूपमंडूकता की जगह विवेक-विचार लाना चाहते थे। उन्होंने हंटर कमीशन के पास हिंदी के प्रश्न पर अपना जो मेमोरंडम भेजा, उसपर उन्होंने 25 हजार लोगों के हस्ताक्षर करवाए थे। उस जमाने में यह साधारण संख्या नहीं है।
एक उदाहरण श्रद्धाराम फिल्लौरी (1837-1881) का है। उन्होंने हिंदुओं की प्रसिद्ध प्रार्थना ‘ओम जय जगदीश हरे’ की रचना की थी। उन्होंने सिख धर्म पर भी लिखा, बाइबिल के कुछ हिस्सों का अनुवाद किया, हिंदी के एक आरंभिक उपन्यास ‘भाग्यवती’ की रचना की और अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह किया, जिसके फलस्वरूप वे अपने जनपद से निष्कासित कर दिए गए।
बालकृष्ण भट्ट (1844-1914) संस्कृत के विद्वान थे, पर उन्होंने पत्र निकाला ‘हिंदी प्रदीप’। वे आर्य समाज के प्रशंसक थे, लेकिन बौद्धिक स्वतंत्रता के पक्ष में कहते थे, ‘स्वामी दयानंद की जो जो बातें अच्छी हैं, उनका अनुमोदन हम डंके की चोट पर करते हैं। आत्महनन करके गुलामी की बेड़ी पहिनें तो सभी आर्य सिद्धांत स्वीकार करें।’ आज के शिक्षित जन सतत बौद्धिक आत्महनन करते हैं। हिंदी जब विकासशील अवस्था में थी, बौद्धिक स्वतंत्रता एक प्रधान गुण था।
भारत के लोगों द्वारा अंग्रेजों के अंधानुकरण पर बालकृष्ण भट्ट ने व्यंग्य किया, ‘गुलामी से छूटना चाहो तो उनकी नकल करने की कोशिश करो... चुरुट मुँह में दाब घूमा करो...।’ उन्होंने खुद ब्राह्मण होते हुए पंडितों को ‘भोंदू दास’ कहा और टिप्पणी की, उनमें ‘अटल विश्वास जमा है कि सब हमारे वेद और संस्कृत में है’। उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए इलाहाबाद में गौरी पाठशाला खोली थी। उन लोगों का हिंदी नवजागरण सिर्फ हिंदी भाषा की उन्नति तक सीमित न था।
उसी दौर में ‘देवरानी जिठानी की कहानी’ लिखनेवाले पंडित गौरीदत्त जैसे व्यक्ति भी थे जो नागरी के प्रचार के लिए मेले-ठेले, जहां भी सभा हो वहां बेहिचक पहुंच जाते थे। वे विधवा पुनर्विवाह के समर्थक थे। उन्होंने अपनी कमाई से अर्जित 35 हजार रुपये की राशि, जो उस जमाने में एक बड़ी राशि थी, नागरी और हिंदी के प्रचार के लिए खर्च कर डाली थी। आज का बुद्धिजीवी साहित्यिक-सांस्कृतिक काम के लिए अपने पास से फूटी कौड़ी न निकाले, उल्टे उसे बहुत कुछ चाहिए!
संस्कृत की जगह जब पालि-प्राकृत-अपभ्रंश भाषाएं आ रही थीं, तब सिर्फ भाषा नहीं बदल रही थी, एक नया मानसिक जगत भी बन रहा था। इसी तरह जब स्थानीय बोलियों की जगह खड़ी बोली हिंदी में साहित्य लिखा जाना शुरू हुआ और पत्र-पत्रिकाएं निकलीं तो खड़ी बोली हिंदी भी एक नया मानसिक जगत लेकर आई। उसमें संकीर्णताओं से ऊपर उठा हुआ राष्ट्रीय जागरण का स्वर था।
वह संक्रमण का दौर था। इसलिए आधुनिकता, स्वातंत्र्यबोध तथा नए जन-सरोकारों की ओर बढ़ते हुए अतीत की कुछ रूढ़ियाँ भी साथ थीं। इनकी वजह से उन युगों के साहित्यकारों पर या हिंदी पर अंध-राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और जातिवाद का आरोप लगाना एलीट आत्म-जयजयकारात्मक मिजाज का लक्षण है। 19वीं सदी से ज्यादा तो 21वीं सदी का दौर रूढ़िवादी है!
हिंदी संस्कृति भी बांग्ला संस्कृति, तमिल संस्कृति की तरह महत्वपूर्ण है
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हिंदी क्षेत्र वर्तमान में 10 राज्यों में फैला है और अति विस्तृत है। लक्षित किया जा सकता है कि भारत के तटीय राज्यों जैसे बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र आदि में स्थानीय राष्ट्रीयता का बोध तेजी से पनपा। उदाहरण के रूप में जब बंग भंग(1905) हुआ था, धर्म-जाति की चौहद्दियों को लांघते हुए बांग्ला जातीय बोध उग्र रूप में उभरा था। ईसाई धर्म प्रचारक राबर्ट काडवेल ने तमिल भाषा को खड़ा करके तमिल राष्ट्रवाद जाग्रत करने में एक बड़ी भूमिका निभाई। उत्तर भारत में उस समय ग्रियर्सन हिंदी को पश्चिमी और पूर्वी बोलियों में विभाजित करके टुकड़े-टुकड़े कर रहे थे। 1857 के बाद विभिन्न किस्म के विभाजनपरक नैरेटिव की वजह से हिंदी प्रांत में खंड-चेतनाएं लगातार मजबूत हुईं। हिंदी भाषियों के बीच हिंदी-भाव पैदा नहीं हो सका, भले भारतेंदु से लेकर रामविलास शर्मा तक की गुहार लगती रही।
हिंदी क्षेत्र में उद्योगों की कमी, व्यापार में अरुचि, गरीबी, शिक्षा के अभाव, बड़े पैमाने पर मौजूद सामंती मिजाज, अंग्रेजों की ‘फूट डालो’ नीति और तेज दमन की वजहों से हिंदी संस्कृति की धारणा पनप नहीं सकी, जबकि तमिल संस्कृति, मराठी संस्कृति, बांग्ला संस्कृति आदि की बात खुलकर की गई। हिंदी संस्कृति के निर्माण में भारतीय परंपराओं की सैकड़ों साल की जीवंत चीजें शामिल हैं।
हिंदी संस्कृति जितनी भी उभर पाई, उसमें हिंदी राष्ट्रवाद का अहंकार नहीं रहा है। उसमें भारतीयता और आलोचनात्मक समावेशिकता की प्रवृत्ति प्रबल रही है। हिंदी संस्कृति में धार्मिक पाखंड और पश्चिम के अंधानुकरण दोनों के लिए जगह नहीं है। उसमें स्त्रियों के प्रति उदारवाद पनप रहा था। प्रेमचंद और प्रसाद-निराला के समय तक आते-आते दलितों के अधिकार भी समझे जाने लगे थे। ऊपर के उदाहरणों से समझा जा सकता है कि उस जमाने में मानवतावाद और बौद्धिक स्वतंत्रता की तीव्र भूख थी। आज भी हिंदी संस्कृति में आत्मकेंद्रिकता नहीं है, अन्यथा इसमें इतनी भाषाओं के अनुवाद नहीं होते। अनुवाद करने की प्रवृत्ति और अनुवाद पढ़ना बड़े चित्त का लक्षण है।
हिंदी संस्कृति में दीमक
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निश्चय ही 19वीं सदी में राजा लक्ष्मण सिंह (1826-1896) और प्रताप नारायण मिश्र (1856-1894) जैसे व्यक्ति भी थे। लक्ष्मण सिंह 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देने के कारण डिप्टी कलक्टर बन गए थे। वे रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य थे और धार्मिक कट्टरवादी थे। उपनिवेशवाद और धार्मिक कट्टरवाद का गहरा संबंध है। प्रताप नारायण मिश्र को अंग्रेजी राज ‘न्यायशील बृटिश सिंह का राज्य’ लगता था। वे विधवा पुनर्विवाह के घोर विरोधी और बाल विवाह के समर्थक थे। वे ‘भारतेंदु मंडल’ में बुद्धिपरक धारणाओं के सबसे बड़े विरोधी थे और रूढ़िपोषक संरक्षणवादी थे। उस जमाने में ‘हिंदू प्रकाश’ जैसे धार्मिक पत्र और ‘कायस्थ समाचार’, ‘खत्री हितकारी’, ‘भूमिहार ब्राह्मण’ जैसे जातिवादी पत्र भी निकल रहे थे। जाहिर है, 1871 के पहले जन सर्वेक्षण के बाद अंग्रेजों की विभाजन की नीति सफल होती जा रही थी। ऐसी चीजें विकासशील हिंदी संस्कृति के सामने बड़ी चुनौतियां थीं।
हिंदी लोगों को पुराने सामान, पुरानी जगह और पुरानी धारणाओं से अपेक्षाकृत अधिक चिपके देखा जा सकता है। वे टूटी-पुरानी चीजें जल्दी नहीं फेंकते, कोने-अंतरे में जमा करके रखते हैं। कई बुद्धिजीवी अपनी पुरानी शब्दावलियों की चौहद्दी से निकलना नहीं चाहते। हिंदी लोग नवोन्मेषों की तरफ कम आकर्षित होते हैं, वैसे मात्रा-फर्क से यह भारतीय मामला है।
भारतेंदु ने अपने जमाने के हिंदी क्षेत्र के लोगों का बड़ा निराशाजनक चित्र खींचा है। उन्होंने यथार्थ बताया है, ‘छोट चित्त अति भीरु बुद्धि मन चंचल विगत उछाह’। हिंदी भाषी लोगों का चित्त बहुत छोटा होता है। वे बहुत डरते हैं, दृढ़ता की कमी है और उत्साह का जैसे लोप हो गया है। उन्होंने ब्राह्मण पुरोहितों की आलोचना की है, ‘पुराणों में चालाकी से अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कई वाक्य घुसा दिए। शैव-शाक्त-वैष्णव कई मत चलाए। कई जातियां बनाईं, नीच-ऊँच का भेद किया। खान-पान का संबंध तोड़ दिया (गद्य रूप)।’ कुछ और देखें, ‘टके-टके पर धर्म छोड़कर मनमानी व्यवस्था दी, दक्षिणा मात्र दे दीजिए... केवल दंभार्थ इनका तिलक, मुद्रा और ठगने का अर्थ इनकी पूजा।’ आम लोगों के आलस्य के बारे में लिखा, ‘दुनिया में हाथ-पैर हिलाना नहीं अच्छा/मर जाना पै उठ के कहीं जाना नहीं अच्छा/मिल जाए हिंद खाक में हम काहिलों का क्या/ऐ मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा।’ ये सब उस भारतेंदु की पंक्तियां हैं, जिन्हें बिना ठीक से पढ़े ‘हिंदू परंपराओं के राष्ट्रीयकरण’ का उद्योक्ता ठहराया गया।
भारतीय राष्ट्रीयता की परियोजना अधूरी रह गई
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किसी भी देश के लोगों का सामाजिक चरित्र इसपर निर्भर करता है कि उसका अपने देश-दुनिया से कैसा संबंध है, अपनी भाषा से कैसा संबंध है और वे ‘सत्ता’ को किस नजरिये से देखते हैं। एक समय अंग्रेजी राज से संवाद और टकराहट के भीतर से यह संबंध निर्धारित हो रहा था। देश में समाज सुधार और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलनों के फलस्वरूप लोगों का ‘हम’ बड़ा हो रहा था। कई प्रांतों के लोग पुरानी रूढ़ियों से कमोवेश मुक्त होकर ‘अन्य’ के प्रति उदार दृष्टि की ओर बढ़ रहे थे। दूसरों के धर्म के प्रति सहिष्णुता, दूसरी भाषाओं के प्रति आदर, स्त्री उत्पीड़न के प्रति क्रोध, दूसरी जातियों के अधिकारों के लिए आवाज और त्याग की भावना- एक समय भारत ने यह सब देखा था। वह अपनी परंपराओं से रचनात्मक संबंध रखते हुए अंधेरे से बाहर निकल रहा था। वह पश्चिमी ज्ञान के प्रति आलोचनात्मक खुलापन लेकर एक विश्व दृष्टि की ओर बढ़ रहा था। कट्टरवाद के खुराफात चल रहे थे, पर यह आंधी में पतंग उड़ाने के समान था।
भारतेंदु की कृति ‘भारत दुर्दशा’ (1875) और कलकत्ता से प्रकाशित हिंदी पत्र ‘भारतमित्र’ (1878) से लेकर मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ (1923) तक हिंदी क्षेत्र में भारत की जो लगातार चिंता है, वह अपने कुछ अंतर्विरोधों के बावजूद 1857 के बाद के व्यापक राष्ट्रीय जागरण का एक प्रमुख तत्व है।
अंग्रेजों ने 1947 में इस देश के लोगों को एक लूटा हुआ विध्वस्त भारत ही नहीं सौंपा, चौड़ी की गई सामाजिक खाइयां भी उपहार में दीं। ये धर्म, जाति और क्षेत्रीयता की खाइयां थीं। ये सबसे ज्यादा हिंदी प्रदेश में थीं, क्योंकि यहां के शहरों में सुधार की जो सीमित चेतना थी, वह सामयिक राष्ट्रीय आवेग से ज्यादा न थी। हिंदी प्रांतों में सुधारवाद को जबरदस्त औद्योगिक, व्यापारिक और शैक्षिक गतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। यहां सामंती मिजाज प्रबल था, औपनिवेशिक साजिश धारदार दी। मद्रास, कलकत्ता और बंबई में आधुनिक विकास को बल मिला, पर हिंदी प्रांतों में दमन ही अंग्रेजों का प्रमुख हथियार था। यह 1857 के बाद बढ़ गया था। इसलिए बांग्ला राष्ट्रीयता, तमिल राष्ट्रीयता, मराठी राष्ट्रीयता की तरह हिंदी राष्ट्रीयता गठित नहीं हो पाई। फिर भी हिंदी प्रांतों में धर्म-जाति की दीवारों के बावजूद भारत-भावना काफी थी।
देखा जा सकता है कि आजादी के बाद, सत्ता की विडंबनापूर्ण होड़ की वजह से ‘नीचे से भारतीय राष्ट्रीयता’ के निर्माण का दायित्व ग्रहण नहीं किया गया। उल्लेखनीय है कि वामपंथियों ने कई अवसरों पर ऐतिहासिक संघर्ष में हिस्सा लेते हुए भी भारतीय राष्ट्रीयता के विकास की चिंता नहीं की, वे राष्ट्रीयता की सीढ़ी पर चढ़े बिना अपने को अंतरराष्ट्रीयतावादी बताते थे। सत्ताधारियों का कला-साहित्य से इतना ही संबंध बचा था कि कुछ चुने व्यक्तियों को विदेश भेजते रहे। हर तरफ से लोकतंत्र का दुरुपयोग हुआ, उसमें भ्रष्टाचार की दीमक लग गई। उसमें ‘हम-वे’ भी था, निजी पसंद-नापसंद भी थी। लफ्फाजी-भरे कथनों के बीच सर्वहारा, गरीब, मुसलमान, दलित, स्त्री और आदिवासी वस्तुतः राजनीतिक सिक्के की तरह चलाए गए। ये सीढ़ी बना दिए गए। कई लोग शहीद हुए। ये सभी कितनी मेहनत से त्याग के साथ काम करते थे, पर किसी समुदाय का उत्पीड़न कम नहीं हुआ, दुख कम नहीं हुआ। यह एक त्रासद घटना है कि सिर्फ नेताओं का घर भरा, समाज नहीं बदला।
भारतीय राष्ट्रीयता की परियोजना अंततः अधूरी रह गई। सांप्रदायिकता का महाविमर्श बिखरे हुए विमर्शों पर भारी पड़ गया। उदार भारतीय राष्ट्रीयता पहले ही खोखली की जा चुकी थी। ‘राष्ट्र’ खलनायक बना दिया गया था। इसलिए राष्ट्रवाद के धार्मिक रूप को कोने से केंद्र में आने में कोई मुश्किल नहीं हुई। वह एक शक्ति बन गया। उसे सबसे अधिक शक्ति हिंदी प्रदेशों से मिली, क्योंकि उनमें हिंदी संस्कृति का विकास नहीं हुआ था।
यदि हिंदी है तो हिंदी संस्कृति भी है
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हिंदी को लेकर जिन अंग्रेजीदां हिंदी बुद्धिजीवियों को ग्लानि है, वे उस दौर की दूसरी भारतीय भाषाओं को नहीं देखते कि उनमें कितना अंध-राष्ट्रवाद है या अंगेजी को नहीं देखते कि उसमें कितना ‘ओरियंटलिज्म’ भरा है। हिंदी के प्रति तरह-. से विरक्ति पैदा की जाती है यह भारतीयता और मानवता से प्रेम को जानने का एक महत्वपूर्ण दरवाजा बंद कर लेना है।
‘शेखर एक जीवनी’ (अज्ञेय, 1943) में शेखर के पिता कहते हैं, ‘हिंदी की हैसियत ही क्या है?’ शेखर स्वाभिमान के साथ कहता है, ‘हिंदी जनभाषा है। करोड़ों व्यक्तियों के प्राण इसमें बोले हैं... और हमारी जाति की परंपरा इसमें बोलती है- हमारा सारा अतीत इससे बंधा है।’ पिता कहते हैं, ‘होगा। पर जिससे आदमी का भविष्य न बने, उस अतीत को लेकर क्या करें, चाटें?’ शेखर जवाब देता है, ‘मुझे तो भविष्य दिखता ही हिंदी में है- अगर हिंदी हमसे छूट गई तो भविष्य हुआ न हुआ बराबर है।’ आज निश्चय ही अंग्रेजी का रमरमा ज्यादा है। पर हिंदी भाषी लोग यदि हिंदी को खो देंगे तो वे अंततः त्रिशंकु की दशा में होंगे।
हिंदी में रूढ़ियां हैं तो रूढ़ियों से विद्रोह भी है। कलह है तो संवाद और सामंजस्य की कोशिशें भी हैं। भिन्नता है तो अभिन्नता का बोध भी है। हिंदी वस्तुतः जीवन-सौंदर्य, असहमति और आजादी की भाषा है। इसमें दुनिया भर के नवोन्मेषों के प्रति एक आलोचनात्मक खुलापन रहा है। यह विभाजन की नहीं, सबको जोड़ने वाली भाषा के रूप में जन्मी है। यह अंग्रेजीदां एलीटों की नहीं, वंचितों की आवाज है। हिंदी में बनते हुए भारत की छवियां हैं। यदि हिंदी है तो धर्म, जाति और क्षेत्रीयता से ऊपर उठी हिंदी संस्कृति भी है। यदि बांग्ला संस्कृति है, तमिल संस्कृति है, मराठी संस्कृति है, पंजाबी संस्कृति है तो हिंदी संस्कृति क्यों नहीं है?
हिंदी अपनी सैकड़ों साल की साहित्यिक सांस्कृतिक परंपराओं के साथ एक सामूहिक निर्मिति है। उर्दू, मैथिली, राजस्थानी, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, हरियाणवी आदि हिंदी की 48 मांएं हैं। सबने मिलकर हिंदी की रचना की है। अब कोई अलग से भी अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति, संस्कृति, ग्रामीण बोली या भाषा रखना चाहे तो जरूर रखे। सब अपनी-अपनी स्थानीय कलाओं को विकसित करें। लेकिन अब बोलियों में स्कूल-कॉलेज नहीं खुल सकते। इनमें विधानसभा, बाजार, दुकानें, समाचार पत्र, ई-मीडिया नहीं चल सकते। इसलिए हिंदी क्षेत्र की सभी बोलियां-उपभाषाएं-भाषाएं मिलकर हिंदी को ज्ञान की भाषा के रूप में विकसित कर सकें तो यही एक बड़ी घटना होगी। अंग्रेजी-वर्चस्व के सामने दूसरा कोई रास्ता नहीं है। निश्चय ही हिंदी को अपनी लोक सांस्कृतिक जड़ों को बचाना होगा। पर देखा गया है, नवोन्मेषों के बिना परंपराओं को बचाना असंभव होता है।
कैसा नवोन्मेष? जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही भाषा के प्रति दृष्टिकोण को निर्धारित करता है। यदि जीवन के प्रति दृष्टि में छिछलापन और छलावा है तो कोई भाषा हो हिंदी, अंग्रेजी या लोकभाषा, वह दृष्टि भाषा को भी छिछली और छलावापूर्ण बनाएगी, जितनी भी उन्नत टेक्नोलॉजी हो!
हिंदी अपने ही घर में खो गई है
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यह यथार्थ है कि खड़ी बोली हिंदी आज भी हिंदी क्षेत्र के सभी हिस्सों से जुड़ नहीं पाई है। ऊपर से, वह अपने ही घर में खो गई है। आज भी हिंदी संस्कृति जनजीवन का अंग नहीं बन सकी, क्योंकि जातिवाद, जिलावाद, धर्मांधता और अंधविश्वास हावी हैं। वह विध्वंस से गुजर रही है। हिंदी समाज पर बंबई का मनोरंजन-उद्योग और कट्टरवादियों का राजनीति-उद्योग छाया हुआ है। पहले की तरह स्त्रियों को घरेलू वस्तु समझा जाता है और दलितों को निम्न। 19वीं सदी में हिंदी नवजागरण, बाद में गांधी के प्रयत्न, श्रमजीवी संगठनों के आंदोलन और स्त्री, दलित, आदिवासी समुदायों के बीच से उठे विमर्शों ने हिंदी जीवन में कुछ हलचलें पैदा कीं। लेकिन अब बहुत कुछ ‘बाहर से आधुनिकता-भीतर कूपमंडूकता’ की जुगलबंदी में खोता जा रहा है।
आज लगता नहीं कि यहां कभी कबीर ने हिंदू-मुसलमान दोनों को फटकारा था। लोग कभी राधा-कृष्ण के प्रेम में गाते थे। मीरा की तरह नाचते थे। तुलसी ने अपने पूरे साहित्य में कहीं ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग किए बिना ‘भलि भारत भूमि’ कहा था। सूफियों का प्रेम गूंजा था, ‘मानुष प्रेम भये बैकुंठी’! अब पता नहीं चलता कि इसी बनारस में कबीर की ही तरह भारतेंदु ने धार्मिक पाखंडों की खिल्ली उड़ाई थी। लिखा था, ‘हिंदू चूरन इसका नाम’, विलायत पूरन इसका काम’। आज कोई अवशेष नहीं दिखता कि प्रेमचंद का सूरदास यहीं की मिट्टी से जन्मा था। सब एकजुट होकर लड़ते थे, गाते-बजाते थे, अंतर्कलह के बावजूद। अब विश्वास नहीं होता, प्रसाद ने ‘कामायनी’ और निराला ने ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ कविताएं यहीं लिखी थीं? अज्ञेय, नागार्जुन और मुक्तिबोध हिंदी के लेखक थे, इसका हिंदी जनजीवन में क्या प्रमाण है? यदि कोई जाति अपनी साहित्यिक आंखें फोड़ ले तो उसे उल्लू की तरह अंधेरा ही सूर्योदय लगेगा। वह रोशनी पसंद नहीं करेगी।
हिंदी साम्राज्यवाद का आरोप अंग्रेजी साम्राज्यवाद को ढकना है
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